साम्यवाद, सामाजिक न्याय और संस्कृति
न्याय एक वर्ग संख्या हैᅳपाइथागोरस
मार्क्स ने मुख्यतः पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की विसंगतियों का विश्लेषण किया है. उसमें एक सिरे पर अनियोजित मशीनीकरण का शिकार श्रमिक वर्ग है, दूसरे पर पूंजीपति उत्पादक. उन दिनों चीन, रूस, ब्राजील आदि देशों की अर्थव्यवस्था की भांति भारतीय अर्थव्यवस्था भी कृषि–केंद्रित थी. इन सभी देशों ने वर्ग–संघर्ष के सिद्धांत का प्रयोग स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार किया. जहां आवश्यक लगा, वहां संशोधन भी किया. भारत में ऐसा नहीं हो सका. जबकि मार्क्स तथा उसके वर्ग–संघर्ष की सूचना यहां बहुत पहले पहुंच चुकी थी. बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में युवा क्रांतिकारी आजाद भारत के लिए वर्ग–संघर्ष की अनिवार्यता को समझते थे. सोवियत संघ की ओर से उन्हें भरपूर मदद भी मिल रही थी. स्वामी विवेकानंद, डॉ. हरदयाल, रासबिहारी बोस, करतार सिंह सराबा, सोहन सिंह भखना आदि पर साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव था. भगत सिंह तो लेनिन को अपना आदर्श मानते ही थे. आधुनिक भारत के निर्माताओं में प्रमुखतम स्थान रखने वाले डॉ. आंबेडकर की आरंभिक चेतना भी समाजवादी थी. दक्षिण में रामास्वामी पेरियार ने अपनी राजनीति साम्यवादी संगठनों के सक्रिय सदस्य के रूप में आरंभ की थी. उन दिनों सैकड़ों उत्साही युवा वर्गक्रांति का सपना देखते थे. उनमें से कुछ ने साम्यवाद को समझने के लिए सोवियत–संघ की यात्रा तक थी. उसकी तरफ से साम्यवादी–क्रांति की कोशिश में जुटे युवाओं को आर्थिक मदद भी प्राप्त होती थी. देश में साम्यवाद के नाम पर राजनीतिक दल भी बने, लेकिन वे सभी प्रयास केवल राजनीतिक सत्ता हथियाने तक सीमित थे. परिणामस्वरूप हमारे यहां वर्ग–संघर्ष की वैसी स्थिति कभी नहीं बन सकीं, जिस तरह बाकी देशों में, जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है. जिन प्रांतों में वर्षों तक साम्यवादी दलों की सरकारें रहीं, वहां भी न तो धर्म को राजनीति से पूरी तरह अलग किया गया, न जाति को किसी प्रकार की चुनौती पेश की गई. न ही वर्गहीन समाज की स्थापना के विशेष प्रयास किए गए. परिणामतः जाति–धर्म के चक्रब्यूह में बुरी तरह फंसा भारतीय ‘सर्वहारा’, वर्ग–चेतना से दूर बना रहा. वह वर्चस्वकारी संस्कृति से इतना अनुकूलित रहा कि उससे बाहर निकलने के विचार–मात्र से उसे अपने अस्तित्व पर संकट नजर आने लगता था.
जाति–व्यवस्था के शिखर पर ब्राह्मण और उसके आजू–बाजू क्षत्रिय और वैश्य रहे हैं. चौथे यानी अंतिम पायदान पर शूद्र. उनकी स्थिति उन मजदूरों से भी कहीं अधिक दयनीय थी, जिन्हें मार्क्स ने अपने विशद ग्रंथ पूंजी में ‘सर्वहारा’ से संबोधित किया था. ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने श्रमिकों–मजदूरों और मेहनतकश जिंदगी जीने वाले छोटे–किसानों, शिल्पकर्मियों को छोटे–छोटे जाति–समूहों में बांट दिया है. शूद्र को उसकी सेवा का वास्तविक मूल्य देने के बजाय, स्वर्गादि के प्रलोभन से बहला दिया जाता है. इसलिए संख्या में प्रथम तीन वर्गों से चार गुना होने के बावजूद वे कोई परिवर्तनकारी शक्ति नहीं बन पाते. उनके हित पहले भी एक–दूसरे से टकराते थे, आज भी टकराते हैं. परिणामस्वरूप उनकी ऊर्जा का बड़ा हिस्सा आंतरिक संघर्ष में खपता रहता है. इसका एकमात्र समाधान था कि शूद्रों में वर्गीय चेतना का विस्तार किया जाए. मगर गांधी सहित लगभग सभी कांग्रेसी नेता शूद्रों में वर्गीय चेतना उभारने के बजाय उन्हें हालात से संतोष करने की सलाह देते थे. सामाजिक मोर्चे पर गांधी का समूचा आंदोलन यथास्थिति बनाए रखने तक सीमित था. व्यवस्था परिवर्तन की यदि कोई मांग भी करे तो वे तत्क्षण विरोध पर उतर आते थे. गांधी के अनुसार पाखाना साफ करने का काम दैवीय अनुभव था. ठीक यही बात हमारे आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पुस्तक ‘कर्मयोग’(2007) में दोहरा चुके हैं. कुल मिलाकर मार्क्स ने जिन परिस्थितियों को वर्ग–संघर्ष के लिए जरूरी माना है, उसकी जो कसौटियां तय कीं हैं, भारत में उससे कहीं त्रासद हालात होने के बावजूद यहां क्रांति की बात करना, दिवास्वप्न बना रहा. निम्नस्थ वर्गों में वर्गीय चेतना की कमी, शीर्षस्थ वर्गों के उत्पीड़न और अत्याचारों को स्थायी बनाती है. उसके अभाव में बहुसंख्यक वर्ग छोटे–छोटे टुकड़ों में बंटकर अपनी प्रभावी क्षमता को नष्ट करता रहता है.
ऊपर से सत्तासीन अभिजन द्वारा यथास्थिति बनाए रखने की कूटनीतिक चालें. जो कभी दान, कभी सहयोग, तो कभी न्याय के नाम पर अपनी आय का एक हिस्सा उन कार्यों पर खर्च करता है, जिनके माध्यम से बहुजन को निरंतर भुलावे में रख सके. उन्हें लगे कि वर्तमान व्यवस्था ही उनके लिए सर्वाधिक हितकारी और श्रेयस्कर है. यथास्थिति बनाए रखने के लिए शक्तिशाली अभिजन अनेक रणनीतियां अपनाता है. भारतीय संस्कृति के संदर्भ में उसका भाव–प्रवण नारा हैᅳ‘अनेकता में एकता.’ जनाक्रोश से बचने के लिए अल्पसंख्यक अभिजन प्रायः इस तर्क के माध्यम से भारतीय संस्कृति का महिमा–मंडन करता है कि तमाम भिन्नताओं के बावजूद भारतीय संस्कृति में एकता के तत्व समाहित हैं. स्कूलों में बच्चों को यह पाठ शुरुआत से ही पढ़ाया जाता है. इस नारे के साथ भारतीय समाज के अंतर्विरोधों तथा उस उत्पीड़न की ओर से आंखें मूंद ली जाती हैं, जिसका सामना बहुजन समूह शताब्दियों से करते आए हैं. प्रकारांतर में ‘अनेकता में एकता’ का मिथ सांस्कृतिक शोषण का शिकार रहे लोगों के लिए बोझ बन जाता है. चूंकि सांस्कृतिक प्रतीक आस्था और विश्वास के रास्ते जीवन में जगह बनाते हैं, उन्हें तर्क और संशय से प्रायः परे रखा जाता हैᅳइस कारण उनसे निपटना आसान नहीं होता. दूसरी ओर अल्पसंख्यक अभिजन यथास्थिति बनाए रखने के लिए हर समय यथाशक्ति प्रयत्नशील रहते हैं. संस्कृति के शोषणकारी तत्वों का वे मिथों के माध्यम से निरंतर महिमामंडन करते रहते हैं. आवश्यकता पड़ने पर नए मिथ गढ़ना अथवा लोकप्रचलित मिथों की स्वार्थानुकूल व्याख्या करना उनकी पुरानी आदत है. वौद्धिक स्तर पर शीर्षस्थ जातियों पर पूरी तरह निर्भर बहुजन समुदाय, इन चालाकियां को समय रहते समझ नहीं पाता; और अपनी अज्ञानता के कारण ‘अनेकता में एकता’ की भ्रांति को सच माने रहता है.
वर्ग–चेतना, वर्ग–संघर्ष की प्रथम और अनिवार्य शर्त है. जाति–भेद का शिकार रहे, दैवीय–अनुकंपा की आस में जीने वाले तथा शोषण को अपनी नियति मान चुके भारतीय समाज में शुरू से ही इसका अभाव रहा है. सांस्कृतिक एकता की दुहाई भजन–कीर्तन, पूजा–पाठ जैसे अनुत्पादक तरीकों, त्योहारों तथा उन सामान्य रीति–रिवाजों के माध्यम से दी जाती है, जो विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच एक–दूसरे के साथ रहते, साथ–साथ काम करते हुए स्वाभाविक रूप से एक–दूसरे समूह के बीच चले आते हैं. इसके बहाने अल्पसंख्यक अभिजन आसानी से उन प्रतीकों को थोपने में सफल हो जाता है, जो वर्गीय असमानता तथा अल्पसंख्यक शीर्षस्थ अभिजन की सामाजिक–सांस्कृतिक श्रेष्ठता के मिथ को, बहुजन के मानस पर स्थापित करते हैं. गांवों में दिवाली से चार दिन पहले कुम्हार घर–घर दिये पहुंचाता है. यत्न से दीपक बनाने, घर–घर पहुंचाने के बावजूद कीमत वही मिलती है, जो यजमान तय करता है. अपने ही श्रमोत्पाद का मूल्यांकन करने का अधिकार कुम्हार को नहीं होता. होली को समसरता का त्योहार माना जाता है. कहा जाता है कि सारे वर्ग–भेद होली के रंगों में बह जाते हैं. असल में ऐसा नहीं है. उस दिन भी पुजारी पूजा–पाठ करता है, बढ़ई लकड़ियां चीरता है और कुम्हार हमेशा की तरह घर–घर मिट्टी के बर्तन सप्लाई करता है. यही स्थिति बाकी त्योहारों की भी है. इन विसंगतियों को प्रायः सहजीवन और समरसता, जिन्हें समाज में समानता के पूरक के रूप में पेश किया जाताᅳके नाम पर पचा लिया जाता है. जाहिर है भारतीय संस्कृति को लेकर ‘अनेकता में एकता’ का मिथ भ्रम अथवा भावुक अवधारणा से इतर कुछ भी नहीं है. जाति और वर्ण के आधार पर असमानता को नैसर्गिक मान लेने वाली भारतीय संस्कृति, मूलतः वर्चस्वकारी संस्कृति है. उसे मुट्ठी–भर लोगों की मर्जी से, उन्हीं के द्वारा, उन्हीं की स्वार्थ–सिद्धि के लिए कायम रखा गया है. सांस्कृतिक अंतर्विरोधों एवं तज्जनित असंतोषों को नकारने की बात, मूलतः सामाजिक यथास्थिति बनाए रखने की चाहत है. यह काम वही लोग करते हैं, जिन्हें इस संस्कृति ने असीमित विशेषाधिकार देकर अपने सिर पर सवार रखा है. बहुजन समूहों की अज्ञानता, आपसी स्पर्धा और दूसरों के लिए श्रम करने की प्रवृत्ति ने उन्हें शक्तिशाली बनाया हुआ है.
‘अनेकता में एकता’ की दावेदार भारतीय संस्कृति में अंतर्विरोधों की भरमार है. इसलिए उसमें अंतर्संघर्ष भी हैं. वैदिक काल में उसे आजीवकों, लोकायतियों, वैनायिकों, चार्वाकों जैसे भौतिकवादी चिंतकों की ओर से चुनौती मिलती थी. कालांतर में श्रमण–साधकों ने आश्रमों में पनपने वाली कर्मकांड संस्कृति को चुनौती पेश की और मध्यमार्गी तत्वदर्शन के भरोसे ऐसी कामयाबी हासिल की कि कर्मकांड केंद्रित वैदिक धर्म–दर्शनों को, आने वाली कई शताब्दियों तक पुनः आश्रमों और कंदराओं में शरण लेने को विवश होना पड़ा. बौद्ध दर्शन के पराभव की शुरुआत हुई तो पुरोहित स्तर के धर्माचार्यों ने स्मृति, पुराण जैसे ग्रंथों के माध्यम से धार्मिक कर्मकांडों, पाखंडों को नए सिरे से थोपना आरंभ कर दिया. उस दौर में भी उसका सामना श्रमणों और भौतिकवादी दार्शनिकों द्वारा किया गया. उसके कुछ अर्से बाद यहां इस्लाम का आगमन हुआ. तैंतीस करोड़ देवी–देवताओं के बोझ से दबे हिंदू धर्म को इस्लाम के एकेश्वरवाद की ओर से चुनौती मिली. उसमें जीत एकेश्वरवाद की हुई. जातीय भेदभाव झेल रही जातियों में इस्लाम के प्रति आकर्षण बढ़ने लगा. धर्मांतरण की बढ़ती घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए शंकराचार्य को वेदांत में अद्वैतवाद के समर्थन में आना पड़ा. मध्यकाल में धर्म के नाम पर तंत्र–मंत्र, ऊंच–नीच और पाखंड बढ़े तो संत–कवि आड़े आ गए. तुकाराम, रैदास, कबीर, दादू आदि ने धार्मिक पाखंडियों को खूब ललकारा. औपनिवेशिक भारत में हालात बदले. अठारवीं–उनीसवीं शताब्दी के वैचारिक आंदोलनों से अनुप्रेत अंग्रेज अपेक्षाकृत विकसित संस्कृति अनुगामी थे. उनके समक्ष ब्राह्मण संस्कृति की अतीतोन्मुखी महानता कारगर न थी. दूसरे उन्हें योरोप के जनांदोलनों का अनुभव था. इसलिए विपुल जनशक्ति की अवहेलना उनके लिए संभव न थी. इसलिए उन्होंने यहां विधि के शासन को लागू किया.
ये उदाहरण जहां भारतीय संस्कृति के असमानताकारी रूप को सामने लाते हैं, वहीं दिखाते हैं कि भारतीय समाज में द्वंद्वात्मकता के लक्षण आरंभ से ही रहे हैं. वे काफी विस्तृत हैं. इस वर्ग–भेद को आर्य–अनार्य, सवर्ण–अवर्ण, ब्राह्मण–अब्राह्मण, तथाकथित ऊंची जाति वाले, नीची जाति वाले जैसा कुछ भी कहा जा सकता है. भारतीय समाज के आंतरिक विभाजन को दर्शाने वाला एक महत्त्वपूर्ण आधार और भी है. ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य अनुत्पादक वर्ग हैं. तीनों ही दूसरों के श्रम पर आश्रित रहते हैं. इसके बावजूद उन्हें ‘सवर्ण’ होने का गुमान रहता है. वर्ण–श्रेष्ठता का यह दंभ, श्रम और समानता दोनों का सिद्धांततः विरोधी है. जो संस्कृति इस दंभ को शरण देती है, वह शारीरिक श्रम को बौद्धिक श्रम से हेय मानती है. परिणामस्वरूप यहां जो हुनरमंद है, जो परिश्रम करता है, अपने शिल्प–कौशल के भरोसे समाज को संवारता हैᅳउसके हिस्से आजीवन तिरष्कार और उपेक्षा ही आती है. आर्थिक दृष्टिकोण से भारतीय संस्कृति मूलतः अनुत्पादक संस्कृति सिद्ध होती है, जो उत्पादन–कर्म में लगे श्रमिकों तथा कामगारों को, बौद्धिक कर्म का दिखावा करने वाले वर्गों से हेय माने रहती है.
इस तरह भारतीय समाज अनायास ही दो हिस्सों, उत्पादक और अनुत्पादक समूहों में बंट जाता है. संख्या में उत्पादक समूह अपने प्रतिद्विंद्वी से लगभग चार गुना होता है. मगर समाज और संस्कृति की संरचना ऐसी है कि इस अधिसंख्यक वर्ग के हाथों में न्यूनतम संसाधन और नाकुछ अधिकार आते हैं. जिस अल्पसंख्यक अभिजन को यह संस्कृति विशेषाधिकार सौंपकर अत्यंत शक्तिशाली बनाती है, वह मुख्यतः अपने स्वार्थ के लिए काम करता है. दिखने में ब्राह्मण–क्षत्रिय–वैश्य तीन अलग–अलग वर्ण हैं, जो क्रमशः धर्म, राजनीति और अर्थ–संपदा का प्रबंधन करते हैं. बहुजन मुख्यतः सेवा–प्रदाता वर्ग है. वह वर्णव्यवस्था में सबसे निचला या उससे बाहर का हिस्सा है. दोनों ही स्थितियों में उसका दायित्व शीर्षस्थ वर्गों की सेवा करना है. उसे न तो अपने श्रमोत्पाद पर अधिकार होता है, न ही संपत्ति अर्जित करने का अधिकार उसे है. उसका कर्तव्य है सेवा–श्रम के बदले जो मिले उसे अनुकंपा–भाव से ग्रहण करना. वह अनेक जातियों, वर्गों, उपवर्गों और पेशों में बंटी, संख्या–बहुल और प्रभावी जनशक्ति है. प्रत्येक का पेशा ही उसकी पहचान है. इनके सपने छोटे होते हैं, संघर्ष बड़े. छोटी–छोटी जरूरतों की खातिर इन्हें एक–दूसरे के साथ स्पर्धा करनी पड़ती है. अनेक जातियों, वर्गों, उपवर्गों में बंटा होने के कारण इस वर्ग की प्रभावी शक्ति क्षीण हो जाती है. दूसरी ओर सामान्य हित उच्चस्थ वर्णों को आपस में जोड़े रखते हैं. प्रतिस्पर्धा उच्चस्थ वर्गों में भी रही है. किंतु उसका आधार जीवन के मूल–भूत प्रश्नों, समस्याओं से प्रभावित नहीं होता. उदाहरण के लिए परशुराम द्वारा पृथ्वी को 21 बार क्षत्रिय–विहीन करने का मिथ क्षत्रियों के विशेष रोष का कारण नहीं बन पाता. यह जानते हुए कि जो संस्कृति ब्राह्मण को श्रेष्ठतम ठहराती है, वह क्षत्रियों को राजकर्म का अधिकार भी देती है. इसलिए वर्ण–व्यवस्था के आगे जब भी कोई चुनौती आती है; अथवा उनमें से किसी एक वर्ण के अधिकारों पर हमला होता हैᅳतीनों एकजुट भाव से उसका सामना करते हैं. इससे संख्या में कम होने के बावजूद पहला वर्ग शक्तिशाली बनकर, खुद को समाज का नियामक और वास्तविक कर्ता सिद्ध करने में सफल हो जाता है.
व्यवस्था में आमूल परिवर्तन हेतु आवश्यक है कि उत्पीड़ित लोगों की वर्ग–चेतना को उभारा जाए. लोगों को बताया जाए कि ‘अनेकता में एकता’ का मिथ संस्कृति के वर्चस्वकारी स्वरूप को बनाए रखने का उद्यम हैं. सामाजिक क्रांति को सफल बनाने के लिए आवश्यक है कि उत्पीड़न के शिकार वर्गों को उनकी स्थिति और अधिकारों से परचाया जाए. बताया जाए कि उनके हित साझे है. जो संस्कृति उन्हें भेद करना सिखाती है, समाज को जन्म और पेशों के आधार पर अलग–अलग जातियों में बांटती है, जो श्रम की अवमानना करती हैᅳवह उनकी संस्कृति हो ही नहीं सकती. इसकी शुरुआत ज्योतिराव फुले द्वारा की गई. फुले ने उन मिथकों का पुनर्पाठ किया, जिनसे भारतीय संस्कृति की पहचान निर्धारित की जाती है. जिनके सहारे सवर्ण जातियां शताब्दियों से अपना श्रेष्ठत्व गैर–सवर्ण समूहों पर थोपती आई थीं. अवसर अनुकूल था. शिक्षा के द्वार सभी वर्गों के लिए खुल चुके थे. ‘मनुस्मृति’ की जगह ‘कानून के राज्य’ ने ले ली थी. नए कानून के आगे सभी नागरिक बराबर थे. ज्योतिराव फुले ने निर्भय होकर हिंदू मिथों के बारे में लिखा. धर्म–ग्रंथों का पुनर्पाठ प्रस्तुत किया. शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए, अपनी पत्नी के साथ मिलकर जगह–जगह स्कूल खोले. स्त्रियों की पढ़ाई–लिखाई को जरूरी माना. धीरे–धीरे लोगों को यह एहसास होने लगा कि जिस धर्म और संस्कृति की वे अभी तक पूजा करते आए हैं, असल में वह एक षड्यंत्र, उन्हें बरसों–बरस गुलाम बनाए रखने का प्रलोभनकारी माध्यम है. जिन मिथकीय प्रतीकों, स्वार्थी विधान के भरोसे वे अभी तक शासित होते आए हैं, वे अंतिम या परम–सत्य नहीं हैं. बल्कि शक्तिशाली जातीय समूहों द्वारा उन्हें मानसिक–शारीरिक रूप से दास बनाए रखने के लिए की गई सोची–समझी साजिश हैं. उनके सहारे शीर्षस्थ जातियां शताब्दियों से उनपर राज करती आई हैं. फुले के प्रयासों से पिछड़े और अंतज्य समाजों में वर्ग–चेतना पनपने लगी.
फुले के बाद परिवर्तनकारी राजनीति की बागडोर उत्तर में डॉ. आंबेडकर के हाथों में आ गई. वे अपने समय के नेताओं में सर्वाधिक पढ़े–लिखे, बुद्धिमान, व्यवहार–कुशल, दूरदृष्टा और लक्ष्य के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध नेता थे. जिस वर्ष फुले का निधन हुआ, उसी वर्ष उनका जन्म हुआ था. मानो समय खुद बदलाव के लिए आमादा था. इसलिए एक जिम्मेदार और समर्पित नेता द्वारा शुरू किए गए आंदोलन की कमान संभालने के लिए उसने वैसे ही जिम्मेदार, समर्पित, बुद्धिमान और संघर्ष–धर्मी व्यक्तित्व को समय–पटल पर आगे कर दिया था. डॉ. आंबेडकर के आंदोलन का दायरा व्यापक था. उन्होंने बहुजन अस्मिता के प्रश्न को उठाया. फुले का अनुसरण करते हुए धार्मिक प्रतीकों की अधुनातन व्याख्या को अपने हाथ में लिया. उन मिथों को आड़े हाथों लिया जो सामाजिक–सांस्कृतिक शोषण का माध्यम बने थे. उनका सबसे बड़ा काम जाति–व्यवस्था पर हमला था, जिसने तथाकथित सवर्णों को तिलमिलाने को विवश कर दिया. जिस जाति के आधार पर वे बहुजन का शोषण करते आए थे, डॉ. आंबेडकर ने उसी के संगठन–सामर्थ्य का सहारा लेकर दलितों और पिछड़ों को एकजुट करने में कामयाबी हासिल की थी. इससे शीर्षस्थ जातियों की चिंता बढ़ना स्वाभाविक था. वे डॉ. आंबेडकर के वर्ग–शत्रु बन गए. मगर डॉ. आंबेडकर के बौद्धिक तेज के आगे उनकी एक न चली.
देश के उत्तर–पश्चिम में जिस संकल्प के साथ डॉ. आंबेडकर आगे बढ़ रहे थे, दक्षिण भारत में वही जिम्मेदारी, उतनी ही शिद्दत के साथ रामास्वामी पेरियार संभाले हुए थे. दोनों के व्यक्तित्व और विचारों में अंतर था, परंतु लक्ष्य एक ही था, जिसे लेकर वे पूरी तरह स्पष्ट और ईमानदार थे. आरंभ में पेरियार पर साम्यवाद का असर था. गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो पेरियार उनसे प्रभावित होकर कांग्रेस में शामिल हो गए. गांधी के आवाह्न पर उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार कार्यक्रमों में हिस्सा लिया. असहयोग आंदोलन में लाठियां खाईं. लेकिन बहुत जल्दी उनका कांग्रेस तथा उसके नेताओं से मोह भंग हो गया. उसके बाद सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर उन्होंने खुद को सामाजिक आंदोलनों के समर्पित कर दिया. ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ के माध्यम से उन्होंने बहुजन समूहों के बीच वर्गीय चेतना फैलाने का काम किया. उन्हें अपेक्षित सफलता भी मिली. भारत को आधुनिक राज्य बनाने में डॉ. आंबेडकर और पेरियार का लगभग बराबर का योगदान है.
डॉ. आंबेडकर और पेरियार के प्रयासों से दलितों और शोषितों में वर्ग–चेतना का संचार हुआ था. सवाल है यदि उन सभी का मकसद समानता–आधारित समाज की रचना करना, भेदभावों को मिटाना था, तो उसके लिए ‘मार्क्सवाद’ या ‘साम्यवाद’ की प्रचलित सैद्धांतिकी को क्यों नहीं अपनाया गया? यह सवाल उन साम्यवादियों से भी है जो वर्गहीन समाज की स्थापना को लेकर राजनीति में आए थे; और समस्त वर्ग–भेदों का उन्मूलन कर समता–आधारित समाज का सपना देखते थे. प्रथम दृष्टया इसे हम भारतीय वामपंथ तथा सामाजिक न्याय के पक्ष में चलने वाले आंदोलनों की कमजोरी मान सकते हैं. इसके कारणों को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की मामूली पड़ताल से समझा जा सकता है. यहां उनका वर्णन विषयांतर होगा. इतना कह सकते हैं कि भारत में वर्ग–क्रांति की शुरुआत ‘सामाजिक न्याय’ की मांग के तहत हुई थी. हालांकि वर्ग–संघर्ष की अवधारणा को ‘सामाजिक–न्याय’ की भावना तक सीमित कर देना कभी निरापद नहीं रहा. इससे बहुजन समाज की एकता प्रभावित हुई. इसे समझने के लिए ‘सामाजिक न्याय’ की सैद्धांतिकी तथा उन परिस्थितियों को समझना होगा, जिनके कारण ‘सामाजिक न्याय’ को अधिकांश अस्मितावादी आंदोलनों का लक्ष्य मान लिया गया था.
साम्यवाद बनाम सामाजिक न्याय
साम्यवाद की मुश्किल यह रही है कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ में जब बड़े साम्राज्यवादी राज्यों का गठन आरंभ हुआ, और जिन दिनों पूरी दुनिया को साम्यवाद की परिधि में शामिल करने का स्वप्न देखा जा रहा था, उन्हीं दिनों दुनिया को दो विश्वयुद्धों का सामना करना पड़ा. वे युद्ध केवल राजनीतिक उद्देश्य के लिए नहीं लड़े गए थे. उनके पीछे पूंजीपति वर्ग की महत्त्वाकांक्षाएं भी शामिल थीं. प्रौद्योगिकीय क्रांति के दौर में हथियार निर्माण के क्षेत्र में भारी निवेश हुआ था. उत्पाद की खपत के लिए हथियार–निर्माता कंपनियों को नए बाजारों की जरूरत थी. उनका हित इसी में था कि दुनिया पर युद्ध का खतरा मंडराता रहे. देश एक–दूसरे से लड़ते–झगड़ते रहें. इस उद्देश्य में वे कामयाब भी रहीं. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा बेहद जरूरी मुद्दा बन गया. आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के नाम पर हथियारों की अधिकाधिक खरीद की जाने लगी. इनमें भारत जैसे विकासशील देश भी पीछे न थे, जिनका कथित रूप से अहिंसा में विश्वास था और जिन्होंने अपनी आधी–अधूरी स्वाधीनता अहिंसक तरीकों से अर्जित की थी. 1930 में दुनिया–भर में आर्थिक मंदी पैठी हुई थी. हालांकि मंदी के जो मापदंड निर्धारित किए गए थे, वे स्वयं संदेह से परे न थे. राजनीति और पूंजीपतियों के गठजोड़ के चलते उस समय तक अर्थ–व्यवस्था की रफ्तार का आकलन करने के पैमाने बदल चुके थे. चुनिंदा कंपनियों की विश्व–बाजार में स्थिति से मंदी या तेजी का आकलन किया जाने लगा था. आभासी मंदी से इतर जनता की दुर्दशा का असली कारण यह था कि सरकारों ने अपने समस्त संसाधन युद्ध और युद्ध की तैयारियों पर झोंक दिए थे. साम्यवादी देश भी इसमें पीछे न थे. इस कारण वहां जन–असंतोष पनपने लगा था. उसे दबाने तथा प्रतिस्पर्धी पूंजीवादी देशों के साथ विकास की दौड़ में बने रहने की जरूरत ने स्टालिन जैसे कट्टर साम्यवादी नेताओं को जगह दी.
प्रथम विश्वयुद्ध दुनिया में भारी तबाही का कारण बना था. और जैसा कि बताया गया है, युद्ध की परिस्थितियां बनाने में अतिमहत्त्वाकांक्षी नेताओं तथा पूंजीपतियों का समान योगदान था. लेकिन जब युद्ध के परिणाम आने लगे तो आर्थिक घराने बड़ी चतुराई से खुद को उनसे अलग करने में कामयाब हो गए. इस कारण युद्ध के बाद उत्पन्न समस्याओं तथा उनसे उपजे जनाक्रोश का सामना संबंधित देशों की सरकारों को करना पड़ा. युद्ध के मोर्चे पर सारे संसाधन झोंक चुके राष्ट्र–प्रमुखों के लिए उस समय एकमात्र रास्ता था कि आर्थिक विपन्नता से घिर चुके राज्य के विकास; तथा जनाक्रोश से बचने के लिए पूंजीपतियों को आमंत्रित किया जाए. यही हुआ भी. दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात, पुनर्निर्माण के नाम पर सारे ठेके, बड़ी–बड़ी पूंजी–प्रधान कंपनियों को सौंप दिए गए. आर्थिक विकास के नाम पर उन्हें तरह–तरह की छूट दी जाने लगी. वह विचित्र संयोग था. जब तीसरी दुनिया के देश तेजी से योरोप और अमेरिका की औपनिवेशिक दासता से बाहर आ रहे थे, तभी बड़ी–बड़ी पूंजीवादी कंपनियां, तीसरी दुनिया के देशों में पहुंचकर वहां आर्थिक औपनिवेशीकरण की शुरुआत कर रही थीं. अर्थसत्ता का उत्तरोत्तर सबलीकरण राजसत्ता को कमजोर कर रहा था. उसका प्रभाव दुनिया के प्रायः सभी देशों पर था. चूंकि तीसरी दुनिया के अल्पविकसित और विकासशील देश स्थानीय समस्याओं और समाज की उत्तरोत्तर बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं के लिए पूंजीवाद पर आश्रित हो चुके थे, इसलिए वे आर्थिक औपनिवेशीकरण के सर्वाधिक शिकार थे.
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पूंजीवाद ने भी खुद को बदला था. सामाजिक भेदभाव और भारी आर्थिक विषमता से गुजर रहे देशों में वर्ग–संघर्ष की स्थिति दुबारा न बने, इसके लिए जनसाधारण में यह विश्वास जगाना अत्यावश्यक था कि वह पूंजीवाद के विस्तार में ही अपना भला समझे. इसके लिए वह सरकार के साथ मिलकर लोगों की मनोरचना बदलने में लगा था. लोगों की प्रशंसा तथा सहानुभूति बटोरने के लिए उसने सामाजिक न्याय, मानवाधिकार, उपभोक्ता अधिकार जैसे कई मुखौटे पहने हुए थे. पूंजीवादी कंपनियों ने शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, खेती जैसे बुनियादी क्षेत्रों में सुधारवादी कार्यक्रमों में हिस्सेदारी आरंभ कर दी थी. इसी दौर में मान लिया गया कि जन–समस्याओं का समाधान अकेले सरकार द्वारा संभव नहीं है. विकास–कार्यक्रमों में सरकार की मदद हेतु गैर–सरकारी संस्थाओं को बढ़ावा दिया जाने लगा था. उन संस्थाओं के संचालन का दायित्व पढ़े–लिखे, समाज के प्रबुद्ध हिस्से के अधीन था, जिसकी जनता पर पकड़ थी. उसे लुभाने के लिए बड़े कारपोरेट घरानों ने अपनी आय का एक हिस्सा, जाहिर है बहुत मामूली हिस्सा, चंदे तथा अनुदान के रूप में गैर–सरकारी संस्थाओं को देना आरंभ कर दिया. एक तरह से वह जनता का ही पैसा था. गैर–सरकारी संस्थाओं को दिए गए चंदे को लोक–कल्याण की मद में किया गया खर्च दिखाकर, पूंजीवादी कंपनियां टैक्स के रूप में दी जाने वाली धनराशि में कटौती कर लेती थीं. चूंकि पूंजीपति घरानों की ओर से यह पैसा सीधे गैर–सरकारी संस्थाओं को जाता था, इसलिए परोक्ष रूप में वे जनता के पढ़े–लिखे वर्गों की, उन लोगों की जिन्हें जनता की समस्याओं की समझ थी और जो समाज के भीतर रहकर काम करने का अनुभव रखते थेᅳसहानुभूति बटोर रहे थे. इन संस्थाओं में प्रायः वही मध्यमवर्ग शामिल था, जिसकी पिछली पीढ़ियां अमेरिका और योरोपीय देशों मेंᅳआम मताधिकार, न्यूनतम मजदूरी तथा लोकतंत्र, समाजवाद, साम्यवाद, अराजकतावाद जैसे राजनीतिक दर्शनों के समर्थन में सड़कों पर उतरी थीं; जिनकी बौद्धिक चेतना ने अनेक नए राजनीतिक दर्शनों को जन्म दिया था. परिणामस्वरूप पूरी दुनिया में पूंजीवाद के समर्थन में माहौल बन रहा था. साम्यवाद, समाजवाद जैसे दर्शन जिन्हें कभी आधुनिक और उदार समाज की पहचान से जोड़ा गया था, की प्रतिष्ठा निरंतर घट रही थी. युवा पीढ़ी तो उन्हें समय–बाह्यः मान चुकी थी.
गैर–सरकारी संस्थाएं समाज में पूंजीवाद के लिए अनुकूल माहौल बनाने का काम कर रही थीं. यह कार्य समाज–कल्याण, सामाजिक न्याय, कला, साहित्य एवं संस्कृति के प्रचार–प्रसार के नाम पर किया जा रहा था. सरकारों को भी इससे लाभ था. योजनाओं के कार्यान्वन की जिम्मेदारी स्वयं–सेवी जनसंस्थाओं के कंधों पर डालकर वे सीधी जिम्मेदारी से बचने लगी थीं. इससे साम्यवाद के उभार के दिनों में पूंजीवाद के प्रति जो आक्रोश पनपा था, वह धीरे–धीरे घटने लगा. इसलिए वह अकारण नहीं है कि 1930 का दशक जो वैश्विक मंदी का दशक भी थाᅳ‘सामाजिक न्याय’ के राज्यों की कल्याण नीति का प्रमुख हिस्सा बनने का भी दशक बना. उसके बाद यह शब्द–युग्म, विशेषकर लोकतांत्रिक राज्यों में इस तरह प्रचलित हुआ कि उसे उत्तरदायी सरकार के प्रमुख लक्षण के रूप में गिना जाने लगा. उससे लोगों की मनोरचना में ऐसा बदलाव आया, जो पूंजीवादी विस्तार के अनुकूल था. उपभोक्तावाद के पक्ष में माहौल बनाने के लिए लोकतंत्र, सामाजिक न्याय तथा व्यक्ति–स्वातन्त्र्य जैसी आधुनिक विचारधाराओं को अपनाया गया. फिर जैसे–जैसे पूंजीवाद का विस्तार हुआ, राज्य के प्रमुख उद्देश्य के रूप में ‘सामाजिक न्याय’ की महत्ता लगातार बढ़ती गई.
उससे पहले की व्यवस्थाओं में धर्म व्यक्ति, समाज और राज्य तीनों की मार्ग–दर्शक शक्ति हुआ करता था. राजा खुद को ईश्वरीय प्रतिनिधि बताकर जनता पर अपनी इच्छाएं थोपता था. उस व्यवस्था में ‘कल्याण’ धर्म और ईश्वर के नाम पर, दान अथवा राज्य की अनुकंपा के रूप में निचले तथा जरूरतमंद वर्गों को अंतरित होता था. आजकल वह ‘सामाजिक न्याय’ जैसा आकर्षक से जाना जाता है. उसमें न्याय नागरिक का अधिकार न होकर सहायता, अनुदान, प्रोत्साहन–निधि जैसे नामों से जनता की ओर अंतरित होता है. यह पूंजीवाद की कार्यशैली के अनुरूप है. ‘ट्रिकल डाउन थियरी’ जिसे ‘रिसाव का सिद्धांत’ कहा जाता है, में समृद्धि नीचे की ओर धीरे–धीरे रिसकर पहुंचती है. कुछ विद्वान इसी आधार पर पूंजीवाद की प्रशंसा करते हैं. किंतु ‘रिसाव का सिद्धांत’ सामान्यतः तब कारगर होता है, जब ऊपर के स्तर पर ‘बफर’ समृद्धि हो. चूंकि पूंजीपति अपनी आमदनी को खर्च करने के बजाय पुनर्लाभ हेतु उसका निवेश करना पसंद करता हैᅳइसलिए पूंजीवादी व्यवस्था में असमानता का अनुपात निरंतर बढ़ता जाता है. ऐसे देश जो लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं, किसी न किसी रूप में वे सभी ‘सामाजिक न्याय’ के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराते रहते हैं. वे इस बात को बढ़ा–चढ़ाकर जनता के बीच लाते हैं कि सामाजिक न्याय को लेकर उनकी योजनाएं जनता की सामान्य सहमति के आधार पर चलाई जाती हैं. उनका उद्देश्य समाज में व्याप्त गैरबराबरी को समाप्त करना नहीं होता. न ही वे उन समस्याओं का समाधान खोजने की कोशिश करते हैं जो सामाजिक विषमताएं पैदा कर, कमजोर वर्गों के लिए ‘सामाजिक न्याय’ को प्रासंगिक बनाती हैं. परिणामस्वरूप न्याय के नाम पर बनीं योजनाएं राज्य की अनुकंपा, अनुदान जैसी वे धर्म–प्रधान राजतंत्र में होती हैंᅳलौकतांत्रिक राज्यों में भी बनी रहती हैं.
देखने–सुनने में ‘सामाजिक–न्याय’ बड़ा रुपहला शब्द है. अधिकांश समाजों में उसे मनुष्यता के पर्याय, राज्य के पुनीत कर्तव्य के रूप में लिया जाता है. दूसरी ओर यह भी सच है कि उसका लक्ष्य गैरबराबरी को समाप्त करना नहीं होता. न ही वह उन समस्याओं का समाधान खोजने की कोशिश करता है जो सामाजिक विषमताएं पैदा कर, कमजोर वर्गों के लिए ‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर विशेष कार्यक्रम चलाने की जरूरत पैदा करती हैं. उल्टे परंपरा, संस्कृति तथा निजी पहचान के नाम पर अन्याय एवं असमानताकारी संस्थाओं का संरक्षण किया जाता है. ‘सामाजिक न्याय’ के तहत बनाई जाने वाली अधिकांश योजनाएं प्रायः सस्ते भोजन, सामान्य शिक्षा, सस्ती स्वास्थ्य सेवाओं तथा इतिहास एवं संस्कृति के सरंक्षण संबंधी कार्यक्रमों तक सीमित रहती हैं. इसलिए वे कमजोर वर्गों का ज्यादा भला नहीं कर पातीं. यही कारण है कि सरकार द्वारा लोकतंत्र और कल्याण राज्य की दावेदारी के बावजूद, राज्यों की केंद्राभिमुखता में कोई कमी नहीं आ पाती. पहले वे पुरोहितों और सामंतों के संरक्षण तथा उन्हीं के नेतृत्व में चलाई जाती थीं. नए विधान में उनका कार्यान्वन विशेषज्ञों के नेतृत्व में किया जाता है, जो उन्हीं वर्गों से आते हैं, जिनके हित असमानताकारी संस्कृति से जुड़े होते हैं. अपने–अपने स्वार्थ के लिए पूंजीपति और शीर्षस्थ राजनीतिज्ञ उनका संरक्षण करते हैं. कल्याण–कार्यक्रमों में जनसहभागिता का अभाव, लोगों के आत्मविश्वास को कमजोर कर, उन्हें पराश्रित बनाए रखता है. इससे उन योजनाओं का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है.
सवाल है कि यदि केंद्र उतना ही शक्तिशाली है बना जितना वह धर्म–केंद्रित व्यवस्थाओं में था और आमजन की हालत वैसी की वैसी थी, तो धर्म के स्थान पर, ‘सामाजिक न्याय’ जैसी नई अवधारणाओं को लाने से शीर्षस्थ वर्गां की कौन–सी स्वार्थ–सिद्धि हो रही थी? इसके लिए धर्म के मनोविज्ञान को समझना आवश्यक है. दुनिया के जितने भी धर्म हैं, कमोबेश सभी इस संसार और सांसारिक सुखों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं. लगभग सभी इसपर सहमत हैं कि सांसारिक सुख जीवन के अंतिम उद्देश्यों की प्राप्ति में बाधक हैं. शंकर का मायावाद, विभिन्न नामों और मिले–जुले सिद्धांतों के आधार पर कमोबेश हर धर्म का हिस्सा है. किसी न किसी रूप में वे सभी सांसारिक सुखों को हेय मानते हैं. यह सोच मुक्त उपभोग को बढ़ावा देने की सबसे बड़ी बाधा है. दुनियावी सुखों के प्रति नकारात्मक सोच के चलते उपभोक्तावाद, जिसके भरोसे पूंजीवाद ने अपनी विस्तारवादी नीतियों को सफलतापूर्वक अंजाम दिया है, उस तरह से पनप ही नहीं सकता था, जिस तरह से वह आज है. इसलिए पूंजीवादी तंत्र के लिए धर्म गैरजरूरी संस्था है. हां, सांप्रदायिकता पूंजीवाद का खूब भला करती है. बढ़ती सांप्रदायिकता लोगों के अंतर्मन में भ्रम की सृष्टि करती है. उससे एक–दूसरे के प्रति संदेह, स्पर्धा तथा जीवन के प्रति अनिश्चितता बढ़ती है. प्रकारांतर में वह उपभोग की संस्कृति को बढ़ावा देती है.
हमारा आशय लोकतंत्र, सामाजिक न्याय जैसी आधुनिक विचारधाराओं की महत्ता को नकारना नहीं है. मगर इनकी सफलता तभी संभव है जब जनता अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो. वह तर्क–सम्मत निर्णय लेने की अभ्यस्त हो चुकी हो. भारत जैसे समाजों में जहां मनुष्य कदम–कदम पर जाति, धर्म और वर्ग–भेद से प्रेरणा लेती हो, उन्हें अपनी सामाजिक पहचान का जरूरी हिस्सा मानती हो, वहां लोकतंत्र और व्यक्ति–स्वातं×य जैसी विचारधाराएं अधिक कारगर नहीं हो पातीं. पर्याप्त अधिकारबोध के अभाव में नागरिक सरकार पर आवश्यक दबाव बनाने के बजाए, आपस में ही एक–दूसरे के साथ स्पर्धा करते रहते हैं. इससे चुने गए प्रतिनिधि लोकहित के बजाए अपने स्वार्थ के लिए काम करने लगते हैं. जनता द्वारा निर्वाचित सरकारें जब लोकतांत्रिक उद्देश्यों की प्राप्ति में नाकाम सिद्ध होती हैं, तब जनाक्रोश से बचने के लिए वे ‘सामाजिक न्याय’ को ढाल बनाती हैं. जागरूकता के अभाव में लोकतंत्र भीड़तंत्र में तथा ‘सामाजिक न्याय’ गैरबराबरी को पोषण करने वाली व्यवस्था का रक्षाकवच बन जाता है.
साम्यवाद और बहुजन
जाति हमारे यहां ‘सामाजिक न्याय’ और ‘साम्यवाद’ दोनों के गले की फांस रही है. यह व्यक्ति को जन्म के आधार पर छोटा–बड़ा बनाकर, मनुष्य से उसकी स्वतंत्रता तथा जीवन के मूलभूत अधिकार छीन लेती है. भारतीय समाज में निचली जातियों के शोषण और उत्पीड़न का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना सभ्यता का. उनका संत्रास इतना बड़ा है कि भीषण आर्थिक विपन्नता के बावजूद उन्हें जातिवाद से मुक्ति ही बड़ी और न्यायपूर्ण उपलब्धि जान पड़ती है. जाति–व्यवस्था के कारण ही भारत में राजनीति सवर्णों का विषेषाधिकार रही है. जातिवादी सोच से साम्यवादी दल भी उससे मुक्त नहीं है. अधिकांश सवर्ण वामपंथी वर्ण–व्यवस्था के प्रश्न पर मौन साधते आए हैं. जाति–संबंधी प्रश्न तथा उसके नाम पर होने वाले अत्याचार उन्हें उद्वेलित नहीं करते. वे उन्हें भारत की सांस्कृतिक पहचान के रूप में सहेजे रखना चाहते हैं. इस कारण दलितों और पिछड़ों के मन में, जो भारतीय समाज का सबसे बड़ा हिस्सा है, मार्क्स की भाषा में जिसे सर्वहारा कहा जा सकता हैᅳसाम्यवाद को लेकर कभी कोई उत्साह नहीं रहा. एकाध अवसर पर उन्होंने साम्यवाद को अपनाने की कोशिश भी की. कुछ ऐसे संकेत दिए, जिनपर ध्यान दिया जाता तो देश में साम्यवाद की सफलता की कहानी लिखी जा सकती थी. यहां एक घटना का वर्णन प्रासंगिक होगा. इसका उल्लेख डॉ. धर्मवीर ने अपने लेख ‘दलितों ने क्या चाहा था’ में किया हैᅳ
‘दलितों ने कम्यूनिस्ट शब्द का अपनी देशी जबान में तद्भव बनाकर ‘कौम–नष्ट’ के रूप में अर्थ लिया था. उस जमाने में कम्यूनिस्ट पार्टी के शांति त्यागी अपने समर्थकों के साथ मेरे गांव में चमारों की तरफ वोट मांगने आए. हम सब दादा हरिया के ओसारे के नीचे थे. धूल–धूप में शांति त्यागी(मेरठ के कम्यूनिस्ट नेता) ने आते ही दादा से पानी मांगा. दादा हरिया ने घड़े से गिलास में ठंडा पानी निकाला और शांति त्यागी ने वहीं वह सबके सामने पिया. उनके जाने के बाद चमारों में वोट के बारे में मंत्रणा हुई. सारे चमारों का वोट एकमुश्त एक तरफ जा रहा था, पर दादा हरिया ने कह दिया, मेरा वोट शांति त्यागी को जाएगा, क्योंकि उसने मेरे हाथ का पानी पिया है. चमारों में से केवल वही एक वोट शांति त्यागी को मिला था .’3
‘कम्यूनिस्ट’ को ‘कौम–नष्ट’ मान लेना दलितों और पिछड़ों की एकतरफा अपेक्षा थी. नई, मूल्य आधारित राजनीति से उनके जुड़ने का कारण ही यह उम्मीद थी कि उससे सामाजिक–सांस्कृतिक दासता से मुक्ति की राह प्रशस्त होगी. उसमें समानता–आधारित समाज की उनकी पुरानी आकांक्षा भी अंतनिर्हित थी. लेकिन उसकी चिंता न तो कांग्रेसी नेताओं को थी, न ही साम्यवाद के तत्कालीन कर्णधारों को. भारतीय साम्यवादियों में अधिकतर उच्चस्थ जातियों से आए थे. वे अपने जातीय पूर्वाग्रहों से बाहर निकलने को कतई तैयार न थे. उनके लिए साम्यवाद सामाजिक पुनर्निर्माण का लक्ष्य न होकर महज राजनीति थी. ऐसे नेताओं के मार्गदर्शन में साम्यवादी दलों ने जाति–व्यवस्था के उन्मूलन के लिए न तो कोई कार्यक्रम बनाया, न इस मांग के समर्थन में वे डॉ. आंबेडकर जैसे नेताओं के साथ आए. दलितों और पिछड़ों को साम्यवाद से ज्यादा उम्मीद अंग्रेजों द्वारा लागू किए गए विधि के शासन से थी, जिसने उन्हें मनुस्मृति के सहस्राब्दियों पुराने विधान से मुक्ति दिलाकर, कानूनी तौर पर ही सही, बराबरी के एहसास के साथ जीने का अवसर दिया था. हालांकि सामाजिक समानता का लक्ष्य अभी बहुत दूर था. दलितों द्वारा यह मजबूरी में किया गया समझौता था. इसका नुकसान न केवल भारतीय साम्यवादी आंदोलन, अपितु दलितों को भी उठाना पड़ा.
भेदभाव से परे, समानता पर आधारित वर्गहीन समाज की रचना यदि बहुजन का सपना है तो उसने इस लक्ष्य की दिशा में अपने भरोसे बढ़ने की कोषिष क्यों नहीं की? वे संख्या–बहुल थे. अगर जाति–विहीन समाज की दिशा में स्वयं आगे बढ़ते तो अपने मकसद में सफल हो सकते थे. संभवतः अंग्रेजों का साथ भी उन्हें मिलता. बहुजन ने इसके लिए स्वयं पहल क्यों नहीं की? इस तरह की जिज्ञासाएं स्वाभाविक हैं. किंतु हमें याद रखना होगा कि सांस्कृतिक दासता से मुक्ति की राह बेहद कठिन होती है. राजनीति में शासक और षासित आमने–सामने होते हैं. अवसर मिलने पर शासक को पराजित कर शासित, राजनीतिक दासता से मुक्त हो सकता है. सांस्कृतिक दासता से उबरने के लिए व्यक्ति को अपने साथ–साथ, आसपास के लोगों से भी, जो उसकी सामाजिक पहचान का हिस्सा हो सकते हैंᅳजूझना पड़ता है. उसका अपना समाज भी आड़े आता है. इसलिए सांस्कृतिक परिवर्तन की लड़ाई बेहद कठिन और लंबी होती है. उसके लिए व्यक्ति को अपनों के ही विरोध का सामना करना पड़ता है. जाति के आधार पर हजारों वर्षों से शोषण एवं उत्पीड़न का षिकार रहा बहुजन स्वयं हजारों प्रकार की जातियों, उपजातियां में बंटा था. धर्म और क्षेत्रीयता की दीवारें भी थीं. उन सबकी अपनी–अपनी सामाजिक–सांस्कृतिक विविधताएं, संघर्ष और अंतर्द्वंद्व थे. इस कारण वह कभी ऐसी सामाजिक षक्ति नहीं बन सका, जो उसे सांस्कृतिक वर्चस्व से मुक्ति दिला सके. उसकी इस कमजोरी का लाभ जिससे जैसे भी बन पड़ा, उसने वैसे ही उठाया.
अंग्रेजों ने भारत में पुराने धर्म–सम्मत राज्य को विधि–शासित राज्य में बदलने का बड़ा काम किया. हालांकि इसके पीछे उनका न तो कोई उदारवादी नजरिया था, न ही ‘सामाजिक न्याय’ जैसा बड़ा उद्देश्य. उनके स्वार्थ उनके कद से कहीं ज्यादा बड़े थे. भारत आने के बाद उन्होंने अपनी न्याय–प्रियता का बढ़–चढ़कर बखान किया, मगर सामाजिक अन्याय के निवारण हेतु सार्थक कार्यक्रम की शुरुआत उन्होंने कभी नहीं की. वे इस देश में शासक बनकर रहना चाहते थे. और हमेशा रहे भी. विधि–सम्मत शासन–व्यवस्था लागू करने के पीछे उनका एकमात्र उद्देश्य खुद को परिष्कृत सभ्यता का अनुगामी सिद्ध कर जनसाधारण की सहानुभूति और समर्थन प्राप्त करना था. इसका उन्हें लाभ भी मिला. समाज का बड़ा हिस्सा जो धर्म–केंद्रित शासन–व्यवस्था में उपेक्षा, उत्पीड़न और जातीय शोषण का शिकार था, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में वह नए शासन का समर्थन करने लगा.
अपनी न्याय–प्रियता का बढ़–चढ़कर बखान करने के बावजूद अंग्रेजों ने न तो जाति–व्यवस्था के उन्मूलन के लिए कोई कानून बनाया, न तत्संबंधी किसी सुधार कार्यक्रम का कभी समर्थन किया. जबकि भारत में जड़ जमाने के साथ ही वे भारतीय जाति–व्यवस्था तथा उसकी कमजोरियों को भली–भांति समझ चुके थे. वे ब्राह्मणों और क्षत्रियों की सामाजिक हैसियत और समाज पर उनकी पकड़ को समझते थे. जानते थे कि इन वर्गों की मदद से, शेष समाज को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है. ब्राह्मण तथा दूसरे सवर्ण सोचते थे कि अंग्रेज उनके निजी मामलों में दखल न देने की नीति पर अटल हैं. मुगल शासकों से भी उनकी यही अपेक्षा थी. इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि उनके मुगलकाल में भी शीर्ष पदों पर थे. इस प्रवृत्ति के चलते देश को एक हजार से अधिक वर्ष विदेशी शासकों के अधीन काटने पड़े. यही कारण रहा जो मुट्ठी–भर अंग्रेज, अपने देश से आठ हजार किलोमीटर दूर आकर भारत पर करीब दो सौ वर्षों तक राज करते रहे. हजार वर्षों के पराधीनताकाल में ब्राह्मणों की सामाजिक हैसियत पर कोई अंतर नहीं पड़ा. ब्राह्मणों के लिए उनका धर्म और कर्मकांड की सबकुछ थे. वे बचे रहें, देश–प्रेम तथा राष्ट्रीयता की भावना से उनका कोई सरोकार न था.
अवर्णों को भी औपनिवेशिक शासन से खास आपत्ति न थी. अंग्रेजों ने उन्हें ‘मनुस्मृति’ के चंगुल से आजाद कराया था. शिक्षा जो पुरानी व्यवस्था में अपराध थी, उसके दरवाजे शूद्रों और दलितों के लिए खोल दिए गए थे. दलितों और पिछड़ों के लिए यह बड़ी उपलब्धि थी. यही कारण है कि स्वाधीनता संग्राम का समर्थन करने के बावजूद दलित और पिछड़े वर्ग के नेता, सामाजिक आजादी की मांग बराबर दोहराते रहे. पेरियार ने तो सक्रिय राजनीति से 1925 में ही किनारा कर लिया था. उसके बाद उन्होंने स्वयं को ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ को समर्पित कर दिया था, जो सामाजिक न्याय को समर्पित बड़ा, वर्षों लंबा चलने वाला सफल आंदोलन था.
‘सामाजिक–न्याय’ की अवधारणा ने भारत में पश्चिम के रास्ते प्रवेश किया था. स्वाधीनता आंदोलन में अपनी सक्रियता और चरम–सफलता के दिनों में भी कांग्रेस ने, जो खुद को भारतीयों की एकमात्र प्रतिनिधि पार्टी होने का दावा करती थी, सामाजिक न्याय की कभी मांग नहीं की. देश की राजनीति में उसे आजादी के बाद ही जगह मिल सकी. उस समय तक दलित और पिछड़ी जातियां राजनीतिक चेतना से लैस हो चुकी थीं. स्वाधीनता संग्राम में उन्होंने बढ़–चढ़कर हिस्सा लिया था. बदले परिवेश में उनकी उपेक्षा असंभव थी. इसलिए कांग्रेस तथा दूसरे अभिजन नेताओं द्वारा तमाम चालाकी बरतने के बावजूद अंतत उन्हें ‘सामाजिक न्याय’ को अपने राजनीतिक कार्यक्रम का हिस्सा बनाना ही पड़ा. आजाद भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपना गया. चूंकि लोकतंत्र में संख्या–बल बड़ी भूमिका होती है, इसलिए दलितों और पिछड़ों को साथ लेकर चलना सभी दलों की मजबूरी बन गई. दलितों को फुसलाने के लिए फिर सामाजिक न्याय का प्रलोभन दिया जाने लगा. इस बीच ऐसा वर्ग भी रहा जिसका मानना था कि समानता और न्याय के लक्ष्य को हासिल करने के लिए विदेशों से विचारधारा उधार लेने की आवश्यकता नहीं है.
ऐसे लोगों ने ‘सामाजिक न्याय’ के विकल्प के तौर पर ‘रामराज्य’ को आगे किया. प्रकारांतर में उनकी कोशिश प्राचीन धर्म–केंद्रित शासन को वापस लाने की थी. वे अपने उन स्वार्थों को विशेषाधिकार बनाना चाहते थे, जिन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था में लगातार चुनौती मिल रही थी. जिनकी सुरक्षा हेतु दलितों और पिछड़ों का सांस्कृतिकरण या यूं कि कहें कि वर्चस्वकारी संस्कृति के प्रति समर्पण आवश्यक था. 2014 में सत्ता–परिवर्तन के बाद वे शक्तियां केंद्र तक पहुंच चुकी हैं. उनका नया नारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का है. ‘रामराज्य’ उनके लिए सांस्कृतिक वर्चस्ववाद का टोटम, ऐसा औजार है जिसके माध्यम से वे सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाए रखना चाहते हैं. अपने समर्थक बुद्धिजीवियों के माध्यम से वे उसे जनता के बीच लगातार प्रचारित करते हैं. जरूरत पड़ने पर इतिहास में मनमाना हस्तक्षेप तक करते हैं. भूल जाते हैं कि राज्य जब वास्तविक न्याय की ओर से तटस्थ हो जाता है, तो वह वर्गीय तानाशाही का शिकार होने लगता है. उस समय धर्म स्वतः उसकी कार्यशैली में हस्तक्षेप करने लगता है. ऐसा राज्य अपने निर्णय न्याय और नागरिकों की सामान्य इच्छा, जरूरतों के आधार पर लेने के बजाय आस्था, विश्वास और परंपरा के अनुसार लेने लगता है. प्रकारांतर में राज्य का औचित्य ही समाप्त हो जाता है. उसकी बनावटी निष्पक्षता, शीर्षस्थ वर्गों की आत्ममुग्धता का रूप ले लेती है.
‘रामराज्य’ का जिक्र हुआ है तो उसपर थोड़ी चर्चा और. कल्याण राज्य की पहचान उसकी उदारता और न्याय–भावना से की जाती है. इस बात से होती है कि उसका मनुष्यता में कितना विश्वास है. राजा के रूप में राम की कोई न्याय–संहिता नहीं है. राम को धर्म–संस्थापक माना गया है. उसकी कथित महानता ब्राह्मणवाद को सर्वोपरि मान उसे ‘धर्म’ के नाम से प्रतिस्थापित करना है. इस कारण वह न तो अपनी पत्नी के साथ न्याय कर पाता है, न शंबूक के साथ. निर्दोष पत्नी को धोबी के मिथ्या आक्षेप पर देश–निकाला दे देता है तो शंबूक को चंट ब्राह्मणों के बहकावे में आकर मौत के घाट उतार देता है. ऐसे न्याय से एक ही वर्ग लाभान्वित हो सकता है. वह जिसके हाथों में धर्म का नियंत्रण है. चूंकि सामाजिक न्याय की अवधारणा अपने आप में अस्पष्ट अवधारणा है, उसकी कार्यशैली स्पष्ट नहीं है, इसलिए उसके नाम पर मनमानी करने का अवसर स्वार्थी राज्य–प्रतिनिधियों को आसानी से मिल जाता है. ‘रामराज्य’ जैसी पुराकथाओं के माध्यम से वे जनसाधारण का सतत भावनात्मक दोहन करते हैं.
यदि ‘सामाजिक न्याय’ नहीं तो और क्या? क्या सामाजिक उत्पीड़न तथा भेद–भाव का शिकार रहे लोगों के लिए ‘सामाजिक न्याय’ पूर्णतः अप्रासंगिक और अनपेक्षित है? क्या जाति, धर्म, वर्ण आदि के नाम पर शोषण और अन्याय का शिकार होते आए बहुजनों द्वारा ‘सामाजिक न्याय’ की मांग निरर्थक है? क्या बहुजन को ‘सामाजिक न्याय’ की मांग तक सीमित रह जाना चाहिए? अथवा ‘साम्यवाद’ की मांग करते हुए वर्गहीन समाज की संरचना हेतु अग्रसर होना चाहिए? ‘साम्यवाद’ और ‘सामाजिक न्याय’ की मूलभूत विशेषताओं का अभी तक जो विवेचन किया गया है, उससे यह द्वंद्व स्पष्ट हो जाता है. उपसंहार के रूप में हमें केवल इतना जोड़ना है कि ‘सामाजिक न्याय’ समानता का समर्थन नहीं करता. वह असमानता के शिकार लोगों को थोड़ी राहत की मांग करते हुए यथास्थिति बनाए रखना चाहता है. शासक और शासित, दाता और याचक के बीच जो अंतर है, उसे मिटाने के बजाए वह उन्हें अपरोक्ष समर्थन देता है. वैसे भी ‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर न्याय–संबंधी अधिकांश योजनाएं जनता की जरूरत के बजाय संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर बनाई जाती हैं. युद्ध, महंगाई, आर्थिक मंदी, प्राकृतिक आपदा आदि से अर्थव्यवस्था पर आकस्मिक दबाव उत्पन्न हो तो उसकी भरपाई ‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर बनी संस्थाओं के बजट से की जाती है. सरकार ऐसी योजनाओं को औपचारिक भाव से कार्यान्वित करती है. प्रतिबद्धता के अभाव में वे योजनाएं आसानी से भ्रष्टाचार का शिकार हो जाती हैं.
राज्य और सरकार दोनों नागरिक का कार्य हैं. उनका गठन सामाजिक सुरक्षा एवं ऐसे लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु किया जाता है, जिससे उन सुखों को आसानी से प्राप्त किया जा सके, जो किसी अकेले व्यक्ति के लिए संभव नहीं है. जैसे राज्य और सरकार नागरिक का कार्य है, ऐसे ही सामाजिक न्याय राज्य का दायित्व है, जिसे वह नागरिकों के प्रति अपने दायित्वों की पूर्ति हेतु अपनाता है. बावजूद इसके जनता द्वारा निर्वाचित सरकारें चाहे वे किसी भी तरह की क्यों न हों, नागरिकों के श्रम और पैसे से चलने के बावजूदᅳकालांतर में अपने दायित्वों से मुंह मोड़ने लगती हैं. वे ‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर विपन्नताग्रस्त वर्गों को मामूली राहत पहुंचाकर कल्याणकारी होने का दम भरती रहती हैं. प्रकारांतर में वे ऐसी संस्कृति का पोषण–पल्लवन करती हैं, जो समाज को श्रेष्ठतम और साधारण, शासक और शासित में बांटे रखती हैं. जनता की उदासीनता के चलते, वे येन–केन–प्रकारेण नागरिकों को यह विश्वास दिलाने में कामयाब होती हैं कि श्रेष्ठतम की शासकीय भूमिका और साधारण का शासित होना नियतिसिद्ध है. साम्यवाद इस तरह के वर्गभेद को नकारता है. वह सांस्कृतिक वर्चस्व के मूलाधार धर्म को राज्य के कामकाज से एकदम अलग रखने पर जोर देता है. धर्मकेंद्रित संस्कृति के स्थान पर वह श्रमकेंद्रित संस्कृति को बढ़ावा देता है. जिससे शारीरिक और बौद्धिक श्रम के बीच का अंतर मिटने लगता है. ऐसा ही समाज बहुजन का सपना और आदर्श हो सकता है.
तो क्या आमूल परिवर्तन की मांग को टालने, यथास्थिति बनाए रखने के लिए ‘सामाजिक न्याय’ महज राजनीतिक स्टंट है? ‘सामाजिक न्याय’ के उद्देश्य को देखते हुए उसकी सीधे आलोचना भले ही अनुचित लगे, परंतु जब तक जनता अपने हितों एवं अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं होगी हालात में सुधार के लिए जब तक खुद को दूसरों पर आश्रित मानती रहेंगीᅳतब तक ‘सामाजिक न्याय’ अपने उद्देश्य में विफल बना रहेगा. हालात उसी ओर संकेत कर रहे हैं. हाल के वर्षों में राजनीति व्यापार तथा चुनाव मत–प्रबंधन में बदल चुका है. दलित और पिछड़े मतदाताओं को लुभाने के चुनावी प्रयासों के लिए इधर एक नया शब्द निकलकर आया हैᅳ‘सोशल इंजीनियरिंग. उसका सामाजिक न्याय से कोई संबंध नहीं है. यह उसके नाम पर मतदाताओं को लुभाने जातीय समीकरणों को अपने पक्ष में साधने की चुनावी तकनीक है, जिसे अवसरवादी दल अकेले या दूसरे दलों के साथ गठजोड़ करके अमल में लाते हैं. सामाजिक न्याय का संबंध राज्य के स्वरूप से न होकर, उसके उत्तरदायी आचरण से है; और राज्य तभी अपने दायित्वों के प्रति सजग रह सकता है, जब जनता जागरूक तथा अपने अधिकारों के प्रति सजग हो.
संक्षेप में सामाजिक न्याय धर्म की प्रभुता में, मानवीय मूल्यों को साथ लेकर चलने की कला है. जबकि साम्यवाद धर्म को किनारे कर, विधायी तरीकों से न्याय की अपेक्षा करता है. अभी तक साम्यवाद के लिए वर्ग–क्रांति को अनिवार्य माना गया है. किंतु वर्ग–क्रांति केवल हिंसा के बल पर फलीभूत हो, यह आवश्यक नहीं है. देखा यही गया है कि जिन देशों में हिंसक वर्ग–क्रांति के बल पर सत्ता परिवर्तन हुआ, वहां वर्गहीन समाज की रचना का स्वप्न पूरा होने से पहले ही सर्वहारा शक्तियां अपने अंतर्द्वंद्वों के कारण बिखराब का शिकार होती गईं. कारण है कि हिंसा की मदद से सत्ता–परिवर्तन का लक्ष्य पाने वाले राज्य आगे भी उसके पैरोकार बने रहते हैं. इससे चाहे–अनचाहे वे अपने चारों और फैली बुर्जुआ ताकतों के बीच शक्ति–संतुलन बनाने की होड़ में जुट जाते हैं. नतीजा यह होता है कि उनके संसाधनों का बड़ा हिस्सा अनुत्पादक कार्यों पर खर्च होने लगता है, जो प्रकारातंर में सामाजिक असंतोष में वृद्धि करता है. वर्गहीन समाज की रचना तभी संभव है जब जनता के सभी समूह उसके लिए प्रतिबद्ध हों. यह कैसे संभव हो? समानता, समरसता, न्याय और स्वतंत्रता का सपना देखने वालों के लिए हमारे समय की यही सबसे बड़ी चुनौती है.
© ओमप्रकाश कश्यप
1. The best safeguard against fascism is to establish social Justice to the maximum possible extent. Arnold Toynbee, 1876
2. Justice is first virtue of social institutions, as truth is of system of thought. A theory however elegant and economical must be rejected or revised if it is untrue; likewise laws and institutions no matter how efficient and well arranged must be reformed or abolished. -John Rowls(1971)
3. http://janadesh.in/InnerPage.aspx?Story_ID=5525
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