समाजवाद के आधुनिक विकल्प
पूंजीवाद के वर्चस्वकारी रवैये की प्रतिक्रिया में उससे मुक्ति पाने के जनांदोलनों की शुरुआत अठारहवीं शताब्दी में ही हो चुकी थी. यही वह दौर था, जब व्यक्ति–स्वातंत्रय और उपयोगितावाद की मांग ने जोर पकड़ा. दोनों विचारधाराओं का ध्येय धर्मसत्ता और सामंतवाद के चंगुल में शताब्दियों से पिसते आ रहे जनसामान्य के लिए मुक्ति की राह प्रशस्त करना था. दोनों समाजवाद की मूल भावना से भी मेल खाती थीं, जो उन दिनों पूंजीवाद के विरुद्ध तेजी से उभरती विचारधारा थी. उपयोगितावाद के समर्थकों का मानना था कि सृष्टि में कुछ भी अनुपयोगी नहीं है. सुख प्राप्त करना व्यक्ति–मात्र का अधिकार है. इसे आगे बढ़ाते हुए स्वाधीनतावादी विद्वान व्यक्ति–मात्र को अपनी रुचि के अनुसार कार्य चुनने तथा सुख के अवसर जुटाने के अवसर देने के समर्थक थे. उल्लेखनीय है कि विश्व के प्रायः सभी समाजों में बुद्धिजीवियों का एक वर्ग भौतिक सुख के प्रति नकारात्मक सोच रखते हुए, त्याग और दीनताबोध का अतिरिक्तरूप से महिमामंडन करता रहा है. इससे संसार को माया कहकर इससे पलायन का उपदेश देने वाले, मोक्ष की कामना में शरीर को तरह–तरह की प्रताड़ना देने वाले तांत्रिकों, धर्माचार्यों को बढ़ावा मिला. इसी विचारधारा के समर्थन से प्रायः सभी समाजों में पुरोहितवर्ग का उदय हुआ जो प्रकटरूप में भौतिक सुखों का तिरष्कार करते थे, किंतु उनका अपना जीवन त्याग–तपश्चर्य की स्वनिर्मित आचारसंहिता का उल्लंघन करता था. यहां यह जानना भी प्रासंगिक है कि व्यक्ति–स्वातंत्र्य की मांग सामंतवाद के चंगुल में शताब्दियों से पिसते आ रहे लोगों को देखकर जन्मी थी, जिसने बुद्धिजीवियों के बड़े वर्ग को प्रभावित किया. प्रकारांतर में उसको पूंजीवाद का भी भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ. दरअसल पूंजीवाद के विकल्प की खोज के लिए बुद्धिजीवियों का उछाह इतना था कि एक के बाद एक नई विचारधाराएं सामने आ रही थीं. ध्येय सभी का एक था—किसी भी भांति पूंजीवाद के जिन्न को बोतल में बंद करना. साम्यवाद, समाजवाद, अराजकतावाद, सामूहिकतावाद, राज्यप्रेरित समाजवाद, गणतांत्रिक समाजवाद सहित अनेक विचारधाराएं उस दौर में लगभग साथ–साथ जन्मीं. चूंकि सभी विचारधाराओं का ध्येय एक था तथा सभी पर मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव भी था, इसलिए उन सब में कुछ समानताएं भी थी. कुछ विचारधाराओं का अंतर तो इतना मामूली कि बस शब्दों का ऐर–फेर जान पड़ता है. ‘श्रमिकसंघवाद’ अथवा ‘सिंडीकेलिज्म’ इसी प्रकार की एक विचारधारा थी, जिसका उदय राज्याश्रित समाजवाद तथा पूंजीवादी शोषण से मुक्ति पाने की कामना के साथ हुआ था. असल में यह एक राजनीतिक–आर्थिक दर्शन है, जिसका ध्येय समाज को पूंजीवाद के चंगुल से छुटकारा दिलाना है. प्रकारांतर में यह व्यवस्था राज्य द्वारा पे्ररित–अनुशासित समाजवाद का भी विरोध करती है. अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए श्रमिकसंघवाद श्रमिक संघों, मजदूर संगठनों तथा औद्योगिक श्रमिक–यूनियनों का उपयोग करता है. इसमें श्रमिक आगे बढ़कर उत्पादनतंत्र को अपने हाथों में ले लेते हैं. उत्पादन केंद्रों का संचालन श्रमिकों द्वारा सामूहिक लाभ की अवधारणा के साथ किया जाता है, जहां औद्योगिक स्पर्धा, एकाधिकार की भावना का नामोनिशां नहीं होता. अराजकतावाद की भांति श्रमिकसंघवाद भी राज्य को मानवीय स्वतंत्रता का अवरोधक मानता है. उसका विश्वास है कि सत्ता का कोई भी रूप वर्चस्व–कामना से मुक्त नहीं हो सकता. जहां वर्चस्व की कामना है, वहां आर्थिक–सामाजिक असमानताएं हैं. जहां असमानता है, वहां शोषणकारी प्रवृत्तियां हैं. जहां शोषणकारी प्रवृत्तियां हैं, वहां शोषणकारी शक्ति के प्रतीक सत्ता–शिखर पर विराजमान लोग, राज्य के संसाधनों का अपने वर्गीय हितों के अनुरूप दोहन करने लगते हैं. कालांतर में राज्य पूंजीवाद का सहायक बनकर, श्रमिकों का विरोधी बन जाता है. इसलिए राज्यसत्ता का विरोध करते हुुए श्रमिकसंघवाद, उसे श्रमिक संगठनों के लोकतांत्रिक संगठनों द्वारा अनुशासित किए जाने का सुझाव देता है.
‘सिंडीकेलिज्म’ फ्रांसिसी शब्द है, जिसका अर्थ है—‘व्यापारिक संगठनवाद’. यानी वह विचारधारा जो संगठित श्रमशक्ति, जो वास्तविक उत्पादक और उपभोक्ता है, द्वारा राज्य और पूंजीवाद की मनमानियों से ऊपर उठकर समस्त आर्थिक–राजनीतिक सत्ताकेंद्रों पर अधिकार जमा लेने का पक्ष लेती है तथा उत्पादन को संगठन के हित में उपयोग करने का समर्थन करती है. बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में इसे अराजकतावादी–श्रमिकसंघवाद भी कहा जाने लगा था. ‘श्रमिकसंघवाद’ राज्य और पूंजीवाद दोनों की अधिसत्ता के विरुद्ध है. उसका प्रथम लक्ष्य है, राजनीति के बजाय व्यवसाय के नाम पर व्यक्तियों और संगठनों को एकजुट करना, तदनंतर आमूल परिवर्तन के हेतु सदैव तैयार रहना. इस विचारधारा के अनुसार आर्थिक अल्पतंत्र तथा राज्य प्रेरित अधिनायकवाद से मुक्ति के लिए श्रम–संगठन सर्वाधिक सशक्त माध्यम हैं. बहुसंख्यक श्रमिक वर्ग के हितों की रक्षा केवल उनकी संगठित शक्ति और लोकतांत्रिक निर्णय–प्रक्रिया द्वारा संभव है. उत्पादन कार्य श्रम–संगठनों के परस्पर सहयोग और श्रम–अंतरण के आधार पर संपन्न किया जाए तो उसके बेहतर परिणाम निकलेंगे.
श्रम–संगठनवाद का जन्म फ्रांस में राजनीति प्रेरित समाजवाद के विरोध–स्वरूप हुआ था. अल्प समय में ही विश्व–भर के समाजवादी दलों ने स्वयं को इसको जोड़ लिया. ‘सिंडीकेलिज्म’ के माध्यम से सभी का एक ही ध्येय था, श्रमिक संघों को संगठन एवं क्रांति के लिए प्रेरित करना और उनकी सहायता से पूंजीवाद को उखाड़ फेंकना. तदनंतर ऐसी समानताधर्मी व्यवस्था का गठन करना जिसमें श्रमिक को उसके द्वारा किए गए कार्य का पूरा पारिश्रमिक प्राप्त हो सके. श्रम के प्रति सम्मान की भावना हो तथा शारीरिक–बौद्धिक श्रम के बीच कहीं भी, किसी भी प्रकार का स्तरीकरण जन्म न ले सके. ‘श्रमिकसंघवाद’ की समानधर्मा विचारधारा समाजवाद गणतंत्र का पक्ष लेती थी, वह राज्य को यह अधिकार देती थी कि वह समस्त संसाधनों पर अधिकार कर, लोगों से उनकी क्षमता के अनुरूप काम लेते हुए, उन्हें उनकी आवश्यकता के अनुसार समिधा उपलब्ध कराए. समाजवाद लोकतंत्र और राज्य दोनों का समर्थक था. श्रमिक संघवाद के समर्थकों को लगता था कि राज्य अपने कर्तव्य का पालन करने में असमर्थ रहा है. गणतांत्रिक प्रक्रिया के सहारे सत्ता में आए कथिक सेवाव्रती नेतागण बहुत शीघ्र अपना कर्तव्य भूल जाते हैं. इसलिए श्रमिकसंघवाद राज्य और संसदीय गणतंत्र दोनों का निषेध करता है. इसके स्थान पर वह समस्त सत्ता श्रमिक–संघों को सौंपे जाने का पक्ष लेता है. समाजवाद, अराजकतावाद और समाजवाद की भांति श्रमिकसंघवाद भी मानता है कि श्रमिक वास्तविक उत्पादक हैं, इसलिए उत्पादन का लाभ उनको मिलना ही चाहिए. श्रमिकसंघवाद का विकास समाजवादी ढांचे की असफलता के फलस्वरूप हुआ था. जर्मनी में वामपंथी आंदोलन उनीसवीं शताब्दी में ही जोर पकड़ चुका था. लेकिन इसी शताब्दी के अंत तक समाजवादी नेताओं के बीच तीखे मतभेद जन्म ले चुके थे. 1912 के चुनावों में वहां सोशिलिस्ट पार्टी को एक–तिहाई सीटें मिली थीं. समाजवादी धड़ों की इस सफलता में पुनरुत्थानवादी लेखक–विचारक आ॓गस्ट बेबल का बड़ा योगदान था. उसकी मृत्यु के उपरांत समाजवादी दलों में फूट पड़ने लगी थी, जिससे ‘जर्मन सोशिलिस्ट’ पार्टी दो हिस्सों में बंट गई. इससे समाजवादी आंदोलन को तात्कालिक रूप से धक्का पहुंचा.
मार्क्स ने अपने जीवन के अंतिम दिन इंग्लेंड में बिताए थे. वहीं रहकर उसने अपने वृहदग्रंथ ‘पूंजी’ का लेखन भी किया था. इसके बावजूद वह इंग्लेंड में मार्क्सवाद का बहुत कम प्रभाव छोड़ पाया था. पूंजीवाद को जोरदार टक्कर देने के लिए वहां सहकारिता आंदोलन पनपा था, जिसने दुनिया–भर के परिवर्तनकामियों नेताओं, विचारकों, लेखकों, साहित्यकारों और कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया था. 1848 में जब मार्क्स कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो द्वारा श्रमिकों को नए सिरे से एकजुट होने और संगठित विरोध के आवाह्न कर रहा था, इंग्लेंड ‘रोशडेल पायनियर्स’ के नेतृत्व में सहकार की सफल, अहिंसक, परस्पर सहयोगकारी, लोकतांत्रिक डगर पर कदम बढ़ा चुका था. यूरोपीय देशों में चल रहे समाजवादी आंदोलनों से फ्रांस भी अछूता नहीं था. रूसो, चाल्र्स फ्यूरियर, प्रूधों जैसे महान विचारकों जिन्होंने पूंजीवाद विरोध की वैश्विक पृष्ठभूमि तैयार करने का काम किया, वहीं जन्मे थे. श्रममुक्ति एवं श्रम–स्वालंबन के लिए चलाए जा रहे आंदोलन के फलस्वरूप फ्रांस में जो समाजवादी आंदोलन जन्मा, उसपर प्रूधों का काफी प्रभाव था. उसको वहां पर ‘क्रांतिकारी श्रमिकसंघवाद’ अथवा ‘श्रमिकसंघवाद’ कहा गया, जो कालांतर में केवल श्रमिकसंघवाद के नाम से पहचाना जाने लगा. नए नाम के बावजूद श्रमिकसंघवाद समाजवाद की प्रारंभिक स्थापनाओं के बेहद करीब था. श्रम, सहयोग, एकता, अखंडता और सीधी कार्रवाही और लोकतांत्रिक संगठन उसके प्रमुख उद्देश्य थे, हालांकि इसमें कुछ सैद्धांतिक कमजोरियां भी थीं. वहीं इसके विकास में अवरोधक बनीं.
अराजकतावाद और समाजवाद यह व्यवस्था करते हैं कि एक बार सत्ताकेंद्रों पर अधिकार जमा लेने के बाद समाजवादी विचारधारा के अनुकूल संस्थाओं का गठन किया जाएगा, जो प्रकारांतर में अर्थिक एवं राजनीतिक गतिविधियों को संभाल लेंगी. उनसे भिन्न श्रमिकसंघवाद श्रमिकसंघों को महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंपे जाने का पक्ष लेता है. वह नए श्रम–संगठनों का गठन करने तथा कार्यरत श्रमिक–संघों को अधिक अधिकार दिए जाने का समर्थन करता है. अपने इसी सोच के अनुरूप उसने अपनी सैद्धांतिकी विकसित की थी, जिसके आधार पर फ्रांस में श्रमिकसंघवाद की नींव रखी गई. इसके आशय को समझने के लिए फ्रांस के व्यापारिक संघों, संगठनों की गतिविधियों पर विचार करना प्रासंगिक होगा. फ्रांस में श्रमिकसंघवाद का उदय असल में वहां की आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों की देन था. अराजकतावादी बकुनिन के समर्थकों का भी उनमें प्रमुख योगदान था. उन्हीं के प्रभावस्वरूप फ्रांस में ‘प्रथम इंटरनेशनल’ को अप्रत्याशित सफलता प्राप्त हुई थी. 1869 में ही ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के फ्रांसिसी सदस्यों की संख्या 2,50,000 को पार कर चुकी थी. जाहिर है कि अपनी संगठित शक्ति के बल पर श्रमिक संगठनों का आत्मविश्वास बहुत बढ़ा हुआ था. इसका पहला सुखद परिणाम 1871 की पेरिस क्रांति के रूप में सामने आया. लेकिन बिना किसी पूर्वयोजना के एकाएक सत्ता–शिखर पर काबिज हुए श्रम–संगठन लंबे समय तक अपनी स्थिति को बनाए नहीं रह सके; और ‘पेरिस कम्यून’ का वह प्रथम समाजवादी प्रयोग तीन महीने से भी कम समय में विफल हो गया. बहरहाल फ्रांसिसी श्रमिक आंदोलन की उपलब्धियों से इन्कार नहीं किया जा सकता. यह स्थिति तब थी, जब फ्रांसिसी समाजवादी आंदोलन स्वयं कई विचारधाराओं और गुटों में बंटा था तथा फ्रांस और जर्मनी के बीच युद्ध के कारण उसमें 1870—1877 के बीच बड़ा व्यवधान आ चुका था. 1875 के आसपास फ्रांसिसी समाजवादी आंदोलन के दो प्रमुख धड़े थे. एक धड़ा संसदीय लोकतंत्र के समर्थकों का था और दूसरा ‘साम्यवादी–अराजकतावादी’ विचारकों का. दूसरा धड़ा राज्य को अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सबसे बड़ा दुश्मन मानता था. वे संसदीय लोकतंत्र में चारों से उठ रही सुधारवाद की मांगों की यह कहकर उपेक्षा करते आ रहे थे कि सामाजिक क्रांति के माध्यम से राज्य को सदा के लिए खत्म किया जा सकता है. जब राज्य ही नहीं रहेगा तो संसदीय सुधारों का भी कोई अर्थ ही न रह जाएगा. राज्यसत्ता के विरोधी विचारक दूसरों से संख्याबल में भले ही कम हों, परंतु बौद्धिक प्रखरता में वे अपने प्रतिपक्षियों से कहीं आगे थे. उनमें पू्रधों और बकुनिन प्रमुख थे. उनके विचारों के फलस्वरूप फ्रांस में समाजवादी आंदोलन को भारी सफलता तो मिली थी, लेकिन वह अपने ही अंतर्विरोधों का शिकार होकर रह गया. समाजवादियों का वह धड़ा जो यह मान रहा था कि समाजवादी विचारधारा पर आधारित समाज की स्थापना के पश्चात राज्य नेपथ्य में चला जाएगा, वह स्वयं भारी अंतद्र्वंद्वों का शिकार था. परिणाम यह हुआ कि 1882 में समाजवादी आंदोलनों दो धड़ों में विभाजित हो गया. एक का नेता ज्यूस्ड को बनाया गया. मार्क्स के विचारों का समर्थक ज्यूस्ड अवसरवादी राजनीतिज्ञ पा॓ल बूस का अनुयायी था. मार्क्सवाद को वह वहीं तक अपनाना चाहता था, जहां तक वह उसकी स्वार्थ–सिद्धि में सहायक हो. 1890 तक आते–आते बूस के साथ उसके जैसे स्वार्थी, कट्टरपंथी और अवसरवादी नेता जुड़ते चले गए. दूसरा वर्ग स्वतंत्र समाजवादियों का था, जिनमें जोर्स, विवायनी, मिलरेंड आदि सम्मिलित थे.
दोनों धड़ों के बीच विवाद लगातार बढ़ते ही जा रहे थे. इससे फ्रांसिसी का परेशान होना स्वाभाविक था. अंततः श्रम–संगठनों ने आपसी सहमति से एक युगांतरकारी निर्णय लिया, जिसके द्वारा श्रमिक–हितों को राजनीति से दूर रखने का निर्णय लिया गया. इसके अनुकूल परिणाम कुछ ही समयावधि में सामने आने लगे. आगे चलकर इससे श्रमिक संगठनों को नई ताकत और ऊर्जा हासिल हुई. प्रकारांतर में यही घटना श्रमिकसंघवाद के उद्भव का कारण बनी. बदलती वैश्विक परिस्थितियों ने 1905 में फ्रांसिसी समाजवादी पार्टी के दोनों धड़ों को फिर से एक हो जाने के लिए बाध्य कर दिया. इसका परिणाम ‘यूनाइटेड सोशियलिस्ट पार्टी’ के रूप में सामने आया. उस समय कुछ बुद्धिजीवी ऐसे भी थे जिन्होंने किसी पार्टी–विशेष से जुड़ने के बजाय स्वतंत्र रहना पसंद किया था. 1914 में चुनावों में ‘यूनाइटेड सोशियलिस्ट पार्टी’ को 102 सीटें मिली. उनके अलावा 30 समाजवादी निर्दलीय जीतकर आए. दोनों की सम्मिलित संख्या 132, कुल 590 सीटों में बहुमत के अनुसार कम थी, तो भी वह समाजवादी खेमे की अप्रत्याशित–अभूतपूर्व विजय थी, जिसने फ्रांस में समाजवादी विचारधारा को पांव जमाने में मदद मिली. समाजवादी होना, फ्रांस की राजनीति में प्रवेश करने के लिए अनिवार्य होता चला गया. लेकिन विडंबना यह रही थी कि समाजवादी झंडे के नीचे चुनाव लड़कर संसद में पहुंचे नेतागण अपने आचरण और व्यवहार में समाजवादी विचारधारा के क्रमशः दूर होते जाते थे. राजनेता ही क्यों पत्रकारों का भी यही हाल था. समाजवादी पत्रिका के संपादक मिर्लेंड का चरित्र तो मानो राजनीतिक अवसरवाद का पक्का उदाहरण था. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि श्रमिक वर्ग के हितों की राजनीति करने वाले नेताओं का राजनीति से मन उचटता चला गया और वे संगठन की ओर वापस लौटने लगे. इसके फलस्वरूप श्रमिकसंघवाद को नए–नए क्षेत्रों में पांव जमाने का अवसर मिला—श्रमिकसंघवाद की दृढ़ मान्यता थी कि श्रमिक वर्ग ही प्रमुख उत्पादक शक्ति है. यह पूंजीवाद की उस अवधारणा का विरोध करता था, जो उसको मात्र उपभोक्ता मानती आई है. उसके नेताओं का जोर कार्य की परिस्थितियों में सुधार के साथ उद्योगों को पुनर्गठित करने पर था—
‘वह औद्योगिक कार्रवाही को राजनीतिक कार्रवाही के विकल्प के रूप में स्थापित करना तथा विभिन्न व्यापार–संघों एवं श्रमिक संगठनों को ऐसे उद्देश्यों के निमित्त उपयोग करना चाहता था, जिन्हें पारंपरिक समाजवाद संसदीय लोकतंत्र के माध्यम से पूरा करने का सपना देखता रहा है.’
फ्रांस में ‘सिंडीकेलिज्म’ शब्द असल में ट्रेड यूनियनिज्म के पर्याय के रूप में प्रयोग किया जाता है. आगे चलकर फ्रांसिसी श्रमिक संगठनवादी दो भागों में बंटते चले गए. पहला वर्ग सुधारवादियों का था, जो वर्तमान व्यवस्था को ही श्रमिकोन्मुखी एवं उदार बनाना चाहते थे. दूसरा वर्ग क्रांति–धर्मा ‘ट्रेड यूनियनिस्ट’ का था. उनका मानना था कि राज्य की मनमानी के चलते श्रमिक कल्याण के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर पाना असंभव है. इसके लिए श्रमिक संघों को राजनीतिक संस्थाओं के विकल्प के रूप में इस्तेमाल करना होगा. यह दूसरा वर्ग ही आधुनिक ‘सिंडीकेलिज्म’ से संबद्ध माना जा सकता है. फ्रांसिसी श्रमिकसंघवादियों का मूल संगठन 1895 में स्थापित ‘कन्फेडरेशन जनरल आॅफ लेबर’ था, जिसमें आरंभ में 700 से अधिक मजदूर संघ सम्मिलित थे. उनके सदस्यों की संख्या लाखों में थी. इसके बावजूद इस संगठन के महत्त्व को 1902 में ही स्वीकारा जा सका. आरंभ में उसके सदस्यों की संख्या सीमित ही थी—लगभग पांच लाख. परंतु युद्ध की संकटकालीन परिस्थितियों में उसने अपने हजारों समर्थक पैदा कर लिए थे. वाल्डेक रूसो ने 1884 में श्रमिकसंघों को मान्यता देकर ‘श्रमिकसंघवाद’ को नई पहचान दी. उसके बनाए गए कानून में प्रत्येक श्रमिकसंघ की स्वायत्तता को, चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा, उसकी सदस्य संख्या से निरपेक्ष रहते हुए, महत्त्व दिया गया था. प्रत्येक श्रमिकसंघ में राजनीति से दूर रखने का निर्णय लिया गया था. इस निर्णय के पीछे मान्यता थी कि समाजवादी विचारधारा के बीच राजनीति की घुसपैठ संगठन को तोड़ने का काम करेगी. श्रमिकसंघवादियों की मान्यता थी कि कि वर्ग–संघर्ष की लड़ाई औद्योगिक प्रविधियों द्वारा लड़ी जानी चाहिए, न कि राजनीतिक प्रविधियों द्वारा. ये औद्योगिक माध्यम क्या हो सकते हैं, इनके लिए उसने औद्योगिक हड़ताल, धरना, प्रदर्शन, पोस्टर और प्रचार को चुना है. उसके अनुसार तोड़–फोड़ की कारर्वाही, मशीनरी को नुकसान पहुंचाना असल में श्रम–विरोधी कार्रवाही हैं. इससे औद्योगिक संपदा को तो नुकसान पहुंचता ही है, श्रमिक संघों की ऊर्जा का भी दुरुपयोग होने लगता है, जो श्रमिकों में नकारात्मक भावनाएं जगाता है. श्रमिकसंघवाद की सफलता समस्त श्रमिकों, कामगारों, शिल्पकर्मियों को एक बड़े संगठन में ढाल देने तथा उसका अपने वर्गीय हितों के अनुसार उपयोग करने में निहित है. ऐसा संगठन जो नौकरशाही को जन्म देने वाली प्रत्येक व्यवस्था का विरोध करता है, और इस प्रकार वह जनकल्याण एवं विकास से जुड़ी समस्त गतिविधियों पर अपना नियंत्रण रखता है. नौकरशाही और पूंजी के वर्चस्व का निरंतर विरोध करते हुए वह संगठन पूंजीवाद के निर्मूलीकरण की ओर अग्रसर होता है. मानवीय स्वभाव की भिन्नता के आधार पर श्रमिकसंघवादी विचारक–कार्यकर्ता यह मानते हैं कि आम श्रमिक क्रांतिकारी नहीं हो सकता. आवश्यकता पड़ने पर उसे हड़ताल के लिए प्रेरित अवश्य किया जा सकता है. जिसके माध्यम से क्रांति के लक्ष्य को अपेक्षाकृत आसानी से प्राप्त किया जा सकता है.
श्रम–मुक्ति के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए श्रमिकसंघवादियों की योजना क्या है? किस प्रकार वे अराजकतावाद और समाजवाद से भिन्न हैं? अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वे कौन–सा मार्ग अपनाते हैं? जैसे कुछ प्रश्नों को जानने की जिज्ञासा यहा स्वतः उत्पन्न हो जाती है. श्रम–क्रांति के ये पक्षकार हिंसक क्रांति का समर्थन नहीं करते अपनी लक्ष्य–सिद्धि के लिए श्रमिकसंघवादी अभी तक हड़ताल का सहारा लेते आए हैं. कहा जा सकता है कि यही उनका सबसे ताकतवर हड़ताल है. विशेष उद्देश्य के लिए विशिष्ट हड़ताल, जिसको वे पूर्वाभ्यास कहते हैं. यह पूर्वाभ्यास एकजुट होकर संगठन में उत्साह भरने तथा उसके सदस्यों को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करने के लिए आवश्यक होता है. संघर्ष में सफलता की स्थिति से भी वे संतुष्ट नहीं होते. श्रमिकसंघवादी मानते हैं कि हड़ताल अथवा पूर्वाभ्यास द्वारा उनका लक्ष्य सिर्फ तात्कालिक मांगें पूरे किए जाने तक सीमित नहीं है. न ही वे मालिक–मजदूरों के संबंध में सुधार को अपना लक्ष्य मानते हैं. उनका वास्तविक उद्देश्य पूर्वाभ्यास अथवा हड़ताल के माध्यम से उद्योगों से स्वामित्व की परंपरा को पूरी तरह समाप्त कर, संपूर्ण श्रम–मुक्ति होता है. उनका लक्ष्य होता है कि हड़ताल द्वारा उत्पादन को पूरी तरह ठप्प कर, पूंजीवाद की रीढ़ तोड़ दी जाए. तदनंतर उद्योगतंत्र पर अपना अधिकार कर, उसका संचालन श्रम–कल्याण के मानकों के अनुरूप किया जाए. जहां उत्पादनकर्म लाभ के लिए न होकर सदस्यगणों की आवश्यकता के अनुसार हो. उत्पादन–वितरण दौरान किसी भी प्रकार के आर्थिक विषमता घटना को न पनपने दिया जाए, बल्कि जिन क्षेत्रों में पहले से ही आर्थिक असमानता व्याप्त है, वहां उसकी खाई को पाटने के समुचित प्रयत्न किए जाएं.
श्रमिकसंघवाद के व्याख्याकार जार्ज सोरेल(2 नवंबर, 1847—29 अगस्त 1922) उसको ऐसे मिथक के रूप में जनमानस में स्थापित करना चाहता था, जो समाजवाद की स्थापना के लिए अपरिहार्य है. यह मानते हुए कि जनसाधारण की धर्म के प्रति गहरी अभिरुचि होती है, उसने आमहड़ताल को एक ऐसी पौराणिक कथा के रूप में समझने की सलाह दी थी, जिसमें भरपूर आशावाद और मानवकल्याण की संभावना निहित होती है. सोरेल के तर्क को सीधी कार्रवाही में विश्वास रखने वाले श्रमिकसंघवादियों ने पूरी तरह नकार दिया था. उनका कहना था कि यदि आमहड़ताल को मात्र गल्पकथा अथवा मिथक मान लिया तो हड़ताल में जुटे आंदोलनकारियों की संपूर्ण ऊर्जा ही निरर्थक चली जाएगी. लोग उसका व्यर्थ महिमामंडन करेंगे. हो सकता है भावुक प्रवृत्ति के लोग उन मिथकों की अतिश्योक्तिपूर्ण व्याख्या करते उन्हें अपनी स्मृति का स्थायी हिस्सा बनाने का प्रयास करें, लेकिन मिथकीकरण की कृत्रिमता में श्रमसंघवादी आंदोलन अंततः निस्तेज–निष्प्रभ ही होगा. श्रमिकसंघवाद की आलोचना कर रहे कुछ समाजवादी विचारकों का मानना था कि पूंजीवाद के विरुद्ध लड़ाई संसदीय बहुमत प्राप्त करके ही जीती जा सकती है. इसके लिए श्रमिकों में लोकतांत्रिक चेतना का उदय आवश्यक है, ताकि वे राजनीति में अपने प्रतिनिधि उतार सकें अथवा चुनाव मैदान में पहले से मौजूद प्रतिनिधियों में से अपने वर्गीय हितों के समर्थक प्रतिनिधियों का चयन कर सकें. वे हड़ताल द्वारा सरकार पर दबाव बनाए जाने की श्रमिकसंघवादियों की रणनीति का विरोध करते थे. दूसरी ओर अधिकांश श्रमिकसंघवादियों के लिए नेताओं की कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी ही संद्धिग्ध थी. वे ऐसे किसी भी सुधार का विरोध करते थे, जिसमें राज्य और राजनीतिज्ञों की भागीदारी हो. और इस प्रकार वे प्रकारांतर में अराजकतावाद का समर्थन करते थे. हालांकि वे अपने लक्ष्यों में उतने स्पष्ट नहीं थे, जितने कि प्रविधियों में. श्रमिकसंघवाद के समर्थन के लिए भविष्य का स्पष्ट खाका भी उनके पास नहीं था. कहा जा सकता है कि श्रमिकसंघवाद अधूरा दर्शन था, जिसके बारे में श्रमिकसंघवादी विचारक ही अस्पष्ट थे.
श्रमिकसंघवादियों की राय में राज्य पूंजीवादी संस्था है, उसका गठन ही पूंजीवादी शोषण के निमित्त पूंजीवाद की पहल पर, उसकी शर्तों के अनुसार किया जाता है. राज्य की अधिसत्ता के चलते श्रमिकवर्ग आतंक के वातावरण में जीने को विवश होता है. अपनी अधिसत्ता के साथ यदि कोई राज्य श्रम–कल्याण का दावा भी करे तो वह निरर्थक और झूठा ही होगा—इस कारण वे राज्य–प्रेरित समाजवाद का भी विरोध करते हैं. इसका विकल्प क्या हो? श्रमिकसंघवादी उद्योगों की स्वायत्तता चाहते हैं. उद्योग पर उनका नियंत्रण हो जो स्वयं काम करते हैं—श्रमिकसंघवाद का दर्शन इसी अवधारणा पर टिका हुआ है. लेकिन समाज केवल उत्पादन व्यवस्था पर ही तो निर्भर नहीं. व्यक्ति और समाज के अनगिनत संबंधों की शृंखला तथा उनके बीच जटिल अंतक्र्रियाओं का नियंत्रण भी राज्य को करना पड़ता है. यहां तक कि विभिन्न औद्योगिक संस्थानों के व्यापारिक संबंधों के निर्वहन के लिए भी अलग व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है. नए समाज में इन संबंधों, अंतक्रियाओं का नियंत्रण किस प्रकार संभव होगा? इस बारे में श्रमिकसंघवाद मौन रह जाता है. दुनिया के मजदूर एक हैं, उनकी समस्याएं एक हैं. सभी समस्याएं राज्य और पूंजीवाद की देन हैं. जब न राज्य होगा, न पूंजीवाद तब सेना, न्यायपालिका तथा पुलिसबल की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी. श्रमिकसंघवादी इन सब संस्थाओं को साम्राज्यवाद का प्रतीक मानते हुए उनका विरोध करते हैं. उनके द्वारा पुलिस, न्यायपालिका एवं सैन्यबलों का विरोध इसलिए भी स्वाभाविक था, क्योंकि हड़ताल के दौरान सेना एवं पुलिस राज्य और पूंजीपतियों के हितों की रक्षा का काम करते हैं. चूंकि वे निरंकुशतावादी शासन की उपज होते हैं, अतएव वे तानाशाही को बनाए रखने में मददगार होते हैं. श्रमिकसंघवादी विचारकों के लिए राजनीतिक सीमाएं कोई मायने नहीं रखतीं. उनके अनुसार राज्य द्वारा सेनाओं के ऊपर अंधाधुंध खर्च करना भी औचित्यविहीन है. दूसरी ओर आम हड़ताल तथा प्रकारांतर में विरोधी शक्तियों से सतत संघर्ष, श्रमिक हितों के लिए अनिवार्य हैं. श्रमिकसंघवादी यद्यपि शांतिकामी नहीं हैं, तथापि वे दो विरोधी राज्यों के बीच युद्ध का इस आधार पर विरोध करते हैं, क्योंकि उसके द्वारा श्रमिक को कोई लाभ नहीं पहुंचता. उल्टे युद्ध की स्वाभाविक परिणति के रूप में जन्मीं बेरोजगारी, महंगाई, महामारी जैसी समस्याएं आम जनता के क्लेश का कारण बन जाती हैं. युद्ध के बाद पूंजीवाद और अधिक ताकतवर होकर सामने आता है. इससे समाज में आर्थिक असमानता बढ़ती है. श्रमिकसंघवाद के दर्शन को बीसवीं शताब्दी के महानतम दार्शनिकों में से एक बर्ट्रेंड रसेल ने ‘सिंडीकेलिस्ट रेलवेमैन’ में प्रकाशित एक लेखांश के माध्यम से प्रस्तुत किया है—
‘श्रमिकसंघवाद, सामूहिकतावाद तथा अराजकतावाद का प्रारंभिक उद्देश्य समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता, तज्जनित ऊंच–नीच की भावना तथा अन्यान्य वस्तुओं पर निजी अधिकारिता को पूरी तरह समाप्त करना है. लेकिन जहां सामूहिकतावाद निजी अधिकारिता को सर्वाधिकारिता में, अराजकतावाद उसको ‘प्रत्येक की अनाधिकारिता’ में बदलने का लक्ष्य रखता है, वहीं श्रमिकसंघवाद का लक्ष्य संगठित श्रमशक्ति को पूर्ण स्वामित्व दिए जाने से है. तदनुसार यह विशुद्ध रूप से सामाजिक अर्थसंहिता और समाजवाद द्वारा प्रस्तावित वर्ग–संघर्ष की श्रमसंगठनवादी व्याख्या है. अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए यह संसदीय कार्रवाही का पूरी तरह बहिष्कार करता है, जिसपर सामूहिकतावाद(सहकार) का समूचा दर्शन आधारित है तथा अराजकतावाद जिसके अत्यधिक निकट है, हालांकि अराजकतावाद की अपेक्षा इसकी कार्रवाही का क्षेत्र बहुत कुछ सीमित भी है.’
प्रसिद्ध ‘टाइम’ पत्रिका के 25 अगस्त 1911 को प्रकाशित इस आलेख से न केवल श्रमिकसंघवाद को समझता जा सकता है, बल्कि उसका अपनी समानधर्मा विचारधाराओं यथा अराजकतावाद तथा सामूहिकतावाद से अंतर भी इस उद्धरण द्वारा स्पष्ट हो जाता है. यद्धपि यह अंतर इतना सूक्ष्म है, खासकर सामूहिकतावाद और श्रमिकसंघवाद में कि उनके बीच स्पष्ट विभाजनरेखा खींच पाना कठिन है. उल्लेखनीय है कि फ्रांस में जहां पर श्रमिकसंघवाद का दर्शन विकसित हुआ, वहां श्रमिक संगठन बहुत शक्तिशाली थे. निरंकुश राजशाही के आतंक तले पनपे उन संगठनों में संघर्ष की पर्याप्त जिजीविषा थी. वे पूंजीवाद और राज्यसत्ता दोनों का उन्मूलन करना चाहते थे. उनके आंदोलन को ही ‘सिंडीकेलिज्म’ कहा गया. वह समाजवाद नहीं था, सच में तो वह समाजवाद का धुर विरोधी दर्शन था. दोनों का प्रथम मत–वैभिन्न्य राज्य की अनिवार्यता को लेकर था. समाजवाद का सपना ऐसा निष्पक्ष राज्य था जो अपने नागरिकों के बीच कल्याण के समान बंटवारे की भूमिका निभाए. जबकि श्रमिकसंघवादी विचारक राज्य के पूर्ण उन्मूलन के पक्ष में थे. पूंजीवाद के उन्मूलन हेतु उनके पास एक ही हथियार था. वह हथियार था, हड़ताल! वे चाहते थे व्यापक जनहड़ताल द्वारा पूंजीपतियों को घुटने टेकने को विवश कर देना. इसमें उन्हें प्रारंभिक सफलताएं भी मिली थीं. विकास के आरंभिक दौर की कई बड़ी हड़तालें श्रमसंघवादियों के आंदोलन के नाम इतिहास में दर्ज हैं. उनमें अक्टूबर 1910 की इंग्लेंड की प्रसिद्ध रेलवे हड़ताल भी सम्मिलित है. वर्षों तक चलने वाली इस हड़ताल ने इंग्लेंड का जनजीवन ठप्प कर दिया था. स्पष्ट है कि श्रमिकसंघवाद ने समय–समय पर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया है और कालांतर में यदि पूंजीवाद ने श्रमिक हितों के प्रति यत्किंचित उदारवादी रवैया अपनाया तो उसके पीछे श्रमिकसंघवादियों के आंदोलन का योगदान था. यहां एक स्वाभाविक–सा प्रश्न सामने आता है कि समाजवाद के इन तीनों अपररूपों के पारस्परिक संबंध कैसे हैं? जहां तक अराजकतावाद का प्रश्न है, वह श्रमसंघवादियों से सहानुभूति रखता है, बशर्ते उनके द्वारा बुलाई गई हड़ताल को हिंसक क्रांति का विकल्प न मान लिया जाए. उल्लेखनीय है कि अराजकतावाद भी श्रमिकसंघवादियों की भांति राज्य–सत्ता का पूर्ण उन्मूलन चाहता है. मगर उसका रास्ता हिंसक क्रांति से होकर गुजरता है. इससे अलग श्रमिकसंघवादी हड़ताल जैसी सामान्य प्रविधियों से काम निकालना चाहते हैं. इसके बावजूद अराजकतावादियों के लिए श्रमिकसंघवाद अपने तात्कालिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सर्वोचित माध्यम है. रुडोल्फ रा॓कर ने श्रमिकसंघवाद की कार्यपद्धति की ओर संकेत किया है कि श्रमिकों यानी—
‘वास्तविक उत्पादकों द्वारा समस्त उद्यमों का प्रबंधन–दायित्व कुछ इस प्रकार संभाल लेने के पश्चात कि विभिन्न समूह, कारखाने, उद्योग–शाखाएं समाज की वृहद आर्थिक संरचना के स्वतंत्र सदस्य की गरिमा को प्राप्त कर आवश्यक वस्तुओं का सुव्यवस्थित उत्पादन–वितरण करने लगें….उनमें आर्थिक उत्पीड़न की अनगिनत बेड़ियों में जकड़े श्रमिक को मुक्त कराने का संकल्प निहित होना चाहिए.’
श्रमिकसंघवाद के अराजकतावादी–साम्यवादी नजरिये को समझने के लिए हमें इतिहास की गोद में जाना पड़ेगा. करीब डेढ़ सौ वर्ष पहले यानी 1860 के आसपास समाजवादी आंदोलन अपनी रूपरेखा गढ़ ही रहा था. उस समय ‘अंतरराष्ट्रीय वर्किंग मैन ऐसोशिएसन जिसको ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के नाम से भी जाना जाता है, क्रांतिधर्मी श्रमिकों का बड़ा संगठन बनता जा रहा था. उनका आंदोलन जैसे–जैसे आगे बढ़ रहा था, समाजवादी मार्क्स तथा अराजकतावादी मिखाइल बकुनिन के समर्थकों के बीच तनाव बढ़ रहा था. उस समय तक एक बुद्धिजीवी के रूप में मार्क्स की धाक थी. उसने बकुनिन तथा उसके समर्थकों को ‘प्रथम इंटरनेशनल’ से बाहर जाने पर विवश कर दिया. इसका श्रमिक आंदोलन पर दूरगामी प्रभाव पड़ा. 1871 में पेरिस में कामगारों ने विद्रोह कर, राजसत्ता को बेदम कर दिया और सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले ली. बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में, श्रमिकसंघवादियों को उल्लेखनीय सफलता मिली. श्रमसंघवादियों के पहले अंतरराष्ट्रीय संगठन का गठन 1922 में बर्लिन में किया गया, जिसमें अर्जेंटीना, चिली, डेनमार्क, बलगारिया, मैकिस्को, जर्मनी, पुर्तगाल, स्पेन, फ्रांस, नीदरलेंड आदि देशों के श्रमिकसंगठनों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था. उन्हें लग रहा था कि राज्यसत्ता के विरोध में उपजा साम्यवाद अंततः सत्ताधारी जैसा ही आचरण कर रहा है. श्रमसंघवादियों के खाते में उससे पहले भी कई उपलब्धियां दर्ज हो चुकी थीं. उनमें सबसे बड़ी उपलब्धि थी, ब्रिटेन की 1910 से 1914 के बीच चली हड़ताल, जिसको इतिहास में ‘महान अशांति’ के नाम से जाना जाता है. इस हड़ताल के महानायक टा॓म मान तथा उसके श्रमिकसंघवादी सहयोगी थे. आमहड़ताल की शुरुआत ब्रिटेन की सोशलिस्ट पार्टी के आवाह्न पर हुई थी. सोशिलिस्ट लेबर पार्टी की सदस्य संख्या कम ही थी, लेकिन उसके नेताओं का श्रमिकों पर गहरा प्रभाव था. इसलिए पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध एक वर्ग आगे आया तो बाद में एक के बाद एक, नए मोर्चे खुलते चले गए. ‘महान अशांति’ के नाम से विख्यात वह हड़ताल ब्रिटेन की सबसे बड़ी हड़ताल थी, जिसमें छोटी–बड़ी 872 हड़तालें शामिल थीं. उस हड़ताल को स्कूल, खनन, यातायात, इंजीनियरिंग, कपड़ा उद्योग आदि उत्पादकता के लगभग सभी क्षेत्रों के श्रमिकों का समर्थन प्राप्त था. वह हड़ताल श्रमिकों में यह भावना पैदा करने में सफल रही कि अपने संगठन के बल पर वे पूंजीवाद को घुटने टेकने के लिए विवश कर सकते हैं. श्रमिक संघवाद का उदय उसी आत्मविश्वास की परिणति बना. बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक तक श्रमिकसंघवादी पूरे यूरोप में सक्रिय रहे, लेकिन उसके बाद बदली हुई वैश्विक परिस्थितियों में यह आंदोलन ठंडा पड़ता गया. अपनी उद्देश्यपरकता के बल पर यह आंदोलन दुनिया–भर के श्रमिक संगठनों, समाजवादी विचारकों, दार्शनिकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कराने में सफल रहा था. हालांकि अपनी सीमाओं के चलते यह समाज में अपना समुचित स्थान नहीं बना पाया. इसका कारण संभवतः यह था कि श्रमिकसंघवाद आर्थिक उत्पादनकेंद्रों को अतिरिक्तरूप से महत्त्व देता है. यह मान लेता है कि अर्थव्यवस्था के òोतों तथा आर्थिक उत्पादन केंद्रों पर अधिपत्य कर लेने के उपरांत श्रमिकों की सभी समस्याएं समाप्त हो जाएंगी. इस सीमित दृष्टि को आधार बनाकर अनेक बुद्धिजीवियों ने इसकी आलोचना भी की है. रोजा लेक्समबर्ग ने श्रमिकसंघवादियों पर मार्क्सवाद की मूल अवधारणा से दूर जाने का भी आरोप लगाया था. उसके अनुसार—
‘आधुनिक सर्वहारा वर्ग का संघर्ष किसी पूर्वनिर्धारित सिद्धांत अथवा परिकल्पना के आधार पर जैसा कुछ पुस्तकों अथवा विचारधाराओं के आधार पर तय किया गया है, आगे नहीं बढ़ाएगा. श्रमिकों का आधुनिक संघर्ष इतिहास और सामाजिक प्रगति का सहज हिस्सा है और इतिहास के बीच में, प्रगति–धारा के बीच में, संघर्ष के बीच में हम लगातार यह सीखते रहे हैं कि हमें अपने संघर्ष को किस प्रकार आगे बढ़ाना चाहिए.’
स्वयं श्रमिकसंघवाद में भी, उसके एक शताब्दी के इतिहास में अनेक परिवर्तन हुए हैं. व्यावसायिक संगठनवादी आंदोलन के विकल्प के रूप में जन्मा श्रमिकसंघवाद अपने लक्ष्य को पाने के लिए केवल हड़ताल और श्रमिक आंदोलन को पर्याप्त मानता था. वह श्रमिकों को अपने आर्थिक हितों के लिए संगठित संघर्ष की प्रेरणा देता था. बहुत जल्दी श्रमिक संघवादियों को लगने लगा था कि सिर्फ सैद्धांतिक व्यवस्था कर देने मात्र से समस्या का समाधान संभव नहीं है. पूंजीपति आसानी से उस हड़ताल को तोड़ सकते हैं. अपनी पूंजी के दम पर वे राज्य को श्रमिक–विरोधी कदम उठाने के लिए बाध्य कर सकते हैं. अतः लक्ष्यप्राप्ति के लिए कुछ ठोस प्रयास आवश्यक हैं. श्रमिकसंघवादियों का एक समूह मानता था कि उत्पादन–तंत्र पर कब्जा करने के लिए बलप्रयोग आवश्यक है. उन्हीं की प्रेरणा से अराजक–श्रमिकसंघवाद की अवधारणा का विकास हुआ. अराजकतावादी श्रमिकसंघवाद पद का आशय ऐसे श्रमिक आंदोलन से है, जो येन–केन–प्रकारेण, यहां तक कि हिंसा के प्रयोग द्वारा भी, पूंजीवाद को समाप्त करने के लिए कटिबद्ध हो. इसके समर्थकों का मानना है कि लघु शैक्षिक समूहों से लेकर बड़े औद्योगिक क्रांतिधर्मी संगठनों तक, स्वाधीनतावादी जनसमूहों को अपने लक्ष्य के मद्देनजर निरंतर संघर्षरत रह उस समय तक आगे बढ़ते रहना चाहिए, जब तक कि समस्त उत्पादन केंद्रों पर उसका अधिकार न हो जाए. मगर पूंजीवाद के विरुद्ध लंबी लड़ाई बिना जनसमर्थन के लिए असंभव है. उसके लिए संगठन का लोकतांत्रिक होना अनिवार्य है. उसके अभाव में संघर्ष के अपने लक्ष्य से भटकने तथा तानाशाही में ढल जाने का खतरा बना रहता है, यह स्थिति पहले से भी खतरनाक हो सकती है. इससे बचाव हेतु सभी प्रमुख निर्णय कार्यालयीन सभाओं में न लेकर बड़ी सर्वसदस्यीय बैठक के बीच लिए जाने चाहिए. परंपरागत श्रमिक संघवाद यह नहीं बताता था कि उत्पादन केंद्रों पर अधिकार करने का मार्ग कौन–सा होगा. लेकिन अराजकतावादी श्रमिकसंघवाद में उत्पादन केंद्रों पर कब्जा करने के लिए हिंसात्मक क्रांति का सहारा लेने की छूट दी जाती है. इसके समर्थक ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ से प्रेरित हैं, जिसके बारे में स्वयं मार्क्स भी आशंकित था. विश्व–भर में आजकल अराजकतावादी–श्रमिकसंघवाद का ही अधिक प्रचलन है. स्पेन, आट्रेलिया, फ्रांस, इंग्लेंड, डेनमार्क, नीदरलेंड आदि देशों के श्रमिक आज भी भारी संख्या में श्रमिकसंघवादी संगठनों से जुड़े हुए हैं. सभी स्थानों पर उसकी स्थिति पूंजीवाद के सशक्त विपक्ष की है.
©ओमप्रकाश कश्यप