ज्ञान और ज्ञानार्जन की उलटबांसियां

ज्ञानार्जन की प्रक्रिया की समीक्षा के दौरान बड़े रोचक प्रसंग सामने आते हैं. उनसे पता चलता है कि ज्ञान के विकास की प्रक्रिया, मानवविकास की प्रक्रिया से भिन्न नहीं है. ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के दौरान सर्वप्रथम ज्ञान का कोई अंकुर किसी मनस्वी के मस्तिष्क में उभरता है. वह उसे अपनी विचारदृष्टि, उपलब्ध ज्ञान और अनुभवों के आधार पर तौलता है. धीरेधीरे उसे रूपाकार के साथ सामने लाता है. नए विचार की मौलिकता कुछ लोगों को लुभाती है तो कुछ को चमत्कृत भी करती है. विद्वतजन ज्ञान की उपलब्ध कसौटियों के आधार पर उसका मूल्यांकन करते हैं. उसी के समानांतर क्रम में या थोड़ाबहुत आगेपीछे कोई दूसरा स्वतंत्र ज्ञानांकुर फूटता है. वह भी अपने जन्मदाता, समर्थकों, प्रशंसकों एवं आलोचकों के बीच धीरेधीरे विस्तार लेता है. ज्ञानयात्रा इसी क्रम में निरंतर प्रवाहमान रहती है.

इस बीच कोई सृजनशील मनस्वी धरती पर जन्म लेता है. वह ज्ञान की विभिन्न धाराओं, लोकानुभवों, संस्कारों का उनकी उपयोगिता एवं लोकमान्यता के आधार पर आकलन करता है. समन्वयात्मक रुख अपनाते हुए उनके अंतःसंबंधों को टटोलता है. तदनंतर उन्हें अपनी विचारदृष्टि के अनुसार समकालीन मानवीय संवेगों, आवेगों, कथारूपकों, सांस्कृतिक प्रतीकों तथा सामाजिक संदर्भों के साथ कलात्मक कलेवर में नियोजित करता है. जरूरत पड़ने पर उपलब्ध ज्ञानांकुरों के साथ उनकी तुलना भी करता है. दूसरे शब्दों में यह नन्हे ज्ञानांकुरों के विशाल बरगद में बदलने, महाकाव्यों में ढल जाने की प्रक्रिया है, जिसमें ज्ञानांकुरों की लोकप्रिय शाखाएं, खंडप्रखंड अपनी खूबियों और खामियों के साथ एकजुट होते जाते हैं. एक तरह से वे अपने समाज के अनुभवों का निचोड़ होते हैं. इस तरह जन्मा महाकाव्य अपनी संस्कृति और सभ्यता का विशिष्ट दस्तावेज होता है. उसमें ऐेतिहासिक चरित्र न हों तब भी उसे सभ्यता के विकास का प्रामाणिक दस्तावेज मान लिया जाता है. फलस्वरूप उसके पात्रों तथा कथारूपकों को, भले ही वे पूरी तरह काल्पनिक हों, जीवन में जगह मिलती है. कई बार तो वे जीतेजागते, चलतेफिरते पात्रों से भी अधिक प्रामाणिक, भरोसेमंद और प्रेरणादायी मान लिए जाते हैं. ज्ञान का यह रूप मिथक कहलाता है. सामाजिक जीवन में मिथक कदमकदम पर मनुष्य का मार्गदर्शन करते हैं. उन लोगों को जीवनदृष्टि देता है जो किन्हीं कारणों से ज्ञान की जीवंत शैलियों से संवाद करना छोड़ देते हैं. अथवा किसी अन्य कारण से ज्ञान के समकालीन उपकरणों के साथ उनका संपर्क कम हो जाता है. हम इसे ‘ज्ञान का समाजीकरण’ अथवा ‘समाज का प्रबोधीकरण’ कुछ भी कह सकते हैं. दुनियाभर के सभी महाकाव्य, वेदोपनिषद, पुराण, ग्रंथमहाग्रंथ इसी प्रक्रिया के अंतर्गत जन्मे हैं. समाज की आर्थिकराजनीतिक या भौगोलिक प्रस्थिति चाहे जैसी हो, ज्ञान के अर्जन की यही शैली है. यह सभी संस्कृतियों में कमोबेश एक समान होती है. समाज द्वारा अपनाए जा रहे उत्पादकता के साधनों से इसका सीधा संबंध होता है. इसका मतलब यह नहीं है कि त्वरित उत्पादकता वाले समाजों में ज्ञानार्जन की गति भी तीव्र होती है. हां, उससे ज्ञान की प्रवृत्ति पर अवश्य अंतर पड़ता है. तीव्र उत्पादकता वाले समाजों में ज्ञान की ऐसी शैलियां जन्म लेने लगती हैं, जो तेजी से परिवर्तनशील समाजों को संतुष्ट कर सकें.

दूसरे शब्दों में समाज की अन्य गतिविधियों की भांति ज्ञान की यात्रा तथा उसका मूल्यांकन दोनों समयसापेक्ष होते है. ज्ञान का स्तर मनुष्य तथा उसके समाज के विवेकीकरण की अवस्था को दर्शाता है. अपनी मौलिकता के संदर्भ में ज्ञान सदैव उर्ध्वगामी होता है. मगर मूल्यांकन के बाद भी यह विशेषता बनी रहे, आवश्यक नहीं है. आलोचना, समीक्षा, पुनःप्रस्तुतीकरण अथवा तुलनात्मक आधार पर कोई ज्ञान उर्ध्वगामी है या अधोगामीयह परिस्थितियों तथा आकलनकर्ता की दृष्टि से तय होता है. ज्ञान की कसौटियां परिवर्तनशील हो सकती हैं. वे व्यक्तिसापेक्ष, समूह सापेक्ष और समय सापेक्ष कुछ भी हो सकती हैं. ज्ञान की यात्रा अधोगामी है या पुरोगामी, इसका पता दूसरी ज्ञानशैलियों के सापेक्ष विचार की स्वीकार्यता से भी देखा जाता है. इससे निरपेक्ष, ज्ञान की नई कसौटियों के बनने और उनके आधार पर उपलब्ध ज्ञानविज्ञान की शाखाओं को परखने का सिलसिला भी लगातार चलता रहता है. कई बार चेतना के उभरते स्वर एक क्रांतिकारी विचार को जन्म देते हैं. वह विचार अपने समय और समाज को झकझोरने का काम करता है. फलस्वरूप पुराने विचार अप्रासंगिक हो जाते हैं. लंबे समय से चली आ रही सांस्कृतिक अवधारणाएं खंडखंड बिखरने लगती हैं. एक मोड़ ऐसा भी आता है जब वह उन लोगों को भी आकर्षित करने लगता है, जिनसे जूझते हुए या मुक्तिकामना के साथ उस विचार अथवा ज्ञानांकुर का जन्म हुआ था.

उदाहरण के लिए मध्य युग में उभरे भक्ति आंदोलन को ले सकते हैं. सर्वज्ञात तथ्य है कि भक्ति आंदोलन का उदय मध्यकालीन भारत में व्यक्ति पूजा, बलि, कर्मकांड, पोंगापंथी और सामाजिक असमानता के विरोध में हुआ था. वर्णक्रम में सबसे निचली जातियों ने, जिन्हें धर्मग्रंथों को पढ़ने की मनाही थी, धर्मालयों में जिनका प्रवेश वर्जित था—पहली बार वर्णाश्रम व्यवस्था को चुनौती दी थी. मूर्ति पूजकों, धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव करने वालों को ललकारा था—‘वे तुम्हें धर्मालयों में जाने से रोकते हैं. तुम उन पत्थर के ठिकानों की ओर झांकों भी मत’….‘पत्थर पूजने से यदि ईश्वर मिलता है तो मैं पहाड़ पूजने को तैयार हूं. दिनरात पत्थर के आगे सिर झुकाने से अच्छा है चक्की को पूज लिया जाए, जो पूरे परिवार के भरणपोषण में सहायक है.’….‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’….जैसे चकमक पत्थर में आग छिपी होती है, ऐसे ही तेरा परमात्मा तेरे भीतर है.’—जैसे शब्दों से संत कवियों ने निरर्थक कर्मकांडों और मूर्तिपूजा का बहिष्कार किया. उसका भरपूर असर पड़ा. संतकवि जनजन के दिलों पर राज करने लगे. निराकार भक्तिआंदोलन ने जातिव्यवस्था पर गहरी चोट की. लेकिन विचार के प्रतिविचार को जन्म लेते देर नहीं लगती. जब कोई नया विचार जन्म लेता है, मानस में प्रतिविचार का तुरंत एक और अंकुर फूट पड़ता है. वह पहले का पूरक अथवा विरोधीय या कभीकभी पूरक और विरोधी दोनों होता है.

भक्ति आंदोलन जैसेजैसे लोकप्रियता के शिखर को छू रहा था, उसकी ओर वे लोग भी आकर्षित हो रहे थे, जो वर्णव्यवस्था की शीर्षस्थ श्रेणियों से आए थे. वे वर्णव्यवस्था के पूरी तरह समर्थक न भी हों, मगर उसके संस्कारों से पूरी तरह अनुप्रेत थे. अपने साथ वे अपने वर्गीय संस्कार भी लाए थे. इससे भक्ति आंदोलन में वे सभी कुरीतियां शामिल होने लगीं, जिनकी राख पर उसकी आरंभिक इमारत का निर्माण हुआ था. उनके बीच का अंतर साफ पढ़ा जा सकता है. कबीर मूर्ति पूजा का खंडन करते हैं. जन्म के आधार पर जाति के भेदभाव पर प्रहार करते हैं. सांप्रदायिकता को ललकारते हैं. जबकि भक्ति परंपरा के अगले कवि वर्णाश्रम व्यवस्था को आदर्श बताते हैं. उसमें व्यक्ति की जाति और संस्कार कितने महत्त्वपूर्ण हैं, इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है. कबीर, रैदास और तुलसी तीनों का संबंध धर्म और संस्कृति के शहर बनारस से था. धर्म पर केंद्रीभूत संस्कृति आदमीआदमी में फर्क करती है. वह ‘जपमायाछापातिलक’ को ही सब कुछ माने रहती है. वर्णाश्रम व्यवस्था के सताए संत कवि कबीर, रैदास, दादू बारबार नकली संस्कृति का लबादा उतार फैंकने को कहते हैं. मगर वर्णाश्रम व्यवस्था के शीर्ष से आए भक्त तुलसी के लिए वह आदर्श व्यवस्था है. इसलिए वे शूद्र को ढोल, गंवार और पशु की श्रेणी में रखकर ताड़ते रहने पर जोर देते हैं. रामचरितमानस में ऐसी अनेक चौपाइयां हैं, जो श्रम पर जीवन जीने वाली जातियों का उपहास करती हैं. उस व्यक्ति द्वारा जो दूसरों के श्रम पर जीवन जीता हो, उसके द्वारा अपने परिश्रम पर जीने वाली जातियों का मखौल उड़ान न केवल तुलसी की संवेदनहीनता को दर्शाता है, बल्कि वह इस संस्कृति के संकट की ओर भी संकेत करता है. तुलसी के लिए ‘रामराज्य’ इसलिए आदर्श है, क्योंकि वहां सभी वर्णाश्रम के अनुसार अनुशासित हैं—‘बरनाश्रम निजनिज धरम निरत वेद पथ लोग.’ जबकि रैदास आचरण की शुद्धता को महत्त्व देते हैं. उनकी आदर्श राज्य की परिकल्पना ‘बेगमपुरा’ के सच होने में है. जहां सभी बराबर हैं. किसी को किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं है.

स्पष्ट है कि ज्ञान की विभिन्न धाराओं का मूल्यांकन मनुष्य अपनी जरूरत के आधार पर करता है. कबीर के साहित्य और तुलसी के साहित्य में वही अंतर है जो एक ‘संत’ और ‘भक्त’ के बीच होता है. ‘संत’ सभी को समदृष्टि से देखता है. उनकी निगाह में न कोई छोटा होता है न बड़ा. संतई वह लोककल्याण के लिए धारण करता है, न कि स्वार्थ साधना के लिए—जिसे प्रायः ‘मुक्ति’ अथवा ‘आत्मकल्याण’ जैसे सम्मोहनकारी संबोधन दे दिए जाते हैं. भक्त कवि लोक को माया समझता है इसलिए दुनियावी सरोकारों से खुद को अलग रखता है. उसकी निगाह में ईश्वरीय न्याय ही सबकुछ होता है. संत कवियों की कविता सवाल उठाती है, भक्त कवियों की कविता परंपरा और आराध्य के महिमामंडन से परे नहीं झांक पाती. उसमें समता का भाव गायब रहता है. जीवन की सामान्य समस्याओं को भक्त कवि भवबाधा के रूप में देखता है, संत कवि के लिए वह मनुष्यता की चुनौती होती है. मनुष्यता के समर्थन में संत कवि बड़े से बड़े बादशाह को भी खरीखोटी सुना सकते है. दास तुलसी के लिए दैन्य से मुक्ति असंभव है. लोकतांत्रिक युग में भक्ति काव्य का कोई सामाजिक मूल्य नहीं है. इसलिए वर्णाश्रम समर्थक विद्वान संतकाव्य और भक्तिकाव्य का अंतर समझाने से बचते हैं. लोग सवाल न उठाएं इसलिए वे दोनों को परस्पर गड्डमड्ड कर देते हैं.

ज्ञान की खूबी है कि उसका अस्तित्व होता है, आकार नहीं होता. ज्ञान को रूपाकार देने का काम ज्ञानीजन करते आए हैं. चूंकि बड़े से बड़े ज्ञानीजन की सीमा होती है. व्यक्ति विराट ज्ञानसंपदा के किसी एक अंश को ही सहेज पाता है. उसी के आधार पर वह सामाजिक घटनाओं और व्यक्तित्वों का मूल्यांकन करता है. यह एक कौड़ी द्वारा धरती को मापने जैसा सत्साहस है. अपने विवेकीकरण की कसौटी को पुख्ता करने के लिए व्यक्ति अपने विषयक्षेत्र की सीमा में इस काम को खुशीखुशी करता है. सदेच्छाओं के बावजूद उसके काम में कहीं न कहीं त्रुटि रह ही जाती है. आम तौर पर युद्ध लोगों के जीवन को प्रभावित करने का सबसे बड़ा माध्यम माना जाता है. लेकिन जो लोग ऐसा मानते हैं, वे गलत हैं. असली प्रभावक ज्ञान होता है. अतः ज्ञान को नियंत्रित करने, उसे अपने अनुकूल ढालने, उससे मनचाहा काम लेने की कोशिश आदिकाल से होती रही है. इतिहास पूर्वाग्रह रहित नहीं होता, इसलिए समाजचेता विद्वान ऐतिहासिक तथ्यों को अधूरा, एकांगी और मनगढ़ंत मानते हैं.

ऋग्वेद को प्रथम वेद माना गया है. मनुष्यता का पहला ज्ञानांकुर. यह मानते हुए कि शूद्र उसके अर्थ का अनर्थ कर सकता है, वेदपाठी ब्राह्मणों ने शूद्र और स्त्री के वेदाध्ययन पर पाबंदी लगाई थी. यदि कोई शूद्र वेद पढ़ ले तो उसके कान में पिघला सीसा डालने जैसे दंड का प्रावधान था. सामवेद की रचना इसलिए की गई कि वैदिक ऋचाओं के सटीक गायन का प्रशिक्षण देकर उनके पाठ की शुद्धता को कायम रख सकें. मूल्य की दृष्टि से वेदानुयायियों के लिए वेद उसी सीमा तक पवित्र और वरेण्य थे, जब तक उनके वर्गीय हितों को कोई आंच न पहुंचती हो. वर्गीय हितों को ठेस की संभावनामात्र पर वे शास्त्रों की व्याख्याएं बदलते रहे हैं. उदाहरण ऋग्वेद से ही खोजे जा सकते हैं. वेदपाठी ब्राह्मण ऋग्वेद के पुरुषसूक्त को तो ज्यों का त्यों बनाए रखते हैं. वर्णाश्रम के समर्थन में अपने तर्कों को वहां तक खींच ले जाते हैं. लेकिन ऋग्वेद की दूसरी शिक्षाएं जिनकी सामाजिक उपयोगिता है, की वे मनमानी व्याख्या करते हैं. ऋग्वेद में जुआ को कुरीति माना गया है. दसवें मंडल में जुआरी का एक प्रसंग आया है जो महाभारत में युधिष्ठिर द्वारा द्रोपदी को दांव में हार जाने से एकदम मिलताजुलता है. अंतर बस इतना है कि ऋग्वेद का जुआरी गरीब है. जबकि युधिष्ठिर सम्राट. ऋग्वेद का जुआरी दिनरात जुआखाने में पड़ा रहता है. पासे को देख उसकी बांछें खिल जाती हैं. उसको गिरते देख वह मद्मत्त हो उठता है. जुआरी की पत्नी अपने पति से बेहद प्यार करती है. यहां तक कि जुए में सबकुछ हार जाने पर भी उसका बहिष्कार नहीं करती. जुआरी की सास भी उसपर दया करती है. जुए की लत से बरबाद हो चुका जुआरी कर्ज लेकर भी जुआ खेलता है. फिर एक दिन सब कुछ गंवा देता है. यहां तक कि अपनी पत्नी को भी. तब उद्गाता ऋषि जुआरी को समझाता है—

जुआ मत खेल. मत खेल जुआ. अपने खेतों को जोत. प्राप्त धन से संतोष कर. उसे अपना मानते हुए परिश्रम कर. ये तेरी गौए हैं. वह तेरी जाया है. सबके साथ रहते हुए अपने सुख और कमाई को बढ़ा.’ (ऋग्वेद—10/34/13).

वेद का जुआरी गरीब है. अपनी मेहनत का खाता है. उसके लिए जुआ खेलना बरबादी का सबब है. मगर राजाओं और सामंतों के लिए जिनके पास अकूत धन संपदा है, और ज्यादा बटोरने के लिए पर्याप्त सैन्यबल है. राजकोष है जिसे भरने के लिए प्रजा रातदिन पसीना बहाती है, उनके लिए जुआ बरबादी नहीं, शान का प्रतीक है. युधिष्ठिर अपनी राजसी आन को बचाने की खातिर जुआ खेलता है. वेदविरुद्ध कार्य करने के बावजूद उससे युधिष्ठिर का धर्मराजपन खंडित नहीं होता. मरणोपरांत यदि उसे कुछ पल के लिए नर्क में जाना पड़ता है तो इसलिए कि उसने अश्वत्थामा के मरने की झूठी सूचना द्रोणाचार्य को देने की कोशिश की थी, जुए में अपनी पत्नी को दांव पर लगा देने के लिए नहीं, जो न केवल उसकी, बल्कि पांचों पांडवों की संयुक्त भार्या थी. साफ है कि जो शक्तिशाली है, सामर्थ्यवान है वह ज्ञान की स्वार्थानुकूल व्याख्या के लिए बुद्धिजीवियों को खरीद लेता है. प्रायः बुद्धिजीवी ही उसकी ओर स्वयं खिंचे चले आते हैं. वे उसके लिए उपलब्ध ज्ञानधाराओं की मनमानी व्याख्या करते हैं. दूसरे शब्दों में अभौतिक होने के बावजूद ज्ञान जिसके पास जाता है, उसकी भावनाओं, विवेक और स्वार्थ के अनुसार आचरण करने लगता है.

ज्ञान के ऐसे दुरुपयोग ‘महाभारत’ को न्योता देते हैं. आधुनिक भाषा में मार्क्स ने इसे द्वंद्ववाद कहा है. ज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं होता. लेकिन जब मान लिया जाए कि फलां व्यक्ति या समूह का ज्ञान पर एकाधिकार है, तब उसके मनमाने उपयोग की संभावना बढ़ जाती है. इसलिए व्यक्ति और समाज दोनों का दायित्व है कि वह ज्ञान के एकाधिकार की भ्रांति से बाहर आए. ध्यान रखें कि विचार की स्थिति दोमुंहे सांप जैसी होती है. वह दोनों और गति कर सकता है. सपोंलों की तरह हर विचार, दूसरे विचार को खाने की कोशिश करता है. जन्म लेते ही नवज्ञानांकुर पर दूसरे ज्ञानांकुर हमला कर देते हैं. प्रकट में यह लड़ाई बहुत मारक दिखती है. असल में होती पूरी तरह अहिंसक है. विचारों के बीच दिखावटी प्रतिद्विंद्वता भले हो, उस लड़ाई में न तो कोई विचार मिटता है, न ही घायल होकर हमेशा के लिए प्रतियोगिता से बाहर चला जाता है. अस्तित्व की इस स्पर्धा में कुछ विचार दब अवश्य जाते हैं. लेकिन अनुकूल परिस्थितियों में वे पुनः केंद्रीय भूमिका के लिए सक्रियता के धरातल पर लौट आते हैं. विचार के समर्थक इतने उदार नहीं होते. उत्तेजना में वे अकसर बेकाबू हो जाते हैं.

इन स्थितियों से बचने के लिए ज्ञान और ज्ञानी दोनों का निष्प्रह होना आवश्यक है. मनुष्य की विशेषता है कि वह नए की ओर आकर्षित होता है, उसको आत्मसात करने की कोशिश करता है. यह स्वागतयोग्य है. लेकिन ज्ञानी और ज्ञानसाधक दोनों को समझना चाहिए कि समाज उनसे कहीं ज्यादा ज्ञानी है. उनकी बौद्धिकता की इमारत में कुल ज्ञानसंपदा समाज की खर्च हुई है. व्यक्ति तो केवल समाज में अर्जित ज्ञानसंपदा को रूपाकार देता है. उसे अपनी दृष्टि के अनुसार ढालता है. मनुष्यता की संपूर्ण ज्ञानसंपदा के आगे उसका ज्ञान विराट बरगद के एक पत्ते जितना है. वैसे भी समाज का ज्ञानी होना, व्यक्ति के ज्ञानी होने से अधिक महत्त्वपूर्ण है. विडंबना है कि हमारे पास ऐसा कोई कारगार रास्ता नहीं है, जिससे समाज को ज्ञानी बनाया जा सके. इसलिए हम व्यक्तियों के प्रबोधीकरण के जरिये समाज के प्रबोधीकरण का सपना देखते हैं. यह रास्ता आसान है. लेकिन इसमें व्यक्ति खुद को दूसरों से अलग और बड़ा समझने लगता है. शीर्षत्व का गुमान अहंकार पैदा करता है और अहंकार से अकेलेपन और असुरक्षाबोध की वृद्धि होती है. नतीजन सामूहिकता के बीच उसका आचरण भीड़ या भेड़चाल जैसा हो जाता है.

जो वास्तव में मनस्वी होते हैं, वे इस सच से वाकिफ होते हैं. वे जानते हैं कि अपरिमेय ज्ञान की अंतहीन यात्रा में कुछ भी सर्वथा अंतिम और प्रामाणिक नहीं है. इसलिए वे बारबार दोहराते हैं कि उनके कहे को अंतिम मानने से बचो. वे जो कह रहे हैं उसे अपने तर्कों और विवेक की कसौटी पर जांचोपरखो. यही बुद्ध ने भी कहा था, यही गांधी ने भी कहा. प्रकृति भी समझाती है कि किसी अकेले वृक्ष से धरती की शोभा नहीं बनती. पृथ्वी का सौंदर्य सर्वत्र हरियाली में है. यदि छोटेछोटे तिनकों से बनी घास का सौंदर्य भी इसलिए अनुपम होता है कि वहां सभी तृण बराबर होते हैं. सभी सहअस्तित्व की भावना का सम्मान करते हैं. ताड़ का वृक्ष तब तक शोभा नहीं बनता जब तक उसका साथ देने के लिए कुछ और ताड़ वृक्ष न हों. योग्य नागरिक योग्य समाज का उत्पाद होता है. तदनुसार आवश्यक है कि समाज प्रबुद्ध हो. लेकिन ज्ञान की उलटबांसी है कि जब हम व्यक्ति के प्रबोधीकरण पर जोर देते हैं, तो समाज में असमानता पनपने लगती है; और संपूर्ण समाज के प्रबोधीकरण का सीधासरलसर्वस्वीकार्य रास्ता हमारे पास है नहीं.

© ओमप्रकाश कश्यप

ईश्वर : एक अवैज्ञानिक धारणा

क्या ईश्वर बुराई पर अंकुश लगाना चाहता है, लेकिन लगा नहीं सकता?

तब वह सर्वशक्तिमान नहीं है.

क्या वह अंकुश लगा सकता है, लेकिन उसकी इच्छा नहीं है?

तब वह विद्वेषी है.

वह कर सकता है और करने की इच्छा भी रखता है?

तब ये ढेर सारी बुराइयां कहां से आती हैं?

वह न तो कर सकता है, न ही करने की इच्छा रखता है?

तब उसे ईश्वर क्यों माना जाए?

              —एपीक्यूरस, लेक्टेंटियस द्वारा ”आ॓न दि एंगर आ॓फ गॉड”, 13.19.

स्पर्धा आधुनिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का सबसे कारगर उपकरण है. एक तरह से मूलमंत्र. मान लिया गया है कि स्पर्धा रहेगी, तब तरक्की होगी. प्रतिभाशाली लोग आगे आएंगे. लोगों को अच्छे उत्पाद सस्ते मूल्य पर प्राप्त हो सकेंगे. इसलिए जो इस व्यवस्था को अपनाता है, जाने-अनजाने स्पर्धा में शामिल हो ही जाता है. लोग स्पर्धा को विकास का मूलमंत्र मानना चाहते हैं, मानें. उसमें सफलता व्यक्ति के प्रतिभा-कौशल से तय नहीं होती. वास्तविक परिणाम स्पर्धारत व्यक्ति/व्यक्ति-समूहों की आर्थिक-सामाजिक हैसियत पर निर्भर करते हैं. उन प्रक्रियाओं द्वारा तय होते हैं, जिन्हें साधारण भाषा में मौकापरस्ती कहा जाता है. दो उद्योगपति इसलिए स्पर्धा में रहते हैं, ताकि बाजार के अधिकतम हिस्से पर कब्जा कर, वहां अपने एकाधिकार का परचम लहरा सकें. भूखों की स्पर्धा उन्हें अपनी थाली में कटौती के साथ जैसे-तैसे जीते जाने की मजबूरी की ओर ढकेल देती है. मार्क्स के अलावा मिखाइल बकुनिन, विल्फ्रेद परेतो, जीतान मोसका आदि ने स्पर्धा की प्रवृत्ति का विद्वतापूर्ण विश्लेषण किया है. उनके अनुसार स्पर्धा असमान व्यक्तियों की बेमेल प्रतियोगिता है. उसका परिणाम असमानता की खाई के उत्तरोत्तर चौड़े होने के रूप में सामने आता है. चूंकि स्पर्धा लोकतांत्रिक मूल्यों एवं समानाधिकार के प्रसाद के रूप में व्यवहृत होती है, इसलिए उसका विरोध लोकतंत्र का प्रतिवाद मान लिया जाता है. शिखर तक पहुंचने तथा वहां टिके रहने की स्पर्धा में व्यक्ति को अनेक समझौते करने पड़ते हैं. कई बार सामान्य नैतिकता सहित उन मूल्यों को भी दांव पर लगाना पड़ता है, जिनके प्रति प्रतिबद्धता उस अभियान का औचित्य रही है. यह सब याद आया हिंदी के चर्चित ब्लॉग ‘साइंटिफिक वर्ल्ड’ चल रही एक बहस को पढ़कर. इस ब्लॉग पर एक चौंकाऊ, विज्ञान के नाम पर अवैज्ञानिक बहस पिछले दिनों ऐसे देखने को मिली, जैसे टीआरपी बढ़ाने के लिए टीवी चैनल सामान्य सूचनाओं को भी ‘न भूतो न भविष्यति’ कहकर परोस देते हैं. भले ही यह अनजाने में हुआ हो अथवा अतिउत्साह में, नजर साफ आ रहा था.

पिछले दिनों ‘साइंटिफिक वर्ल्ड’ पर दो आलेख प्रकाशित हुए हैं, उनमें पहला आलेख के पी सिंह का ‘क्या ईश्वर को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित किया जा सकता है?’ दूसरे आलेख, ‘ईश्वर की अवधारणा: विज्ञान की कसौटी!’ के लेखक विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी हैं. दोनों आलेख ईश्वरवादियों की ओर से लिखे गए हैं, इसलिए उनमें ईश्वर की सत्ता पर संदेह कम, विश्वास और आस्था की अभिव्यक्ति अधिक है. दोनों विद्वान आस्था-मंडित हैं. ईश्वरत्व में संदेह उन्हें छू भी नहीं पाया है. इसलिए दोनों अपनी-अपनी तरह से ईश्वर को प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं. मगर इकतरफा होने के कारण दोनों लेख ईश्वर-प्रचारक मंडली के प्रवचन बन जाते हैं. विज्ञान के नाम पर अवैज्ञानिकता का आशय यही है. लेखों में दिए गए तर्क भी नए नहीं हैं. कथावाचक किस्म के ‘गुरु महाराज’ ऐसे तर्क देते ही रहते हैं. के. पी. सिंह जिस आस्था को प्रश्नवाचक चिह्न के साथ आरंभ करते हैं, वैसी ही आस्था चतुर्वेदी जी के लेख में विस्मयादिबोधक चिह्न के साथ नजर आती है. गोया लेखों को विज्ञान की श्रेणी में लाने के लिए वे संदेह का हिस्सा पाठक के लिए छोड़ देना चाहते हैं. आपत्तिजनक यह नहीं है कि ब्ला॓ग पर दो ईश्वरवादियों ने अपने-अपने तर्क जुटाए हैं. निस्संदेह जैसा वे सोचते और महसूस करते हैं, उसको अभिव्यक्त करने का उन्हें पूरा-पूरा अधिकार है. आपत्तिजनक यह है कि इन लेखों को ऐसे ब्ला॓ग पर जगह मिली है जो स्वयं को विज्ञान के प्रति समर्पित बताकर बौद्धिक जड़ता एवं पाखंड के विरोध का अभियान चला रहा है. इसी प्रतिबद्धता के चलते उसको हजारों पाठक मिले हैं.

इन लेखों की कमजोरी है कि उनकी सामग्री उनके अपने ही शीर्षक से मेल नहीं खाती. शीर्षक से लगता है कि उनमें विषय का वस्तुनिष्ट विवेचन देखने को मिलेगा, मगर असलियत में सारे तर्क एकतरफा होने से लेख पूरी तरह आत्मपरक, निजी आस्था की प्रस्तुति तक सिमट गए है. दोनों में कहीं भी शंका अथवा संदेह को जगह नहीं है. इस विषय पर ऐसे लेखों की कमी नहीं है जिनमें लेखक पूर्वाग्रह अथवा पूर्व निष्पत्ति के साथ लिखना आरंभ करता है. अपने मत के समर्थन में जो भी तर्क जंचते हैं उन्हें सामने रखता जाता है. मगर पूर्वाग्रहों के दबाव में उस सामग्री की वस्तुनिष्ट समीक्षा करना भूल जाता है, जिसे उसने अपने मत के समर्थन में बतौर उद्धरण प्रयुक्त किया है. विचाराधीन आलेखों में से पहले में भारतीय संदर्भ अधिक हैं तो दूसरे में पाश्चात्य विद्वानों को अपने समर्थन में दिखाने की कोशिश की गई है.

 विज्ञान संदेह के साथ शुरू होता तथा उसी के साथ आगे बढ़ता है. उसमें ठहराव की स्थिति कभी नहीं आती. किसी वैज्ञानिक सत्य पर भरोसा करने से पहले प्रत्येक को उसे जांचने-परखने तथा प्रयोगों की कसौटी पर कसने की छूट प्राप्त होती है. ईश्वर एवं मानवीय आस्था के बीच विज्ञान को न लाएं तो भी उसके अस्तित्व पर संदेह एवं तदनुरूप उठनेवाली बहस नई नहीं है. भारत में भी ढाई-तीन हजार वर्षों से यह बहस लगातार चली आ रही है. वैदिक काल में ईश्वरवादी धारणा का खंडन करने वाले आजीवक और लोकायती संप्रदाय थे. वहीं आस्थावादियों के समर्थन में वैदिक धर्म की अनेक शाखाएं थीं. दर्शन की दृष्टि से वह भारतीय मेधा का सबसे प्रस्फुटनकारी दौर था. उसी दौर में वेदों को आप्त-ग्रंथ की संज्ञा दी गई. उन्हें दैवी उपहार माना गया. श्रद्धालु आचार्यों का एक वर्ग ‘आस्तिक’ बनाम ‘नास्तिक’ की बहस में वेदों को आप्तग्रंथ मनवाने जुटा रहा. बावजूद इसके नास्तिक दर्शनों की प्रतिष्ठा उतनी ही बनी रही, जितनी आस्तिक दर्शनों की थी. विचारों के उस लोकतंत्र ने सांख्य जैसे निरीश्वरवादी दर्शन को जगह थी तो कर्मकांड प्रधान मीमांसा दर्शन को भी. वैदिक धर्मों के विचलन के दौर में उभरे जैन और बौद्ध दर्शन ने ‘आत्मा’ और ‘ईश्वर’ पर केंद्रित बहसों में उलझने के बजाए मनुष्य के आचरण को महत्त्वपूर्ण माना. उन्होंने सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह आदि पर जोर देकर नैतिक एवं समाजोन्मुखी, जीवन जीने का आवाह्न किया. मानो सभ्यताओं के तार आपस में जुड़े हुए थे. लगभग उन्हीं दिनों भारत से हजारों मील दूर यूनान में भी कुछ वैसा ही हुआ. ईसा पूर्व छठी शताब्दी में वहां सुकरात, प्लेटो, जीनोफेन जैसे विचारकों ने अभिजन संस्कृति का पोषण करने वाले परंपरावादी सोफिस्टों को चुनौती दी. सुकरात ने ईश्वर को शुभ का पर्याय माना तथा उसकी प्राप्ति के लिए सद्गुण और सदाचरण पर जोर दिया. गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, सुकरात, कन्फ्यूशियस, प्लेटो जैसे दार्शनिकों का नैतिक प्रभामंडल इतना तेजोमय था कि उसका प्रभाव शताब्दियों तक बना रहा. आज भी ईसा से तीन से छह शताब्दी पूर्व का वह समय विश्व-इतिहास में बौद्धिक क्रांति का सफलतम दौर माना जाता है. आगे चलकर जितने भी राजनीतिक-सामाजिक दर्शन सामने आए, वे भी जो विश्व-परिदृश्य में परिवर्तन के वाहक बने, सभी की नींव इस दौर में पड़ चुकी थी.

विद्वान लेखकों द्वारा दिए गए तर्कों में प्रत्येक पर स्वतंत्र रूप से चर्चा संभव है. तथापि इस लेख की सीमा को ध्यान में रखते हुए मैं केवल स्टीफन डी. अनविन के उद्धरण की ओर दिलाना चाहूंगा. स्टीफन अनविन ने विशेषरूप से पुस्तक लिख, ‘ईश्वर के पक्ष-विपक्ष में आंकड़े जुटाकर ईश्वर के होने की प्रायिकता 67 प्रतिशत’ सिद्ध की है.’ मैंने वह पुस्तक नहीं पढ़ी है, किंतु उसपर पर्याप्त समालोचनात्मक सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध है. इस आलेख में आए गणितीय संदर्भ वहीं से लिए गए हैं. मेरी कोशिश उसी को आगे बढ़ाने की है, ताकि अनविन द्वारा प्राकलित ईश्वर की 67% प्रायिकता का सच पाठकों के सामने आ सके. अनविन भौतिक विज्ञानी हैं. डा॓क्ट्रेट उन्होंने सैद्धांतिकी भौतिकी की शाखा ‘क्वांटम गुरुत्च’ में की है. प्रसंगवश बता दें कि यह विज्ञान की वही शाखा है जिसके अंतर्गत आजकल विश्व-प्रसिद्ध ‘लार्ज हैड्रा॓न कोलीडर’ नाम का दीर्घकालिक और महत्त्वाकांक्षी प्रयोग चल रहा है. उससे जुड़े वैज्ञानिकों ने द्रव्यमान का कारण कहे जानेवाले मूलकण यानी ‘हिग्स बोसोन’ की खोज का दावा किया, जिसे वस्तुओं में भारता के लिए जिम्मेदार माना जाता है. विज्ञान की चुनौतियों के आगे लड़खड़ा रहे आस्थावादी यहां भी क्यों चूकने वाले थे. वैज्ञानिक अपने प्रयोग के आरंभिक निष्कर्षों के पुनरीक्षण में जुटे ही थे कि आस्थावादियों ने उसे तुरत-फुरत ‘गॉड पार्टिकिल’ का नाम दे दिया. जिसका हिग्स बोसोन की खोज में जुटी प्रयोगशाला सर्न के वैज्ञानिकों ने जोरदार विरोध किया. प्रयोगशाला से जुड़े वरिष्ठ अमेरिकी वैज्ञानिक पोलीन गा॓नन से 2011 में यूरोप के रेडियो पत्रकार ने जिनेवा में एक साक्षात्कार के दौरान जब कहा, ‘मैं मीडिया से हूं और मैं उसे यही(गॉड पार्टिकिल) कहता रहूंगा.’ तब गा॓नन का जवाब था, ‘यह सब आप ही का दिया गया नाम है….मैं इससे घृणा करता हूं.’ वैज्ञानिकों के न चाहने के बावजूद हिग्स बोसोन को ‘गॉड पार्टिकिल’ कहने का षड्यंत्र आज भी चल रहा है. षड्यंत्र इसलिए क्योंकि धर्मसत्ता, राजसत्ता, अर्थसत्ता और उनसे पालित-पोषित मीडिया में से कोई नहीं चाहता कि जनता विज्ञान को विज्ञान की तरह जाने. उसका विवेकीकरण हो. इसलिए वैज्ञानिक शोधों को तत्काल अपने पाले में खींच लेने, उनका तेज कम करने तथा उनसे लाभ उठाने की प्रवृत्ति प्रायः सभी समाजों में रही है. इससे धर्मग्रंथों का मूल संदेश गंडे-ताबीजों में कैद होकर रह जाता है. कंप्यूटर जन्मपत्री बनाने लगता है और टेलीविजन पर बाबा लोग भविष्य सुधारने का धंधा करने लगते हैं.

अनविन संयुक्त राष्ट्र के ऊर्जा विभाग के दूत रह चुके है. आजकल वे एक सलाहकार फर्म का संचालन करते हैं, जिसका काम विश्व की नामी-गिरामी पूंजीपति कंपनियों को आपदा प्रबंधन के मामले में सलाह देना है. अनविन की एक चर्चित पुस्तक The Probability of God: A Simple Calculation That Proves the Ultimate Truth. 2003 का उल्लेख चतुर्वेदी जी ने अपने आलेख में किया है. यह उनकी अध्ययनशीलता को दर्शाता है. अपनी पुस्तक में अनविन ने ईश्वर के अस्तित्व की संभाव्यता को गणित के माध्यम से सिद्ध किया है. इस निष्कर्ष में उनके व्यावसायिक स्वार्थ छिपे होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता. आपदा को ईश्वरीय कर्म सिद्ध कर देने से प्रबंधकीय कौशल पर लगनेवाले आरोप कम हो जाते हैं. शायद इसलिए वे ईश्वर के विचार को उसी प्रकार जीवित रखना चाहते हैं, जैसे अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए ज्योतिषी प्रारब्ध की संकल्पना को ऊल-जुलूल तर्क देकर पालता-पोषता है. हालांकि अनविन ने स्पष्ट किया है कि उन्होंने जो समीकरण दिए हैं, वे आवश्यक नहीं कि पूरी तरह खरे, अंतिम सत्य हों. वे केवल एक पक्ष यानी उस पक्ष को जो ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखता है, अपनी बात को और अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिए कुछ उपकरण उपलब्ध करा रहे हैं. वे यह भी लिखते हैं कि ईश्वर विषयक विज्ञान की सभी मान्यताएं अधूरी हैं. अर्थात जिन संकल्पनाओं पर चलते हुए अनविन ईश्वरत्व की संभावना को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 67 प्रतिशत तक आंकते हैं, दूसरा उन्हीं संकल्पनाओं को अपनी तरह से प्रस्तुत कर, उनसे नए निष्कर्ष निकाल सकता है. वे भी गणितीय मापदंड पर उतने ही खरे उतरेंगे, जितने स्वयं अनविन के. कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसा हुआ है. उसकी चर्चा हम यथास्थान करेंगे. कुल मिलाकर मामला वहां भी आस्था का और आस्थावादियों के लिए है, गणित का नहीं.

अब बात उस गणित की जिसके आधार पर अनविन ने ईश्वर की प्रायिकता को कथितरूप से 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 67 प्रतिशत कर दिया है. पहले तो यह जान लें कि अनविन ईश्वर की 50 प्रतिशत संभाव्यता तक किस प्रकार पहुंचे हैं. इसके लिए उन्होंने न तो कोई सर्वे किया है, जो सांख्यिकी का मूल कर्म है, न ही किसी और माध्यम से आंकड़े जमा किए हैं. केवल काम-चलाऊ प्रतीतियों के सहारे अपने मंतव्य को गढ़ा है. यह साधारण से साधारण व्यक्ति भी जानता है कि ईश्वर को लेकर दो प्रकार की संभावनाएं बनती हैं. पहली, ईश्वर हो सकता है. और दूसरी ईश्वर नहीं हो सकता. इस तरह ईश्वर के होने या न होने की मूल प्रायिकता बराबर-बराबर अर्थात पचास प्रतिशत है. सिवाय संभाव्यता के अलावा इसके पीछे कोई और तर्क नहीं है. एक तरह से यह अनविन की मजबूरी भी थी. क्योंकि प्रायिकता को बढ़ाने के अनविन जिस गणितीय सूत्र का सहारा लेता है, वह सांख्यिकी-विद् रेवरेंड थामस बा॓यस का है. वह सूत्र तभी काम कर सकता है जब उसके लिए आधार अथवा प्राथमिक संभाव्यता मौजूद हो. इसलिए उन लोगों के लिए जो ईश्वर की संभावना को शून्य अथवा नगण्य मानते हैं, यह सूत्र और प्रकारांतर में अनविन के निष्कर्ष, किसी काम के नहीं हैं. उल्लेखनीय है कि जब कोई गणितज्ञ सांख्यिकीय आकलन करता है तो उसके आंकड़े किसी न किसी रूप में समाज से, अथवा किसी वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा ठोस परिगणनाओं के आधार पर जुटाए गए होते हैं. वे किसी व्यक्ति-विशेष के बारे में सत्य भले ही न हों, मगर वास्तविकता का एक सामान्य चित्र हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं, जो सामाजिक अध्ययन में बहुत कारगर सिद्ध होते हैं. उससे प्राप्त निष्कर्ष किसी न किसी सामाजिक यथार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं. आगे बढ़ने से पहले बा॓यस के सूत्र के बारे में जान लेना आवश्यक है. इसके लिए पहले कुछ उदाहरण—

मान लीजिए एक घर है. जिसका दरवाजा खुला हुआ है. एक आदमी उस घर में घुसता है. उसको किसी ने बाहर आते हुए नहीं देखा. तब उस व्यक्ति की, जब तक कोई और साक्ष्य न हो, घर में होने तथा न होने की संभावना बराबर-बराबर यानी पचास प्रतिशत होगी. सूत्र के गणितीय हिस्से पर आने से पहले एक और स्थिति. मान लीजिए एक व्यक्ति हर रोज घर में कुछ न कुछ फल लेकर अवश्य आता है. परिवार में दो बच्चे हैं. उनमें एक को केला पसंद हैं, दूसरे को अनार. व्यक्ति दोनों का मन रखने के लिए एक दिन केले लेकर आता है, दूसरे दिन अनार. इस तरह उसके किसी एक दिन केला या अनार लाने की संभावना 0.5 अर्थात 50 प्रतिशत होगी. पापा केला लाएंगे या अनार, यह बात बच्चे भी जानते हैं. एक दिन भाई-बहन छत पर थे कि पापा को हाथ में थैला लिए आते देखा. दोनों बच्चे बहस करने लगे—

‘आज पापा केला लाए हैं.’

‘नहीं अनार.’

‘पापा का फोन आया था, उस समय वे केले वाले के पास खड़े थे.’

‘तो क्या हुआ, जरूरी थोड़े ही पापा केले वाले के पास से केला लेकर ही आएं. वे केला बेचनेवाले से मना करके अनार वाले के पास भी जा सकते हैं.’

‘पापा जिस ठेली के पास खडे़ होते हैं, वहीं से फल खरीद लेते हैं.’

‘हमेशा ऐसा नहीं होता. एक बार मैंने स्वयं पापा को केले वाले को छोड़ अनारवाले के पास जाते हुए देखा था.’

अब मान लीजिए जहां से उन बच्चों के पिता फल खरीदते हैं, वहां केवल दो फलवाले खड़े होते हैं. उनमें से एक अनार बेचता है और दूसरा केला, तो जो बच्चा अपने पक्ष में अतिरिक्त तर्क दे पाएगा, उस दिन उस फल को लाने की संभावना उतनी ही बढ़ जाएगी. अनविन का 50 प्रतिशत वाला विचार यही कहता है. मान लीजिए लोगों से पूछा जाए कि ईश्वर है? कुछ लोग कहेंगे—‘हां’, कुछ कहेंगे—‘नहीं.’ जरूरत इस कवायद की भी नहीं है. आप एक सिक्का लीजिए, उछालिए. हेड और टेल आने की प्रायिकता बराबर होगी. अनविन ईश्वर न होने की संभावना को किनारे कर, शेष पचास प्रतिशत को उसके पक्ष में प्रमाण मान लेता है. यही उसके अनुसार ईश्वर की आधार प्रायिकता है. इस 50 प्रतिशत को 67 प्रतिशत तक पहुंचाने के लिए वह आगे भी ऐसी ही पूर्वापेक्षाओं का सहारा लेता है. जबकि बायस संभावनाओं की पड़ताल के लिए स्थितिजन्य साक्ष्य प्रस्तुत करता है. ठीक ऐसे ही जैसे कोई चतुर पुलिस अधिकारी किसी घटना की पड़ताल करता है.

कल्पना कीजिए प्लेटफार्म पर उतरता हुआ कोई आदमी चलती ट्रेन में खिड़की के बराबर बैठे एक पुरुष को अपने सहयात्री से बातचीत करते हुए देखता है. इससे पहले कि वह दूसरे व्यक्ति को पहचान पाए कि वह स्त्री है अथवा पुरुष, ट्रेन आगे बढ़ जाती है. दृष्टा इतना तो जान चुका है कि खिड़की के बराबर में बैठा यात्री पुरुष था. लेकिन जिससे वह बात कर रहा था, वह पुरुष भी हो सकता है, स्त्री भी. उसके स्त्री अथवा पुरुष होने की प्रायिकता बराबर, अर्थात पचास प्रतिशत होगी. अब यदि कोई तीसरा व्यक्ति दृष्टा से उन यात्रियों के बारे में पड़ताल करना चाहे तो उनकी बातचीत कुछ इस प्रकार होगी—

‘अच्छी तरह याद करके बताओ, दूसरा व्यक्ति पुरुष था अथवा स्त्री?’

‘मुझे याद नहीं आ रहा.’

‘ठीक है, दिमाग पर जोर डालो, याद करने की कोशिश करो. तुमने उसके बाल तो देखे ही होंगे. वे लंबे था या छोटे?’ पड़ताल कर रहा व्यक्ति अपनी तकनीक आजमाता है. जांचकर्ता का तर्क उसके ठोस अनुभवों पर आधारित है.

‘लंबे.’ दृष्टा को याद आता है. जांच करने वाला जानता है कि सामान्यतः स्त्रियां लंबे बाल रखती हैं. लेकिन सभी स्त्रियां बाल नहीं रखतीं. औसतन कितनी स्त्रियां लंबे बाल रखती हैं, इसके आंकड़े उसके पास हैं. यदि नहीं तो जुटाए जा सकते हैं. वह प्राप्त आंकड़ों से मिलान करके देखता है. लंबे बाल रखनेवाले हर चार व्यक्तियों में से आमतौर पर एक पुरुष होता है, तीन स्त्रियां. वह हिसाब लगाता है. उसके अनुसार जिस व्यक्ति से वह बातचीत कर रहा था उसके स्त्री होने की संभावना चार में से तीन, यानी 75 प्रतिशत है. प्रायिकता को बढ़ाने के लिए जांचकर्ता कुछ और सवाल कर सकता है. जैसे क्या उसने हाथ रचाए हुए थे? ऐसे साक्ष्यों के साथ प्रायिकता में आनुपातिक रूप से वृद्धि अथवा कमी आती जाएगी. बा॓यस के सूत्र का यही आधार है. इसी को विस्तार देते हुए वह स्थिति-विशेष के समर्थन में साक्ष्य जुटाता है और विशुद्ध गणितीय पद्धति का अनुपालन करते हुए सामान्य निष्कर्ष तक पहुंचता है.

बा॓यस के अनुसार यदि हम मान लें कि बातचीत स्त्री ‘स’ के साथ हो रही थी, तब यह मानते हुए कि समाज में स्त्री-पुरुष की संख्या लगभग बराबर है, बगैर किसी गहराई में जाए मान सकते हैं कि सहयात्री के स्त्री होने की प्राथमिक संभाव्यता सप्रथम= 0.5 होगी. जिसका आशय है कि पुरुष की बगल में बैठे सहयात्री के स्त्री अथवा पुरुष होने की संभावना बराबर-बराबर है. यदि यह मान लिया जाए कि उस सहयात्री के बाल लंबे थे और आंकड़ों से यह सिद्ध हो कि प्रत्येक चार स्त्रियों में से तीन(75 प्रतिशत) लंबे बाल रखती हैं तो बा॓यस के अनुसार लंबे बालों के आधार पर पुरुष के सहयात्री के, स्त्री होने की संभावना सलंब/म = 0.75 होगी. इसे बायस ने सशर्त प्रायिकता कहा है. अर्थात वह प्रायिकता जो घटना के लक्षणों तथा उपलब्ध साक्ष्यों के आधार से तय होती है. ऐसे ही जैसे मान लीजिए कि 25 प्रतिशत पुरुष लंबे बाल रखते हैं तो उपर्युक्त घटना में सहयात्री के लंबे बालों के आधार पर पुरुष होने की संभावना स/पु= 0.25 होगी. यहां यह मान लिया गया है कि बातचीत केवल स्त्री अथवा पुरुष के साथ हो रही थी, अन्य किसी प्राणी के साथ नहीं. बायस इससे अंतिम संभाव्यता अथवा कुल लाक्षणिक संभाव्यता को जानना चाहता है. इसके लिए वह निम्नलिखित सूत्र देता है—

                                                   सप्रथम x   सलंब/म

                     सअंतिम       =         ……………………….

                                                            स

                                                                     (स = कुल संभाव्यता)

                                                     सप्रथम x   सलंब/म

                                =       …………………………………………

                                             सप्रथम x   सलंब/म +   सप्रथम x स/पु

                                                0.75 x 0.50                        0.375

                                =   …………………………………… =     …………….

                                           0.50 x 0.75 + 0.50 x 0.25         0.500

                                                                                     = 75 % लगभग

इस तरह लंबे बाल के साक्ष्य के आधार पर उपर्युक्त उदाहरण में सहयात्री के स्त्री होने की संभावना 50% से बढ़कर 75% हो जाती है. साक्ष्यों की संख्या तथा उनकी कोटि का प्रभाव संभाव्यता के स्तर पर पड़ता है. डा॓क्टर रोगी से तथा पुलिस मुजरिम से जांच-पड़ताल के दौरान इसी तरह संभाव्यता को आगे बढ़ाती जाती है. अनविन उसी सूत्र को ईश्वर की संभाव्यता पुष्ट करने के लिए अपनाता है. बा॓यस के सूत्र को ईश्वर की परिगणना के लिए आधार बनाते समय अनविन यह दावा कतई नहीं करता कि उसने जो सूत्र दिया है, उससे सभी सहमत होंगे. वह स्वयं मानता है कि विज्ञान और गणित के माध्यम से ईश्वर की संभाव्यता को सिद्ध करना बहुत मुश्किल भरा काम है. उसका बस इतना दावा है कि वे लोग जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं, उसके तथाकथित गणितीय सूत्र का सहारा लेकर अपने मत को बेहतर ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं. वह जानता है कि उसके निष्कर्षों से लोग अपनी मान्यताएं बदलने को राजी नहीं होंगे. इसलिए अपने बचाव हेतु वह पर्याप्त संभावनाएं पहले ही सोच कर चलता है. कहने की आवश्यकता नहीं कि ईश्वरवादियों को अनविन के तर्क अपनी आस्था के प्रति चमत्कारी समर्थन प्रतीत होते हैं. ईश्वर की आधार-संभावना(सपूर्व = 50 प्रतिशत) तय कर लेने के पश्चात, बा॓यस के सूत्र में किंचित संशोधन के साथ वह अपना सूत्र प्रस्तुत करता है. निष्कर्ष संभाव्यता(सपश्चात) तक पहुंचने के लिए अनविन द्वारा प्रयुक्त सूत्र निम्नवत है—

                                                               सपूर्व x द

                सपश्चात            =                  ………………………….

                                                                सपूर्व x द + 1—सपूर्व

अनविन के अनुसार ‘द’ दिव्यता सूचकांक है. वह अपने दिव्यता सूचकांक को अलग-अलग अंक देकर गणना करता है. वे अंक भी अनविन द्वारा प्राकल्पित हैं. अलग-अलग स्थितियों के अनुरूप अनविन द्वारा प्रकल्पित दिव्यता सूचकांक निम्नलिखित हैं—

  1. पहली स्थिति में यह मानते हुए कि ईश्वर है और अकाट्य रूप से है, उसके विरोध के समस्त तर्कों को नकारते तथा पक्ष की प्रत्येक संभावना को स्वीकारते हुए वह दिव्यता सूचकांक ‘द’ को उच्चतम 10 अंक देता है. इससे वह दर्शाना चाहता है कि ईश्वर है और दस बार है.

2 दूसरी गणना के लिए वह यह मानते हुए कि ईश्वर है, एक नहीं दो बार है, वह दिव्यता सूचकांक ‘द’ को 2 अंक देता है.

  1. तीसरी गणना में वह दिव्यता सूचकांक को केवल 1 अंक देता है. इसका आशय है कि ईश्वर हो भी सकता है, नहीं भी.
  2. चौथी परिकल्पना में इस संभावना को मानते हुए कि ईश्वर नहीं है, वह दिव्यता सूचकांक को मात्र 0.5 अंक देता है.
  3. पांचवी स्थिति में वह दिव्यता सूचकांक ‘द’ को 0.01 अंक देता है. उस संभावना को और बढ़ा लेता है, जो मानती है कि ईश्वर नहीं है.

दिव्यता सूचकांक को तय करने का अनविन का अलग मापदंड हैं. सांख्यिकी आंकड़ों के साथ साक्ष्य पर भी विश्वास करती है, जबकि अनविन के यहां ऐसा कुछ भी नहीं है. दिव्यता सूचकांक के अलग-अलग निर्धारण हेतु वह पुनः प्रतिज्ञप्तियों की कल्पना करता है. जाहिर है ये प्रतिज्ञप्तियां आस्था के आधार गढ़े गए उसके छह भिन्न स्तर हैं—

  1. शुभत्व(द=10): अंकों के आधार पर यदि ध्यान से देखा जाए तो शेष संभावनाओं के मुकाबले यह शक्तिशाली संभावना है. कम से काम तुलनात्मक अंकों के आधार पर. यह कुछ ऐसा ही है कि तराजू के एक पलड़े में एक भारी-भरकम पत्थर तथा दूसरे में बिल्ली, खरगोश, चूहा, बकरी, बंदर को एक साथ चढ़ाकर यह निष्कर्ष निकाल लिया जाए कि वह पत्थर जंगल के सभी जानवरों से अधिक वजनदार है.
  2. सामान्य बुराइयां: यानी ऐसी बुराइयां जिनका होना समाज की विकास प्रक्रिया को गति देने के लिए आवश्यक है(द=0.5).
  3. प्राकृतिक बुराइयां : जैसे जंगलराज की स्थिति, महामारी आदि. जंगल में शक्तिशाली प्राणी अपने से छोटे प्राणी को खा जाता है. महामारी से मासूम बच्चे तक चल बसते हैं. यह नैतिकता की दृष्टि में अपराध है. यद्यपि जंगल में उत्तरजीविता के नियम के चलते यह स्वाभाविक अवस्था है. अनविन इसके लिए दिव्यता सूचकांक को 0.1 अंक देता है.
  4. आध्यात्मिक अनुभूतियां/अंतःप्राकृतिक चमत्कार : जैसे पूजा-पाठ, प्रार्थना, अंतरानुभूति आदि. जिससे मनुष्य को अपने अंतर्मन में झांकने से शांति की अनुभूति होती है(द=2).
  5. धार्मिक अनुभूतियां : स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देने के बाद इस प्रकार की अनुभूतियां कथित रूप से साधक को होती रहती हैं. अनविन इसे भी 2 अंक देता है.
  6. पुनर्जीवन /पराभौतिक चमत्कार : धर्म की नींव मृत्यु पश्चात सुख की लालसा पर टिकी हुई है. अधिकांश धर्मों में माना गया है कि मनुष्य मरने के बाद पुनः जन्म लेता है. इस चमत्कारपूर्ण धारण को अनविन अपने दिव्यता सूचक पैमाने पर मात्र 1 अंक देता है.

उपर्युक्त दिव्यता सूचकांकों को वह अपने सूत्र अलग-अलग रखकर गणना करता है. तदनुसार—‘ईश्वर के होने की प्रायिकता 67 प्रतिशत सिद्ध होती है.’ आगे वह जोर देकर कहता है, ‘यह संख्या व्यक्तिपरक है. इसलिए कि यह मेरे निजी साक्ष्यों के आकलन पर आधारित है.’ उदारता का प्रदर्शन करते हुए वह कहता है कि सूचकांकों को प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने हिसाब से आकलित कर सकते हैं. मगर उस अवस्था में अनविन का सूत्र लड़खड़ा जाता है. ‘साइंटिफिक अमेरिकन’ पत्रिका के जुलाई 2004 अंक में प्रकाशित एक आलेख में Skeptic के प्रकाशक मिशेल शर्मर अनविन के दिव्यता सूचकांकों को 1 से 10 अंक अपनी ओर से देते हैं. फिर उसी सूत्र के आधार पर ईश्वर की संभाव्यता का आकलन करते हैं, तो वह घटकर मात्र 2 प्रतिशत रह जाती है. एक अन्य गणना का उल्लेख पुस्तक की आलोचना के दौरान बा॓ब सीडेंस्टकर ने अपने लेख ‘कंप्यूटिंग दि प्रोबेबिलिटी आ॓फ गा॓ड’ में किया है. बा॓ब अनविन के दिव्यता सूचकांक में जैसे ही ऐच्छिक मान रखता है, ईश्वर की संभाव्यता और भी घटकर नगण्य(10—16) तक रह जाती है.

स्पष्ट है कि अनविन का आकलन उसकी व्यक्तिगत धारणा की अभिव्यक्ति है. हालांकि उसने कभी दावा नहीं किया कि वह ईश्वर को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित कर रहा है. और कोई भी उसको जांचकर वैसे ही निष्कर्ष पर पहुंच सकता है, जैसा कि दूसरे वैज्ञानिक प्रयोगों में होता है. इस पुस्तक को एक-दो को छोड़कर अधिकांश आलोचकों ने मजाक के रूप में लिया है. उनके अनुसार यह पुस्तक गणित के लिए पढ़ी जा सकती है, मनोरंजन के लिए पढ़ी जा सकती है, यदि आप ईश्वर के अस्तित्व पर भरोसा करते हैं, तब थोड़ी-बहुत तसल्ली के लिए पढ़ी जा सकती है. लेकिन यदि आप किसी दार्शनिक समस्या का समाधान इससे चाहते हैं, तब वह व्यर्थ की कवायद सिद्ध होगी. पुस्तक के समीक्षकों में से एक हेमंत मेहता लिखते हैं—‘पढ़ने में मजेदार. वैचारिकी का आश्चर्यजनक प्रयोग….अनविन को ऐसे लोगों की ओर खड़ा कर देता है, जिनका गणित से कोई वास्ता नहीं है.’ अनविन अपनी धारणाओं को लादने के लिए गणित का सहारा लेता है, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर बच निकलने का रास्ता भी तैयार रखता है. यह कोशिश कृति को मनोरंजक प्रयोग से आगे नहीं बढ़ने देती. बा॓यस के सूत्र का उपयोग चिकित्सा से लेकर अपराध-जांच तक कहीं भी किया जा सकता है, जहां प्रायिकता को बढ़ाने के लिए ठोस साक्ष्य उपलब्ध हों. जबकि अनविन के दिव्यता सूचकांक का कोई तार्किक आधार नहीं है. वह केवल उसकी मनोरचना है, जिसे उसने बेहिचक स्वीकारा भी है. उल्लेखनीय है कि विज्ञान को धर्म से जोड़ने अथवा धर्म और विज्ञान का साम्य दिखाने की कोशिश करनेवाले अनविन अकेले नहीं हैं. इस विषय पर पिछली दशाब्दियों में और भी पुस्तकें आई हैं. उनमें स्टीवन ब्रम्स की ‘सुपीरियर बीईंग्स : इफ दे एक्जिस्ट’, रिचर्ड दाकिन की ‘दि गार्ड डिल्यूजन’ आदि प्रमुख हैं. इनमें किसी न किसी प्रकार ईश्वर के विचार को विज्ञान से जोड़ने की असफल कोशिश की गई है.

अनविन के इस आत्मपरक लेखन के कई सामाजिक पहलु भी हैं. दिव्यता सूचकांक में शुभता को ईश्वर में स्थापित करना मनुष्यता के रास्ते अवरुद्ध करने जैसा है. आज हम पूंजीवादी अर्थतंत्र पर आरोप लगाते हैं कि उसने मनुष्य को भौतिकवादी बना दिया है. इतना स्वार्थी बना दिया है कि मनुष्य को सिवाय अपने सुख के, भोग और स्वार्थ-लिप्सा के कुछ भी नजर नहीं आता. इसी आधार पर अपसंस्कृतिकरण का रोना भी रोया जाता है. उस समय हम भूल जाते हैं कि जिसे हम बाजारवाद की देन बताते हैं, वैसी स्वार्थपरता, अकेले-अकेले सुख पाने की कामना का उपदेश तो धर्म सहस्राब्दियों से देता आया है. धर्म की ओर प्रवृत्त करने के लिए गुरु आमतौर पर अपने शिष्यों को समझाता है—‘यह संसार माया है. इसमें कोई भी तुम्हारा अपना नहीं है. भाई, बहन, पत्नी, माता-पिता, सभी से तुम्हारा स्वार्थ का नाता है. वे भी तुमसे स्वार्थ से बंधे हैं. कोई तुम्हारा साथ नहीं देने वाला. इसलिए यदि स्वर्ग का सुख पाना है, तो इस मोह-ममता को त्याग कर परमात्मा की शरण में आ.’ थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ गीता में कृष्ण ने यही कहा है. गीता निष्काम कर्म का संदेश देकर उसे संतुलित करने का प्रयास करती है. केवल अपने लिए सुख-समृद्धि और स्वर्ग की कामना, अनेक बार मनुष्य को सामाजिक दायित्वों की ओर से उदासीन बनाकर, घोर स्वार्थी आचरण की ओर प्रवृत्त कर देती है. दूसरे केवल अपने सुख की कामना तथा स्वार्थसिद्धि के लिए काम करना, सामाजिक नैतिकता को बिसार देना है. यह भुला देना है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है. भले ही वह समाज में अपने सुख और सुरक्षा के लिए शामिल हुआ हो, समाज के प्रति उसकी भी पर्याप्त जिम्मेदारियां हैं. प्रकट में प्रत्येक धर्म अपने माता-पिता, पड़ोसी, मित्र-सखा के प्रति उदारतापूर्वक पेश आने की सलाह देता है. लेकिन मोक्ष एवं कल्याण के नाम पर वही धर्म संसार को माया और विभ्रम बताकर मनुष्य को ऐसी अंध-स्पर्धा से जोड़ देता है, जिसकी अति उसे सामाजिक कर्तव्यों की ओर से उदासीन बनाती है. इसलिए हम देखते हैं कि भारत जैसे समाजों जहां सामान्य नैतिकता को भी धर्म के भरोसे छोड़ दिया जाता है, नागरिकबोध बहुत कम होता है. पूरा समाज एक भीड़ के आचरण को अपने स्वभाव का हिस्सा बना लेता है.

फिर एक अवैज्ञानिक कार्य को विज्ञान जितना महत्त्व दिए जाने का कारण? दरअसल, आस्तिक को उतना डर धर्म, ईश्वर या पापकर्म से नहीं लगता, जितना नास्तिक से लगता है. उस विचार से लगता है, जो ईश्वर को नकारता है. इसलिए जब भी वह किसी नास्तिक को देखता है, नकलीपन का एहसास उसे कचोटने लगता है. वह उसे बार-बार उकसाता है—‘अरे! यह ईश्वर को नहीं मानता! अगर नहीं मानता तो जीवित कैसे है?’ सामंती समाजों के देवता और भी बड़े सामंत होते हैं. देवत्व की अवमानना करने, यहां तक कि प्रसाद तक न खाने अथवा प्रसाद लेकर उसको खाना भूल जाने से भी उनकी त्योरियां चढ़ जाती हैं. आस्तिक यही सोचकर हैरान होता है कि ऐसे कोपवंत देवताओं के चलते उनके अस्तित्व को नकारनेवाला धरती पर सुरक्षित कैसे है? जरूर वह दिखावा करता है. अगर यह सचमुच ईश्वर को नकारता है तब तो ईश्वर का कोप उसे सताएगा ही. उस समय मैं भी इसका साथी न मान लिया जाऊं? ऐसे न जाने कितने अनजाने भय उस व्यक्ति को घेर लेते हैं. पक्ष में दिखने के लिए वह ईश्वर पर सवाल उठाने की संभावना को ही धिक्कारने लगता है. फिर चाहे कोई कितना ही कहे कि वह नास्तिक है—वह विश्वास ही नहीं करता. लोग यह मानने को तैयार ही नहीं होते कि नास्तिक होना भी भारतीय दर्शन-परंपरा का हिस्सा है. उस समय सौ में से अस्सी का एक ही जवाब होता है—‘हं…हं! नास्तिक में भी तो अस्तिः(नः+अस्तिः) छिपा हुआ है. उस समय कोई लाख तर्क दे कि ‘‘भइया, ‘अस्तिः’ को नकारने के लिए ही ‘नः’ उपसर्ग लगाया गया है.’’—बात उनके गले नहीं उतरती. जिद पर कायम रहने के लिए ईश्वरवादियों के रटे-रटाए तर्क होते हैं. उनके दिमाग की सुई हजार-दो-हजार साल पहले के समय पर अटकी होती है, जब साम्राज्यवादी लालसा में दर्शन का धार्मिकीकरण कर मनुष्य के सहजबोध को उससे बांध दिया गया था.

ईश्वरवादियों का दूसरा तर्क होता है, इस दुनिया को किसी ने तो बनाया है! वही शक्ति ईश्वर है. फिर ईश्वर को किसने बनाया है? ईश्वर को भला कौन बनाएगा? वह तो अनादि-अनंत और सर्वशक्तिमान है. यही बात हम इस सृष्टि के लिए कहें तो? कार्य-कारण का उनका नियम ईश्वर तक जाकर ठहर जाता है. उससे पीछे ले जाने में उनके पसीने छूटने लगते हैं. यदि उनपर जोर डाला जाए, कहा जाए कि यदि ईश्वर अनादि-अनंत हो सकता है तो सृष्टि क्यों नहीं? यदि ब्रह्मांड का विस्तार ही कल्पनातीत है तब उसके कथित निर्माता की कल्पना कैसे संभव है? उस समय बहस से कन्नी काटते हुए वे सृष्टि को ही ईश्वर मान लेंगे. यानी चिपके अपनी बात से रहेंगे. डरे हुए लोग ठहरे. उनका डर उनके किस पापबोध की परिणति है, वे जानें. विज्ञान और धर्म के रास्ते एकदम अलग हैं. विज्ञान संदेह का रास्ता है. ईश्वर आस्था का मसला. दिमाग की सुई एक जगह ठहर जाए, तब आदमी धार्मिक कहलाता है. उदाहरण के लिए इन दिनों भारत की ओर से भेजा गया मंगलयान रास्ते में है. सब कुछ ठीक ठाक रहा तो अगले कुछ दिनों में मंगल की कक्षा में होगा. मान लीजिए उस यान को किसी सुदूर ग्रह पर बैठा ऐसा व्यक्ति देखे जिसके दिमाग की सुई रामायण काल पर अटकी हुई है तो वह यही कहेगा—देखों धरती से फेंगी गई पवनपुत्र हनुमान की गदा आसमान में उड़ रही है.’ ऐसे ही दूसरा व्यक्ति जो किसी कारणवश महाभारत युग पर अटका हुआ है, उसे भीम की गदा बताएगा. इसे आप मजाक की तरह भी ले सकते हैं. लेकिन अशोक की लाट को भीम की गदा बतानेवाले लोग भी इसी देश-समाज में होते आए हैं.

अतिप्राचीन समाजों में धर्म की चाहे जो प्रासंगिकता रही हो, आज वह सामाजिक भेदभाव और ऊंच-नीच का कदाचित सबसे बड़ा मददगार है. शीर्षस्थ वर्गों के साम्राज्यवादी मंसूबों ने धर्म को राजनीति और समाज में प्रासंगिक बनाए रखा. करीब ढाई-तीन हजार वर्ष पहले यह महसूस किया जाने लगा था कि छोटे-छोटे राज्यों से काम नहीं चलनेवाला. हमलावर दुश्मनों से सुरक्षा के लिए बड़ी ताकत बनना होगा. ऐसे में धर्म ने आसंजक और संसजक दोनों का काम किया. इस अवधि में कुछ अच्छे परिणाम भी धर्म के कारण देखने को मिले. भौतिकता की आड़ के रूप में वह अनेक व्यक्तिगत और सामाजिक तनावों को कम करने का माध्यम बना है. धर्म का औचित्य बनाए रखने के लिए उसको नैतिक मूल्यों से जोड़ा गया था, लेकिन बाद में उन्हें धर्म का पर्याय बताना आरंभ कर दिया. उसकी सबसे बड़ी भूमिका सामजिक-आर्थिक और राजनीतिक विभाजन को शास्त्रीय रूप देने में रही, जिससे कालांतर में बड़े आर्थिक-सामाजिक विभाजनों को जगह मिली. धर्म का अतिवादी रूप महाभारतकाल में भी दिखाई पड़ता है, जब आर्यवर्त पर एकक्षत्र राज्य कायम करने के लिए कृष्ण चतुराई पूर्वक समस्त आर्यवर्त के राजाओं को परस्पर लड़वा देते हैं. सभी छोटे-बड़े राजा खेत रहते हैं. कौरवों को पराजित कर, देर-सवेर पांडव भी महाप्रयाण पर चले जाते हैं. आगे चलकर कुछ ऐसी ही कोशिश चाणक्य के नेतृत्व में नजर आती है.

सवाल है कि यदि कि विज्ञान ही सबकुछ है तो जीवन, मृत्यु जैसे प्रश्न अनुत्तरित क्यों हैं. इसके अलावा भी ऐसे अनेकानेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर विज्ञान नहीं दे पाया है. लेकिन विज्ञान ने कभी दावा भी नहीं किया कि उसने सबकुछ जान लिया है. धार्मिक प्रवृत्ति के लोग दुनिया के सारे ज्ञान को परमात्मा में अवस्थित मान लेते हैं. धीरे-धीरे अधिकांश के लिए यह परमात्मा को प्रसन्न रखने का कर्मकांड बन जाता है. धीरे-धीरे वह सुबह-शाम की आरती में सिमट जाता है. ऐसे आस्थावादी समाज में लोग 24—25 पृष्ठ रटकर सत्यनारायण की कथा सुनाने वाले पुरोहित को ‘पंडित’ मान लें, तो आश्चर्य कैसा! वैज्ञानिक को अपने ज्ञान का कभी गुमान नहीं होता. सच्चा वैज्ञानिक भली-भांति जानता है कि उसका अज्ञान उसके ज्ञान कहीं अधिक बड़ा है. इसलिए वह निरंतर और जानने के लिए प्रयासरत रहता है. अपने ही ज्ञान पर निरंतर संदेह करता है. इसी में उसकी सिद्धि है. इसके लिए विज्ञान की आलोचना करना उचित नहीं. अनसुलझे सवालों के उत्तर की खोज के लिए वैज्ञानिकों को पर्याप्त समय देना होगा. यूं भी सृष्टि की उम्र छोडि़ए, पृथ्वी की आयु के समक्ष भी विज्ञान की उम्र शिशु जितनी नहीं है. इस बारे में अमेरिकी लेखक हावर्ड बूस फ्रेंकलिन ने एक मजेदार उदाहरण दिया है—

‘‘पृथ्वी की उम्र लगभग साढ़े चार अरब है. हिम युग को पूरी तरह समाप्त हुए लगभग 10000 साल हुए हैं. तदनुसार पृथ्वी की उम्र हिम युग बीतने की अवधि के लगभग 4,50,000 गुना अधिक है. इसे समझने के लिए हम एक तस्वीर की कल्पना करते हैं. हम मान लेते हैं कि पृथ्वी की उम्र 45,000 फुट के समतुल्य है ठीक उतनी ही जिसपर कोई जेट वायुयान उड़ान भर सकता है. उस पैमाने पर यदि हिम युग की अवधि को दर्शाया जाए तो वह मात्र 1.2 इंच को दर्शाएगा. अब यदि आधुनिक विज्ञान के अवधि, जब उसने तकनीक और प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में कदम रखा, मात्र 200 वर्ष पुरानी घटना है. वह हमारे पैमाने पर मात्र 0.024 की ऊंचाई को दर्शाएगी. यह इतनी बारीक रेखा होगी, जैसे मामूली बाल पाइंट पेन द्वारा खींची गई रेखा की मोटाई.’’

सत्य से परे होने के बावजूद मैं अनविन के प्रयासों की सराहना करूंगा. उन्होंने ईश्वरत्व को गणित के आधार पर आकलित करने का विचार तो दिया. आगे और लोग भी आएंगे. जिसके फलस्वरूप पारंपरिक धर्म ने अपने चारों ओर जो बाड़ें लगाई हैं, वे कमजोर होंगी; तथा धर्म की वैज्ञानिकता पर बहस का सिलसिला आगे बढ़ेगा. तब शायद लोग महाभारत के इस सत्य को स्वीकारने को राजी हो जाएं—

गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रीवीमि। न हिं मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचितः। (महाभारत, शांतिपर्व, 299/20)—एक बात बताता हूं, संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ, मनुष्य के लिए मनुष्य से उपयोगी कुछ भी नहीं है. सच मानिए, ईश्वर भी नहीं.

[पुनश्चः: मुझे एक बात जानकर हैरानी होती है कि धर्म के नाम पर, अपने समय के शीर्षस्थ महारथियों, अठारह अक्षौहिणी सेना, देवता-राक्षस तथा यादव कुल का विनाश लिख देने के पश्चात महाभारतकार ने कानाफूसी के अंदाज में ही क्यों कहा कि ‘इस संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है.’ युद्ध में अपनों से लड़ाई छेड़ने के लिए अर्जुन को उकसानेवाले कृष्ण भी इस ‘परमसत्य’ को लोगों से छिपा ले जाते हैं और गीता इससे वंचित रह जाती है. अगर यह उपदेश पहले ही दे दिया होता तो क्या युद्ध होता? प्रजा यदि जानती कि मनुष्य के लिए एकमात्र श्रेष्ठतम मनुष्य है तो क्या वह दूसरों के कहने पर अपनों का गला काटने को तैयार होती? हरगिज नहीं! दरअसल शिखर पर विराजमान लोगों के लिए केवल वही मनुष्य होते हैं, जो उनके सगे या सत्ता के आसपास होते हैं. बाकी या तो सेवक होते हैं अथवा प्रजा. वे सुन न लें, इसलिए अच्छी बात हमेशा चुपके-चुपके कानाफूसी के अंदाज में, केवल अपनों के बीच कही जाती है, और उकसाने की जरूरत आ पड़े तो ‘धर्म-धर्म चिल्लाया जाता है.]

© ओमप्रकाश कश्यप

opkaashyap@gmail.com

समय का दर्शन-तीन

ज्ञान, ज्ञानार्जन की प्रक्रिया और चौथा आयाम

अक्सर कहा जाता है, ज्ञानी बनो. पुस्तकें ज्ञान का समंदर हैं. उन्हें पढ़ो. जितना संभव हो ज्ञान को समेट लो. समेटते जाओ. ज्ञार्नाजन को अपना लक्ष्य मानकर गुरु की शरण लो. उसकी कृपा से अपने अज्ञान के अंधेरे को दूर करो. लेकिन ज्ञान की ललक में दौड़ते, भागते. उसकी तलाश में भटकते, ठोकरें खाते कभी-कभी यह विचार भी मन में कौंध उठता है कि ज्ञान आखिर है क्या? हम कैसे जाने कि ज्ञान के लिए हमारी दौड़-भाग का जो परिणाम निकला, देर तक भटकने के बाद जिस लक्ष्य पर हम पहुंचे हैं—वह सचमुच ज्ञान है? ज्ञान और अज्ञान के बीच सीमारेखा कैसे खींची जाए? ज्ञान के कौन से लक्षण हैं जो उसको अज्ञान होने से बचाते हैं? साधारणजन के लिए यह उतनी बड़ी समस्या नहीं है. वह गुरुजनों पर विश्वास कर लेता है. धर्मग्रंथों में शताब्दियों पूर्व लिखी गई बातों से अपना काम चला लेता है. उसके लिए ज्ञान स्थायी, अपरिवर्तनशील, कभी न बदलने वाला, युगांतर सत्य है. तर्कबुद्धि को किनारे रखकर वह अपने आस्थावादी दिमाग से सोचता है. उसकी निगाह में गंगा शताब्दियों पहले जब प्रदूषण जैसी कोई समस्या नहीं थी जितनी पवित्र थी, आज भी उतनी ही पवित्र है. ऐसा व्यक्ति समाज की सामान्य समझ और रीति-रिवाजों से अनुशासित होता है. दूसरी ओर जिज्ञासु व्यक्ति मानता है कि ज्ञानार्जन की प्रक्रिया अंतहीन है. वह अपने संदेहों को सम्मान देता है. उसका विश्वास है कि ज्ञान सदैव अज्ञान की बांह पकड़कर चलता है. दोनों के बीच इतना बारीक अंतर है कि ज्ञान कब अज्ञान की सीमा तक पहुंच जाए, और अज्ञान यह कहकर कि वह कम से कम इतना तो जानता ही है कि उसको फलां का ज्ञान नहीं है—स्वयं को ज्ञानवान की परिधि में ले आता है. ऐसा व्यक्ति किसी बंधी-बंधाई लीक पर चलने के बजाय अपना लक्ष्य स्वयं तय करता है. उसका बोध निरंतर परिष्करण को उन्मुख रहता है. वह ज्ञान की चिरंतनता और सतत परिवर्तनशीलता पर अटूट विश्वास रखता है.

ऐसे जिज्ञासु के लिए ज्ञान का सामान्य-सा लक्ष्य है जानना, किसी वस्तु, व्यक्ति, स्थान अथवा विचार को, जैसा वह है—जो वह दिखता है, और उस दृश्यमान के पीछे जो अनदिखा सत्य निहित है, उसका संपूर्ण बोध….वस्तु के रूप, रंग, गंध, गुण, दोष, आंतरिक-बाह्यः संचरना आदि का सर्वांग-परिचय. बेहतर ज्ञान अर्थात बेहतर जानकारी. एक वस्तु का दूसरी वस्तु से, एक विचार का दूसरे विचार से, साम्य-वैषम्य का निष्पक्ष-निरपेक्ष तत्वातत्व विवेचन. लेकिन यह कहना जितना आसान है, उतना है नहीं. किसी वस्तु को समग्रता के साथ जानना-समझना जितना कठिन है, उतना ही कठिन है ज्ञान को परिभाषित करना. किसी वस्तु, व्यक्ति का ज्ञान होना दर्शाता है कि हमें उसके व्यावहारिक एवं सैद्धांतिक पक्ष की संपूर्ण जानकारी है. हालांकि उस समय भी ज्ञान के कई ऐसे पक्ष हो सकते हैं, जो अभी मानवी मेधा के लिए समस्या बने हुए हों, अथवा जिनकी ओर उसका अभी ध्यान ही नहीं गया हो. उस अवस्था में वस्तु के बारे में उपलब्ध जानकारी को ही तत्संबंधी ज्ञान मानकर संतोष कर लिया जाता है. लेकिन ज्ञान का ज्ञान कैसे संभव हो? हम सामान्यतः ज्ञान की बाह्यः उपस्थिति से संतुष्ट हो जाते हैं. ज्ञान स्वयं क्या है? इस ओर हमारी दृष्टि कम ही जा पाती है. यह समस्या हम साधारण लोगों की नहीं है. बड़े-बड़े दार्शनिक और विचारकों के लिए भी ज्ञान को परिभाषित करना कठिन रहा है. किसी वस्तु, व्यक्ति आदि के बारे में सामान्य सूचना को ही उसके बारे में ज्ञान मानकर संतोष कर लिया जाता है. ऐसे में कई सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं. ज्ञान क्या वस्तु में अवस्थित होता है अथवा जिज्ञासु के मानस में? वह स्थायी है अथवा परिवर्तनशील? यदि वह परिवर्तनशील है तो किसी काल-विशेष में ज्ञान की प्रामाणिकता का आधार क्या हो? ऐसे कुछ प्रश्न ज्ञान और ज्ञानार्जन की प्रक्रिया से जुड़े हैं. किसी वस्तु के बारे में हमारे ज्ञान का स्तर इस बात पर निर्भर करता है, कि उसके बारे में हमें कितना बोध है? तथा उसको परखने में लगे हमारे उपकरण कितने निरपेक्ष, संवेदनशील, विश्वसनीय और सुग्राही हैं? इस तरह से देखा जाए तो ज्ञान एक पैमाना है, जिसके द्वारा हम किसी वस्तु, स्थान, व्यक्ति, विचार आदि के बारे में अपने अनुभवों को वैध तथा दूसरे के अनुभवों को परखने हेतु कसौटी तैयार करते हैं. जिससे स्वयं हमारे अपने विवेक की कसौटी तैयार होती है. ज्ञान स्वयं में भी ऐसी कसौटी है जिसपर खरा उतरने के बाद ही कोई तर्क कुतर्क कहलाने से बच पाता है.

ज्ञान की पूर्णता संदेहों को विराम देती, तर्कों को समापन की ओर ले जाती है. ज्ञान की संपूर्णता सदैव एक लक्ष्य होती है. जैसे ही किसी एक रहस्य से पर्दा हटता है, दूसरा आवरण चुनौती बनकर उपस्थित हो जाता है. यह सिलसिला निरंतर बना रहता है. व्यवहार में कहा जाता है कि जहां ज्ञान है, वहां शंकाओं के लिए कोई स्थान नहीं है. पर हकीकत है कि जहां शंकाएं हैं वहीं ज्ञान की खुली आमद है. भले किसी को यह विचित्र लगे, पर सच यही है कि हमारी शंकाएं हमारे ज्ञान के सफर को आगे बढ़ाती हैं. निरंतर बढ़ते रहने की प्रेरणा देती हैं. पीटर अबेलार्ड के मन में भी कुछ प्रेरणादायी शंकाएं रही होंगी, जब उसने ये शब्द कहे—‘संदेह हमें जांच-पड़ताल को प्रेरित करती है और जांच-पड़ताल हमें सत्य का रास्ता दिखा देती है.

ज्ञान इतना बहुआयामी होता है कि मनुष्य किसी वस्तु या विचार के एक समय में एक पक्ष को लेकर ही बात कर पाता है. किसी वस्तु या विचार को लेकर हमारी शंकाएं दर्शाती हैं कि हमारे भीतर उस वस्तु को जानने की अभिलाषा जन्म ले चुकी है. जब हम सवाल करते हैं कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा क्यों करती है? तो निश्चितरूप से हमें इसके पूर्व प्रश्न कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, का बोध होता है. पृथ्वी सूरज की परिक्रमा क्यों करती है? उसकी गति और कारण क्या है? उसके लिए ऊर्जा कहां से प्राप्त होती है? दूसरे ग्रहों, उपग्रहों की गति से उसका क्या संबंध है? ऐसे प्रश्नों की अंतहीन शृंखला किसी एक प्रश्न के साथ ही आरंभ हो जाती है. जरूरी नहीं कि सभी प्रश्न किसी एक व्यक्ति के दिमाग में एक ही बार में आ जाएं. परंतु आपसी चर्चा के दौरान, बहस के दौरान, चिंतन-मनन अथवा इतिहास के भिन्न-भिन्न दौर में, ये प्रश्न जन्मते ही रहते हैं. कह सकते हैं कि प्रश्न बीजमंत्र होते हैं. एक छिटका तो उसके बाद प्रश्नों की झड़ी लग जाती है. हमारे अबूझे प्रश्न हमें बताते हैं कि जानना सीमित एक पड़ाव-भर है. ज्ञानार्जन की कोशिश में लगे उपकरणों की भी सीमा है. इसके बावजूद ज्ञान के किसी एक चरण में ही हम उसके बारे में प्रश्नों की सुदीर्घ शृंखला से जुड़ जाते हैं. ज्ञानार्जन की अनवरत चलने वाली प्रक्रिया में कुछ के उत्तर हमें मिलते हैं, कुछ के नहीं भी मिलते. इसी प्रकार प्रथम और द्वितीयक चरणों में ज्ञान आगे बढ़ता है. यह परंपरा इतनी लंबी और सुदीर्घ होती है कि हमारे ज्ञान का स्तर हमेशा प्रथम पायदान पर होता है. जिज्ञासु के रूप में हम स्वयं को सदैव एक नए लक्ष्य के सामने पाते हैं, जो हमेशा लक्ष्य बना रहता है. रोजमर्रा के जीवन में शंका और संदेह को अच्छे मन से नहीं देखा जाता. शंका-युक्त ज्ञान को अज्ञान का दर्जा दे दिया जाता है. उसको अपूर्ण माना जाता है. लेकिन दर्शन ऐसा नहीं मानता. उसके लिए शंकाएं समाधान से कम महत्त्वपूर्ण नहीं होतीं. वे ज्ञान को उसकी पूर्णता की ओर ले जाने का एक अनिवार्य माध्यम हैं. इस तरह हमारा ज्ञान हमारी अंतर्बाह्यः दुनिया के बारे में सांगोपांग बोध है. जिसके माध्यम से हम दृश्य-अदृश्य वस्तुओं, ब्रह्मांड, आचार-विचार आदि के बारे में अपनी तथा दूसरों की विवेकशीलता के स्तर का अनुमान लगा पाते हैं.

ज्ञानार्जन की प्रक्रिया

स्मृति मनुष्य का वह गुण है जो उसको मनुष्येत्तर प्राणियों से अलग और विशिष्ट ठहराता है. यह ज्ञानार्जन की प्रक्रिया का प्रथम उपकरण है. मनुष्य को जो अनुभव होते हैं, हमारी स्मृति उन्हें मानसिक छवियों में संग्रहित करती रहती है. दार्शनिक शब्दावली में ये छवियां प्रत्यय कहलाती हैं. अनुभव के साथ हमारी मानस-छवियों में भी वृद्धि होती रहती है. उनमें से कुछ कम महत्त्वपूर्ण पद विस्मृति के रूप में लगातार ओझल होते रहते हैं. हालांकि मस्तिष्क उनके प्रभाव को हमेशा के लिए कभी विस्मृत नहीं होने देता. अनुकूल अवसर देख वह उन्हें विस्मृति के गर्भ से बाहर ले आता है. प्रत्यय निर्माण की सामग्री हमारे मनस् में प्रायः दो प्रकार से आती है. हमारे निजी अनुभव जो सीधे हमारी इंद्रियों के माध्यम से हमारे मस्तिष्क तक पहुंचते हैं. जैसे मेज को देखने के साथ ही एक छवि हमारे मस्तिष्क में पैठ जाती है. भविष्य में जैसे ही हमारे सामने मेज जैसी संरचना आती है अथवा कोई उसका जिक्र भी करता है तो हम जान जाते हैं कि वह मेज के बारे में है. सीधे अनुभव के अलावा दूसरों के अनुभव भी हमारे प्रत्यय-निर्माण में मददगार होते हैं. वे बातचीत, किस्से-कहानी, पुस्तक, लोकसंवाद या ऐसे ही किसी अन्य माध्यम से हमारे संज्ञान में आते हैं. उनके बारे में पढ़ते-सुनते-देखते समय ही हम उनकी छवियां अपने मनस् में पैठा लेते हैं. प्रत्ययों को सहेजते समय हमारा मस्तिष्क लगातार क्रियाशील रहता है. नवांतुक प्रत्ययों की पूर्वस्थापित प्रत्ययों से तुलना करते हुए वह उनके आधार पर नई मानस-छवियां गढ़ता रहता है. फलस्वरूप अगली बार जब भी कोई नया प्रत्यय बनता है, उससे तुलना करने के लिए अपेक्षाकृत अधिक संख्या में प्रत्यय पहले से ही मनस् में मौजूद रहते हैं. उनके सहयोग-टकराव से कुछ नए प्रत्यय बनते रहते हैं, जो हमारी मेधा को समृद्धि प्रदान करते हैं. हमारे मस्तिष्क में प्रत्ययों की एक स्वतंत्र दुनिया बसी होती है. हमारा बोध, हमारा ज्ञान कहीं न कहीं उन्हीं से निर्धारित होता है.

प्रत्यय निर्माण में वस्तु-विशेष के अस्तित्व का योगदान होता है. दूसरे शब्दों में अस्तित्व किसी वस्तु का वह गुण अथवा गुणों की अन्योन्याश्रित शृंखला है, जिससे वह पहचानी जाती है. जिसके आधार पर वह दूसरों से भिन्न सिद्ध होती है. यह वैभिन्न्य मानव-मस्तिष्क की रचना है, जो उसने दृश्य वस्तुओं के भौतिक-भाविक रूप को देखते हुए उनकी स्वतंत्र पहचान बनाए रखने के लिए उन्हें दी है. आवश्यक नहीं कि वे भी स्वयं उस पहचान से परिचित हों. घड़ा और ईंट दोनों ही मिट्टी से व्युत्पन्न हैं. अपने रूपाकार में दोनों स्वतंत्र. इतने कि उन्हें एक-दूसरे से अस्तित्व से, गुणों से कोई वास्ता नहीं. पर आदमी को उनसे वास्ता है. घड़ा र्या इंट भले न जानते हों कि वे क्या हैं? मनुष्य उन्हें अलग-अलग पहचान लेता है. इसलिए कि ये संज्ञाएं उसी के द्वारा दी गई हैं. बचपन से ही बालक को उसके आसपास मौजूद विभिन्न वस्तुओं तथा उनके रूपाकारों के बारे में बताया जाता है. ये रूपाकार अलग-अलग छवियों के रूप हमारे मस्तिष्क में मौजूद रहते हैं. ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति वस्तु अथवा विचार विशेष तथा मस्तिष्क में मौजूद प्रत्ययों की तुलना द्वारा जान लेता है कि प्रेक्षित वस्तु क्या है. आवश्यक नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति के मनस् में सभी प्रत्यय मौजूद हों. उस अवस्था में व्यक्ति दूसरे के अनुभवों और छवियों से काम चला लेता है. इस तरह ज्ञान सामूहिक प्रक्रिया भी है.

प्रश्न है कि क्या गुण वस्तुओं की निजी विशेषता होते हैं? यदि हां, तो क्या हम वस्तुओं को उसी रूप में जान पाते हैं, जैसी वे हैं. आम को ‘आम’ संज्ञा मनुष्य द्वारा दी गई है. निर्जीव वस्तुएं नहीं जानतीं कि वे स्वयं क्या हैं? आप आम को ‘आम’ कहें या ‘इमली’, इससे आम को कोई फर्क नहीं पड़ता. आम यह भी नहीं जानता कि वह खट्टा है या मीठा. यह तय करना उसका काम नहीं है. खट्टा-मीठा स्वाद या अनुभूतियां हैं, जिनका नामकरण प्रकृति साहचर्य से गुजरते हुए मनुष्य द्वारा किया गया है. पृथ्वी के अलग-अलग प्रांतों में भटकते हुए मनुष्य को भिन्न-भिन्न अनुभव हुए. उसके फलस्वरूप अलग-अलग भाषाएं बनीं. सभ्यताओं के संपर्क के आधार पर भाषायी परिवर्तन-संबर्धन के दौर भी चलते रहे. कह सकते हैं कि ज्ञान प्रकृति के साहचर्य द्वारा अर्जित बौद्धिक-आनुभविक संपदा है. लेकिन उसके प्रमाणीकरण का आधार क्या हो? कैसे कहें कि हमें वस्तु का यथातथ्य ज्ञान है? ज्ञान के प्रमाणीकरण की सबसे बड़ी समस्या है कि सृष्टि में मनुष्य अकेला विवेकवान प्राणी है. ज्ञान उसके लिए वरदान है तो अभिशाप भी है. वरदान इसलिए कि बाकी प्राणियों की ओर से मनुष्य के श्रेष्ठत्व को कोई बड़ी चुनौती कभी दी नहीं जा सकी. अपने ज्ञान के बल पर मनुष्य पशु-पक्षियों से अपने स्वार्थानुकूल काम लेता आया है. बल्कि उसने सृष्टि के विभिन्न तत्वों की व्याख्या ही अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर की है. अभिशाप इसलिए कि अपनी खूबियों, खामियों, स्वाध्याय, साधना, अध्ययन और चिंतन द्वारा मनुष्य ने भाषा की जो कसौटियां बनाईं, उन्हें यदि मनुष्येत्तर प्राणियों की ओर से भी चुनौती मिल पाती तो निश्चय ही विमर्श का दायरा और उसकी परिधि में विस्तार होता.

प्रकृति द्वारा केवल मनुष्य को स्मृति का वरदान प्राप्त है. इसके माध्यम से वह अपने अनुभवों, ज्ञान आदि को आने वाली पीढ़ियों को सौंपता आया है. आज के मनुष्य के प्रबोधीकरण में उसकी सैकड़ों पीढ़ियों का योगदान है. जिसे हम ज्ञान कहते हैं, उसकी कसौटियां मनुष्य ने ही तैयार की हैं. इन कसौटियों में समय-समय पर संशोधन भी होता रहा है. कई बार मनुष्य को अपना ज्ञान अपर्याप्त लगने लगता है. उदाहरण के लिए भाषा का मुद्दा. जैसे ‘खट्टी’ कही जाने वाली दो वस्तुओं में से एक वस्तु कम खट्टी है, दूसरी अधिक खट्टी. भाषा की सीमा है कि वह अधिक से अधिक खट्टेपन के स्तर को ‘कम’ या अधिक’ के रूप में अभिव्यक्त कर सकती है. संभव है कुछ लोकभाषाओं में अधिक खट्टेपन और कम खट्टेपन को अभिव्यक्त करने के लिए अलग शब्द हों. फिर भी अधिक और कम के बीच खट्टेपन के जो भिन्न स्तर हो सकते हैं, उनकी सटीक अभिव्यक्ति में हमारे भाषायी उपकरण काम नहीं आते. कोई वस्तु ठीक-ठीक कितनी खट्टी है, यह बताने में भाषा असमर्थ रहती है. रसायन विज्ञान पदार्थ में मौजूद अम्लीयता को मापकर पीएच मूल्य के आधार पर खट्टेपन को अंकों में अभिव्यक्त कर सकता है. लेकिन उसके द्वारा हमारे मस्तिष्क में दर्ज सूचना आंकिक होगी. खट्टेपन के बोध से सर्वथा परे. दूसरे शब्दों में विज्ञान खट्टेपन को लेकर उसके कारण अम्लीयता का सटीक पीएच स्तर तो बता सकता है. लेकिन स्वाद का अंकीकरण, पीएच मूल्य का ज्ञान हमारे मन में खट्टेपन का बोध जाग्रत नहीं कर पाते. यह जानकारी हमें अलग-अलग तरह से प्रभावित करती है. खट्टापन हमारी अनुभूति का विषय है. जबकि पीएच स्तर विशुद्ध बौद्धिक सूचना. इसे एक कथात्मक उदाहरण के माध्यम से भी समझा जा सकता है—

‘एक राजा था. प्रजा हित में उसे एक किसान के खेत की जरूरत पड़ी. खेत में था कटहल का पेड़. उसने मांग की कि उसको कटहल के पेड़ का भी मुआवजा दिया जाए. फरियाद लेकर वह राजा के दरबार में पहुंचा.
‘पेड़ का मुआवजा! ऐसा तो आज तक सुनने में नहीं आया….कितना मुआवजा चाहते हो?’
‘महाराज मेरा कटहल का पेड़ तीन हाथियों जितना ऊंचा है. हर साल वह इतने फल देता है कि तीन हाथियों का पेट भर सके. इसलिए मुझे उस पेड़ के बदले तीन हाथियों जितना मुआवजा दिया जाए?’
किसान ने अपनी बात कुछ इस तरह रखी कि जो दरबारी पेड़ के मुआवजे की बात सुनकर हंसे थे, उसके पक्ष में हो गए. कटहल के एक पेड़ के बदले तीन हाथियों जितना मुआवजा, राजा एकाएक निर्णय न ले सका. अगले दिन निर्णय सुनाने को कहकर उसने किसान को वापस कर दिया. संयोगवश राजा अगले दिन ही चल बसा. कुछ दिनों बाद किसान भी दुनिया से कूंच कर गया. उसके बाद तो वर्षों बीते. समय बदला. निजाम बदला. राजशाही की जगह लोकतंत्र ने ले ली. अनपढ़ किसान के बेटे पढ़-लिखकर नौकरी करने लगे. सरकार को फिर उस जमीन की जरूरत पड़ी. कटहल का पेड़ पहले की भांति अब भी हर साल फलता था. जेठ-बैशाख में उसकी डालियां फलों से लद जातीं. किसान के बेटों ने भी कटहल के पेड़ का मुआवजा मांगा. सरकारी कर्मचारियों ने टाल-मटोल की तो उन्हांेने मुकदमा दायर कर दिया.
‘कितना मुआवजा चाहते हो?’ अदालत में पूछा गया.
‘श्रीमान पेड़ बड़ा ही होनहार है. हमारे पिता के जमाने से ही फल देता आ रहा है. दस-पंद्रह वर्ष और फल देगा. ऐसा कमाऊ पेड़ हमसे ले लिया गया तो हमारा लाखों का नुकसान हो जाएगा.’
‘कितने वर्ष और फल देगा, दस या पंद्रह. ठीक-ठीक बताओ?’
‘जी पंद्रह वर्ष!’
‘एक साल की फसल और पेड़ की लकड़ी की कीमत बताओ?’ किसान के बेटों ने बता दिया.
अदालत ने लकड़ी की कीमत के साथ एक साल के कटहल के बाजार-मूल्य का पंद्रह गुना जितना मुआवजा तय कर दिया. किसान के बेटों ने इसे अपनी जीत माना.

किसान और उसके बेटों में एक समानता है. दोनों ही अपने अधिकार के बारे में जानते थे. दोनों को लगता था कि कटहल के पेड़ का मुआवजा मिलना चाहिए. न मिलने पर आगे फरियाद की जा सकती है, यह भी उन्हें मालूम था. लेकिन कटहल के मुआवजे में रूप में किसान ने तीन हाथी मांगे थे. जबकि उसके बेटे लकड़ी और पंद्रह वर्ष की फसल मुआवजा लेकर संतुष्ट हो गए. इसलिए कि किसान से उसके बेटों तक आते-आते समय वातावरण बदल चुका था. इस आधार पर कह सकते हैं कि मनुष्य का बोध अनुभव सिद्ध होता है. परिवेश बदलने के साथ ही उसके ज्ञान का स्वरूप भी बदलता रहता है. किसान का जैसा अनुभव था, उसने उसके अनुसार मुआवजे की मांग की थी. उसके बेटों के अपने अनुभव के अनुसार. इसलिए यह कहना कि गुण केवल मनोजगत की रचना है उचित नहीं है. दूसरी ओर यह कहना भी सही न होगा कि गुण वस्तु में अवस्थित होते हैं. गुण यदि केवल वस्तु में स्थित होते तो प्रत्येक प्रेक्षक को उन्हें समान रूप से प्रभावित करना चाहिए. जबकि ऐसा नहीं होता. चार चित्रकारों को यदि एक मूर्ति के चारों ओर बिठाकर चित्र बनाने को कहा जाए तो उनके बनाए चित्र अलग-अलग होंगे. लेकिन यदि मूर्ति न हो और उन्हें कल्पना के आधार पर उसका चित्र बनाने को कहा जाए तो उसकी प्रस्तुति में और भी बड़ा अंतर होगा. फिर भी अवलोकन न तो कोई यांत्रिक क्रिया है, न ही ज्ञान के हमारे सारे के सारे पैमाने जड़ हैं. हमारा बोध न केवल स्वतंत्र है, बल्कि उसमें संशोधन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. लेकिन गुण केवल मनोरचना नहीं हो सकते. उनका मूलाधार वस्तुएं होती हैं, एक प्रेक्षक के रूप में मनुष्य उनसे अपनी सीमाओं के अनुसार ग्रहण करता है. भाषा एवं अभिव्यक्ति के अन्य उपकरणों के विकास की दर, आनुभविक जगत की विकासदर से बहुत कम होती है. किसी भी लेखक-साहित्यकार का सामथ्र्य नहीं है कि वह अपनी अनुभूतियों को सटीक अभिव्यक्ति दे सके. उस समय उसको तुलना द्वारा काम चलाना पड़ता है. मसलन बहुत खट्टे आम को ‘तेजाब की तरह खट्टा’ कह देना. अभिप्राय है कि किसी वस्तु के गुण भले ही उसकी अपनी विशेषता हों, लेकिन उन्हें अपनी अभिव्यक्ति के लिए मनुष्य पर निर्भर करना पड़ता है. यह अलग है कि अभिव्यक्ति के उसके उपकरण अधूरे और अक्षम हों. वस्तु के बारे में उसके जो गुण हमारे लिए उपयोगी नहीं होते उसके अवगुण कहलाते हैं. यह विशेषण हैं जो मनुष्य ने अपनी सुविधा और हित के अनुसार निर्धारित किए हैं. गुण और अवगुण का भेद भी व्यक्तिपरक और परिस्थतिकीय हो सकता है. किसी भूखे व्यक्ति को करेले का कड़वा रस भी आम के रस की भांति अमृत तुल्य लगेगा. जबकि भरे पेट वाला व्यक्ति आम के रस के स्वाद का भी आनंद नहीं उठा पाएगा.

वस्तुओं को टिककर देखने-परखने की सम्यक दृष्टि के अभाव में हम सामान्यीकरण करने लग जाते हैं. मसलन आम चीनी तरह मीठा है. ‘इमली’ तेजाब जितनी खट्टी है. ऐसे उदाहरण हमारे प्रबोधीकरण में सहायक होते हैं. परंतु इनसे सारा जोर वस्तु के किसी एक गुण पर ही अटक जाता है. वस्तु के बाकी गुणों की ओर हमारी निगाह ही जा पाती. हर भाषा की एक सीमा होती है. कभी-कभी शब्द चुकने लगते हैं. कभी-कभी हम कहना कुछ चाहते हैं, कह कुछ और जाते हैं. घर नदी पर है, उसमें कहने और समझने वाले दोनों का वही अर्थ नहीं होता जो शब्दों की निष्पत्ति है. उस अवस्था में शब्दार्थ के बजाय लक्षणार्थ को प्रधानता दी जाती है. लक्षण की अभिकल्पना भाषायी दुर्बलता को दूर करने की कोशिश का ही रूप है. इस भाषायी दुर्बलता का कारण भी है, क्योंकि उसकी रचना जिस मानवी मेधा द्वारा हुई है, वह सीमित होती है. लेकिन बोध की सीमाओं और भाषायी अक्षमताओं के चलते इस प्रकार के तुलनात्मक प्रयास अनिवार्य होते हैं. इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अज्ञान ज्ञान का विलोम न होकर उसके अभाव की अवस्था है. कोई बात जो झूठ नहीं है, आवश्यक नहीं कि वह सच भी हो. ऐसे ही काला और सफेद रंग दो विभिन्न स्थितियां हैं. नदी के दो पाटों के समान. एक इस तरफ दूसरी उस तरफ. एक के हाथ में हजार रुपये आए. उसने वे तत्काल दूसरे को सौंप दिए. दूसरे के पास भी इतने ही रुपये आए. उसने अपनी गांठ में बांध लिए. यह तो अपना-अपना व्यवहार है; या कि व्यापार करने का अपना अलग ढंग. वस्तुतः विलोम की संकल्पना प्रतिकूल परिस्थितियों की सही ढंग से व्याख्या न कर पाने के वाली हमारी वौद्धिक अक्षमता की उपज है. यह हमारी वुद्धि और अभिव्यक्ति की सीमा भी है.

ज्ञान का स्वरूप

ज्ञान अनंत है. उसे हम परमसत्ता का प्रतीक भी कह सकते हैं. लेकिन वह है इसी प्रकृति और ब्रह्मांड का रूप. उससे बाहर कुछ नहीं. कुछ हो भी नहीं सकता. दोनों एक ही रूप हैं. अलग-अलग मानेंगे तो व्यवस्था संबंधी अनेक समस्याएं पैदा हो जाएंगी. एक अनंत में दूसरी अनंत सत्ता कैसे समा सकती है. समाएगी तो फिर उनमें से किसी को भी अनंत भला कैसे कहा जा सकता है. परमसत्य के इन सभी रूपों को जानना समझना संभव नहीं है. वैसे ही परमसत्ता को उसकी समग्रता के साथ समझ पाना असंभव है. सीमित सामथ्र्य वाली मानवेंद्रियांे की क्षमता से यह बिलकुल बाहर है. उन आंखों का हम कैसे भरोसा करें जो तस्वीर के दूसरे पक्ष की ओर एक समय में एक साथ कभी जाती ही नहीं. जबकि परमसत्ता को समझने के लिए कम से कम पंचविमीय दृष्टि चाहिए, जो आइंस्टाइन के चतुर्विमीय संसार के अलावा उसके भीतर झांकने में भी सामथ्र्यवान हो. घ्राण, स्पर्श, और श्रवणेद्रियों के अनुभवों को भी अंतिम और प्रामाण्य नहीं माना जा सकता.

ज्ञान वस्तुनिष्ठ होने के साथ-साथ व्यक्तिनिष्ठ भी होता है. देशकाल के अनुसार किसी वस्तु के बारे में प्रेक्षकों की धारणाएं भिन्न-भिन्न हो सकती हैं. आम के वृक्ष को देखकर कृषि विज्ञानी, चिकित्सक, भौतिकविज्ञानी और साधारण आदमी सभी देखने का दावा कर सकते हैं. लेकिन उनके अनुभव और अभिव्यक्तियां परस्पर शायद ही मेल खाएंगी. कृषिविज्ञानी संभव है फसल का अनुमान लगाते हुए उससे होने वाली आय के बारे में बताना चाहे. उसका आम संबंधी ज्ञान वृक्ष की प्रजाति औसत पैदावार, पत्तियों और तने की आंतरिक संरचना जैसी जानकारी से भरपूर होगा. कृषि-विज्ञानी आम के औषधीय गुणों की चिकित्सक जैसी जानकारी रखता हो, यह आवश्यक नहीं है. चिकित्सक के उम्मीद की जा सकती है कि वह आम के साथ उसके तने, पत्तियों, और बौर के औषधीय गुणों का भी ज्ञान रखे. इसी प्रकार भौतिक-विज्ञानी आम के वृक्ष के रूपाकार के बारे में ही बेहतर टिप्पणी कर सकता है. साधारण आदमी आम के पत्तों, लकड़ी, फल और बौर आदि के सांस्कृतिक उपयोग, उसके फल और उससे तैयार होने वाले व्यंजनों आदि के बारे में व्यावहारिक जानकारी दे सकता है. इन सभी का ज्ञान प्रामाण्य है. एक मनुष्य भले ही वह कितनी ही विलक्षण प्रतिभा का स्वामी हो, ब्रह्मांड से अपने हिस्से का केवल उतना ज्ञान समेट पाता है, जितना अरबों-खरबों वर्ष पुरानी प्रकृति के आगे उसके अपने जीवन के चंद दिन.

दर्शनशास्त्रीय स्थापनाएं ठोस एवं तर्कशास्त्रीय आधार होने के बावजूद काफी लचीलापन लिए होती हैं. वह किसी भी विचार को अंतिम मानकर नहीं चलता. जबकि विज्ञान में नियम बनाने के साथ ही धारणा विशेष को सर्वस्वीकृति मिल जाती है. उसके बाद नियमों का उपयोग वैज्ञानिक गवेष्णाओं में आप्तवचन की भांति, बिना किसी विवाद एवं संदेह के चलता रहता है. जब तक कि कोई बड़ी और क्रांतिकारी खोज उसके नियमों में आमूल-चूल परिवर्तन न कर दे. जैसे कि न्यूटन के गति के नियम जो आश्चर्यजनक रूप से बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक सर्वमान्य बने रहे, लेकिन आइंस्टाइन ने अपने अध्ययन के दौरान माना कि गति के समीकरण केवल साधारण वेगों के लिए सही हैं. अति उच्च यथा प्रकाशकीय वेगों के लिए गति के समीकरण अनफिट हैं. जाहिर है कि आइंस्टाइन की इन घोषणाओं से न्यूटन के गति नियमों की शाश्वता पर प्रश्नचिह्न लग चुका है. लेकिन उसका उपयोग साधारण वेगों के लिए आज भी पूर्ववत जारी है. कुछ ऐसा ही आइंस्टाइन के सिद्धांत के साथ हुआ. करीब एक शताब्दी तक वह वैज्ञानिकों के मानक सिद्धांत का काम करता रहा. आज स्टीफन हाकिंग जैसे कई वैज्ञानिक सापेक्षता के सिद्धांत में खामी तलाश चुके हैं. क्वांटम थ्योरी ने भौतिकी के परंपरागत सिद्धांतों को उलट-पलट दिया है.

दर्शनशास्त्र का कोई भी विचार संदेह से परे नहीं होता. विज्ञान की तरह वह भी इस बात को महत्त्व देता है कि संदेह से जांच पड़ताल पर पहुंचते हैं और जांच पड़ताल हमें निष्कर्ष तक ले जाती है. विज्ञान और दर्शन में आगे चलकर एक मूलभूत अंतर यह बना कि विज्ञान जहां संदेहों के निवारण के लिए सार्वभौमिक नियमों की ओर अग्रसर रहता है, वहीं दर्शनशास्त्र संदेहों, विरोधी विचारधाराओं को भी सम्मानजनक स्थान देते हुए सत्य की खोज की ओर अग्रसर रहता है. इस प्रकार दर्शनशास्त्र में प्रतिविचार का महत्त्व विचार जैसा ही होता है. जबकि विज्ञान की कोशिश प्रति विचार के उन्मूलन के बाद एक सामान्य-सर्वस्वीकार्य नियम बनाने की होती है, जिसको प्रयोगों पर कसा जा सके. जो प्रत्येक तर्क और परीक्षण की कसौटी पर खरा उतर सके. दर्शनशास्त्रीय संकल्पनाओं का ध्येय मात्र इतना होता है कि वे परमसत्य अथवा उसके किसी अंश की पहचान करने वाले विविध मार्गों में से किसी एक की ओर संकेत भर करती हैं. चूंकि ब्रह्मांड की कारण सत्ता का स्वरूप इतना विराट और अकल्पनीय रहा है, कि कोई विचार-विशेष जो परमसत्ता के एकांश का भी प्रदर्शन करता है, वह भी काफी महत्त्वपूर्ण मान लिया जाता है. यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि परमसत्ता का अभिप्राय किसी दैवीय या ईश्वरीय व्यवस्था से कदापि नहीं है, जैसी कि आस्था या अंधविश्वास के नाम पर अक्सर थोपी जाती रही है. परमसत्ता से हमारा आशय विराट प्रकृति से है जिसमें अखिल ब्रह्मांड और उसके आरपार भी यदि कुछ है तो वह सब समाया हुआ है. दर्शनशास्त्र विज्ञान न होकर भी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की सभी धाराओं से समानरूप में प्रेरणा ग्रहण करता है. इसके साथ ही यह समानांतर रूप में उनके निष्कर्षों को प्रभावित भी करता है.

विज्ञान सामान्यतः प्रमेय और यथार्थ विषयों या ऐसे विषयों को जिनका प्रकारांतर में अन्वीक्षण-विश्लेषण संभव हो सके, अपने अध्ययन की विषय वस्तु बनाता है. यद्यपि यह आवश्यक नहीं है कि अध्ययन के प्रारंभ में भी वे विषय प्रमेय और यथार्थ माने जाते रहे हों. वैज्ञानिक जिज्ञासाएं अक्सर अज्ञेय समझे जाने वाले विषयों को चुनौती देती हैं, अंततः वैज्ञानिक को अपने श्रम और संकल्प के बूते सफलता भी मिलने लगती है. इस प्रकार दार्शनिक विवेचन का मुद्दा रहे विषय वैज्ञानिकों की मेधा के सहयोग द्वारा विशुद्ध वैज्ञानिक विषयों में ढलने लगते हैं. यहां स्पष्ट करना भी जरूरी है कि दर्शन और विज्ञान के बीच कोई स्पष्ट विभाजन रेखा खींच पाना असंभव है. महज अनुमान या कल्पना के आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि फलां विषय विशुद्ध वैज्ञानिक है और फलां केवल दार्शनिक विवेचन की अपेक्षा रखता है. जीनोम की खोज, मास्तिष्क की संरचना, क्वांटम भौतिकी, बह्मांड और समय के बारे में नवीनतम आविष्कार कई ऐसी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां हैं, मानवी मेधा की जिनके कारण हमें सृष्टि की व्युत्पत्ति संबंधी अपनी धारणाओं में संशोधन करना पड़ा. परिणामतः इन खोजों का प्रभाव दर्शन और ज्ञान-विज्ञान की दूसरी शाखाओं पर भी पड़ा है.

कुछ विद्वान समय को भी चैथे तत्व के रूप में जोड़ने का आग्रह करते हैं. इनमें आधुनिक भौतिकविदों की संख्या अधिक है. वस्तुतः प्रेक्षक और प्रेक्षित वस्तु के बीच प्रेक्षण की घटना को संपन्न करने के लिए दोनों के बीच अंतःसंबंधों का विकसित होना अनिवार्य है. यदि प्रेक्षक वस्तु के सापेक्ष प्रकाश आवर्तन की दिशा में प्रकाशीय वेग से जा रहा हो. वस्तु से परावर्तित प्रकाश किरणें प्रेक्षक तक कभी नहीं पहुंच पाएंगी. परिणामतः उपर्युक्त तीनों तत्वों के उपस्थित रहने के बावजूद देखने की क्रिया कभी संभव नहीं हो पाएगी. ऐसी स्थिति में वस्तु संबंधी हमारा ज्ञान शून्य होगा. सत्य एवं तार्किक होने के बावजूद यह नितांत काल्पनिक स्थिति है. विज्ञान की दृष्टि में संभावनाएं भी बहुत महत्त्वपूर्ण होती हैं. प्रत्येक नियम अपने पूरक नियम को साथ रखता है. इसलिए कि वह अपने आप में संपूर्ण नहीं है. सच तो यह है कि खरबों वर्ष पुराने इस ब्रह्मांड और सहस्रों प्रकाशवर्ष में विस्तृत सृष्टि को जानने समझने के लिए हमारे पास जो अनुभव और भाषा है, वह मात्र कुछ हजार वर्ष पुरानी है. स्वयं हमारा अस्तित्व भी कुछ लाख वर्ष पुराना है. इसलिए ‘सर्वखाल्विदं ब्रह्म’ कहकर ज्ञानार्जन की कोशिश से कुछ देर के लिए विराम ले लेता था. हम चाहें स्वयं को जितना बड़ा ज्ञानी माने, सृष्टि-रहस्य को जानने-समझने का जितना दावा करें, हमारा ज्ञान अभी शैशवास्था में है. सृष्टि को जानने का हमारा दावा उस बच्चे की भांति है, जो चांद को पानी से भरे कटोरे में देखकर रोटी समझ लेता है. हमारा यह अहं होगा यदि हम अपने कामचलाऊ ज्ञान को प्रकृति के रहस्यों के अनावरण की संज्ञा से विभूषित करें.

तक क्या मनुष्य को हार मान लेनी चाहिए? छोड़ दे कोशिश प्रकृति को जानने-समझने की. इसके अबूझ रहस्यों से पर्दा हटाने का संकल्प भुला दे. नहीं….इस विराट ब्रह्मांड और अपनी समस्त ऐंद्रियक सीमाओं, विशिष्टताओं, दुबर्लताओं और खूबियों के साथ मनुष्य अभी तक जितना समेट पाया है, वह भी कुछ कम संतोष की बात नहीं है. क्योंकि अपनी उस बीहड़ ज्ञान-यात्रा में मनुष्य को कदम-कदम पर भीतरी और बाहरी संकटों से जूझना पड़ा है. और यह भी कि असंख्य जीवों और उनकी असंख्य प्रजातियों में केवल मनुष्य ही है जो प्रकृति को चुनौती देने का साहस कर पाया है. जिसने अवसर मिलते ही समय धारा के विपरीत चलने का साहस जुटाया है. इस दुस्साहसी संकल्पयात्रा के लिए मानवी जिजीविषा को नमन करने का मन हो आता है. इसी जिजीविषा के दम पर मानवी मेधा ने चुनौतियों को स्वीकारा है. मानवी संकल्प की विराटता को दर्शाने के लिए यह कम नहीं है कि खरबों प्रकाश वर्ष में फैले ब्रह्मांड को जानने का जो दावा करता है, उसकी अपनी कद-काठी केवल पांच-छह फुट की है. उसका जीवन क्षणभंगुर है. मगर यह मानवी मेधा की अदम्य ज्ञान लालसा ही है कि सत्य शोधन के पथ पर वह स्वयं को खुशी-खुशी बलिदान कर देता है. चाहे वह जहर का प्याला पीने वाले सुकरात हों या हंसते हुए मौत को गले लगा लेने वाला का॓परनिक्स. हमारा ज्ञान हमारी उपलब्धियां उन सबकी कर्जमंद हैं.

क्रमश:….

© ओमप्रकाश कश्यप