कसौटी पर समय

 समय : सच या आभास

समय न तो गति के समरूप है, न ही उससे पूर्णतः स्वतंत्र. उसका कार्य दोनों के अंत:संबंध को दर्शाना है…..यहां एक प्रश्न जोड़ सकते हैं. जैसे जहां समय न हो, क्या वहां ‘पहले’ या ‘बाद में’ जैसा कुछ हो सकता है? या फिर जहां संपूर्ण गतिहीनता हो, क्या वहां समय की उपस्थिति की संभावना है? चूकि समय किसी गति से संबंधित संख्यामात्र है, अतएव यदि समय सार्वकालिक है तो गति को अनंत होना ही चाहिए—अरस्तु, फिजिक्स.

इस लेख का उद्देश्य न तो बालक को समयप्रबंधन के गुर सिखाना है. न उसे समयसंबंधी दार्शनिक जटिलताओं में उलझाना. हम बालक तथा उसके समयबोध को लेकर सामान्य चर्चा करेंगे. यह जानने की कोशिश करेंगे कि बालक की जो समयसंबंधी प्रतीतियां हैं; समय के बारे में उसे जितना और जैसा समझाया जाता है, क्या उसके समयप्रबोधन का वही एकमात्र और सही तरीका है? बालक के व्यक्तित्व पर समय से संबंधित ऐसी प्रतीतियों और प्रज्ञप्तियों का जो तर्क एवं ज्ञान से परे, केवल सुनीसुनाई बातों अथवा पूर्वाग्रहों पर आधारित हैं—क्या कोई दुप्रभाव पड़ता है? क्या वे बालक के स्वतंत्र विवेक की राह में बाधक हैं? आदिकाल से ही मानवमन में एक किस्सागो बैठा हुआ है, जो मनुष्य को अपने आसपास के परिवेश के बारे में झूठीसच्ची कहानियां गढ़ने; तथा उनके साथ किसी न किसी रूप में अपना संबंध स्थापित करने को प्रेरित करता रहता है. आमतौर पर वे कहानियां संबंधित समाज की सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक मानी जाती हैं. धर्म, ईश्वर, किस्मकिस्म के देवीदेवता सब उसी मानस किस्सागो की कल्पना हैं. क्या समय भी मनुष्य की ऐसी ही रोचक परिकल्पना है?

स्पर्धा के इस युग में बालक को अन्य चुनौतियों के साथसाथ समय की चुनौती से भी जूझना पड़ता है. जो लोग समय को अनादि, अनंत तथा सतत प्रवाहमान मानते हैं, वही उसकी कमी का हवाला देकर बालक को डराते रहते हैं. खुद को ‘बड़ा’ समझने वाला प्रत्येक व्यक्ति बालक को सावधान करता है—‘समय बरबाद मत करो. वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता. जराभी चूके तो हाथ से फिसल जाएगा….समय के साथ चलो, चलते रहो, नहीं तो पिछड़ जाओगे.’ ऐसे निर्देश बालक को अभिभावकों तथा अध्यापकों की ओर से निरंतर, इतनी बार तथा इतनी तरह से सुनने को मिलते हैं कि उसका आत्मविश्वास डगमगाने लगता है. अपनी सीमाओं में वह समय की चुनौतियों से निपटने की कोशिश भी करता है. उसके लिए समयसारणी बनाता है. अपने अध्ययनकार्य को छोटेछोटे उपखंडों में बांटता है. घड़ी की टिकटिक के साथ सामंजस्य बैठाने की कोशिश करता है. इसके बावजूद चुनौती बनी ही रहती है. क्योंकि खंडोंउपखंडों में समाहित प्रत्येक घटना बालक के अधिकार में नहीं होती. किसी न किसी रूप में दूसरे भी उससे जुड़े होते हैं. नई शिक्षा व्यवस्था में सहयोग की अपेक्षा स्पर्धा पर ज्यादा जोर दिया जाता है. पर्याप्त सहयोगसमर्थन के अभाव में बालक अपनी ही बनाई समयसारणी के हिसाब से पिछड़ने लगता है. बड़े टोकते हैं. बालक कोशिश करता है. कभी सफल होता है, कभी परिस्थितियां भारी पड़ जाती हैं. ऐसे में समय हाथ से निकल जाने की चिंता बालक का पीछा नहीं छोड़ती. धीरेधीरे वह उसके आत्मविश्वास पर भारी पड़ने लगती है. ऐसा नहीं है कि केवल बालक ही समय के बारे में प्रचलित पूर्वाग्रहों से प्रभावित होता है. बड़े भी उससे मुक्त नहीं रह पाते. समयसंबंधी पूर्वाग्रह तो प्रायः बड़ों के माध्यम से ही बच्चों तक पहुंचाए जाते हैं. बालक उन्हें लंबे समय तक, कभीकभी जीवनभर विरासत के तौर पर संभाले रखता है.

सामान्य दिनचर्या में समय को ‘सर्वशक्तिमान’ के रूप में पेश किया जाता है. ऐसा महानायक जो देवीदेवताओं से भी ऊपर, सीधे ईश्वर के अधीन है. जो एकमात्र ईश्वर का आदेश मानता है. कभी बताया जाता है कि खुद ईश्वर भी समय के बंधन में बंधा है. भारतीय समाज की जो स्थिति है, उसमें किशोरावस्था तक पहुंचतेपहुंचते बालक अंधश्रद्धा का शिकार हो चुका होता है. उसके बाद वह तर्क छोड़ आस्था की राह पकड़ लेता है; तथा दैवीय अनुकंपा को समस्त समस्याओं का एकमात्र समाधान मानने लगता है. ईश्वर का जिक्र हो तो वह सर्वशक्तिमान के रूप में सर्वप्रथम उसी की कल्पना करता है. किंतु अगले ही क्षण जब समय की चुनौती सामने होती है, तब वही उसे सर्वशक्तिमान नजर आने लगता है. समय और ईश्वर को लेकर गढ़ी गई कहानियां भी एकदूसरे में गड्डमड्ड होती हैं. उनमें कहीं ईश्वर समय पर भारी पड़ता है तो कभी समय ईश्वर के सामने चुनौती बन जाता है. इससे बालक की उलझन सुलझने के बजाय और भी उलझ जाती है. भ्रांत बालमन समझ ही नहीं पाता कि ईश्वर हो अथवा समय, दोनों में कोई एक ही सर्वशक्तिमान हो सकता है. ऊहापोह में वह किसी कार्य को तत्संबंधी घटनाओं के संबंध में देखनेसमझने के बजाय, आस्था और पूर्वाग्रहों द्वारा नियंत्रित होने लगता है.

रोजमर्रा के कार्य के सिलसिले में बालक द्वारा घड़ी देखने का सिलसिला सुबह के साथ आरंभ हो जाता है. उसके बाद नहाने, नाश्ता करने, स्कूल जाने, स्कूल में टाइमटेबिल के अनुसार विभिन्न विषयों का पाठ करने, लंच करने, खेलने, घर लौटने, आराम करने, होमवर्क निपटाने, टेलीविजन देखने, भोजन करने से लेकर रात को बिस्तर तक जाने के बीच अपने मातापिता की भांति बालक भी समय के हिसाबकिताब में उलझा रहता है. उसके समस्त कार्यकलाप छोटेछोटे टाइमपॉकेट में बंधे होते हैं. हर पीरियड के साथ स्कूल की घड़ी बदले समय और चुनौती का एहसास कराती है. बीचबीच में जब भी घटनाक्रम बदलता है, बालक की निगाहें घड़ी की सुइयों में उलझकर रह जाती हैं. उसके सामने चुनौती होती है कि वह न केवल समय के साथ अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित रखे साथ ही सहपाठी अथवा समवयस्क बच्चों, जिनके साथ उसकी प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष स्पर्धा है, से जरूरी बढ़त भी बनाए रखे. दूसरों के बराबर रहने वाले को यहां औसत तथा पीछे रहने वाले को फिसड्डी मान लिया जाता है. समय और समवयस्क बच्चों के साथ स्पर्धा बालक को अनावश्यक रूप से तनावग्रस्त रखती है. इसके अलावा एक जैविक घड़ी भी होती है. उसके बारे में आवश्यक नहीं कि बड़े ही बालक को समझाएं. उसका एहसास प्रकृति स्वयं कराने लगती है. जैसी भूख भोजन तथा थकान आराम की जरूरत की ओर संकेत करने लगती है.

सुबह से शाम तक अनगिनत बार घड़ी देखने से जो प्रथम प्रभाव बालक के मनोमस्तिष्क पर पड़ता है, वह यह कि घड़ी की सुइयां ही समय हैं. कि अपनी महीन टिकटिक के साथ घड़ी विराट समय को अपने भीतर समेटे है. घड़ी की सुइयां आगे बढ़ेंगी, तभी समय आगे खिसकेगा. बालक ही क्यों? घर में मातापिता, स्कूल में अध्यापकगण, मित्रहितैषी, सगेसंबंधी सभी सीधे घटनाओं पर नजर रखने, उन्हें नियंत्रित करने के बजाए—घड़ी की सुइयों से नियंत्रित होने लगते हैं. स्पर्धा में समय से पिछड़ जाने की आशंका बालक को अनावश्यक चिंता में डाल देती है. उसका आत्मविश्वास आहत होने लगता है. उस समय बालक को यह बताना आवश्यक है कि घड़ी की टिकटिक समय नहीं है. वह स्वयं एक घटना है, सिर्फ घटना. उसका कार्य किन्हीं दो घटनाओं के बीच का अंतराल बताना है. उन अनेक घटनाओं में से एक, जो अनंत ब्रह्मांड के भीतर और बाहर, लगातार घटती रहती हैं. जो समय को घटनाओं के प्रवाह के रूप में देखते हैं, वे उनमें रमे रहकर भी अपना नियंत्रण बनाए रखते हैं. ऐसे लोगों के लिए समय चुनौती नहीं बनता. बालक को बताया जाना चाहिए कि समय घटनाओं की अन्विति से परे कुछ नहीं है. कि घटनाओं पर विजय पाना, उनके साथ सामंजस्य बनाकर चलना—कठिन भले हो, असंभव नहीं है. कि इस धरती पर ऐसे नरपुंगव भी हुए हैं जिन्होंने समय को न तो देवता माना, न उसकी कभी परवाह ही की. बिना परिस्थितियों से घबराए, चुनौतियों को स्वीकार करके ही वे इस दुनिया को अपनी इच्छानुसार चलाने में कामयाब होते आए हैं. ऐसा बोध बालक के आत्मविश्वास को बढ़ा सकता है. प्रायः ऐसा नहीं होता. क्योंकि समय को ‘नियति’ और ‘भाग्य’ के समकक्ष रखने वाले, दोनों को परस्पर पर्याय मानने वाले, बालक के मातापिता समय को परमनियंता और महाशक्तिशाली मान स्वयं उससे भयभीत रहते हैं.

भारतीय दर्शनों में समय पर विचार किया गया है, किंतु उनमें तत्वपरक सामग्री का अभाव है. उसे या तो ईश्वरीय शक्ति के समकक्ष रखकर मनुष्य का भाग्यनियंता बताया गया है; अथवा घटनाओं तथा उनके वेग के प्रतिफल के रूप में दर्शाया जाता है. भारतीय प्रज्ञा की कमजोरी है कि वह तर्क और विवेक से अधिक, आस्था और पूर्वाग्रहों से प्रेरणा ग्रहण करती है; और उससे बहुत कम बाहर निकल पाती है. समय को लेकर वस्तुनिष्ट चिंतन के अभाव का भी यही कारण है. पूर्वाग्रहों के दबाव में हम समयसंबंधी प्रज्ञप्तियों जिन्हें समयाभास भी कहा जा सकता है, को अपने आसपास घट रही घटनाओं के सापेक्षिक वेग, परिवर्तनशीलता, पदार्थ की विशेष अवस्था आदि के संदर्भ में देखने के बजाए स्वतंत्र सत्ता माने रहते हैं. यह ‘कार्य’ को ‘कारण’ मान लेने जैसी गंभीर चूक है, जिसके साधारण और विशेष सभी लोग शिकार होते आए हैं.

आगे बढ़ने से पहले समय और समयबोध की ओर संकेत करना आवश्यक है. जैसा ऊपर संकेत किया गया है, समय को लेकर दो प्रकार की प्रज्ञप्तियां आमतौर पर प्रत्येक मनस् में होती हैं. ये एक साथ भी हो सकती हैं तथा एकदूसरे से स्वतंत्र भी. पहली मान्यता के अनुसार समय कोई भागती हुई चीज है. नदी की मानिंद सतत प्रवाहमान. भूतवर्तमान और भविष्य में निरूपित. एक के बाद एक गुजरते रातदिन इसका उदाहरण हैं. जॉन मेकटेग्गार्ट ने इसे ‘ए’ श्रेणी माना है. यानी वह समय जिसे हम श्रेणीबद्ध रूप में अपने सामने से गुजरते हुए देखते हैं. उसका एक उदाहरण इतिहास लेखन भी है. हमारे सामान्यबोध की शुरुआत ही सौर दिवस से होती है. आदमी रोजमर्रा के कार्यों को अपनी जरूरत, सुविधा अथवा दायित्वभावना के आधार पर, छोटीछोटी घटनाओं में बांट लेता है. उन घटनाओं की सापेक्षिक गति ही समयाभास का कारण बनती है. इस मान्यता के अनुसार समय दो संबद्ध घटनाओं के बीच का अंतराल है, जो उनके घटने की दर को दर्शाता है. उससे घटना की अनुभूति तथा उसकी सापेक्षिक गति का आकलन किया जा सकता है. समय पर विचार करते हुए इस तथ्य को प्रायः नजरंदाज कर दिया जाता है कि ब्रह्मांड में घट रही अनंत घटनाओं की भांति सौर दिवस भी प्राकृतिक घटना है. पृथ्वी का अपनी धुरी पर घूमना इस घटना को अंजाम देता है. दिनरात को जन्म देने वाली यह घटना भी अपने आप में पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है. पृथ्वी अपने केंद्र पर घूमने के अलावा सूर्य की कक्षा में भी चक्कर काटती रहती है. इससे दिनरात के कुल समय में भले ही ज्यादा अंतर न पड़ता हो, मगर उनकी अवधि घटतीबढ़ती रहती है. यह समय अथवा समयाभास की सापेक्षिकता का द्योतक है.

उपर्युक्त से निष्कर्ष निकलता है कि घटनाएं तथा उनका आधार यह सततपरिवर्तनशील ब्रह्मांड—शाश्वत हैं. समय वह अंतराल है, जिसमें हम ब्रह्मांड की विभिन्न गतिविधियों के अंतराल का अनुभव करते हैं; तथा जिसके माध्यम से उनकी गति का आकलन किया जा सकता है. परिवर्तन को सृष्टि का मूल लक्षण बताने वाला यूनानी विचारक हेराक्लीट्स कहता है—‘प्रत्येक वस्तु गतिमान है. तुम किसी नदी में दुबारा हाथ नहीं डाल सकते.’ समय को सतत प्रवाह मानने वाली विचारधारा भी कहती है—‘बीता हुआ समय लौटकर नहीं आता. हम किसी क्षण को दुबारा नहीं जी सकते.’ समय की इस परमभौतिकता को वैरागी भृर्तहरि अपनी तरह से अभिव्यक्त करता है—‘कालो न यातं वयमेव याताः’—‘समय नहीं गुजरता, हम गुजरते हैं.’1 अरस्तु समय को अवधि(अंतराल) के रूप में देखता था. उसके लिए समय किसी क्रिया की पूर्वकालिक एवं उत्तरकालिक अवस्था की आवधिक गणना है. वह लिखता है—

यदि आत्मा की सत्ता नहीं थी, उस अवस्था में समय की सत्ता रही होगी या नहीं—यह जिज्ञासा सीधेसीधे एक प्रश्न पर ले आती है. जहां कोई गिनने वाला ही नहीं है, वहां ऐसी चीज भी नहीं हो सकती, जिसे गिना जा सके.’2

समय का तारतम्यता वाला लक्षण बालक के लिए सदैव तनाव या चुनौतियां पेश करे, ऐसा नहीं होता. यह बालक को निश्चिंत भी करता है. बालक अथवा किशोर जब अपने मातापिता या दादादादी, नानानानी को क्रमशः वृद्धावस्था और मृत्यु की ओर अग्रसर देखता है, तब उसके अवचेतन में सहज रूप से यह भाव उत्पन्न होता है कि उसके जीवन की तो अभी बस शुरुआत है. जीने के लिए बड़ा हिस्सा अभी शेष है; तथा सामाजिक जिम्मेदारियों का दौर लंबे अंतराल के पश्चात आरंभ होने वाला है. यह विश्वास बालक को अवसाद से बाहर रखने में मदद करता है. इससे बालक और समय अथवा समयाभास के बीच अनूठा संबंध बनता है, जो उम्मीदों से लबालब और सकारात्मक होता है. यह निश्चिंतता उसे नितनवीन सपने देखने को प्रेरित करती है. छोटा बालक उमंगों से सराबोर रहता है. मनमानी शरारतें करता है. भविष्य के प्रति आशावान रहता है. उसकी कल्पना बड़ों की अपेक्षा ज्यादा रंगीन होती है. ये सब उसे अधपकी उम्र में जिम्मेदारियों से सीधे टकराने, टूटकर बिखर जाने से बचाते हैं.

सामान्य भौतिकी के लिए समय का प्रवाहशीलता वाला गुण विशेष काम का है. उसके माध्यम से पदार्थ की आंतरिक एवं बाहरी गतियों का अध्ययन किया जाता है. गति पदार्थ की विशेष अवस्था है. क्या पदार्थ की गतिहीन अवस्था में भी समय या समयाभास की कल्पना की जा सकती है? यदि हम वस्तुविशेष के संदर्भ में देखें तो इस प्रश्न का उत्तर ‘हां’ में होगा. गति के लिए किसी पिंड अथवा कण का होना आवश्यक है. पिंड स्थिर हो और परिवेश परिवर्तनशील, तब भी पिंड तथा उसके परिवेश के बीच सापेक्षिक गति बनी रहेगी; और घटनाओं की एक के बाद एक आवृति हमारे समयाभास का कारण होगी. इसे समझने के लिए एक असंभव स्थिति की कल्पना करते हैं. मान लेते हैं कि एक व्यक्ति अंतरिक्ष में किसी अकेले पिंड पर खड़ा है. चारों और केवल शून्य पसरा है. उस अवस्था में यदि प्रेक्षक की आंखों पर ऐसा चश्मा चढ़ा दिया जाए, जिससे वह अपने पिंड की गतिविधियों के साथसाथ अपनी शारीरिक गतिविधियों की ओर से भी निःसंवेद हो जाए, उस अवस्था में वह खुद को परिवर्तनशून्य विश्व में पाएगा. ऐसी स्थिति में वह समय की अनुभूति नहीं कर पाएगा. जाहिर है, तब उसका समयबोध भी शून्य होगा.

उपर्युक्त उदाहरण में यदि मान लिया जाए कि प्रेक्षक अपने आंतरिक और बाह्य कार्यकलापों के प्रभाव से भी मुक्त है तो उस अवस्था में, उसका ध्यान केवल उस अकेली घटना पर केंद्रित रहेगा. चूंकि वह घटना नितांत शून्य में घट रही होंगी, इसलिए इस बात की पर्याप्त संभावना है कि वह केवल घटना के सातत्य को परखे और वह घटना ही उसे प्रकृति की सार्वभौम हलचल के रूप में नजर आए. स्थायित्व के अनुभव; तथा समानांतर घटनाओं के अभाव में वह एकल घटना की गति के साथ समय का संबंध जोड़ ही नहीं पाएगा. समयाभास की दृष्टि से वह लगभग गतिहीनता जैसा अनुभव होगा. उसका समयबोध करीबकरीब शून्य होगा. इससे एक सामान्य निष्कर्ष यह भी निकलता है कि समयबोध के समुचित विकास हेतु घटना बहुलता आवश्यक है. वैज्ञानिक दृष्टि से न केवल ब्रह्मांडहीनता असंभव कल्पना है, बल्कि ब्रह्मांड का पूरी तरह गतिविहीन हो जाना भी असंभव परिकल्पना है. समय वस्तु नहीं है. न ही ब्रह्मांडहीनता ही अवस्था में उसकी कल्पना की जा सकती है. कदाचित इसीलिए प्लेटो से लेकर स्टीफन हाकिंग तक समय और ब्रह्मांड की उत्पत्ति साथसाथ मानते हैं. प्लेटो का मानना था कि ब्रह्मांड की भांति समय की भी रचना हुई है. वह समय को स्वर्ग के समवयस्क मानता था. यह विश्लेषण दर्शाता है कि वस्तु समयाभास का केवल आधार है, उसका कारण नहीं है. किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा घटना से जुड़ी सापेक्षिक परिवर्तनशीलता ही समयाभास का कारण है.

दूसरे शब्दों में समय अथवा समयाभास घटना अथवा घटनाचक्र तथा उसकी अनुभूति से परे, कुछ भी नहीं है. समयाभास का लोप केवल परम स्थिरता अथवा परम वेग(प्रकाशवेग अथवा उससे अधिक कोई भी संभव वेग) की अवस्था में ही है. परम वेग की अवस्था में परिवर्तन इतनी तीव्र गति से होगा कि हम उसे परख ही नहीं पाएंगे. दूसरी अवस्था में वस्तुविशेष यदि पूर्णतः जड़ अवस्था में है तथा शेष ब्रह्मांड बदलाव की ओर अग्रसर हैं तो सापेक्षिक परिवर्तन बना रहेगा. उससे समयाभास की स्थिति भी कायम रहेगी. उदाहरण के लिए कृष्णविवर में अत्यधिक गुरुत्वाकर्षण के कारण सभी पदार्थ परमसंपीडित हो परमशून्य में ढल जाते हैं. परमसंपीडन की अवस्था में वहां समस्त गतियों का लोप हो जाता है, उस अवस्था में समय अथवा समयाभास की आवश्यकता भी समाप्त हो जाती है. वैज्ञानिक उस अवस्था को समयहीनता की अवस्था मानते हैं.

समय संबंधी पहली प्रज्ञप्ति जिसके अनुसार समय को दो घटनाओं के अंतराल से मापा जाता है, का वर्णन हम ऊपर कर चुके है. दूसरी प्रज्ञप्ति जिसे जॉन मेकटेग्गार्ट ने ‘बी’ श्रेणी की संज्ञा दी है, के अनुसार समय अंतरिक्ष जैसी अंतहीन संरचना हैं, जिसमें सब कुछ निरंतर घटता रहता है. ब्रह्मांड की समस्त घटनाएं, ग्रहपिंड सभी उसमें समाहित हैं. वह भूतवर्तमानभविष्य सभी का आधार तथा ब्रह्मांड की प्रत्येक घटना का साक्षी है. इस मान्यता के अनुसार सृष्टि की प्रत्येक घटना, अंतरिक्ष के साथसाथ समय में भी घटित होती है. पहली मान्यता जहां समय को गतिशील मानती है, वहीं इस समानांतर मान्यता के अनुसार समय स्थिर होता है. स्थिर भाव से ही वह प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष घटनाओं का लेखा रखता है. जिस प्रकर अंतरिक्ष में घटनाएं घटती रहती हें. वैसे ही अनंत समय के बीच भी घटनाओं का सिलसिला बना रहता है. अंतरिक्ष वस्तुजगत के भौतिक स्वरूप को वितान देता है. वस्तुहीनता की अवस्था में विराट आभासीय शून्य होगा; जिसमें समस्त गतियों, परिवर्तनशीलता का लोप हो चुका होगा, ऐसी स्थिति में भी समय की परिकल्पना असंभव होगी. आशय है कि परिवर्तनशून्यता अथवा परमस्थिर विश्व में समय की परिकल्पना अप्रासंगिक हो जाती है.

उपर्युक्त धारणा के अनुसार समय सृष्टि के प्रत्येक परिवर्तन का साक्षी है, मगर खुद परिवर्तनकारी शक्ति नहीं है. न उसका कोई साक्षी होता है. स्टीफन हाकिंग अपनी पुस्तक ‘समय का संक्षिप्त इतिहास’ में ब्रह्मांड की उत्पत्ति परमविस्फोट से मानते हैं. हॉकिंग के अनुसार समय की उत्पत्ति का क्षण भी वही है. अपनी बहुचर्चित पुस्तक में ‘समय का इतिहास’ के बहाने वे ब्रह्मांड के इतिहास की ही चर्चा कर रहे होते हैं. उस अवस्था की चर्चा कर रहे होते हैं, जब अपनी पहली हलचल के साथ ब्रह्मांड परमशून्य से परिवर्तन ओर अग्रसर होता है. हॉकिंग के अनुसार परमविस्फोट से पहले ब्रह्मांड परमसंपीडन की अवस्था में था. वह परमस्थिरता की अवस्था थी, जिसका उल्लेख हमने ऊपर किया है. चूंकि उस समय सर्वत्र गतिशून्यता थी, इसलिए उसमें समय अथवा समयाभास की कल्पना भी असंभव है. महाविस्फोट के पश्चात ग्रहनक्षत्रों का आदि का जन्म हुआ, जिनमें हमारी पृथ्वी भी सम्मिलित हैं.

महाविस्फोट से लेकर आज तक, किसी न किसी रूप में सभी ग्रहनक्षत्र सतत परिवर्तनशीलता से गुजर रहे हैं. अपने स्वरूप और सापेक्षिक परिवर्तनशीलता के माध्यम से वे हमें अपने होने की प्रतीति कराते हैं. उनकी समस्त गतिविधियां अंतहीन समय का हिस्सा हैं, जो सृष्टि के प्रत्येक परिवर्तन का दृष्टा है, मगर खुद अपरिवर्तनशील है. यहां सामान्यसा प्रश्न उठ खड़ा होता है. यदि समय निष्क्रिय दृष्टा है, अपने आसपास घट रही घटनाओं को प्रभावित करने या प्रभावित होने का गुण यदि उसमें नहीं है, तो उसे चैतन्य अथवा कार्यकारी शक्ति कैसे माना जा सकता है? यहां से समय की समस्या विज्ञान के दायरे से बाहर निकलकर दार्शनिक हो जाती है.

समय को लेकर कुछ मिलीजुली जिज्ञासाएं और भी हैं. जैसे कि जो घटनाएं हमारे अनुभव या दृष्टि सीमा से बाहर रह जाती हैं, उनका क्या होता है? क्या उनका समय हमारे समय से अलग होता है? क्या समय सचमुच सार्वभौम सत्ता है? क्या समय को लेकर गढ़े गए मानक किसी दूसरे ग्रह पर भी खरे उतरेंगे? ऐसे प्रश्न किसी भी विचारशील मनुष्य को परेशान कर सकते हैं. इस पर बातचीत करने से पहले हमें जान लेना चाहिए कि किसी चीज के बारे में न जानना उतना बुरा नहीं होता, जितना उसे गलत ढंग से जानना. न जानने वाले के भीतर सीखने की ललक होती है. जबकि गलत जानकारी रखने वाला हमेशा गलतफहमी का शिकार बना रहता है. अज्ञानता के कारण यदि कभी चुनौती पेश हो तो ऐसा व्यक्ति पूर्वाग्रहों से काम चलाता है. मिथों की मदद लेता है. धर्म सहित अन्यान्य पूर्वाग्रहों में फंसी भारतीय मेधा इसी कमजोरी का शिकार होती आई है. हालांकि बौद्ध, सांख्य, वैशेषिक आदि दर्शनों में समय को लेकर कहींकहीं वस्तुनिष्ट चिंतन की झलक देखने को मिलती है. लेकिन अधिकांश जगह उसे नियति अथवा ईश्वरीय शक्ति के पर्याय के रूप में प्रयुक्त किया जाता है. विज्ञान की बात की जाए तो समय को लेकर गढ़े गए मानक सामान्य परिस्थितियों तक ही प्रामाणिक हैं. यदि परिस्थितियां अत्यधिक असामान्य हों तो उसके मानक गड़बड़ाने लगते हैं.

उदाहरण के लिए आइंस्टाइन ने बताया है कि अत्यंत उच्च वेगों पर समय का वेग मद्धिम पड़ने लगता है. उसने इसे समय की सिकुड़न माना है. आइंस्टाइन के निष्कर्षों आज के अधिकांश वैज्ञानिक सहमत हैं. हालांकि उनसे असहमत विद्वानों की संख्या भी कम नहीं है. प्रसिद्ध दार्शनिक हेनरी बर्गसां समय को ‘अवधि’ के माध्यम से व्याख्यायित करते थे. इस संबंध में उनकी आइंस्टाइन के साथ हुई रोचक बहस का उल्लेख यहां अप्रासंगिक न होगा. 1922 में आइंस्टाइन के ‘सापेक्षिकता के सिद्धांत’ की आलोचना करते हुए बर्गसां ने कहा था कि सापेक्षिकता के सिद्धांत का, ‘संबंध केवल ज्ञानमीमांसा से है, न कि भौतिक विज्ञान से.’ बर्गसां की आलोचना से बौद्धिक जगत में एक बहस छिड़ गई. मगर आइंस्टाइन अपने विचार पर दृढ़ थे. अपने अपने सिद्धांत का बचाव करते हुए उन्होंने कहा था—‘दार्शनिकों की दृष्टि में समय केवल भ्रांति है.’

घटनाओं की सापेक्ष गति, यानी दो स्वतंत्र अंतरालों से हमारा समयबोध विकसित होता है. लेकिन ब्रह्मांड की भांति हमारा बोध सर्वव्यापी नहीं है. उसकी सीमा है. मनुष्य विराट ब्रह्मांड में पलप्रतिपल हो रही अनंत हलचलों में से क्षणविशेष में मात्र कुछ घटनाओं का ही अवलोकन कर पाता है. विराट ब्रह्मांड के जो ग्रहनक्षत्र हमारे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष अवलोकन से परे हैं, अरबोंखरबों प्रकाशवर्ष की दूरी पर हैं, उनसे संबंधित समय की, अपने अनुभव के आधार पर, हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं. ठीकठीक कुछ नहीं बता सकते. चूंकि घटनाओं की गति पिंडों के गुरुत्वाकर्षण बल से भी प्रभावित होती है, इसलिए समान घटना के लिए पृथ्वी तथा दूसरे ग्रहों पर होने वाले हमारे अनुभवों में अंतर हो सकता है. पिंड का आकार, घटनाओं का वेग तथा उनकी दिशा हमारे समयाभास को प्रभावित करती है. समय संबंधी हमारा बोध हमारे अनुभवों तथा तर्कों पर आधारित होता है. उन्हीं के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि घटना और अंतराल का संबंध शाश्वत है. दोनों परस्पर अन्योन्याश्रित हैं. हमारा साक्षात घटनाविशेष तथा उसकी गत्यात्मकता से होता है. उनका होना ही हमारे समयाभास का कारण बनती है.

इसके बावजूद समय के भौतिक अस्तित्व को नकारने, उसे केवल मानसिक प्रबोधन का हिस्सा मानने वाले विचारकों की संख्या भी कम नहीं है. विगत दो शताब्दियों में समय संबंधी मौलिक चिंतन में तेजी आई है. अधिकांश विद्वान उसके भौतिक स्वरूप को स्वीकारते हैं, लेकिन घटनाओं से परे, उसकी स्वतंत्र सत्ता से इंकार करते हैं. लाइबिनिज ने समय के भौतिक स्वरूप को नकारा है. उसके अनुसार समय और अंतरिक्ष दोनों का कोई अस्तित्व नहीं है. उसके अनुसार समय और अंतरिक्ष की अवधारणा वस्तुजगत के बारे में हमारे दृष्टिकोण को दर्शाती है. इमानुएल कांट लाइबिनिज के विचारों का समर्थन करता है. हालांकि वह उससे पूरी तरह सहमत नहीं है. वह लाइबिनिज की इस बात से तो सहमत है कि समय और अंतरिक्ष दोनों ही कल्पनाजन्य हैं. लेकिन उस तरह नहीं जिस तरह लाइबिनिज का विचार है. कांट के अनुसार दोनों मानसिक अवधारणा हैं, इस तरह कि वे हमारे मस्तिष्क पर निर्भर हैं. उनमें से पहला वस्तुओं और स्थितियों को सहेजता है, दूसरा उनकी सापेक्षिक हलचलों को दर्शाने एवं दर्ज करने के काम आता है.

समय की अधिसत्ता को लेकर कुछ दिलचस्प बहसें विद्वानों के रही हैं. थाॅमस एक्वीनस ने समय को दो भागों में बांटा था, वास्तविक समय तथा काल्पनिक समय. मगर पेशे से गणितज्ञ इसाक बैरो को यह विभाजन स्वीकार न था. ज्यामितीय पर दिए गए अपने वक्तव्य में बैरो ने एक्वीनस की मान्यता, जो अरस्तु की समयसंबंधी विचारों पर केंद्रित थी, को सिरे से खारिज कर दिया था. एक सभा में अपने ही प्रश्न कि क्या समय सृष्टि रचना से पहले भी मौजूद था, का स्वयं उत्तर देते हुए उसने कहा था—‘विश्वोत्पत्ति से पहले और उसके बाद में, यहां तक कि ब्रह्मांड से परे भी समय था, समय है.’ अरस्तु की मान्यता है कि समय घटनाओं पर निर्भर है; तथा घटनाओं की आवृत्ति के अनुसार वह आगे बढ़ता रहता है. उसका आशय था कि समय घटनासापेक्ष है. बैरो ने उसका खंडन करते हुए कहा था—

‘‘बाकी चीजों की भांति समय की भी कुछ विशेषताएं हैं, उसका मौलिक और सार्वत्रिक गुण है कि वह अपने व्यवहार पर सदैव दृढ़ रहता है. चाहे वस्तुएं गतिमान रहें या ठहर जाएं, हम चाहे जागें या सोएं, वह अपनी निर्धारित गति से बहता रहता है. कल्पना कीजिए समस्त तारागण अपने जन्म के समय से ही स्थिर रहें, उनकी स्थिरता चाहे जितने समय तक कायम रहे, समय का उससे कुछ नहीं बिगड़ने वाला, वह अपनी गति से आगे बढ़ता जाएगा.’’

बैरो न्यूटन का गुरु रह चुका था. आकादमिक जगत में उसका सम्मान था. जबकि उससे तीन शताब्दी पहले जन्मे थाॅमस एक्वीनस की भी विद्वत जगत में नवअरस्तुवादी दार्शनिक के रूप में प्रतिष्ठित था. प्रकृति से आध्यात्मिक बैरो न्यूटन से प्रभावित था. हालांकि समय को लेकर न्यूटन से उसके मतभेद थे. उसका विचार था कि समय अपने आप में स्वतंत्र है. वह सृष्टि की रचना से पहले भी मौजूद था. न्यूटन का विचार था कि वस्तुएं समय और अंतरिक्ष में दोनों में विस्तार पाती हैं. समय में उनकी व्याप्ति क्रमवार तथा अंतरिक्ष में स्थितिअनुसार रहती है. दूसरे शब्दों में न्यूटन समय को घटनाओं का प्रभाव मानता था. प्रकारांतर में समय को लेकर उसका दृष्टिकोण भौतिकवादी था. तदनुसार उसकी उत्पत्ति भी भौतिक जगत की उत्पत्ति से जुड़ी थी. उन दिनों धर्मसंस्थाएं बहुत शक्तिशाली थीं. राज्य पर चर्च की मजबूत पकड़ थी, जिसकी एकाएक उपेक्षा संभव न थी. उनके दबाव में अपने समय के महानतम वैज्ञानिक न्यूटन को संशोधित वक्तव्य के लिए मजबूर होना पड़ा. अंततः अपनी ही पुस्तक ‘प्रंसीपिया मैथेमेटिका’ में उसे जोड़ना पड़ा—‘ईश्वर अजरअमरअनंत है, उसने समय और अंतरिक्ष को इसलिए बनाया, ताकि वह हर जगह मौजूद रह सके.’

इनका विरोध किया था—फ्रांसिसी वैज्ञानिकचिंतक लाइबिनिज ने. लाइबिनिज ने अध्यात्म और विज्ञान को एकमेव करने का काम किया था. उसका मानना था कि ईश्वर सर्वथा, संपूर्ण और किसी भी प्रकार के विक्षोभ से परे है. परंतु यह अकेले ईश्वर का गुण नहीं है. सृष्ठि छोटेछोटे परमबिंदुओं से बनी है, जो अपने गुण में ईश्वर की तरह ही है. अंतर बस इतना है कि वे बिखरे हुए हैं. जबकि ईश्वर संपूर्ण एकजुट सत्ता है. इन परमबिंदुओं को उसने ‘मोनाड’ का नाम दिया था. लाइबिनिज के अनुसार मोनाड ईश्वर की रचना है, लेकिन समय और अंतरिक्ष दोनों से स्वतंत्र हैं. आगे चलकर न्यूटन और बैरो के साथ तीसरा व्यक्ति भी उस बहस में शमिल हो गया. वह व्यक्ति था, सेमुअल क्लार्क. क्लार्क न्यूटन का शिष्य था.

लाइबिनिज द्वारा समय को स्वतंत्र सत्ता न मानने पर क्लार्क की प्रतिक्रिया थी—‘यदि तुम समय को स्वतंत्र स्वयंभू सत्ता मानने को तैयार नहीं हो, तब तुम्हें यह दावा नहीं कर सकते कि विश्व का निर्माण हुआ था. क्योंकि यदि तुम यह कहना चाहो कि ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की है तो तुम यह भी कह सकते हो कि ईश्वर ने दुनिया को उस क्षण से कुछ पहले रचा था, जिस क्षण उसने वास्तव में रचा था. इसका सीधा मतलब तो यही हुआ कि ईश्वर ने सृष्टि को उस क्षण से कुछ न कुछ पहले रचा था, जिस क्षण उसने वास्तव में उसे रचा था. यदि समय सृष्टि से स्वतंत्र नहीं है तो सृष्टि रचना की घटना ही पहली घटना हुई.’

सेमुअल क्लार्क और लाइबिनिज के बीच इसी प्रकार से तर्कों का आदानप्रदान होता रहा. अपने अगले पत्र में लाइबिनिज ने क्लार्क और एक्वीनस के विचारों पर टिप्पणी करते हुए लिखा—‘एक्वीनस और क्लार्क बड़ी दुविधा में हैं. ऐसी दुविधा जो किसी भी छोर पर स्पष्ट नहीं है.’ लाइबिनिज का उत्तर बहुत हल्काफुल्का था. इसपर क्लार्क ने लाइबिनिज विरोधाभासी होने का आक्षेप लगाते हुए लिखा कि लाइबिनिज के अनुसार समय की उत्पत्ति उससे तत्संबंधी घटनाएं अस्थायी तौर पर किसी तीसरे द्वारा प्रेरित हैं. इसका अभिप्राय है कि समय की उत्पत्ति से भी पहले कुछ घटा था, जो पूरी तरह असंगत और अविश्वसनीय है. समय को लेकर इस प्रकार की दुबिधा और तर्कविर्तक आगे भी चलते रहे. और आज लगभग चार सौ वर्ष बाद भी समय की उपस्थिति को लेकर विद्वानों के बीच उतने ही मतभेद हैं, जितने उस समय के दार्शनिकों के बीच विद्यमान थे.

कांट के अनुसार अंतरिक्ष के संबंध में दिए जाने वाले तर्क समय पर भी यथावत लागू होते हैं. लाइबिनिज पर टिप्पणी करते हुए वह लिखता है—‘काल और दिक् का अपनाअपना अथवा संयुक्त रूप से कोई अस्तित्व नहीं है. कुछ अर्थों में वे हमारी अभिव्यक्ति तक सीमित, उसके समुत्पाद की तरह हैं. वे अपरिवर्तनीय हैं, उन अर्थों में नहीं जिनमें लाइबिनिज उन्हें बताता है. अंतरिक्ष का अस्तित्व मानवमस्तिष्क पर निर्भर है.’ अंतरिक्ष कि काल्पनिकता को स्वीकारते हुए वह लिखता है कि कल्पना वही श्रेष्ठतम है, जिसे कोई कल्पना मानने को तैयार न हो. जो वास्तविकता का आभास कराती हो. मानवीय कल्पना का जैसा परिपूर्ण उदाहरण अंतरिक्ष है, वैसा अन्य कोई नहीं. वह हमारी संवेदनपरकता की कसौटी है. कांट इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अंतरिक्ष बाहरी संवेदन का विषय नहीं है. बल्कि ऐसी अवधारणा है, जो बाकी वस्तुओं के रूपाकार एवं तत्संबंधी संवेदनपरकता पर निर्भर है. उसके अनुसार अनेक ऐसे तर्क जो अंतरिक्ष पर लागू होते हैं, वे समय पर भी लागू होते हैं.

कांट के अनुसार समय की सत्ता है, पर केवल इसलिए कि वह हमारी वास्तविक अंतश्चेतना का हिस्सा है. इसके बावजूद समयहीनता की कल्पना हमारे लिए उतनी ही दुष्कर है, जितनी कि ब्रह्मांड के लोप हो जाने की परिकल्पना. ब्रह्मांडहीनता की अवस्था में समयबोध का क्या होगा? उसकी पहचान किस तरह से की जाएगी? ऐसे प्रश्न हमारी कल्पना से बाहर है. सवाल है कि समय यदि ‘कुछ भी नहीं’ है, केवल आभास मात्र है, तो उसे व्यावहारिक जीवन में उसे सबकुछ क्यों दिखाया जाता है. कारण है कि ऐसे अवसरों पर हम सत्य की उपेक्षा कर, भ्रांत धारणाओं को ही सबकुछ माने रहते हैं. इसके बीजतत्व भी हमारी शिक्षासंस्कृति में अंतनिर्हित हैं. हमारी जरूरत की सभी वस्तुएं पृथ्वी उपलब्ध कराती है. बिना उसके जीवन संभव ही नहीं है. मगर हम यह माने रहते हैं कि सातवेंआठवें आसमान पर बैठा कोई देवता है, जो हमें जीवन और पृथ्वी को उर्वरा शक्ति प्रदान करता है. इस तरह से सोचने की आदत ज्यादा से ज्यादा ढाईतीन हजार वर्ष पुरानी है. लेकिन यही वह कालखंड है जब आदमी द्वारा आदमी पर शासन करने, आदमी द्वारा आदमी को गुलाम बनाने की शुरुआत हुई. धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर असहिष्णुता और असमानता को व्यक्ति की पहचान जोड़ा जाने लगा. ऐसी व्यवस्था में जो भी ऊंचाई पर होता है, वह अपनी ऊंचाई को वैध बनाने के लिए अपने से भी ऊंचे का हवाला देता है. जैसे कि ब्राह्मणों ने अपने शीर्षस्व को वैध बनाने के लिए देवताओं की पूरी फौज की परिकल्पना कर डाली. इसलिए समय को और दूसरी चीजों को सही ढंग से जाना केवल विज्ञान की दृष्टि से आवश्यक है, बल्कि संस्कृति के परिष्करण तथा मनुष्य के नैतिक प्रबोधन हेतु भी अपरिहार्य है.

© ओमप्रकाश कश्यप

1. भृर्तहरि, वैराग्य शतक, 12/1045.

2. “Whether, if soul (mind) did not exist, time would exist or not, is a question that may fairly be asked; for if there cannot be someone to count there cannot be anything that can be counted…” (Physics, chapter 14).

3. time is neither identical with nor entirely independent of movement, and it remains for us to determine the relation between them….We may here interject the question: how, when there is no time, can there be any “before” and “after”; or how, when there is nothing going on, can there be time? Since time is a number belonging to a process … then,if there always is time, movement must be eternal also.—St. Thomas Aquinas, Commentary on Aristotle’s “Physics,” R. J. Blackwell, trs. (New Haven: Yale University Press, 1963).

4. The ideality of space is its mind-dependence: it is only a condition of sensibility…. Kant concluded …”absolute space is not an object of outer sensation; it is rather a fundamental concept which first of all makes possible all such outer sensation.”…Much of the argumentation pertaining to space is applicable, mutatis mutandis, to time, so I will not rehearse the arguments. As space is the form of outer intuition, so time is the form of inner intuition….Kant claimed that time is real, it is “the real form of inner intuition.”

ज्ञान और ज्ञानार्जन की उलटबांसियां

ज्ञानार्जन की प्रक्रिया की समीक्षा के दौरान बड़े रोचक प्रसंग सामने आते हैं. उनसे पता चलता है कि ज्ञान के विकास की प्रक्रिया, मानवविकास की प्रक्रिया से भिन्न नहीं है. ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के दौरान सर्वप्रथम ज्ञान का कोई अंकुर किसी मनस्वी के मस्तिष्क में उभरता है. वह उसे अपनी विचारदृष्टि, उपलब्ध ज्ञान और अनुभवों के आधार पर तौलता है. धीरेधीरे उसे रूपाकार के साथ सामने लाता है. नए विचार की मौलिकता कुछ लोगों को लुभाती है तो कुछ को चमत्कृत भी करती है. विद्वतजन ज्ञान की उपलब्ध कसौटियों के आधार पर उसका मूल्यांकन करते हैं. उसी के समानांतर क्रम में या थोड़ाबहुत आगेपीछे कोई दूसरा स्वतंत्र ज्ञानांकुर फूटता है. वह भी अपने जन्मदाता, समर्थकों, प्रशंसकों एवं आलोचकों के बीच धीरेधीरे विस्तार लेता है. ज्ञानयात्रा इसी क्रम में निरंतर प्रवाहमान रहती है.

इस बीच कोई सृजनशील मनस्वी धरती पर जन्म लेता है. वह ज्ञान की विभिन्न धाराओं, लोकानुभवों, संस्कारों का उनकी उपयोगिता एवं लोकमान्यता के आधार पर आकलन करता है. समन्वयात्मक रुख अपनाते हुए उनके अंतःसंबंधों को टटोलता है. तदनंतर उन्हें अपनी विचारदृष्टि के अनुसार समकालीन मानवीय संवेगों, आवेगों, कथारूपकों, सांस्कृतिक प्रतीकों तथा सामाजिक संदर्भों के साथ कलात्मक कलेवर में नियोजित करता है. जरूरत पड़ने पर उपलब्ध ज्ञानांकुरों के साथ उनकी तुलना भी करता है. दूसरे शब्दों में यह नन्हे ज्ञानांकुरों के विशाल बरगद में बदलने, महाकाव्यों में ढल जाने की प्रक्रिया है, जिसमें ज्ञानांकुरों की लोकप्रिय शाखाएं, खंडप्रखंड अपनी खूबियों और खामियों के साथ एकजुट होते जाते हैं. एक तरह से वे अपने समाज के अनुभवों का निचोड़ होते हैं. इस तरह जन्मा महाकाव्य अपनी संस्कृति और सभ्यता का विशिष्ट दस्तावेज होता है. उसमें ऐेतिहासिक चरित्र न हों तब भी उसे सभ्यता के विकास का प्रामाणिक दस्तावेज मान लिया जाता है. फलस्वरूप उसके पात्रों तथा कथारूपकों को, भले ही वे पूरी तरह काल्पनिक हों, जीवन में जगह मिलती है. कई बार तो वे जीतेजागते, चलतेफिरते पात्रों से भी अधिक प्रामाणिक, भरोसेमंद और प्रेरणादायी मान लिए जाते हैं. ज्ञान का यह रूप मिथक कहलाता है. सामाजिक जीवन में मिथक कदमकदम पर मनुष्य का मार्गदर्शन करते हैं. उन लोगों को जीवनदृष्टि देता है जो किन्हीं कारणों से ज्ञान की जीवंत शैलियों से संवाद करना छोड़ देते हैं. अथवा किसी अन्य कारण से ज्ञान के समकालीन उपकरणों के साथ उनका संपर्क कम हो जाता है. हम इसे ‘ज्ञान का समाजीकरण’ अथवा ‘समाज का प्रबोधीकरण’ कुछ भी कह सकते हैं. दुनियाभर के सभी महाकाव्य, वेदोपनिषद, पुराण, ग्रंथमहाग्रंथ इसी प्रक्रिया के अंतर्गत जन्मे हैं. समाज की आर्थिकराजनीतिक या भौगोलिक प्रस्थिति चाहे जैसी हो, ज्ञान के अर्जन की यही शैली है. यह सभी संस्कृतियों में कमोबेश एक समान होती है. समाज द्वारा अपनाए जा रहे उत्पादकता के साधनों से इसका सीधा संबंध होता है. इसका मतलब यह नहीं है कि त्वरित उत्पादकता वाले समाजों में ज्ञानार्जन की गति भी तीव्र होती है. हां, उससे ज्ञान की प्रवृत्ति पर अवश्य अंतर पड़ता है. तीव्र उत्पादकता वाले समाजों में ज्ञान की ऐसी शैलियां जन्म लेने लगती हैं, जो तेजी से परिवर्तनशील समाजों को संतुष्ट कर सकें.

दूसरे शब्दों में समाज की अन्य गतिविधियों की भांति ज्ञान की यात्रा तथा उसका मूल्यांकन दोनों समयसापेक्ष होते है. ज्ञान का स्तर मनुष्य तथा उसके समाज के विवेकीकरण की अवस्था को दर्शाता है. अपनी मौलिकता के संदर्भ में ज्ञान सदैव उर्ध्वगामी होता है. मगर मूल्यांकन के बाद भी यह विशेषता बनी रहे, आवश्यक नहीं है. आलोचना, समीक्षा, पुनःप्रस्तुतीकरण अथवा तुलनात्मक आधार पर कोई ज्ञान उर्ध्वगामी है या अधोगामीयह परिस्थितियों तथा आकलनकर्ता की दृष्टि से तय होता है. ज्ञान की कसौटियां परिवर्तनशील हो सकती हैं. वे व्यक्तिसापेक्ष, समूह सापेक्ष और समय सापेक्ष कुछ भी हो सकती हैं. ज्ञान की यात्रा अधोगामी है या पुरोगामी, इसका पता दूसरी ज्ञानशैलियों के सापेक्ष विचार की स्वीकार्यता से भी देखा जाता है. इससे निरपेक्ष, ज्ञान की नई कसौटियों के बनने और उनके आधार पर उपलब्ध ज्ञानविज्ञान की शाखाओं को परखने का सिलसिला भी लगातार चलता रहता है. कई बार चेतना के उभरते स्वर एक क्रांतिकारी विचार को जन्म देते हैं. वह विचार अपने समय और समाज को झकझोरने का काम करता है. फलस्वरूप पुराने विचार अप्रासंगिक हो जाते हैं. लंबे समय से चली आ रही सांस्कृतिक अवधारणाएं खंडखंड बिखरने लगती हैं. एक मोड़ ऐसा भी आता है जब वह उन लोगों को भी आकर्षित करने लगता है, जिनसे जूझते हुए या मुक्तिकामना के साथ उस विचार अथवा ज्ञानांकुर का जन्म हुआ था.

उदाहरण के लिए मध्य युग में उभरे भक्ति आंदोलन को ले सकते हैं. सर्वज्ञात तथ्य है कि भक्ति आंदोलन का उदय मध्यकालीन भारत में व्यक्ति पूजा, बलि, कर्मकांड, पोंगापंथी और सामाजिक असमानता के विरोध में हुआ था. वर्णक्रम में सबसे निचली जातियों ने, जिन्हें धर्मग्रंथों को पढ़ने की मनाही थी, धर्मालयों में जिनका प्रवेश वर्जित था—पहली बार वर्णाश्रम व्यवस्था को चुनौती दी थी. मूर्ति पूजकों, धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव करने वालों को ललकारा था—‘वे तुम्हें धर्मालयों में जाने से रोकते हैं. तुम उन पत्थर के ठिकानों की ओर झांकों भी मत’….‘पत्थर पूजने से यदि ईश्वर मिलता है तो मैं पहाड़ पूजने को तैयार हूं. दिनरात पत्थर के आगे सिर झुकाने से अच्छा है चक्की को पूज लिया जाए, जो पूरे परिवार के भरणपोषण में सहायक है.’….‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’….जैसे चकमक पत्थर में आग छिपी होती है, ऐसे ही तेरा परमात्मा तेरे भीतर है.’—जैसे शब्दों से संत कवियों ने निरर्थक कर्मकांडों और मूर्तिपूजा का बहिष्कार किया. उसका भरपूर असर पड़ा. संतकवि जनजन के दिलों पर राज करने लगे. निराकार भक्तिआंदोलन ने जातिव्यवस्था पर गहरी चोट की. लेकिन विचार के प्रतिविचार को जन्म लेते देर नहीं लगती. जब कोई नया विचार जन्म लेता है, मानस में प्रतिविचार का तुरंत एक और अंकुर फूट पड़ता है. वह पहले का पूरक अथवा विरोधीय या कभीकभी पूरक और विरोधी दोनों होता है.

भक्ति आंदोलन जैसेजैसे लोकप्रियता के शिखर को छू रहा था, उसकी ओर वे लोग भी आकर्षित हो रहे थे, जो वर्णव्यवस्था की शीर्षस्थ श्रेणियों से आए थे. वे वर्णव्यवस्था के पूरी तरह समर्थक न भी हों, मगर उसके संस्कारों से पूरी तरह अनुप्रेत थे. अपने साथ वे अपने वर्गीय संस्कार भी लाए थे. इससे भक्ति आंदोलन में वे सभी कुरीतियां शामिल होने लगीं, जिनकी राख पर उसकी आरंभिक इमारत का निर्माण हुआ था. उनके बीच का अंतर साफ पढ़ा जा सकता है. कबीर मूर्ति पूजा का खंडन करते हैं. जन्म के आधार पर जाति के भेदभाव पर प्रहार करते हैं. सांप्रदायिकता को ललकारते हैं. जबकि भक्ति परंपरा के अगले कवि वर्णाश्रम व्यवस्था को आदर्श बताते हैं. उसमें व्यक्ति की जाति और संस्कार कितने महत्त्वपूर्ण हैं, इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है. कबीर, रैदास और तुलसी तीनों का संबंध धर्म और संस्कृति के शहर बनारस से था. धर्म पर केंद्रीभूत संस्कृति आदमीआदमी में फर्क करती है. वह ‘जपमायाछापातिलक’ को ही सब कुछ माने रहती है. वर्णाश्रम व्यवस्था के सताए संत कवि कबीर, रैदास, दादू बारबार नकली संस्कृति का लबादा उतार फैंकने को कहते हैं. मगर वर्णाश्रम व्यवस्था के शीर्ष से आए भक्त तुलसी के लिए वह आदर्श व्यवस्था है. इसलिए वे शूद्र को ढोल, गंवार और पशु की श्रेणी में रखकर ताड़ते रहने पर जोर देते हैं. रामचरितमानस में ऐसी अनेक चौपाइयां हैं, जो श्रम पर जीवन जीने वाली जातियों का उपहास करती हैं. उस व्यक्ति द्वारा जो दूसरों के श्रम पर जीवन जीता हो, उसके द्वारा अपने परिश्रम पर जीने वाली जातियों का मखौल उड़ान न केवल तुलसी की संवेदनहीनता को दर्शाता है, बल्कि वह इस संस्कृति के संकट की ओर भी संकेत करता है. तुलसी के लिए ‘रामराज्य’ इसलिए आदर्श है, क्योंकि वहां सभी वर्णाश्रम के अनुसार अनुशासित हैं—‘बरनाश्रम निजनिज धरम निरत वेद पथ लोग.’ जबकि रैदास आचरण की शुद्धता को महत्त्व देते हैं. उनकी आदर्श राज्य की परिकल्पना ‘बेगमपुरा’ के सच होने में है. जहां सभी बराबर हैं. किसी को किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं है.

स्पष्ट है कि ज्ञान की विभिन्न धाराओं का मूल्यांकन मनुष्य अपनी जरूरत के आधार पर करता है. कबीर के साहित्य और तुलसी के साहित्य में वही अंतर है जो एक ‘संत’ और ‘भक्त’ के बीच होता है. ‘संत’ सभी को समदृष्टि से देखता है. उनकी निगाह में न कोई छोटा होता है न बड़ा. संतई वह लोककल्याण के लिए धारण करता है, न कि स्वार्थ साधना के लिए—जिसे प्रायः ‘मुक्ति’ अथवा ‘आत्मकल्याण’ जैसे सम्मोहनकारी संबोधन दे दिए जाते हैं. भक्त कवि लोक को माया समझता है इसलिए दुनियावी सरोकारों से खुद को अलग रखता है. उसकी निगाह में ईश्वरीय न्याय ही सबकुछ होता है. संत कवियों की कविता सवाल उठाती है, भक्त कवियों की कविता परंपरा और आराध्य के महिमामंडन से परे नहीं झांक पाती. उसमें समता का भाव गायब रहता है. जीवन की सामान्य समस्याओं को भक्त कवि भवबाधा के रूप में देखता है, संत कवि के लिए वह मनुष्यता की चुनौती होती है. मनुष्यता के समर्थन में संत कवि बड़े से बड़े बादशाह को भी खरीखोटी सुना सकते है. दास तुलसी के लिए दैन्य से मुक्ति असंभव है. लोकतांत्रिक युग में भक्ति काव्य का कोई सामाजिक मूल्य नहीं है. इसलिए वर्णाश्रम समर्थक विद्वान संतकाव्य और भक्तिकाव्य का अंतर समझाने से बचते हैं. लोग सवाल न उठाएं इसलिए वे दोनों को परस्पर गड्डमड्ड कर देते हैं.

ज्ञान की खूबी है कि उसका अस्तित्व होता है, आकार नहीं होता. ज्ञान को रूपाकार देने का काम ज्ञानीजन करते आए हैं. चूंकि बड़े से बड़े ज्ञानीजन की सीमा होती है. व्यक्ति विराट ज्ञानसंपदा के किसी एक अंश को ही सहेज पाता है. उसी के आधार पर वह सामाजिक घटनाओं और व्यक्तित्वों का मूल्यांकन करता है. यह एक कौड़ी द्वारा धरती को मापने जैसा सत्साहस है. अपने विवेकीकरण की कसौटी को पुख्ता करने के लिए व्यक्ति अपने विषयक्षेत्र की सीमा में इस काम को खुशीखुशी करता है. सदेच्छाओं के बावजूद उसके काम में कहीं न कहीं त्रुटि रह ही जाती है. आम तौर पर युद्ध लोगों के जीवन को प्रभावित करने का सबसे बड़ा माध्यम माना जाता है. लेकिन जो लोग ऐसा मानते हैं, वे गलत हैं. असली प्रभावक ज्ञान होता है. अतः ज्ञान को नियंत्रित करने, उसे अपने अनुकूल ढालने, उससे मनचाहा काम लेने की कोशिश आदिकाल से होती रही है. इतिहास पूर्वाग्रह रहित नहीं होता, इसलिए समाजचेता विद्वान ऐतिहासिक तथ्यों को अधूरा, एकांगी और मनगढ़ंत मानते हैं.

ऋग्वेद को प्रथम वेद माना गया है. मनुष्यता का पहला ज्ञानांकुर. यह मानते हुए कि शूद्र उसके अर्थ का अनर्थ कर सकता है, वेदपाठी ब्राह्मणों ने शूद्र और स्त्री के वेदाध्ययन पर पाबंदी लगाई थी. यदि कोई शूद्र वेद पढ़ ले तो उसके कान में पिघला सीसा डालने जैसे दंड का प्रावधान था. सामवेद की रचना इसलिए की गई कि वैदिक ऋचाओं के सटीक गायन का प्रशिक्षण देकर उनके पाठ की शुद्धता को कायम रख सकें. मूल्य की दृष्टि से वेदानुयायियों के लिए वेद उसी सीमा तक पवित्र और वरेण्य थे, जब तक उनके वर्गीय हितों को कोई आंच न पहुंचती हो. वर्गीय हितों को ठेस की संभावनामात्र पर वे शास्त्रों की व्याख्याएं बदलते रहे हैं. उदाहरण ऋग्वेद से ही खोजे जा सकते हैं. वेदपाठी ब्राह्मण ऋग्वेद के पुरुषसूक्त को तो ज्यों का त्यों बनाए रखते हैं. वर्णाश्रम के समर्थन में अपने तर्कों को वहां तक खींच ले जाते हैं. लेकिन ऋग्वेद की दूसरी शिक्षाएं जिनकी सामाजिक उपयोगिता है, की वे मनमानी व्याख्या करते हैं. ऋग्वेद में जुआ को कुरीति माना गया है. दसवें मंडल में जुआरी का एक प्रसंग आया है जो महाभारत में युधिष्ठिर द्वारा द्रोपदी को दांव में हार जाने से एकदम मिलताजुलता है. अंतर बस इतना है कि ऋग्वेद का जुआरी गरीब है. जबकि युधिष्ठिर सम्राट. ऋग्वेद का जुआरी दिनरात जुआखाने में पड़ा रहता है. पासे को देख उसकी बांछें खिल जाती हैं. उसको गिरते देख वह मद्मत्त हो उठता है. जुआरी की पत्नी अपने पति से बेहद प्यार करती है. यहां तक कि जुए में सबकुछ हार जाने पर भी उसका बहिष्कार नहीं करती. जुआरी की सास भी उसपर दया करती है. जुए की लत से बरबाद हो चुका जुआरी कर्ज लेकर भी जुआ खेलता है. फिर एक दिन सब कुछ गंवा देता है. यहां तक कि अपनी पत्नी को भी. तब उद्गाता ऋषि जुआरी को समझाता है—

जुआ मत खेल. मत खेल जुआ. अपने खेतों को जोत. प्राप्त धन से संतोष कर. उसे अपना मानते हुए परिश्रम कर. ये तेरी गौए हैं. वह तेरी जाया है. सबके साथ रहते हुए अपने सुख और कमाई को बढ़ा.’ (ऋग्वेद—10/34/13).

वेद का जुआरी गरीब है. अपनी मेहनत का खाता है. उसके लिए जुआ खेलना बरबादी का सबब है. मगर राजाओं और सामंतों के लिए जिनके पास अकूत धन संपदा है, और ज्यादा बटोरने के लिए पर्याप्त सैन्यबल है. राजकोष है जिसे भरने के लिए प्रजा रातदिन पसीना बहाती है, उनके लिए जुआ बरबादी नहीं, शान का प्रतीक है. युधिष्ठिर अपनी राजसी आन को बचाने की खातिर जुआ खेलता है. वेदविरुद्ध कार्य करने के बावजूद उससे युधिष्ठिर का धर्मराजपन खंडित नहीं होता. मरणोपरांत यदि उसे कुछ पल के लिए नर्क में जाना पड़ता है तो इसलिए कि उसने अश्वत्थामा के मरने की झूठी सूचना द्रोणाचार्य को देने की कोशिश की थी, जुए में अपनी पत्नी को दांव पर लगा देने के लिए नहीं, जो न केवल उसकी, बल्कि पांचों पांडवों की संयुक्त भार्या थी. साफ है कि जो शक्तिशाली है, सामर्थ्यवान है वह ज्ञान की स्वार्थानुकूल व्याख्या के लिए बुद्धिजीवियों को खरीद लेता है. प्रायः बुद्धिजीवी ही उसकी ओर स्वयं खिंचे चले आते हैं. वे उसके लिए उपलब्ध ज्ञानधाराओं की मनमानी व्याख्या करते हैं. दूसरे शब्दों में अभौतिक होने के बावजूद ज्ञान जिसके पास जाता है, उसकी भावनाओं, विवेक और स्वार्थ के अनुसार आचरण करने लगता है.

ज्ञान के ऐसे दुरुपयोग ‘महाभारत’ को न्योता देते हैं. आधुनिक भाषा में मार्क्स ने इसे द्वंद्ववाद कहा है. ज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं होता. लेकिन जब मान लिया जाए कि फलां व्यक्ति या समूह का ज्ञान पर एकाधिकार है, तब उसके मनमाने उपयोग की संभावना बढ़ जाती है. इसलिए व्यक्ति और समाज दोनों का दायित्व है कि वह ज्ञान के एकाधिकार की भ्रांति से बाहर आए. ध्यान रखें कि विचार की स्थिति दोमुंहे सांप जैसी होती है. वह दोनों और गति कर सकता है. सपोंलों की तरह हर विचार, दूसरे विचार को खाने की कोशिश करता है. जन्म लेते ही नवज्ञानांकुर पर दूसरे ज्ञानांकुर हमला कर देते हैं. प्रकट में यह लड़ाई बहुत मारक दिखती है. असल में होती पूरी तरह अहिंसक है. विचारों के बीच दिखावटी प्रतिद्विंद्वता भले हो, उस लड़ाई में न तो कोई विचार मिटता है, न ही घायल होकर हमेशा के लिए प्रतियोगिता से बाहर चला जाता है. अस्तित्व की इस स्पर्धा में कुछ विचार दब अवश्य जाते हैं. लेकिन अनुकूल परिस्थितियों में वे पुनः केंद्रीय भूमिका के लिए सक्रियता के धरातल पर लौट आते हैं. विचार के समर्थक इतने उदार नहीं होते. उत्तेजना में वे अकसर बेकाबू हो जाते हैं.

इन स्थितियों से बचने के लिए ज्ञान और ज्ञानी दोनों का निष्प्रह होना आवश्यक है. मनुष्य की विशेषता है कि वह नए की ओर आकर्षित होता है, उसको आत्मसात करने की कोशिश करता है. यह स्वागतयोग्य है. लेकिन ज्ञानी और ज्ञानसाधक दोनों को समझना चाहिए कि समाज उनसे कहीं ज्यादा ज्ञानी है. उनकी बौद्धिकता की इमारत में कुल ज्ञानसंपदा समाज की खर्च हुई है. व्यक्ति तो केवल समाज में अर्जित ज्ञानसंपदा को रूपाकार देता है. उसे अपनी दृष्टि के अनुसार ढालता है. मनुष्यता की संपूर्ण ज्ञानसंपदा के आगे उसका ज्ञान विराट बरगद के एक पत्ते जितना है. वैसे भी समाज का ज्ञानी होना, व्यक्ति के ज्ञानी होने से अधिक महत्त्वपूर्ण है. विडंबना है कि हमारे पास ऐसा कोई कारगार रास्ता नहीं है, जिससे समाज को ज्ञानी बनाया जा सके. इसलिए हम व्यक्तियों के प्रबोधीकरण के जरिये समाज के प्रबोधीकरण का सपना देखते हैं. यह रास्ता आसान है. लेकिन इसमें व्यक्ति खुद को दूसरों से अलग और बड़ा समझने लगता है. शीर्षत्व का गुमान अहंकार पैदा करता है और अहंकार से अकेलेपन और असुरक्षाबोध की वृद्धि होती है. नतीजन सामूहिकता के बीच उसका आचरण भीड़ या भेड़चाल जैसा हो जाता है.

जो वास्तव में मनस्वी होते हैं, वे इस सच से वाकिफ होते हैं. वे जानते हैं कि अपरिमेय ज्ञान की अंतहीन यात्रा में कुछ भी सर्वथा अंतिम और प्रामाणिक नहीं है. इसलिए वे बारबार दोहराते हैं कि उनके कहे को अंतिम मानने से बचो. वे जो कह रहे हैं उसे अपने तर्कों और विवेक की कसौटी पर जांचोपरखो. यही बुद्ध ने भी कहा था, यही गांधी ने भी कहा. प्रकृति भी समझाती है कि किसी अकेले वृक्ष से धरती की शोभा नहीं बनती. पृथ्वी का सौंदर्य सर्वत्र हरियाली में है. यदि छोटेछोटे तिनकों से बनी घास का सौंदर्य भी इसलिए अनुपम होता है कि वहां सभी तृण बराबर होते हैं. सभी सहअस्तित्व की भावना का सम्मान करते हैं. ताड़ का वृक्ष तब तक शोभा नहीं बनता जब तक उसका साथ देने के लिए कुछ और ताड़ वृक्ष न हों. योग्य नागरिक योग्य समाज का उत्पाद होता है. तदनुसार आवश्यक है कि समाज प्रबुद्ध हो. लेकिन ज्ञान की उलटबांसी है कि जब हम व्यक्ति के प्रबोधीकरण पर जोर देते हैं, तो समाज में असमानता पनपने लगती है; और संपूर्ण समाज के प्रबोधीकरण का सीधासरलसर्वस्वीकार्य रास्ता हमारे पास है नहीं.

© ओमप्रकाश कश्यप

समय : पारंपरिक दृष्टिकोण

समय का दर्शन : एक

समय सबसे बड़ा छलिया होता है. मेहरबान हो तो दुनियाभर की सल्तनत बख्श दे. रूठ जाए तो चौहद्दी के राजपाट समेत डुबा दे. इस जैसा न तो कोई दयालु, न बेहरम. न इससे असरदार कोई मरहम. न इससे धारदार कोई हथियार….

समयसा कोई महाज्ञानी नहीं!

समय से बड़ा बहरूपिया भी नहीं!

समय से कभी मत लड़ना!

समय को चुनौती मत देना!

समय पर कभी भरोसा न करना!

हर आदमी यही कहता है. चाहता है कि समय से बचकर रहे. उसे कभी अनदेखा न करे. बूढ़ी होती पीढ़ी कामना करती है कि उसका समय ज्यों का त्यों बना रहे….आने वाली पीढि़यों पर समय की सदा मेहरबानी रहे. समय पर सब काम पूरे हों. समय का सब लाभ उठाएं.

आने वाला समझता है कि जाने वाली पीढ़ी अपने हिस्से का समय इस्तेमाल कर चुकी. अब उसकी बारी है. जाने वाला सोचता है कि उसकी यादें और समय ज्यों का त्यों उसके बाद भी बना रहे.

समय को लेकर अनगिनत मुहावरे, अनगिनत किवदंतियां हैं. समय बदलता है…. समय खराब होता है, समय भला निकलता है. समय मेहरबानी दिखाता है. समय आंखें तरेरता है. समय करीब होता है. समय उड़नछू हो जाता है. समय का हर खेल निराला है. समय बादशाहों का बादशाह, सूरमाओं का सूरमा है. वह अपनी चाल चलता है. बहुत तेज भागता है. कभी वापस लौटकर नहीं आता. फिर भी दिन बहुरेंगे, यह सोचकर मन को तसल्ली दी जाती है. समय अबूझ पहेली बना रहता है.

बड़ेबड़े मनीषी कह गए हैं—समय को समझना आसान नहीं! भर्तृहरि जैसे ज्ञानी न समझ सके, हमारी तो बिसात क्या?

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः।

तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।।

कालो न यातं वयमेव याताः।

तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।।

यानी सब कुछ नश्वर है. हम समय को नहीं जीते, समय हमें जीता है. कविता में नैराश्य झलकता है. लेकिन यह कोई नई बात नहीं है. संसार को मोहमाया से ग्रस्त और नश्वर दिखाने की प्रवृत्ति धार्मिक ग्रंथों का प्रमुख स्वर रही है. डर धर्म की धंधागिरी का प्रमुख आधार है. भविष्य के प्रति अनिश्चितता इसके लिए जिम्मेदार है. हालांकि हमेशा ऐसा नहीं होता. अनिश्चितता का गुण समय को मानवोपयोगी भी बनाता है. विशेषकर दुख और निराशा भरे दिनों में, यह विश्वास कि आनेवाला समय अपने साथ कुछ अच्छा ला सकता है, मनुष्य को भविष्य के प्रति आशावान बनाए रखता है.

समय के अनिश्चित स्वभाव के कारण ही मनुष्य उससे डरता, समय के साथ बढ़ता है. समय क्या है, कोई नहीं जानता. समय है यह सब मानते हैं. आदमी भगवान पर भरोसा भले कर ले, समय पर कभी विश्वास नहीं लाता. डरता है, वह जाने कब, किस ओर पलटनिया खा जाए. आदमी समय को अपना मानता है, मगर समय के लिए कोई खास नहीं होता. इस कारण आदमी तो क्या देवता तक समय के आगे झुकते आए हैं. समय सबका है, पर समय पर अधिकार किसी का नहीं….इसीलिए ज्ञानी लोग कहते आए हैं—समय को मनाओ, उससे टकराओ मत. वैज्ञानिक और वुद्धिजीवी कुछ भी दावा करें. समय को तीसराचौथा आयाम चाहे जो मानें, आम आदमी का उससे संबंध भावनात्मक ही होता है. उसमें उसका डर भी समाया होता है. उम्मीदें होती हैं, मगर डरीसहमी. इस तरह समय के कई रूप हो सकते हैं. वैज्ञानिकों के लिए समय एक विज्ञान है, ज्योतिषी के लिए भूतभविष्य और वर्तमान का लेखा, पुजारी के लिए धर्म और जनसाधारण के लिए वह कुछ भाग्यरेख जैसा है. दूसरे शब्दों में समय ऐसी झील है, जिसमें स्वच्छ, स्फटिकजैसी विपुल नील जलराशि भरी होती है. उसमें झांको तो अपनी ही छवि दिखाई पड़ती है.

समय को लेकर कुछ ऐसी ही अवधारणा, ऐसे ही विचार जनमानस में व्याप्त हैं. कुछ लोग समय को इतिहास मानकर संतुष्ट हो जाते हैं, कुछ के लिए वह निस्सीम विस्तार है. ग्रह, नक्षत्र, चांदसितारे, धरतीअंबर और न जाने कितने ब्रह्मांड उसमें समाए हुए हैं. कुछ ऐसे भी हैं जो समय को बहती धारा मानते हैं. भूतवर्तमान और भविष्य की चिरतरंगिणी. अदृश्य प्रवाह जो ब्रह्मांड की समस्त हलचलों, ग्रहनक्षत्र, नीहारिकाओं, नदियों, महासागरों के साथसाथ गतिमान है. समय की प्रतीतियां अनंत हैं. किसी के लिए वह ब्रह्मांड के भीतर है. किसी के लिए बाहर. कोई समय को जलधार की भांति सतत प्रवाहमान मानता है, कोई ब्रह्मांड की भांति विस्तीर्ण. समय को परमात्मा स्वरूप भी माना गया है. ईश्वर का एक नाम ‘काल’ भी है. ‘काल’ यानी मौत का देवता. जब वह आता है तो माना जाता है कि प्राणी का समय पूरा हो गया. ‘काल’ के संबंध में समय का व्यक्ति सापेक्ष अर्थ है—मनुष्य का अपना समय. धार्मिक आधार पर यह माना जाता है कि प्रत्येक मनुष्य एक सुनिश्चित समय लेकर इस संसार में आता है. जैसे ही वह समय पूरा होता है, काल उसे लेने के लिए पुनः धरती पर अवतरित हो जाता है. समय को लेकर ये मान्यताएं बहुत पुरानी हैं और लगभग सभी समाजों में मिलतीजुलती हैं. विज्ञान भी उन्हें बदल नहीं पाया है. यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो समय के रूप में हम केवल घटनाओं की स्थिति बयान कर रहे होते हैं. उनके घटने की दर, उनका स्वरूप, या उनके बारे में कोई नया आकलन. इसके बावजूद समय का प्रभाव इतना गहरा होता है कि घटनाओं के होने को ही उसकी प्रतीति मानने का साहस नहीं कर पाते. अथवा समय को जानने की कोशिश में हम दरअसल कुछ और जान रहे होते हैं. जैसेजैसे हम समय के बारे में आगे विचार करेंगे, ये रहस्य स्वतः अनावृत होते जाएंगे.

समय की अवधारणा कब जन्मी, यह ठीकठीक बता पाना संभव नहीं. सिर्फ कल्पना की जा सकती है कि आदमी ने जब सूरज को समय पर उगते और डूबते देखा. तारामंडल की उदयअस्त होती कलाबाजियां देखीं. बालक को जन्मते, बड़ा होते, फिर बूढ़ा होकर मौत के गाल में समाते हुए पाया—तब उसने माना कि कुछ है जो कभी उसके साथ चलता है, तो कभी उसको पीछे ढकेल आगे निकल जाता है. जो अंतरिक्ष की तरह सर्वव्यापी, नदी की तरह पलपल प्रवाहमान है. जिसका कोई ओर है न छोर. जो घटनाओं को क्रम देता है. उन्हें एकदूसरे से संबद्ध करता है. कल, आज और कल की इस चिरतरंगिणी को मनुष्य ने ‘समय’ नाम दिया. यह संज्ञा इतनी मनोहारी थी कि आगे जो भी दार्शनिक और विचारक आए, सभी ने उसकी पुष्टि की. वैज्ञानिकों तक की हिम्मत न हुई कि समय की परिकल्पना तथा उससे जुड़े लोकविश्वासों को चुनौती दे सकें. मान्यता चाहे जैसी हो, समय भी उनके विचारों के विकास में सहायक बना रहा.

दार्शनिकों ने समय के बारे में तरहतरह की परिकल्पनाएं प्रस्तुत कीं. कुछ ने समय को घटनाओं और परिवर्तन के आधार पर परिभाषित किया तो कुछ घटनाओं को समय के परिप्रेक्ष्य में, उसके भीतर घटते हुए माना. कुछ विचारक समय को अनंत का प्रतिरूप, ब्रह्मांड के समानांतर मगर उससे स्वतंत्र सत्ता मानते रहे, तो कुछ ने उसको भूतवर्तमान और भविष्य के रूप में देखा. ‘टाइमस’ में प्लेटो ने समय को अनंत की संज्ञा दी है. उसके अनुसार, ‘समय अनंत की गत्यात्मकता को दर्शानेवाली अपरिमेय सत्ता है.’ घटअघट सबकुछ उसमें समाया रहता है. कुछ मामलों में समय ब्रह्मांड से भी विस्तीर्ण है. चूंकि ब्रह्मांड की प्रत्येक घटना किसी न किसी अंतराल में घटित होती है; और स्वयं ब्रह्मांड भी घटनाओं की अपरिमित शृंखला में है—अतः कहा जा सकता है कि समय ब्रह्मांड से भी विस्तीर्ण है. दूसरे शब्दों में ब्रह्मांड का भी समय होता है. उसकी आयु है, उसके गर्भ में घटनेवाली तरहतरह की घटनाएं और गतियां हैं. इसलिए वह भी समय की पकड़ से दूर नहीं है. कुल मिलाकर प्लेटो के अनुसार समय ऐसी अपरिमेय रचना है, जिसमें सृष्टि की समस्त घटनाएं घटित होती हैं.

मनुष्य समय की सत्ता पर लगभग पिछले 2500 वर्ष से निरंतर विचार करता आया है. बौद्ध दर्शन से लेकर सुकरात, प्लेटो, अरस्तु आदि ने अपनीअपनी तरह से समय की विवेचना की है. इसके बावजूद समय की सत्ता को लेकर विद्वानों के बीच आज भी सहमति नहीं बन पाई है. अनेक प्रश्न आज भी उलझे हुए हैं. मसलन समय क्या है? यदि ब्रह्मांड न हो क्या तब भी समय रहेगा? क्या मानवमस्तिष्क का समय से कोई प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष संबंध है? भूत, वर्तमान और भविष्य क्या सचमुच घटनाओं से स्वतंत्र हैं, अथवा ये केवल भ्रांति और मानव मस्तिष्क की उपज हैं? कल, आज और कल क्या केवल समयबोध का प्रतीक हैं और समय वास्तव में कालरहित है? क्या कालरहित समय और समयरहित ब्रह्मांड की कल्पना की जा सकती है? ब्रह्मांड और समय दोनों की उत्पत्ति क्या एक साथ हुई? क्या ब्रह्मांड की भांति समय भी भौतिक नियमों से पूरी तरह अनुशासित होता है? ऐसे ही अनेक प्रश्न हैं, जो मानवमस्तिष्क को हजारों वर्षों से मथते आए हैं. मानवीय मेधा आज तक उनका सर्वसम्मत निदान नहीं खोज पाई है. न्यूटन, अरस्तु जैसे कई दार्शनिकों, वैज्ञानिकों ने समय की सत्ता को स्वीकारा है. समय के प्रत्यय का विज्ञान में भी भरपूर उपयोग होता है. प्लेटो समय को अनंत का पर्याय मानता है. उसके अनुसार—

प्राणीमात्र की प्राकृतिक क्षमताएं अपरिमेय थीं. यह संभव नहीं था वह उन क्षमताओं को ब्रह्मांड पर पूरी तरह न्योछावर कर दे, बजाय इसके उसने अपरिमेय की चलतीफिरती छवि बनाने का फैसला किया. उसने स्वर्ग से ऐसी अपरिमेय छवि बनाने का आदेश दिया तब स्वर्ग ने वह बनाया, जिसे आज हम समय कहते हैं. स्वर्ग यानी अनंत की अकेली अपरिमेय छवि, जो अनंत तक बनी रहेगी.’2

समय के बारे में प्लेटो के आदर्शवादी दृष्टिकोण की अपेक्षा अरस्तु व्यावहारिकता पर जोर देता है. मानव मस्तिष्क एवं समय की अंतर्निभरता पर टिप्पणी करते हुए वह लिखता है—

यदि मस्तिष्क अनुपस्थित है तब समय अनुपस्थित होगा या नहीं, ऐसा सवाल किया जा सकता है. मगर उसके बारे में जानना चाहिए कि यदि किसी के पास किसी के पास गिनने लायक कुछ नहीं है, वहां ऐसा कुछ नहीं होगा, जिसको गिना जा सके.’3

जाहिर है, अरस्तु की समयसंबंधी अवधारणा व्यावहारिक और जनसाधारण के सोच के करीब है. वह मानता है कि समय स्वतंत्र है, उसकी अपनी सत्ता है, गति है. सृष्टि की प्रत्येक घटना, परिवर्तन समय का आभास कराता है. तदनुसार जहां परिवर्तन है, वहां समय अथवा उसकी प्रतीति है. ‘समय भूत और भविष्य के संदर्भ में घटनाओं की आवृत्ति है.’ लेकिन समय केवल कल आज और कल नहीं हैं. भूत, वर्तमान और भविष्य केवल मनुष्य के समयबोध को दर्शाते हैं. वास्तविक समय इनसे अलग और स्वतंत्र है. अरस्तु का यह संबोधन समय को लेकर गहरे निहितार्थ रखता है. यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो इस परिभाषा में अरस्तु ने जहां समयसंबंधी प्लेटो की मान्यताओं का सम्मान किया है, वहीं समय को गतिशीलता का लक्षण मानकर, मतवैभिन्नय भी बनाए रखा है. हालांकि समय को लेकर प्लेटो को योगदान भी संदेह से परे नहीं है. आगे चलकर समय के बारे में जो दो प्रमुख दृष्टिकोण बने, उनमें से एक के बीजतत्व प्लेटो के दर्शन में तथा दूसरे के अरस्तु के विचारों में दिखाई पड़ते हैं.

आधुनिक वैज्ञानिक ब्रह्मांड की कुल आयु को लेकर स्वयं कोई दावा नहीं करते, ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत जिसके अनुसार पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता, केवल रूपांतरित होता रहता है, कदाचित इसके आड़े आता है. लेकिन उनका मानना है कि एक न एक दिन, भले वह समय करोड़ों, अरबों वर्ष बाद हो—वर्तमान ब्रह्मांड और उसके साथ समय भी नए रूप को प्राप्त हो सकता है. वैज्ञानिक मानते हैं कि समय का भी जन्म हुआ है. वे समय और ब्रह्मांड की उत्पत्ति एक साथ, एक ही घटना से मानते हैं. हाकिंग ब्रह्मांड के निर्माण के रहस्य की गुत्थी सुलझाने के लिए ‘समय का इतिहास’ को माध्यम बनाते हैं. एक वैज्ञानिक के लिए ब्रह्मांड एवं समय के उद्भवकाल को एक मानना सैद्धांतिक रूप से सही हो सकता है. मगर इससे ‘समय का संक्षिप्त इतिहास’ केवल ब्रह्मांड की उत्पत्ति तक सीमित रह जाता है. समय की आयु भले न हो, परंतु ब्रह्मांड की आयु है, इसे निरंतर फैलता हुआ ब्रह्मांड भी सिद्ध करता है. वह दिखाता है कि ब्रह्मांड सतत परिवर्तनशील है. कल्पना कीजिए निरंतर फैलता हुआ ब्रह्मांड कुछ लाख या करोड़ वर्षों के बाद, किसी नई संरचना में ढल जाता है. अथवा अपने आंतरिक परिवर्तनों के चलते पुनः परमबिंदू में सिमट जाता है—तब समय का नया रूप क्या होगा. क्या समय या उसकी प्रतीति दुबारा नष्ट हो जाएगी. स्टीफन हाकिंग के विचार हमें इसी निष्कर्ष तक ले जाते हैं. मगर इसमें दृष्टि को ही सृष्टि मान लेने जैसा दोष है. इससे यह विचार कि सबकुछ समय के साथ घटता है, संदेह के दायरे में आ जाता है.

लोकव्यवहार में समय के दो रूप देखने को मिलते हैं. पहला दिनरात, वर्ष, ऋतु काल जिसमें जीवन की दैनंदिन घटनाएं संचालित होती हैं. दूसरा समय को सर्वव्यापी, अनंत, ब्रह्मांडनुमा रचना मानना जिसमें सृष्टि की प्रत्येक घटना घटित होती है. आस्थावान लोगों के लिए संभव नहीं होता कि वे समयसंबंधी किसी भी प्रतीति की उपेक्षा कर सकें. समय उनके लिए अनंत प्रवाह, देवता तुल्य और आराधनयोग्य है. सामान्यतः वे समय से डरते, उसका उपकार मानते हैं तथा उसे धर्म की भांति नियामक सत्ता मानकर, जीवन को उसके अनुसार ढालने के लिए प्रयत्नरत रहते हैं. लेखकों और कवियों ने समय को परमतत्व का विस्तार मानकर, उसका भांतिभांति से महिमा मंडन किया है. दार्शनिकों ने समय को केंद्र में रखकर जीवनरहस्यों की व्याख्या की. दूसरी ओर ऐसे भी कई भौतिकवादी विचारक हैं जिन्होंने समय की सत्ता पर खरेखरे सवाल उठाए हैं. मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्ति पर समय का प्रभाव उसकी मनःस्थिति और परिवेश के अनुसार पड़ता है. तदनुसार समय व्यक्तियों पर अलगअलग प्रभाव डालता है. इन परस्पर विरोधी विचारधाराओं के बीच कुछ प्रश्न लगातार सिर उठाए रहे.कृ

समय: दार्शनिक पहेली

माना कि समय है, उसकी प्रतीति है. पर वह है क्या? कब उसका जन्म हुआ? ब्रह्मांड के साथ अथवा उससे पहले? यदि पहले तो कितना? समय क्या घड़ी की टिकटिक, नदी की कलकल की भांति आगे बढ़ने वाला प्रवाह है? अथवा ऐसी निस्सीम सत्ता जिसमें घड़ी की टिकटिक, नदी की कलकल, चांद, सितारे, सूरज, ग्रहउपग्रह जैसे ब्रह्मांड के कोटिक कोटि पिंड समाए हुए हैं? समय की प्रतीति घटनाओं के माध्यम से होती है, तो क्या वह घटनाओं की अन्वति मात्र है? घटनाएं समय में बीतती हैं या घटनाओं के साथ समय की उलटबांसी चलती है? अगर वह घटना नहीं है तो उसकी प्रतीति का आधार क्या है? क्या घटनाओं से बाहर समय की अनुभूति संभव है? समय और समयबोध में अंतर क्या है? क्या समय और समयबोध दोनों साथसाथ जन्मे? यदि नहीं तो उनके बीच अंतराल कितना है? दोनों में पहले कौन जन्मा? मानवमन में हजारों वर्ष पहले कौंधे ये प्रश्न आज भी उसी तरह बने हुए हैं. समय को लेकर जो चुनौतियां ईसा से चारपांच सौ वर्ष पहले थीं, वे किसी न किसी रूप में आज भी मुंह बाए खड़ी हैं. समय को लेकर महत्त्वपूर्ण चिंतन बौद्ध, न्याय, वैशेषिक आदि दर्शनों में हुआ है. मगर आधुनिक भारतीय विचारकों ने इस क्षेत्र को उपेक्षित ही रखा है. जबकि समय की दार्शनिक विवेचना एक प्रकार से इस विश्वसमाज की वस्तुनिष्ट विवेचना जैसी होगी. वह हमें धर्म के नाम पर चल रहे अनेकानेक पाखंडों और अज्ञानताओं से मुक्ति दिला सकती है. संतोष है तो बस इतना है कि प्रश्न का होना भी कम नहीं होता. समस्या हो तो मानवीय जिजीविषा उसका समाधान कभीकभी खोज ही लेती है.

समय की व्युत्पत्ति को लेकर वैज्ञानिकों के अलगअलग विचार हैं. स्टीफन हाकिंग समय की उत्पत्ति को ब्रह्मांड के जन्म से जोड़ते हैं. ‘समय का संक्षिप्त इतिहास’ में उन्होंने समय की व्युत्पत्ति महाविस्फोट की घटना से मानी है. हाकिंग के अनुसार, महाविस्फोट से पहले पूरा ब्रह्मांड अनंत संपीडित ‘परम बिंदू’;ैपदहनसंतपजलद्ध अथवा ‘परमएैक्य’ की अवस्था में था. लगभग 15 अरब वर्ष पहले निंरतर बढ़ता आंतरिक दाब ही ‘परम बिंदू’ के महाविस्फोट तथा ब्रह्मांड के जन्म का निमित्त बना था. हाॅकिंग के अनुसार ब्रह्मांड के जन्म से पहले समय अथवा किसी वस्तु की कोई कल्पना संभव नहीं है. यहां हाकिंग अरस्तु और न्यूटन के विचारों से सहमत दिखाई पड़ते हैं, मगर एक उलझन है. न्यूटन और अरस्तु समय को ‘परमतत्व’ के तुल्य मानते हैं. उनके अनुसार समय की अपनी सत्ता है और वह भौतिक घटनाओं से स्वतंत्र है. समय घटनाओं पर नजर रखता तथा उनके होने के प्रभाव को दर्शाता है. स्टीफन हाकिंग सहित ये दोनों वैज्ञानिक भी समय की उत्पत्ति को ब्रह्मांड के जन्म से जोड़ते हैं. यह उनकी विवशता है. विज्ञान तर्क के सहारे चलता है. चूंकि ब्रह्मांड के जन्म से पहले समय की सत्ता का प्रमाणन असंभव है. इसलिए उनकी वैज्ञानिक बुद्धि समय की उत्पत्ति को ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पीछे नहीं ले जा पाती. दार्शनिक के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं होती. उसके लिए विचार का तर्क सम्मत होना पर्याप्त है. जाहिर है, समय की व्युत्पत्ति की वैज्ञानिक व्याख्या एक दार्शनिक के लिए अनेक सवाल छोड़ जाती है. सबसे पहला और महत्त्वपूर्ण प्रश्न तो यही है कि ब्रह्मांड और समय को एकदूसरे से संबद्ध करने का आधार क्या है? यदि दोनों को परस्पर जोड़ा जाता है तो माना जाएगा कि कि वे परस्पर अन्योन्याश्रित हैं, ऐसे में समय को ‘परम’ अथवा ‘स्वतंत्र’ मानना अनुचित होगा, जबकि प्लेटो, अरस्तु, न्यूटन से लेकर अनेक आधुनिक वैज्ञानिक समय को परिवर्तन निरपेक्ष और स्वतंत्र मानते आए हैं.

अरस्तु से लेकर हाकिंग तक इन समस्याओं पर कोई विचार नहीं करते. न ही किसी प्रकार का सवाल उठाते हैं. उनका यह अभीष्ट भी नहीं है. इसलिए कि हाकिंग हो या न्यूटन अथवा अरस्तु सभी का ध्येय सृष्टि के जन्म से जुड़ी जिज्ञासाओं के प्रति वैज्ञानिक नजरिया पेश करना था. उससे जुड़े दार्शनिक प्रश्नों का समाधान करना नहीं. अब यदि हाकिंग की स्थापना को सत्य मान लिया जाए, मान लिया जाए कि सृष्टि का जन्म महाविस्फोट से ही हुआ था, तब भी समय को लेकर कुछ सवाल हमेशा बने रहते हैं. जैसे कि पदार्थ को निरंतर संपीडित होतेहोते ‘परमबिंदू’ की अवस्था तक आने में कितना समय लगा था? वह परमबिंदू की अवस्था में कब तक रहा? यदि समय घटनाओं की अन्वति अथवा उनके परिवर्तन को दर्शाता है तो ‘परमशून्य बनने तथा उसके विखंडित होने के बीच की अवधि को भी समय क्यों न मान लिया जाए? क्या परम बिंदू बनने तथा ‘महाविस्फोट’ का क्षण दोनों एक हैं? क्या परमबिंदू से पहले भी सृष्टि का कोई स्वरूप था? यदि परमबिंदू बनना एक घटना है तो उसके बनने में लगने वाले समय की उपेक्षा हम कैसे कर सकते हैं? परम शून्य की अवस्था में आने से पहले ब्रह्मांड और समय का क्या संबंध था? हाकिंग इन सवालों को छोड़ आगे बढ़ जाते हैं. उनके अनुसार ब्रह्मांड से पहले समय की परिकल्पना का वैज्ञानिक आधार उन्हें नजर नहीं आता. हाकिंग का कहना सही हो सकता है, लेकिन दार्शनिक की दृष्टि से यह जल्दबाजी का निष्कर्ष है. विषय ही सीमा को सत्य की सीमा मान लेने के कारण प्रायः ऐसा होता रहता है. ध्यातव्य है कि हाकिंग का ध्येय ब्रह्मांड की उत्पत्ति जुड़ी वैज्ञानिक गुत्थियों को सुलझाना था. ऐसा नहीं है कि समय पर वैज्ञानिक दृष्टि से विचार नहीं किया जा सकता. न्यूटन के गति के नियमों से लेकर हाइंजवर्ग के अनिश्चितता के सिद्धांत तक सभी में समय का प्रयोग किया जाता है. आइंस्टाइन के विचार के अनुसार समय चौथा आयाम है. हाइंजवर्ग भी परमाणु के भीतर मूलकणों की वास्तविक उपस्थिति को जानने के लिए समय को चौथे आयाम के रूप में स्वीकार करते हैं. लेकिन प्रकारांतर में वे दोनों ही किसी पिंड अथवा मूलकण की स्थिति को समझने के लिए चौथे आयाम के रूप में मानव मस्तिष्क द्वारा कल्पना के अतिरिक्त विस्तार, अधिक बौद्धिक श्रम की अपेक्षा कर रहे होते हैं.

दर्शन के विद्यार्थी के लिए समय की विवेचना से जुड़े प्रश्न बड़े प्रासंगिक हैं. एक वैज्ञानिक ब्रह्मांड के जन्म से समय की उत्पत्ति को मानकर संतुष्ट हो जाता है. क्योंकि उससे पहले किसी भी सत्ता की कल्पना उसके लिए असंभव है. असंभव कल्पना करना विज्ञान का क्षेत्र भी नहीं है. दर्शन तर्क की विचारभूमि पर विकसित होता है. दार्शनिक के लिए समय को लेकर सामान्यतः दो विकल्प होते हैं. समय को अनंत प्रवाह मानते हुए गहन सृष्टि के जन्म से पहले ‘परम बिंदू’ बनने से लेकर महाविस्फोट तथा उसके बाद की समस्त घटनाओं का,े उसके विभिन्न अंतरालों में घटी हुई घटनाएं माने. दूसरे समय और महाविस्फोट दोनों का जन्म एक साथ मानते हुए समय को घटनापरिवर्तन के साक्षी के रूप में देखे. लेकिन ब्रह्मांड एवं समय की व्युत्पत्ति को परस्पर असंबद्ध करना, दर्शन की दृष्टि से भी इतनी समस्याएं उत्पन्न करता है, जिनका समाधान असंभव है. यदि समय की व्युत्पत्ति को ब्रह्मांड से पहले मान लिया जाए, तब एक और ब्रह्मांड अथवा ऐसी रचना की परिकल्पना करनी होगी, जिसमें समय रह सके; अथवा जिसके साथ वह अपने ‘होने’ को दर्शा सके. उसके बाद सिलसिला अनंत तक चलता जाएगा. चूंकि समय की सत्ता की सिद्धि बगैर परिवर्तन के असंभव है और दृश्यमान जगत में परिवर्तन के लिए वस्तु जगत की मौजूदगी अपरिहार्य है, इसलिए समय के इतिहास के बहाने वैज्ञानिक दरअसल ब्रह्मांड अथवा ब्रह्मांडीय हलचलों का इतिहास ही बता रहे होते हैं; और किसी ठोस तर्क के अभाव में दार्शनिक भी समझौते की ओर बढ़ते नजर आते हैं. अधिकांश यह मान लेते हैं कि समय और ब्रह्मांड एक ही है. अथवा दोनों एक ही सत्ता की भिन्न प्रतीतियां हैं. यदि यह सही है तब समस्या होती है कि ब्रह्मांड की व्याख्या के लिए समय की अवधारणा क्यों जरूरी है?

दूसरे शब्दों में समय को घटनाओं की प्रतीति मानते हुए हम केवल समयबोध अथवा उसकी व्यावहारिक उपस्थिति को महत्त्व दें. जैसा अरस्तु और न्यूटन जैसे वैज्ञानिक भी मानते आए हैं, मान लें कि प्रत्येक परिवर्तन समय सापेक्ष होता है. इससे स्टीफन हाकिंग, न्यूटन जैसे वैज्ञानिकों, जिनके लिए ब्रह्मांड के जन्म से पहले समय की उपस्थिति असंभव है, की मान्यता अवधारणा को स्वीकृति मिलेगी. हालांकि उस अवस्था में समय की निरपेक्षता का प्रश्न आइंस्टाइन के सापेक्षता के सिद्धांत से संघर्ष करता हुआ नजर आएगा. विकल्प यह भी है कि समय को अनंत एवं निरपेक्ष सत्ता के रूप में पहचाना जाए, जिसमें समस्त घटनाएं, परिवर्तन आदि बनतेमिटते रहते हैं. मानें कि समय सभी का साक्षी, केवल दृष्टामात्र है. प्लेटो ने भी उसे अनंत के साथी और सहधर्मी के रूप में देखा है, यह भी हो सकता है कि समय के व्यावहारिक बोध जिसे हमारी स्मृति तय करती है, जो परिवर्तन को समझने के लिए जरूरी है, को मान्यता देते हुए समय की स्वतंत्रता जैसे सवालों से मुक्ति पा लें. आइंस्टाइन, स्टीफन हाकिंग आदि मानते हैं कि विशिष्ट परिस्थितियों में समय का आचरण वह नहीं रह जाता, जैसा सामान्य अवस्था में होता है. उनके अनुसार समय स्थिति सापेक्ष है. और यदि वह स्थिति सापेक्ष है, तब उसके संदर्भ में स्वतंत्रता, स्वायत्तता जैसे विशेषण बेमानी हो जाते हैं. क्योंकि समय को यदि परिवर्तन की दर अथवा घटनाओं की प्रतीति मात्र माना जाए तो प्रत्येक वस्तु अथवा घटना के लिए स्वतंत्र समय की परिकल्पना करनी होगी. अनंत घटनाओं के लिए समय के अनंत प्रारूपों की कल्पना करने से उचित होगा कि समय को वस्तुजगत से निरपेक्ष मान लिया जाए. मान लिया जाए कि ब्रह्मांड की भांति समय भी अनंत और अपरिमेय है, जो उसके समस्त परिवर्तनों का साक्षी है. तीसरी धारणा के समर्थक विचारक वे हैं जो समय की सत्ता को घटनाओं से परे मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं, जो समय की किसी भी प्रकार की उपस्थिति को नकारते हैं. जिनके अनुसार समय मनुष्य की कल्पना या भ्रांति जैसा कुछ है, जिसे वह घटनाओं के अनुक्रम की व्याख्या के लिए अपनाता है.

समय की सत्ता के नकार अनेक लोगों को चैंका सकता है. हजारों वर्षों से चली आ रही इस मान्यता का प्रतिकार उन्हें अनोखा लगेगा ही. लेकिन हमें जानना चाहिए कि समय की सामान्य प्रतीति घटनाओं से जुड़ी है. मनुष्य परिवर्तन की रफ्तार को समझने के लिए समयबोध का सहारा लेता है. घटनाशून्य ब्रह्मांड समय शून्य होगा, इसमें भी संदेह नहीं है. हाकिंग इसी आधार पर महाविस्फोट से पहले समयशून्यता की स्थिति स्वीकार करते हैं. तो समय क्या केवल अंतराल है? घटनाओं के बीच का शून्य? निरंतर परिवर्तनकारी जगत में मनुष्य होश संभालते ही स्वयं को घटनाओं के प्रवाह में स्वयं को पाता है. उन्हीं का अवलोकन करते, हिसाबकिताब रखते हुए समय का प्रत्यय उसके अवचेतन में अनायास पैठ जाता है. चूंकि मनुष्य घटनाओं का दृष्टा ही नहीं भोक्ता भी है. इसलिए उनका प्रभाव इतना गहरा और स्थायी होता है कि उसके प्रभावक्षेत्र से बाहर आ पाना जनसाधारण तो क्या अच्छेअच्छों के लिए संभव नहीं होता. हालांकि यह आवश्यक नहीं कि मनुष्य के आसपास घटनेवाली सभी घटनाएं उसे समानरूप से प्रभावित करती हों. प्रायः दो प्रकार की घटनाएं मनुष्य के आसपास में अंतरिक्ष में घट सकती हैं. पहली वे जिनका मनुष्य से सीधा संबंध हो. दूसरी वे जिनका उससे कोई प्रत्यक्ष संबंध न हो. हालांकि यह आवश्यक नहीं कि केवल वही घटनाएं मनुष्य को प्रभावित करें, जिनका उससे प्रत्यक्ष संपर्क हो. अनेक ऐसी घटनाएं हो सकती हैं, जिनका मनुष्य से तात्कालिक रूप से कोई संबंध नहीं है, बावजूद इसके वे तात्कालिक रूप से, अथवा कुछ अंतराल के पश्चात मनुष्य को प्रभावित करती हैं. कह सकते हैं कि समय की प्रतीति प्राणी चेतना के आरंभिक बिंदू से जुड़कर अंत तक बनी रहती है. उल्लेखनीय है कि मानवमस्तिष्क घटनाओं के ही माध्यम से समय का आकलन करता है. रातदिन, ऋतुकाल, धूप, आकाश में चांदतारों की बदलती स्थितियां मस्तिक पर प्रभाव डालती हैं. उनमें से अनेक स्थितियां ऐसी होती हैं, जिनकी एक निश्चित अंतराल के बाद पुनरावृत्ति होती है. धीरेधीरे मानवमस्तिष्क उनकी तारतम्यता से अनुकूलित होने लगता है. यही अनुकूलन समयबोध के रूप मंे जाना जाता है.

समय के विवेचन का सामाजिकसांस्कृतिक पक्ष भी है. दरअसल समय के प्रत्यय का जीवन में इतने प्रकार से प्रयोग होता है कि वह सामाजिकसांस्कृतिक संबंधों के निर्धारण में प्रमुख नियामक शक्ति के रूप में नजर आता है. जन्म के साथ मनुष्य का अपने मातापिता; तथा उनके माध्यम से शेष समाज के साथ संबंध बनता है. उसी से मनुष्य के व्यक्तिगत समय की शुरुआत होती है. मृत्यु के साथ मान लिया जाता है कि संबंधित व्यक्ति का समय पूरा हो चुका है. प्राणिमात्र के संबंध में जीवन और मृत्यु यद्यपि जैविक घटनाएं हैं, जैसेजैसे मनुष्य का जीवन आगे बढ़ता है, वैसेवैसे अनेक घटनाएं उनके जीवन में घटती हैं. उनसे उसके बदलते जीवन और समय की प्रतीति होती है. वृद्धावस्था में समय जितनी तेजी से बीतता हुआ महसूस होता है, वैसा युवावस्था में नहीं हो पाता. कारण स्पष्ट है. वृद्धावस्था में मनुष्य जीवन के सूक्ष्म अवलोकन से कट जाता है. एक युवा लिए दिन का आशय सुबह व्यायाम, काॅलेज, खेल, पढ़ाई, दोस्तों से साथ मटरगश्ती, टेलीविजन, सिनेमा, पुस्तकालय आदि हो सकता है. अपने दिनभर के समय को वह इन्हीं कार्यों में बांटकर उन्हें टुकड़ेटुकड़े जीता है. वृद्धावस्था में बाहरी कार्यकलाप सिमट जाते हैं. जीवन बच्चों के साथ बातचीत, भोजन, पुरानी यादों और निद्रा में सिमट जाता है. इसलिए समय भागता हुआ महसूस होता है. यदि बीमारी हो तो बात भिन्न है. तब भी देह के बाहर समय की प्रतीति घट जाती है.

आशय है कि मनुष्य का समयबोध जीवन के व्यावहारिक पहलुओं से जुड़ा होता है. इस बीच अव्यावहारिक और अनावश्यक है उसे प्रायः छोड़ दिया जाता है. उदाहरण के लिए किसी मनुष्य की जीवनावधि जन्म से मृत्यु के क्षण तक मानी जाती है. चूंकि जन्म और मृत्यु साक्षात घटनाएं हैं, इसलिए उन्हें जीवन यात्रा के पहले और अंतिम पड़ाव के रूप में देखने की परंपरा, लगभग सभी समाजों में मिलती है. जबकि हम सभी जानते हैं कि प्राणीमात्र का जीवन गर्भाधान की प्रक्रिया संपन्न होने के साथ ही आरंभ हो जाता है. अनेक महामानव अपने विचारों और कर्म से दुनिया को अपनी मृत्यु के बाद भी प्रभावित करते हैं और इस तरह समाज में उनकी अभौतिक उपस्थिति बनी रहती है. इसके बावजूद गर्भस्थ भ्रूण की अवधि को हम मनुष्य की जीवनावधि का हिस्सा नहीं मानते. अनिश्चितता अथवा सामाजिक शुचिता के लिहाज से भी उसे मनुष्य की कुल जीवनावधि में जोड़ना उचित नहीं माना जाता.

समय को लेकर मानवमात्र की अनुभूति दो प्रकार की होती है. पहली उसके व्यक्तिगत जीवन और अनुभवों को लेकर. जिसमें वह सूरज को उदयअस्त होते देखता है. व्यक्ति की दिनचर्या सुबह के साथ आरंभ हो जाती है. दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर काम पर जाना, समयानुसार भोजन और दूसरे दायित्वों को निपटाना, फिर शाम होतेहोते घर लौटकर रात्रिविश्राम करना. इस तरह उसके दिमाग पर समय का जो प्रत्यय बनता है. उसको भौतिक समय कह सकते हैं. दूसरे शब्दों में व्यक्ति की पूरी दिनचर्या भौतिक समय के साथ एक संवाद है. उसे मनुष्य का व्यक्तिगत समय भी कह सकते हैं. लेकिन जब कोई मनुष्य समय के साथ व्यवहार करने के बजाय उसके बारे में सोचने लगता है. जब वह सोचता है कि न केवल उसका अपना जीवन बल्कि उसके साथियों, जड़चेतन सभी, जो जीवित हैं और जो नहीं हैं, वे भी जो हजारोंलाखों वर्ष पहले मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं, साथ में धरती, ग्रहनक्षत्र, चरअचर, ब्रह्मांड सभी समय के भीतर आजा रहे हैं; यानी जब वह अपने अलावा दूसरों के समय के बारे में सोचता है तो उसे समय को लेकर कुछ और ही अनुभव होता है. तब उसके मन में अपरिमेय समय की छवि आकार लेने लगती है. समय की अपरिमेयता के बोध ने ही जीवन की नश्वरता के विचार को जन्म दिया है. उसी से आदमी ने माना कि कुछ है जिसमें सब कुछ बीत रहा है. यहां तक कि उसका जीवन भी. जो इतना शक्तिशाली है कि बड़े से बड़े पहलवान को एक ही झटके में धूल चटा दे. और इतना व्यापक भी कि ब्रह्मांड की एक भी घटना, एक भी प्राणी, चरअचर उससे बाहर नहीं.

समय की अनिश्चितता के बोध ने डर को जन्म दिया. डर ने अमरत्व की कल्पना को. जरामरण से घबराए इंसान ने समय को ताकतवर सत्ता मान लिया गया. समय की मेहरबानी बनी रहे इसके लिए मनौतियां मांगी जाने लगीं. भयभीत मनुष्य समय से दोस्ती गांठने, उसके साथ सातत्य बनाए रखने की कोशिश करने लगा. समय के साथ बने रहने की चाहत ने पुनर्जन्म की संकल्पना को जन्म दिया. मृत्यु के चंगुल से पार छिटक जाने की चाहत का नाम मोक्ष पड़ा. वह अमरत्व की ऐसी कल्पना थी, जिसपर समय की मार भी बेअसर थी. समय के साथ बने रहना. उसको दौड़ में मात दे देना पुरुषार्थ का लक्षण मान लिया गया. समय के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ने वाले निस्प्रह पुरुषार्थी को कर्मयोगी कहा गया. चूंकि समय के संग दौड़ में बने रहना, सभी के लिए सदैव संभव नहीं होता. समय अच्छेअच्छों को छका देता है, कथित देवता भी उसके प्रभाव से मुक्त नहीं हैं—अतएव स्वार्थी पंडाओं ने भाग्य, प्रारब्ध, कपालरेख, नियतिचक्र, कालचक्र, गति जैसी संज्ञाओं और विशेषणों की परिकल्पना की. फलित ज्योतिष का गूदा स्वयं खाकर गुठलियां वे जनसाधारण में बांटने लगे. निराशा से उबरने के आदमी जबतब उनकी शरण लेने लगा. भाग्य कर्महीनों की शरणस्थली बना, पुरुषार्थ कर्मयोगियों की पहचान.

मानव जीवन समय से अनुशासित है. तो क्या समय की संकल्पना मनुष्य की सामाजिकता का निकष् है? क्या अकेले व्यक्ति का भी कोई समय होता है? शायद नहीं; या शायद हां? अकेले व्यक्ति के लिए भी घटनाएं होंगी. उन्हें देखकर उसको अपने आसपास गतिशीलता का आभास होगा. इससे वह वर्तमान को अपने सामने से गुजरते हुए देखेगा. यानी जैसा हमने पीछे कहा, व्यक्तिगत रूप से मनुष्य भौतिक समय के संपर्क में रहता है. मगर नितांत अकेले, मानव समाज से कटे हुए मनुष्य का समयसंबंधी सोच ठीक वह नहीं होगा, जो समाज में रहनेवाले मनुष्य का है. उसे स्मृति की आवश्यकता शायद ही पड़ेगी. चूंकि अनुभवों को बांटने के लिए दूसरा कोई नहीं होगा, इसलिए मस्तिष्क और स्मृति का उपयोग भी धीरेधीरे घटता जाएगा. इस प्रकार अकेला, समाज से कट चुका मनुष्य, पशुपक्षियों की भांति घटनाओं की तारतम्यता, उनकी परिवर्तनशीलता का बारीक हिसाबकिताब शायद ही रख पाएगा. यदि रखेगा भी तो सबकुछ गड़बड़ा भी सकता है. इसलिए कि उसके निर्णय और बोध को चुनौती देने वाला कोई न होगा. दूसरे शब्दों में समाज से कटे व्यक्ति का समयबोध हुआ भी तो वह सामूहिक समयबोध से काफी भिन्न और सीमित होगा. वह कुछ ऐसा होगा जैसी पशुपक्षियों की अंतश्चेतना, जो अपनी जैविक आश्यकताओं के आधार पर सौर दिवस में प्रकृतिचक्र से तालमेल बनाए रखती है. प्रकृति के निरंतर साहचर्य में रहते हुए वे अपनी जैविक आवश्यकताओं और परिवेश के बीच सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं. दिन की पहली झलक के साथ उन्हें भोजन की चिंता सताने लगती है. अंबर से उतरता उजाला देखते ही चिडि़याओं में उड़ान भरने का हौसला आ जाता है. पशु अपनेअपने काम की ओर निकल जाते हैं. इससे मनुष्य की समयसंबंधी अवधारणा पर सामाजिकता के प्रभाव को आंका जा सकता है. दूसरे शब्दों में मनुष्य के समयसंबंधी जो भी विचार आज हमें उपलब्ध हैं, वे समाजसापेक्ष भी हैं.

स्मृति मनुष्य के लिए प्रकृति का अनोखा वरदान है. वह घटनाओं की आवृत्ति तथा उनका क्रमानुक्रम सहेजने में सहायक सिद्ध होती है. उसके अभाव में सूरज का उगना और अस्त होना महज प्राकृतिक घटनाएं होतीं. स्मृति घटनाओं को सहेजने का दायित्व निभाती है. मनुष्य के आसपास जो घटनाएं घटती हैं, स्मृति उन्हें एकएक कर दर्ज करती जाती है. वे स्मृतियां मस्तिष्क में अपने स्वरूप एवं क्रमानुक्रम के साथ दर्ज होती जाती हैं. दो घटनाओं का अंतराल समय की प्रतीतियों को जन्म देता है. कह सकते हैं कि परिवर्तन शून्यता ही समयशून्यता है. लेकिन घड़ी की सुइयों को रोकने से समय नहीं रुकता. इसलिए परिवर्तन शून्यता का अभिप्राय प्रेक्षक और प्रेक्षित दोनों की आंतरिक और बाह्य ठहराव से है. लेकिन मानवमस्तिष्क की सीमा है कि वह अति उच्च गति और अत्यंत निम्न गति के परिवर्तनों को पकड़ नहीं पाती. खासतौर पर अकेलेपन की अवस्था में. वैज्ञानिक प्रयोग इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं. यदि घटनाओं में बहुत तेजी से परिवर्तन हो तो वे मानवमस्तिष्क पकड़ से बाहर रह जाते हैं. सिनेमा और दूरदर्शन पर दिखनेवाले धारावाहिक, चलचित्र असल में अलगअलग चित्रों की शृंखला होते हैं. उन्हें आंखों के आगे इतनी तेजी से गुजारा जाता है कि वे उनमें सातत्य, एकदूसरे से परस्पर जुड़ाव नजर आने लगता है, जिसके कारण निर्जीव आकृतियां जीवंत दिखाई पड़ने लगती हैं. दूसरे शब्दों में जो दिखता है, और जो वास्तविक है, दोनों में मूलभूत अंतर होता है. अर्थात जो दृष्टि में है, आवश्यक नहीं कि वही सृष्टि में भी हो. कलकल बहती नदी एक धारा होने का आभास कराती है. इस कारण लोग उसको पूजते भी हैं. अगर हेराक्लाइट्स की माने तो नदी असल में नदी न होकर अनगिनत जलबिंदुओं से मिलकर बना एक प्रवाह है. अपरिमित जलबिंदू लघु धाराएं बनकर नदी होने का एहसास कराते हैं. इसलिए हेराक्लाइट्स कहना था—‘हम एक ही नदी में दो बार नहीं उतर सकते.’ जब हम नदी में दुबारा प्रवेश करते हैं, पहले वाला जल कहीं आगे बढ़ चुका होता है. इससे एक धारा संदेहवाद की ओर भी जाती है. फलस्वरूप समय की सत्ता पर सवाल उठाने वालों को ठोस तार्किक आधार प्राप्त होता है. संदेहवादियों के अनुसार समय असल में अंतहीन घटनाओं से उत्पन्न प्रवाह, एक मानसिक संरचना है. ठीक वैसा ही जैसे अनेक छोटीछोटी धाराएं एवं अनंत जलकण मिलकर नदी के प्रत्यय को जन्म देती हैं. (और हिग्स बोसोन मिलकर द्रव्यमान को!)

समय का प्रत्यय व्यक्तिसापेक्ष भी होता है. यदि दो ऐसे प्रेक्षकों की कल्पना की जाए जिनमें एक पृथ्वी पर है, दूसरा पृथ्वी से लाखों किलोमीटर दूर ऐसे ग्रह पर जिसका सौरचक्र पृथ्वी के सौरचक्र से पूरी तरह भिन्न है, तो दोनों के समयबोध में पर्याप्त अंतर होगा. आइंस्टाइन के अनुसार यदि दो प्रेक्षक एक दूसरे के सापेक्ष असंभव तीव्र गति से जा रहे हों तो दोनों के समयबोध में काफी अंतर होगा. उस अवस्था में यदि कोई अंतरिक्षयात्री पृथ्वी पर मौजूद प्रेक्षक से घड़ी मिलाकर अतितीव्र गति से यात्रा पर निकलता है तो, उसकी घड़ी, पृथ्वी पर मौजूद प्रेक्षक की घड़ी की अपेक्षा कम समय बताएगी. आइंस्टाइन इसे ‘समय का सिकुड़ना’ कहते हैं. आइंस्टाइन ने प्रकाश गति को व्यवहार में असंभव माना है. फिर भी यदि कल्पना की जाए कि दो प्रेक्षकों की सापेक्षिक गति प्रकाश वेग के बराबर हो तो उनका समयबोध शून्य होगा. कारण स्पष्ट है, प्रकाशवेग को सृष्टि का उच्चतम वेग माना गया है, कोई भी घटना उससे तेज गति से चल ही नहीं सकती. इसलिए प्रकाशगति से दौड़ रहे प्रेक्षक तक घटनासंबंधी सूचना पहुंच ही नहीं पाएगी. साफ है कि स्वतंत्र या स्वच्छंद समय जैसा कुछ नहीं होता. समय न केवल व्यक्तिसापेक्ष होता है, बल्कि परिस्थिति सापेक्ष भी होता है. चूंकि समय का आभास घटनाओं के माध्यम से होता है, उसकी सीधी अनुभूति का कोई माध्यम ही नहीं है, चूंकि प्रकाश गति से दौड़ने के कारण कोई घटना उस तक पहुंच ही नहीं पाएगी, इसलिए गतिमान प्रेक्षक के लिए शेष ब्रह्मांड की घटनाएं शून्य प्रतीत होंगी. तदनुसार समय उसको ठहरा हुआ नजर आएगा.

जिस प्रकार घनत्व, द्रव्यमान, आयतन आदि को पदार्थ से अलग करके देखना असंभव है, उसी प्रकार घटनाओं अथवा परिवर्तन को अवधि निरपेक्ष कर पाना असंभव है. एक सवाल यह भी किया जा सकता है कि क्या किसी मनुष्य को समयशून्य स्थिति में ले जाया जा सकता है. उत्तर ‘न’ में मिलेगा. चूंकि मनुष्य का परिवर्तनशून्य स्थिति में जाना संभव नहीं है, इसलिए समयशून्यता भी असंभव है. उदाहरण के लिए एक प्रेक्षक को अंधेरे बंद कमरे में कैद करके बाहरी जगत से उसका संपर्क बिलकुल काट दिया जाए. उस अवस्था में उसका व्यक्ति का व्यावहारिक समयबोध समाप्त हो जाएगा. किंतु शेष सृष्टि किसी न किसी रूप में उससे जुड़ी रहेगी. उसका शरीर उसकी क्रियाएं निंरतर चलती रहेंगी. व्यक्ति प्राकृतिक घटनाओं तथा उनसे जन्मे समयबोध की ओर से भले ही संवेदन शून्य हो जाए, विश्व के लिए वह समय का वैसा ही हिस्सा बना रहेगा. यह भी संभव है कि एक अवधि के बाद उसकी जैविक घड़ी रातदिन तथा भौतिक जगत की अन्य दृश्यमान घटनाओं से संचालित होने के बजाय, केवल भूखप्यास तथा अन्य शारीरिक प्रक्रियाओं से नियंत्रित होने लगे. क्योंकि प्रकृति को देखकर समय का अनुमान लगाने वाली उसकी जैविक घड़ी भौतिक घटनाओं से कटते ही गड़बड़ा सकती है. लंबे समय तक प्रकृति से कटे रहने पर उसमें स्थायी व्यवधान भी आ सकता है. इसके बावजूद व्यक्ति के लिए समयशून्य स्थिति असंभव होगी. क्योंकि जीवन के रहते परिवर्तनशून्यता से मुक्ति असंभव है. दो घटनाओं अथवा परिवर्तन के अंतराल के रूप में समय का बोध लगातार बना रहेगा. दूसरे शब्दों में घटनाओं की क्रमानुक्रमता ही समयबोध के रूप में विकसित होती है. बातचीत के दौरान सामने वाला व्यक्ति उन घटनाओं को उसी क्रमानुक्रम में ग्रहण करता है. इसलिए घटना के साथ उनके अंतराल के रूप में उनसे संबद्ध समयबोध भी बड़ी आसानी से दूसरे के मनमस्तिष्क पर छा जाता है. अकेलेपन की अवस्था में ऐसा समयबोध अस्थायी होगा. तब व्यक्ति घटनाओं का प्रेक्षकभर होता. क्योंकि उपयोग न होने के कारण उसकी स्मृति शायद ही विकसित हो. इस उदाहरण से समय की निरपेक्षता का सवाल खटाई में पड़ने लगते हैं और वह स्वतंत्र सत्ता न होकर परिवर्तनों का प्रभाव उसी प्रकार जैसे घनत्व, द्रव्यमान, आयतन आदि हैं—नजर आने लगता है.

अनेक विद्वान भौतिक समय अथवा समय की प्रवाहशीलता के विचार से सहमत नहीं हैं. समय को मिनट, सैकिंड, पलअनुपल में बांटने का विचार उन्हें स्वीकार नहीं है. उनके अनुसार समय से ऐसा भौतिक आचरण अनपेक्षित है. समय उनके लिए अनुभूति का विषय है. उनके अनुसार समय ब्रह्मांडीय विस्तार जैसा ही निस्सीम और शाश्वत है, जिसमें सबकुछ घटता है. ऐसा कुछ भी नहीं जो समय की व्याप्ति से परे हो. ब्रह्मांड की प्रत्येक हलचल उसमें समाई है. इस मान्यता के अनुसार समय का आकलन संभव नहीं. मनुष्य उसकी निस्सीमता का मात्र अनुभव कर सकता है. घटनाएं उसके अनंत महासागरीय विस्तार में आतीजाती क्षुद्र डांेगियों के समान हैं. भूत, वर्तमान और भविष्य का कालविभाजन यद्यपि इस मान्यता में भी है. इसलिए नहीं कि वह समय की विशेषता है. बल्कि इसलिए कि वह मनुष्य की व्यावहारिक जरूरत है. सांत मानवेंद्रियों द्वारा अनंत समय से तालमेल बनाए रखने की चेष्ठा! इसलिए भूतवर्तमानभविष्य आदि समय के स्वतंत्र प्रखंड न होकर उसकी निस्सीमता में समाहित हैं. समय के प्रत्यय की तार्किक विवेचना के लिए ये निष्कर्ष बहुत काम के हैं. जिसपर हम आगे विचार करेंगे.

जो भी हो, समय अपने आप में रोचक पहेली है. प्राचीन मनीषियों ने मतवैभिन्न्य को बौद्धिकता के लक्षण के रूप में स्वीकार किया है—‘न एको मुनिस्र्य मर्तिभिन्ना.’—यानी ‘एक भी विचारक ऐसा नहीं है, जो अपनी स्वतंत्र राय न रखता हो.’ समय को लेकर भी ऐसे ही विभिन्न मतमतांतर हैं. जिनमें तीन प्रमुख हैं. पहला है घटनाओं को आगे रखकर समय का आकलन करना. जैसे एक लेख की तैयारी के लिए कल मैं पुस्तकालय गया था. आज मैं यह लेख लिख रहा हूं. लेख के प्रकाशित होने के बाद यह पाठकों के हाथ तक पहुंचेगा. ये घटनाएं आगेपीछे की हैं. समय इनके होने के और बीच के अंतराल को तय करता है. तदनुसार उसका भौतिक अस्तित्व है. दूसरी प्रविधि समय को केंद्र में रखकर घटनाओं को परखने की है—जैसे प्राचीन समय में आदिमानव आग जलाने के लिए पत्थर के टुकड़ों को रगड़ता था. गौतम बुद्ध ने गणिका आम्रपाली को धर्मोपदेश दिया था. गुरु नानक ने सिख धर्म की नींव रखी. भारत द्वारा छोड़ा गया यान मंगल की कक्षा में, उसकी परिक्रमा कर रहा है. यदि विश्वयुद्ध हुआ तो करोड़ों लोग तबाह हो सकते हैं. रात्रि के दस बजे हैं और मैं अपने लेख को पूरा करने के लिए कलम घसीट रहा हूं, अमेरिका में सुबह दस्तक दे चुकी है. चांदनी रात का आनंद लेने के लिए कुछ लोग इंडिया गेट पर घूम रहे हैं. समय की निस्सीमता में घट रहीं, घट चुकीं या घटनेवाली ये घटनाएं ऐसी हैं, जिनका कोई न कोई साक्षी है या होगा. इनमंे आगेपीछे की अनुभूति मानवमस्तिष्क तय करता है. तदनुसार समय ब्रह्मांडतुल्य रचना है. सृश्टि की समस्त हलचल को अपने भीतर समेटे हुए. इसमें सभी घटनाएं जो समय के विभिन्न कालखंडों में घटीं, उनके अलावा कोटिक अन्यान्य घटनाएं भी रही होंगी,कृस्वतः समाहित हैं. दूरदर्शन पर प्रसारित लोकप्रिय धारावाहिक ‘महाभारत’ में उद्घोषक हरीश भिमाणी की गूंजती हुई आवाज ‘मैं समय हूं’ समय की इसी निस्सीमता का बखान करती थी. इस सैद्धांतिकी में कालविभाजन अमान्य है. यह समय की चिंरतनवादी अवधारणा है. पहली ने इतिहास को जन्म दिया. दूसरी ने दार्शनिक चिंतना को. तीसरा दृष्टिकोण उन विद्वानों का है जो समय के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगाते हैं. उनके अनुसार समय सिवाय मानसिक संरचना के कुछ नहीं है. वह केवल परिवर्तनशीलता का प्रभाव है. जैसे द्रव्यमान वस्तुओं का गुण है, वैसे ही समय परिवर्तनशीलता का लक्षण है. यह भौतिकवादी दृष्टिकोण है. इसके माननेवाले संख्या में कम हैं, लेकिन तार्किक आधार पर यह किसी भी जनोन्मुखी विचार से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है. इन सबके बावजूद समय आज भी अबूझ पहेली बना हुआ है.

समय के बारे में पहला वस्तुनिष्ठ चिंतन बौद्ध दर्शन में मिलता है. न्याय दर्शन में उसी को विस्तार दिया गया है. पश्चिम विचारकों में प्लेटो, अरस्तु, यूडीपियस, न्यूटन, जीनो, ह्यूम, बर्कले, कांट, हीगेल, हाकिंग आदि ने भी समय को लेकर स्वतंत्र रूप से विचार किया है. कुछ संदेहवादी दार्शनिक भी हुए हैं, जिन्होंने समय के अस्तित्व पर ही सवाल उठाए है. लेकिन समय के बारे में पहली बार सुनिश्चित चिंतन बीसवीं शताब्दी में आरंभिक दशकों में आया. उसके पीछे आइंस्टाइन के सापेक्षिकतावाद की प्रेरणा थी. जैसा कि हम सभी जानते हैं आइंस्टाइन ने समय को चौथा आयाम मानते हुए उसकी शाश्वत सत्ता में विश्वास प्रकट किया था. समय की कुछ गांठों को पहचानने की कोशिश हम इस लेखमाला के अगले हिस्से के रूप में करेंगे.

© ओमप्रकाश कश्यप

संदर्भ

1. वैराग्य शतक, 12/1045 भर्तृहरि

2. The nature of living being was eternal, and it was not possible to bestow this attribute fully on the created universe; but he determined to make a moving image of eternity, and so when he ordered the heavens he made in that which we call time an eternal moving image of the eternity which remains for ever at one. Plato in Timaeus. trans by Desmond Lee.

3. Whether, if soul (mind) did not exist, time would exist or not, is a question that may fairly be asked; for if there cannot be someone to count there cannot be anything that can be counted…”Aristole, Physics, chapter 14.

ईश्वर : एक अवैज्ञानिक धारणा

क्या ईश्वर बुराई पर अंकुश लगाना चाहता है, लेकिन लगा नहीं सकता?

तब वह सर्वशक्तिमान नहीं है.

क्या वह अंकुश लगा सकता है, लेकिन उसकी इच्छा नहीं है?

तब वह विद्वेषी है.

वह कर सकता है और करने की इच्छा भी रखता है?

तब ये ढेर सारी बुराइयां कहां से आती हैं?

वह न तो कर सकता है, न ही करने की इच्छा रखता है?

तब उसे ईश्वर क्यों माना जाए?

              —एपीक्यूरस, लेक्टेंटियस द्वारा ”आ॓न दि एंगर आ॓फ गॉड”, 13.19.

स्पर्धा आधुनिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का सबसे कारगर उपकरण है. एक तरह से मूलमंत्र. मान लिया गया है कि स्पर्धा रहेगी, तब तरक्की होगी. प्रतिभाशाली लोग आगे आएंगे. लोगों को अच्छे उत्पाद सस्ते मूल्य पर प्राप्त हो सकेंगे. इसलिए जो इस व्यवस्था को अपनाता है, जाने-अनजाने स्पर्धा में शामिल हो ही जाता है. लोग स्पर्धा को विकास का मूलमंत्र मानना चाहते हैं, मानें. उसमें सफलता व्यक्ति के प्रतिभा-कौशल से तय नहीं होती. वास्तविक परिणाम स्पर्धारत व्यक्ति/व्यक्ति-समूहों की आर्थिक-सामाजिक हैसियत पर निर्भर करते हैं. उन प्रक्रियाओं द्वारा तय होते हैं, जिन्हें साधारण भाषा में मौकापरस्ती कहा जाता है. दो उद्योगपति इसलिए स्पर्धा में रहते हैं, ताकि बाजार के अधिकतम हिस्से पर कब्जा कर, वहां अपने एकाधिकार का परचम लहरा सकें. भूखों की स्पर्धा उन्हें अपनी थाली में कटौती के साथ जैसे-तैसे जीते जाने की मजबूरी की ओर ढकेल देती है. मार्क्स के अलावा मिखाइल बकुनिन, विल्फ्रेद परेतो, जीतान मोसका आदि ने स्पर्धा की प्रवृत्ति का विद्वतापूर्ण विश्लेषण किया है. उनके अनुसार स्पर्धा असमान व्यक्तियों की बेमेल प्रतियोगिता है. उसका परिणाम असमानता की खाई के उत्तरोत्तर चौड़े होने के रूप में सामने आता है. चूंकि स्पर्धा लोकतांत्रिक मूल्यों एवं समानाधिकार के प्रसाद के रूप में व्यवहृत होती है, इसलिए उसका विरोध लोकतंत्र का प्रतिवाद मान लिया जाता है. शिखर तक पहुंचने तथा वहां टिके रहने की स्पर्धा में व्यक्ति को अनेक समझौते करने पड़ते हैं. कई बार सामान्य नैतिकता सहित उन मूल्यों को भी दांव पर लगाना पड़ता है, जिनके प्रति प्रतिबद्धता उस अभियान का औचित्य रही है. यह सब याद आया हिंदी के चर्चित ब्लॉग ‘साइंटिफिक वर्ल्ड’ चल रही एक बहस को पढ़कर. इस ब्लॉग पर एक चौंकाऊ, विज्ञान के नाम पर अवैज्ञानिक बहस पिछले दिनों ऐसे देखने को मिली, जैसे टीआरपी बढ़ाने के लिए टीवी चैनल सामान्य सूचनाओं को भी ‘न भूतो न भविष्यति’ कहकर परोस देते हैं. भले ही यह अनजाने में हुआ हो अथवा अतिउत्साह में, नजर साफ आ रहा था.

पिछले दिनों ‘साइंटिफिक वर्ल्ड’ पर दो आलेख प्रकाशित हुए हैं, उनमें पहला आलेख के पी सिंह का ‘क्या ईश्वर को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित किया जा सकता है?’ दूसरे आलेख, ‘ईश्वर की अवधारणा: विज्ञान की कसौटी!’ के लेखक विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी हैं. दोनों आलेख ईश्वरवादियों की ओर से लिखे गए हैं, इसलिए उनमें ईश्वर की सत्ता पर संदेह कम, विश्वास और आस्था की अभिव्यक्ति अधिक है. दोनों विद्वान आस्था-मंडित हैं. ईश्वरत्व में संदेह उन्हें छू भी नहीं पाया है. इसलिए दोनों अपनी-अपनी तरह से ईश्वर को प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं. मगर इकतरफा होने के कारण दोनों लेख ईश्वर-प्रचारक मंडली के प्रवचन बन जाते हैं. विज्ञान के नाम पर अवैज्ञानिकता का आशय यही है. लेखों में दिए गए तर्क भी नए नहीं हैं. कथावाचक किस्म के ‘गुरु महाराज’ ऐसे तर्क देते ही रहते हैं. के. पी. सिंह जिस आस्था को प्रश्नवाचक चिह्न के साथ आरंभ करते हैं, वैसी ही आस्था चतुर्वेदी जी के लेख में विस्मयादिबोधक चिह्न के साथ नजर आती है. गोया लेखों को विज्ञान की श्रेणी में लाने के लिए वे संदेह का हिस्सा पाठक के लिए छोड़ देना चाहते हैं. आपत्तिजनक यह नहीं है कि ब्ला॓ग पर दो ईश्वरवादियों ने अपने-अपने तर्क जुटाए हैं. निस्संदेह जैसा वे सोचते और महसूस करते हैं, उसको अभिव्यक्त करने का उन्हें पूरा-पूरा अधिकार है. आपत्तिजनक यह है कि इन लेखों को ऐसे ब्ला॓ग पर जगह मिली है जो स्वयं को विज्ञान के प्रति समर्पित बताकर बौद्धिक जड़ता एवं पाखंड के विरोध का अभियान चला रहा है. इसी प्रतिबद्धता के चलते उसको हजारों पाठक मिले हैं.

इन लेखों की कमजोरी है कि उनकी सामग्री उनके अपने ही शीर्षक से मेल नहीं खाती. शीर्षक से लगता है कि उनमें विषय का वस्तुनिष्ट विवेचन देखने को मिलेगा, मगर असलियत में सारे तर्क एकतरफा होने से लेख पूरी तरह आत्मपरक, निजी आस्था की प्रस्तुति तक सिमट गए है. दोनों में कहीं भी शंका अथवा संदेह को जगह नहीं है. इस विषय पर ऐसे लेखों की कमी नहीं है जिनमें लेखक पूर्वाग्रह अथवा पूर्व निष्पत्ति के साथ लिखना आरंभ करता है. अपने मत के समर्थन में जो भी तर्क जंचते हैं उन्हें सामने रखता जाता है. मगर पूर्वाग्रहों के दबाव में उस सामग्री की वस्तुनिष्ट समीक्षा करना भूल जाता है, जिसे उसने अपने मत के समर्थन में बतौर उद्धरण प्रयुक्त किया है. विचाराधीन आलेखों में से पहले में भारतीय संदर्भ अधिक हैं तो दूसरे में पाश्चात्य विद्वानों को अपने समर्थन में दिखाने की कोशिश की गई है.

 विज्ञान संदेह के साथ शुरू होता तथा उसी के साथ आगे बढ़ता है. उसमें ठहराव की स्थिति कभी नहीं आती. किसी वैज्ञानिक सत्य पर भरोसा करने से पहले प्रत्येक को उसे जांचने-परखने तथा प्रयोगों की कसौटी पर कसने की छूट प्राप्त होती है. ईश्वर एवं मानवीय आस्था के बीच विज्ञान को न लाएं तो भी उसके अस्तित्व पर संदेह एवं तदनुरूप उठनेवाली बहस नई नहीं है. भारत में भी ढाई-तीन हजार वर्षों से यह बहस लगातार चली आ रही है. वैदिक काल में ईश्वरवादी धारणा का खंडन करने वाले आजीवक और लोकायती संप्रदाय थे. वहीं आस्थावादियों के समर्थन में वैदिक धर्म की अनेक शाखाएं थीं. दर्शन की दृष्टि से वह भारतीय मेधा का सबसे प्रस्फुटनकारी दौर था. उसी दौर में वेदों को आप्त-ग्रंथ की संज्ञा दी गई. उन्हें दैवी उपहार माना गया. श्रद्धालु आचार्यों का एक वर्ग ‘आस्तिक’ बनाम ‘नास्तिक’ की बहस में वेदों को आप्तग्रंथ मनवाने जुटा रहा. बावजूद इसके नास्तिक दर्शनों की प्रतिष्ठा उतनी ही बनी रही, जितनी आस्तिक दर्शनों की थी. विचारों के उस लोकतंत्र ने सांख्य जैसे निरीश्वरवादी दर्शन को जगह थी तो कर्मकांड प्रधान मीमांसा दर्शन को भी. वैदिक धर्मों के विचलन के दौर में उभरे जैन और बौद्ध दर्शन ने ‘आत्मा’ और ‘ईश्वर’ पर केंद्रित बहसों में उलझने के बजाए मनुष्य के आचरण को महत्त्वपूर्ण माना. उन्होंने सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह आदि पर जोर देकर नैतिक एवं समाजोन्मुखी, जीवन जीने का आवाह्न किया. मानो सभ्यताओं के तार आपस में जुड़े हुए थे. लगभग उन्हीं दिनों भारत से हजारों मील दूर यूनान में भी कुछ वैसा ही हुआ. ईसा पूर्व छठी शताब्दी में वहां सुकरात, प्लेटो, जीनोफेन जैसे विचारकों ने अभिजन संस्कृति का पोषण करने वाले परंपरावादी सोफिस्टों को चुनौती दी. सुकरात ने ईश्वर को शुभ का पर्याय माना तथा उसकी प्राप्ति के लिए सद्गुण और सदाचरण पर जोर दिया. गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, सुकरात, कन्फ्यूशियस, प्लेटो जैसे दार्शनिकों का नैतिक प्रभामंडल इतना तेजोमय था कि उसका प्रभाव शताब्दियों तक बना रहा. आज भी ईसा से तीन से छह शताब्दी पूर्व का वह समय विश्व-इतिहास में बौद्धिक क्रांति का सफलतम दौर माना जाता है. आगे चलकर जितने भी राजनीतिक-सामाजिक दर्शन सामने आए, वे भी जो विश्व-परिदृश्य में परिवर्तन के वाहक बने, सभी की नींव इस दौर में पड़ चुकी थी.

विद्वान लेखकों द्वारा दिए गए तर्कों में प्रत्येक पर स्वतंत्र रूप से चर्चा संभव है. तथापि इस लेख की सीमा को ध्यान में रखते हुए मैं केवल स्टीफन डी. अनविन के उद्धरण की ओर दिलाना चाहूंगा. स्टीफन अनविन ने विशेषरूप से पुस्तक लिख, ‘ईश्वर के पक्ष-विपक्ष में आंकड़े जुटाकर ईश्वर के होने की प्रायिकता 67 प्रतिशत’ सिद्ध की है.’ मैंने वह पुस्तक नहीं पढ़ी है, किंतु उसपर पर्याप्त समालोचनात्मक सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध है. इस आलेख में आए गणितीय संदर्भ वहीं से लिए गए हैं. मेरी कोशिश उसी को आगे बढ़ाने की है, ताकि अनविन द्वारा प्राकलित ईश्वर की 67% प्रायिकता का सच पाठकों के सामने आ सके. अनविन भौतिक विज्ञानी हैं. डा॓क्ट्रेट उन्होंने सैद्धांतिकी भौतिकी की शाखा ‘क्वांटम गुरुत्च’ में की है. प्रसंगवश बता दें कि यह विज्ञान की वही शाखा है जिसके अंतर्गत आजकल विश्व-प्रसिद्ध ‘लार्ज हैड्रा॓न कोलीडर’ नाम का दीर्घकालिक और महत्त्वाकांक्षी प्रयोग चल रहा है. उससे जुड़े वैज्ञानिकों ने द्रव्यमान का कारण कहे जानेवाले मूलकण यानी ‘हिग्स बोसोन’ की खोज का दावा किया, जिसे वस्तुओं में भारता के लिए जिम्मेदार माना जाता है. विज्ञान की चुनौतियों के आगे लड़खड़ा रहे आस्थावादी यहां भी क्यों चूकने वाले थे. वैज्ञानिक अपने प्रयोग के आरंभिक निष्कर्षों के पुनरीक्षण में जुटे ही थे कि आस्थावादियों ने उसे तुरत-फुरत ‘गॉड पार्टिकिल’ का नाम दे दिया. जिसका हिग्स बोसोन की खोज में जुटी प्रयोगशाला सर्न के वैज्ञानिकों ने जोरदार विरोध किया. प्रयोगशाला से जुड़े वरिष्ठ अमेरिकी वैज्ञानिक पोलीन गा॓नन से 2011 में यूरोप के रेडियो पत्रकार ने जिनेवा में एक साक्षात्कार के दौरान जब कहा, ‘मैं मीडिया से हूं और मैं उसे यही(गॉड पार्टिकिल) कहता रहूंगा.’ तब गा॓नन का जवाब था, ‘यह सब आप ही का दिया गया नाम है….मैं इससे घृणा करता हूं.’ वैज्ञानिकों के न चाहने के बावजूद हिग्स बोसोन को ‘गॉड पार्टिकिल’ कहने का षड्यंत्र आज भी चल रहा है. षड्यंत्र इसलिए क्योंकि धर्मसत्ता, राजसत्ता, अर्थसत्ता और उनसे पालित-पोषित मीडिया में से कोई नहीं चाहता कि जनता विज्ञान को विज्ञान की तरह जाने. उसका विवेकीकरण हो. इसलिए वैज्ञानिक शोधों को तत्काल अपने पाले में खींच लेने, उनका तेज कम करने तथा उनसे लाभ उठाने की प्रवृत्ति प्रायः सभी समाजों में रही है. इससे धर्मग्रंथों का मूल संदेश गंडे-ताबीजों में कैद होकर रह जाता है. कंप्यूटर जन्मपत्री बनाने लगता है और टेलीविजन पर बाबा लोग भविष्य सुधारने का धंधा करने लगते हैं.

अनविन संयुक्त राष्ट्र के ऊर्जा विभाग के दूत रह चुके है. आजकल वे एक सलाहकार फर्म का संचालन करते हैं, जिसका काम विश्व की नामी-गिरामी पूंजीपति कंपनियों को आपदा प्रबंधन के मामले में सलाह देना है. अनविन की एक चर्चित पुस्तक The Probability of God: A Simple Calculation That Proves the Ultimate Truth. 2003 का उल्लेख चतुर्वेदी जी ने अपने आलेख में किया है. यह उनकी अध्ययनशीलता को दर्शाता है. अपनी पुस्तक में अनविन ने ईश्वर के अस्तित्व की संभाव्यता को गणित के माध्यम से सिद्ध किया है. इस निष्कर्ष में उनके व्यावसायिक स्वार्थ छिपे होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता. आपदा को ईश्वरीय कर्म सिद्ध कर देने से प्रबंधकीय कौशल पर लगनेवाले आरोप कम हो जाते हैं. शायद इसलिए वे ईश्वर के विचार को उसी प्रकार जीवित रखना चाहते हैं, जैसे अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए ज्योतिषी प्रारब्ध की संकल्पना को ऊल-जुलूल तर्क देकर पालता-पोषता है. हालांकि अनविन ने स्पष्ट किया है कि उन्होंने जो समीकरण दिए हैं, वे आवश्यक नहीं कि पूरी तरह खरे, अंतिम सत्य हों. वे केवल एक पक्ष यानी उस पक्ष को जो ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखता है, अपनी बात को और अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिए कुछ उपकरण उपलब्ध करा रहे हैं. वे यह भी लिखते हैं कि ईश्वर विषयक विज्ञान की सभी मान्यताएं अधूरी हैं. अर्थात जिन संकल्पनाओं पर चलते हुए अनविन ईश्वरत्व की संभावना को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 67 प्रतिशत तक आंकते हैं, दूसरा उन्हीं संकल्पनाओं को अपनी तरह से प्रस्तुत कर, उनसे नए निष्कर्ष निकाल सकता है. वे भी गणितीय मापदंड पर उतने ही खरे उतरेंगे, जितने स्वयं अनविन के. कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसा हुआ है. उसकी चर्चा हम यथास्थान करेंगे. कुल मिलाकर मामला वहां भी आस्था का और आस्थावादियों के लिए है, गणित का नहीं.

अब बात उस गणित की जिसके आधार पर अनविन ने ईश्वर की प्रायिकता को कथितरूप से 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 67 प्रतिशत कर दिया है. पहले तो यह जान लें कि अनविन ईश्वर की 50 प्रतिशत संभाव्यता तक किस प्रकार पहुंचे हैं. इसके लिए उन्होंने न तो कोई सर्वे किया है, जो सांख्यिकी का मूल कर्म है, न ही किसी और माध्यम से आंकड़े जमा किए हैं. केवल काम-चलाऊ प्रतीतियों के सहारे अपने मंतव्य को गढ़ा है. यह साधारण से साधारण व्यक्ति भी जानता है कि ईश्वर को लेकर दो प्रकार की संभावनाएं बनती हैं. पहली, ईश्वर हो सकता है. और दूसरी ईश्वर नहीं हो सकता. इस तरह ईश्वर के होने या न होने की मूल प्रायिकता बराबर-बराबर अर्थात पचास प्रतिशत है. सिवाय संभाव्यता के अलावा इसके पीछे कोई और तर्क नहीं है. एक तरह से यह अनविन की मजबूरी भी थी. क्योंकि प्रायिकता को बढ़ाने के अनविन जिस गणितीय सूत्र का सहारा लेता है, वह सांख्यिकी-विद् रेवरेंड थामस बा॓यस का है. वह सूत्र तभी काम कर सकता है जब उसके लिए आधार अथवा प्राथमिक संभाव्यता मौजूद हो. इसलिए उन लोगों के लिए जो ईश्वर की संभावना को शून्य अथवा नगण्य मानते हैं, यह सूत्र और प्रकारांतर में अनविन के निष्कर्ष, किसी काम के नहीं हैं. उल्लेखनीय है कि जब कोई गणितज्ञ सांख्यिकीय आकलन करता है तो उसके आंकड़े किसी न किसी रूप में समाज से, अथवा किसी वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा ठोस परिगणनाओं के आधार पर जुटाए गए होते हैं. वे किसी व्यक्ति-विशेष के बारे में सत्य भले ही न हों, मगर वास्तविकता का एक सामान्य चित्र हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं, जो सामाजिक अध्ययन में बहुत कारगर सिद्ध होते हैं. उससे प्राप्त निष्कर्ष किसी न किसी सामाजिक यथार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं. आगे बढ़ने से पहले बा॓यस के सूत्र के बारे में जान लेना आवश्यक है. इसके लिए पहले कुछ उदाहरण—

मान लीजिए एक घर है. जिसका दरवाजा खुला हुआ है. एक आदमी उस घर में घुसता है. उसको किसी ने बाहर आते हुए नहीं देखा. तब उस व्यक्ति की, जब तक कोई और साक्ष्य न हो, घर में होने तथा न होने की संभावना बराबर-बराबर यानी पचास प्रतिशत होगी. सूत्र के गणितीय हिस्से पर आने से पहले एक और स्थिति. मान लीजिए एक व्यक्ति हर रोज घर में कुछ न कुछ फल लेकर अवश्य आता है. परिवार में दो बच्चे हैं. उनमें एक को केला पसंद हैं, दूसरे को अनार. व्यक्ति दोनों का मन रखने के लिए एक दिन केले लेकर आता है, दूसरे दिन अनार. इस तरह उसके किसी एक दिन केला या अनार लाने की संभावना 0.5 अर्थात 50 प्रतिशत होगी. पापा केला लाएंगे या अनार, यह बात बच्चे भी जानते हैं. एक दिन भाई-बहन छत पर थे कि पापा को हाथ में थैला लिए आते देखा. दोनों बच्चे बहस करने लगे—

‘आज पापा केला लाए हैं.’

‘नहीं अनार.’

‘पापा का फोन आया था, उस समय वे केले वाले के पास खड़े थे.’

‘तो क्या हुआ, जरूरी थोड़े ही पापा केले वाले के पास से केला लेकर ही आएं. वे केला बेचनेवाले से मना करके अनार वाले के पास भी जा सकते हैं.’

‘पापा जिस ठेली के पास खडे़ होते हैं, वहीं से फल खरीद लेते हैं.’

‘हमेशा ऐसा नहीं होता. एक बार मैंने स्वयं पापा को केले वाले को छोड़ अनारवाले के पास जाते हुए देखा था.’

अब मान लीजिए जहां से उन बच्चों के पिता फल खरीदते हैं, वहां केवल दो फलवाले खड़े होते हैं. उनमें से एक अनार बेचता है और दूसरा केला, तो जो बच्चा अपने पक्ष में अतिरिक्त तर्क दे पाएगा, उस दिन उस फल को लाने की संभावना उतनी ही बढ़ जाएगी. अनविन का 50 प्रतिशत वाला विचार यही कहता है. मान लीजिए लोगों से पूछा जाए कि ईश्वर है? कुछ लोग कहेंगे—‘हां’, कुछ कहेंगे—‘नहीं.’ जरूरत इस कवायद की भी नहीं है. आप एक सिक्का लीजिए, उछालिए. हेड और टेल आने की प्रायिकता बराबर होगी. अनविन ईश्वर न होने की संभावना को किनारे कर, शेष पचास प्रतिशत को उसके पक्ष में प्रमाण मान लेता है. यही उसके अनुसार ईश्वर की आधार प्रायिकता है. इस 50 प्रतिशत को 67 प्रतिशत तक पहुंचाने के लिए वह आगे भी ऐसी ही पूर्वापेक्षाओं का सहारा लेता है. जबकि बायस संभावनाओं की पड़ताल के लिए स्थितिजन्य साक्ष्य प्रस्तुत करता है. ठीक ऐसे ही जैसे कोई चतुर पुलिस अधिकारी किसी घटना की पड़ताल करता है.

कल्पना कीजिए प्लेटफार्म पर उतरता हुआ कोई आदमी चलती ट्रेन में खिड़की के बराबर बैठे एक पुरुष को अपने सहयात्री से बातचीत करते हुए देखता है. इससे पहले कि वह दूसरे व्यक्ति को पहचान पाए कि वह स्त्री है अथवा पुरुष, ट्रेन आगे बढ़ जाती है. दृष्टा इतना तो जान चुका है कि खिड़की के बराबर में बैठा यात्री पुरुष था. लेकिन जिससे वह बात कर रहा था, वह पुरुष भी हो सकता है, स्त्री भी. उसके स्त्री अथवा पुरुष होने की प्रायिकता बराबर, अर्थात पचास प्रतिशत होगी. अब यदि कोई तीसरा व्यक्ति दृष्टा से उन यात्रियों के बारे में पड़ताल करना चाहे तो उनकी बातचीत कुछ इस प्रकार होगी—

‘अच्छी तरह याद करके बताओ, दूसरा व्यक्ति पुरुष था अथवा स्त्री?’

‘मुझे याद नहीं आ रहा.’

‘ठीक है, दिमाग पर जोर डालो, याद करने की कोशिश करो. तुमने उसके बाल तो देखे ही होंगे. वे लंबे था या छोटे?’ पड़ताल कर रहा व्यक्ति अपनी तकनीक आजमाता है. जांचकर्ता का तर्क उसके ठोस अनुभवों पर आधारित है.

‘लंबे.’ दृष्टा को याद आता है. जांच करने वाला जानता है कि सामान्यतः स्त्रियां लंबे बाल रखती हैं. लेकिन सभी स्त्रियां बाल नहीं रखतीं. औसतन कितनी स्त्रियां लंबे बाल रखती हैं, इसके आंकड़े उसके पास हैं. यदि नहीं तो जुटाए जा सकते हैं. वह प्राप्त आंकड़ों से मिलान करके देखता है. लंबे बाल रखनेवाले हर चार व्यक्तियों में से आमतौर पर एक पुरुष होता है, तीन स्त्रियां. वह हिसाब लगाता है. उसके अनुसार जिस व्यक्ति से वह बातचीत कर रहा था उसके स्त्री होने की संभावना चार में से तीन, यानी 75 प्रतिशत है. प्रायिकता को बढ़ाने के लिए जांचकर्ता कुछ और सवाल कर सकता है. जैसे क्या उसने हाथ रचाए हुए थे? ऐसे साक्ष्यों के साथ प्रायिकता में आनुपातिक रूप से वृद्धि अथवा कमी आती जाएगी. बा॓यस के सूत्र का यही आधार है. इसी को विस्तार देते हुए वह स्थिति-विशेष के समर्थन में साक्ष्य जुटाता है और विशुद्ध गणितीय पद्धति का अनुपालन करते हुए सामान्य निष्कर्ष तक पहुंचता है.

बा॓यस के अनुसार यदि हम मान लें कि बातचीत स्त्री ‘स’ के साथ हो रही थी, तब यह मानते हुए कि समाज में स्त्री-पुरुष की संख्या लगभग बराबर है, बगैर किसी गहराई में जाए मान सकते हैं कि सहयात्री के स्त्री होने की प्राथमिक संभाव्यता सप्रथम= 0.5 होगी. जिसका आशय है कि पुरुष की बगल में बैठे सहयात्री के स्त्री अथवा पुरुष होने की संभावना बराबर-बराबर है. यदि यह मान लिया जाए कि उस सहयात्री के बाल लंबे थे और आंकड़ों से यह सिद्ध हो कि प्रत्येक चार स्त्रियों में से तीन(75 प्रतिशत) लंबे बाल रखती हैं तो बा॓यस के अनुसार लंबे बालों के आधार पर पुरुष के सहयात्री के, स्त्री होने की संभावना सलंब/म = 0.75 होगी. इसे बायस ने सशर्त प्रायिकता कहा है. अर्थात वह प्रायिकता जो घटना के लक्षणों तथा उपलब्ध साक्ष्यों के आधार से तय होती है. ऐसे ही जैसे मान लीजिए कि 25 प्रतिशत पुरुष लंबे बाल रखते हैं तो उपर्युक्त घटना में सहयात्री के लंबे बालों के आधार पर पुरुष होने की संभावना स/पु= 0.25 होगी. यहां यह मान लिया गया है कि बातचीत केवल स्त्री अथवा पुरुष के साथ हो रही थी, अन्य किसी प्राणी के साथ नहीं. बायस इससे अंतिम संभाव्यता अथवा कुल लाक्षणिक संभाव्यता को जानना चाहता है. इसके लिए वह निम्नलिखित सूत्र देता है—

                                                   सप्रथम x   सलंब/म

                     सअंतिम       =         ……………………….

                                                            स

                                                                     (स = कुल संभाव्यता)

                                                     सप्रथम x   सलंब/म

                                =       …………………………………………

                                             सप्रथम x   सलंब/म +   सप्रथम x स/पु

                                                0.75 x 0.50                        0.375

                                =   …………………………………… =     …………….

                                           0.50 x 0.75 + 0.50 x 0.25         0.500

                                                                                     = 75 % लगभग

इस तरह लंबे बाल के साक्ष्य के आधार पर उपर्युक्त उदाहरण में सहयात्री के स्त्री होने की संभावना 50% से बढ़कर 75% हो जाती है. साक्ष्यों की संख्या तथा उनकी कोटि का प्रभाव संभाव्यता के स्तर पर पड़ता है. डा॓क्टर रोगी से तथा पुलिस मुजरिम से जांच-पड़ताल के दौरान इसी तरह संभाव्यता को आगे बढ़ाती जाती है. अनविन उसी सूत्र को ईश्वर की संभाव्यता पुष्ट करने के लिए अपनाता है. बा॓यस के सूत्र को ईश्वर की परिगणना के लिए आधार बनाते समय अनविन यह दावा कतई नहीं करता कि उसने जो सूत्र दिया है, उससे सभी सहमत होंगे. वह स्वयं मानता है कि विज्ञान और गणित के माध्यम से ईश्वर की संभाव्यता को सिद्ध करना बहुत मुश्किल भरा काम है. उसका बस इतना दावा है कि वे लोग जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं, उसके तथाकथित गणितीय सूत्र का सहारा लेकर अपने मत को बेहतर ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं. वह जानता है कि उसके निष्कर्षों से लोग अपनी मान्यताएं बदलने को राजी नहीं होंगे. इसलिए अपने बचाव हेतु वह पर्याप्त संभावनाएं पहले ही सोच कर चलता है. कहने की आवश्यकता नहीं कि ईश्वरवादियों को अनविन के तर्क अपनी आस्था के प्रति चमत्कारी समर्थन प्रतीत होते हैं. ईश्वर की आधार-संभावना(सपूर्व = 50 प्रतिशत) तय कर लेने के पश्चात, बा॓यस के सूत्र में किंचित संशोधन के साथ वह अपना सूत्र प्रस्तुत करता है. निष्कर्ष संभाव्यता(सपश्चात) तक पहुंचने के लिए अनविन द्वारा प्रयुक्त सूत्र निम्नवत है—

                                                               सपूर्व x द

                सपश्चात            =                  ………………………….

                                                                सपूर्व x द + 1—सपूर्व

अनविन के अनुसार ‘द’ दिव्यता सूचकांक है. वह अपने दिव्यता सूचकांक को अलग-अलग अंक देकर गणना करता है. वे अंक भी अनविन द्वारा प्राकल्पित हैं. अलग-अलग स्थितियों के अनुरूप अनविन द्वारा प्रकल्पित दिव्यता सूचकांक निम्नलिखित हैं—

  1. पहली स्थिति में यह मानते हुए कि ईश्वर है और अकाट्य रूप से है, उसके विरोध के समस्त तर्कों को नकारते तथा पक्ष की प्रत्येक संभावना को स्वीकारते हुए वह दिव्यता सूचकांक ‘द’ को उच्चतम 10 अंक देता है. इससे वह दर्शाना चाहता है कि ईश्वर है और दस बार है.

2 दूसरी गणना के लिए वह यह मानते हुए कि ईश्वर है, एक नहीं दो बार है, वह दिव्यता सूचकांक ‘द’ को 2 अंक देता है.

  1. तीसरी गणना में वह दिव्यता सूचकांक को केवल 1 अंक देता है. इसका आशय है कि ईश्वर हो भी सकता है, नहीं भी.
  2. चौथी परिकल्पना में इस संभावना को मानते हुए कि ईश्वर नहीं है, वह दिव्यता सूचकांक को मात्र 0.5 अंक देता है.
  3. पांचवी स्थिति में वह दिव्यता सूचकांक ‘द’ को 0.01 अंक देता है. उस संभावना को और बढ़ा लेता है, जो मानती है कि ईश्वर नहीं है.

दिव्यता सूचकांक को तय करने का अनविन का अलग मापदंड हैं. सांख्यिकी आंकड़ों के साथ साक्ष्य पर भी विश्वास करती है, जबकि अनविन के यहां ऐसा कुछ भी नहीं है. दिव्यता सूचकांक के अलग-अलग निर्धारण हेतु वह पुनः प्रतिज्ञप्तियों की कल्पना करता है. जाहिर है ये प्रतिज्ञप्तियां आस्था के आधार गढ़े गए उसके छह भिन्न स्तर हैं—

  1. शुभत्व(द=10): अंकों के आधार पर यदि ध्यान से देखा जाए तो शेष संभावनाओं के मुकाबले यह शक्तिशाली संभावना है. कम से काम तुलनात्मक अंकों के आधार पर. यह कुछ ऐसा ही है कि तराजू के एक पलड़े में एक भारी-भरकम पत्थर तथा दूसरे में बिल्ली, खरगोश, चूहा, बकरी, बंदर को एक साथ चढ़ाकर यह निष्कर्ष निकाल लिया जाए कि वह पत्थर जंगल के सभी जानवरों से अधिक वजनदार है.
  2. सामान्य बुराइयां: यानी ऐसी बुराइयां जिनका होना समाज की विकास प्रक्रिया को गति देने के लिए आवश्यक है(द=0.5).
  3. प्राकृतिक बुराइयां : जैसे जंगलराज की स्थिति, महामारी आदि. जंगल में शक्तिशाली प्राणी अपने से छोटे प्राणी को खा जाता है. महामारी से मासूम बच्चे तक चल बसते हैं. यह नैतिकता की दृष्टि में अपराध है. यद्यपि जंगल में उत्तरजीविता के नियम के चलते यह स्वाभाविक अवस्था है. अनविन इसके लिए दिव्यता सूचकांक को 0.1 अंक देता है.
  4. आध्यात्मिक अनुभूतियां/अंतःप्राकृतिक चमत्कार : जैसे पूजा-पाठ, प्रार्थना, अंतरानुभूति आदि. जिससे मनुष्य को अपने अंतर्मन में झांकने से शांति की अनुभूति होती है(द=2).
  5. धार्मिक अनुभूतियां : स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देने के बाद इस प्रकार की अनुभूतियां कथित रूप से साधक को होती रहती हैं. अनविन इसे भी 2 अंक देता है.
  6. पुनर्जीवन /पराभौतिक चमत्कार : धर्म की नींव मृत्यु पश्चात सुख की लालसा पर टिकी हुई है. अधिकांश धर्मों में माना गया है कि मनुष्य मरने के बाद पुनः जन्म लेता है. इस चमत्कारपूर्ण धारण को अनविन अपने दिव्यता सूचक पैमाने पर मात्र 1 अंक देता है.

उपर्युक्त दिव्यता सूचकांकों को वह अपने सूत्र अलग-अलग रखकर गणना करता है. तदनुसार—‘ईश्वर के होने की प्रायिकता 67 प्रतिशत सिद्ध होती है.’ आगे वह जोर देकर कहता है, ‘यह संख्या व्यक्तिपरक है. इसलिए कि यह मेरे निजी साक्ष्यों के आकलन पर आधारित है.’ उदारता का प्रदर्शन करते हुए वह कहता है कि सूचकांकों को प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने हिसाब से आकलित कर सकते हैं. मगर उस अवस्था में अनविन का सूत्र लड़खड़ा जाता है. ‘साइंटिफिक अमेरिकन’ पत्रिका के जुलाई 2004 अंक में प्रकाशित एक आलेख में Skeptic के प्रकाशक मिशेल शर्मर अनविन के दिव्यता सूचकांकों को 1 से 10 अंक अपनी ओर से देते हैं. फिर उसी सूत्र के आधार पर ईश्वर की संभाव्यता का आकलन करते हैं, तो वह घटकर मात्र 2 प्रतिशत रह जाती है. एक अन्य गणना का उल्लेख पुस्तक की आलोचना के दौरान बा॓ब सीडेंस्टकर ने अपने लेख ‘कंप्यूटिंग दि प्रोबेबिलिटी आ॓फ गा॓ड’ में किया है. बा॓ब अनविन के दिव्यता सूचकांक में जैसे ही ऐच्छिक मान रखता है, ईश्वर की संभाव्यता और भी घटकर नगण्य(10—16) तक रह जाती है.

स्पष्ट है कि अनविन का आकलन उसकी व्यक्तिगत धारणा की अभिव्यक्ति है. हालांकि उसने कभी दावा नहीं किया कि वह ईश्वर को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित कर रहा है. और कोई भी उसको जांचकर वैसे ही निष्कर्ष पर पहुंच सकता है, जैसा कि दूसरे वैज्ञानिक प्रयोगों में होता है. इस पुस्तक को एक-दो को छोड़कर अधिकांश आलोचकों ने मजाक के रूप में लिया है. उनके अनुसार यह पुस्तक गणित के लिए पढ़ी जा सकती है, मनोरंजन के लिए पढ़ी जा सकती है, यदि आप ईश्वर के अस्तित्व पर भरोसा करते हैं, तब थोड़ी-बहुत तसल्ली के लिए पढ़ी जा सकती है. लेकिन यदि आप किसी दार्शनिक समस्या का समाधान इससे चाहते हैं, तब वह व्यर्थ की कवायद सिद्ध होगी. पुस्तक के समीक्षकों में से एक हेमंत मेहता लिखते हैं—‘पढ़ने में मजेदार. वैचारिकी का आश्चर्यजनक प्रयोग….अनविन को ऐसे लोगों की ओर खड़ा कर देता है, जिनका गणित से कोई वास्ता नहीं है.’ अनविन अपनी धारणाओं को लादने के लिए गणित का सहारा लेता है, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर बच निकलने का रास्ता भी तैयार रखता है. यह कोशिश कृति को मनोरंजक प्रयोग से आगे नहीं बढ़ने देती. बा॓यस के सूत्र का उपयोग चिकित्सा से लेकर अपराध-जांच तक कहीं भी किया जा सकता है, जहां प्रायिकता को बढ़ाने के लिए ठोस साक्ष्य उपलब्ध हों. जबकि अनविन के दिव्यता सूचकांक का कोई तार्किक आधार नहीं है. वह केवल उसकी मनोरचना है, जिसे उसने बेहिचक स्वीकारा भी है. उल्लेखनीय है कि विज्ञान को धर्म से जोड़ने अथवा धर्म और विज्ञान का साम्य दिखाने की कोशिश करनेवाले अनविन अकेले नहीं हैं. इस विषय पर पिछली दशाब्दियों में और भी पुस्तकें आई हैं. उनमें स्टीवन ब्रम्स की ‘सुपीरियर बीईंग्स : इफ दे एक्जिस्ट’, रिचर्ड दाकिन की ‘दि गार्ड डिल्यूजन’ आदि प्रमुख हैं. इनमें किसी न किसी प्रकार ईश्वर के विचार को विज्ञान से जोड़ने की असफल कोशिश की गई है.

अनविन के इस आत्मपरक लेखन के कई सामाजिक पहलु भी हैं. दिव्यता सूचकांक में शुभता को ईश्वर में स्थापित करना मनुष्यता के रास्ते अवरुद्ध करने जैसा है. आज हम पूंजीवादी अर्थतंत्र पर आरोप लगाते हैं कि उसने मनुष्य को भौतिकवादी बना दिया है. इतना स्वार्थी बना दिया है कि मनुष्य को सिवाय अपने सुख के, भोग और स्वार्थ-लिप्सा के कुछ भी नजर नहीं आता. इसी आधार पर अपसंस्कृतिकरण का रोना भी रोया जाता है. उस समय हम भूल जाते हैं कि जिसे हम बाजारवाद की देन बताते हैं, वैसी स्वार्थपरता, अकेले-अकेले सुख पाने की कामना का उपदेश तो धर्म सहस्राब्दियों से देता आया है. धर्म की ओर प्रवृत्त करने के लिए गुरु आमतौर पर अपने शिष्यों को समझाता है—‘यह संसार माया है. इसमें कोई भी तुम्हारा अपना नहीं है. भाई, बहन, पत्नी, माता-पिता, सभी से तुम्हारा स्वार्थ का नाता है. वे भी तुमसे स्वार्थ से बंधे हैं. कोई तुम्हारा साथ नहीं देने वाला. इसलिए यदि स्वर्ग का सुख पाना है, तो इस मोह-ममता को त्याग कर परमात्मा की शरण में आ.’ थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ गीता में कृष्ण ने यही कहा है. गीता निष्काम कर्म का संदेश देकर उसे संतुलित करने का प्रयास करती है. केवल अपने लिए सुख-समृद्धि और स्वर्ग की कामना, अनेक बार मनुष्य को सामाजिक दायित्वों की ओर से उदासीन बनाकर, घोर स्वार्थी आचरण की ओर प्रवृत्त कर देती है. दूसरे केवल अपने सुख की कामना तथा स्वार्थसिद्धि के लिए काम करना, सामाजिक नैतिकता को बिसार देना है. यह भुला देना है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है. भले ही वह समाज में अपने सुख और सुरक्षा के लिए शामिल हुआ हो, समाज के प्रति उसकी भी पर्याप्त जिम्मेदारियां हैं. प्रकट में प्रत्येक धर्म अपने माता-पिता, पड़ोसी, मित्र-सखा के प्रति उदारतापूर्वक पेश आने की सलाह देता है. लेकिन मोक्ष एवं कल्याण के नाम पर वही धर्म संसार को माया और विभ्रम बताकर मनुष्य को ऐसी अंध-स्पर्धा से जोड़ देता है, जिसकी अति उसे सामाजिक कर्तव्यों की ओर से उदासीन बनाती है. इसलिए हम देखते हैं कि भारत जैसे समाजों जहां सामान्य नैतिकता को भी धर्म के भरोसे छोड़ दिया जाता है, नागरिकबोध बहुत कम होता है. पूरा समाज एक भीड़ के आचरण को अपने स्वभाव का हिस्सा बना लेता है.

फिर एक अवैज्ञानिक कार्य को विज्ञान जितना महत्त्व दिए जाने का कारण? दरअसल, आस्तिक को उतना डर धर्म, ईश्वर या पापकर्म से नहीं लगता, जितना नास्तिक से लगता है. उस विचार से लगता है, जो ईश्वर को नकारता है. इसलिए जब भी वह किसी नास्तिक को देखता है, नकलीपन का एहसास उसे कचोटने लगता है. वह उसे बार-बार उकसाता है—‘अरे! यह ईश्वर को नहीं मानता! अगर नहीं मानता तो जीवित कैसे है?’ सामंती समाजों के देवता और भी बड़े सामंत होते हैं. देवत्व की अवमानना करने, यहां तक कि प्रसाद तक न खाने अथवा प्रसाद लेकर उसको खाना भूल जाने से भी उनकी त्योरियां चढ़ जाती हैं. आस्तिक यही सोचकर हैरान होता है कि ऐसे कोपवंत देवताओं के चलते उनके अस्तित्व को नकारनेवाला धरती पर सुरक्षित कैसे है? जरूर वह दिखावा करता है. अगर यह सचमुच ईश्वर को नकारता है तब तो ईश्वर का कोप उसे सताएगा ही. उस समय मैं भी इसका साथी न मान लिया जाऊं? ऐसे न जाने कितने अनजाने भय उस व्यक्ति को घेर लेते हैं. पक्ष में दिखने के लिए वह ईश्वर पर सवाल उठाने की संभावना को ही धिक्कारने लगता है. फिर चाहे कोई कितना ही कहे कि वह नास्तिक है—वह विश्वास ही नहीं करता. लोग यह मानने को तैयार ही नहीं होते कि नास्तिक होना भी भारतीय दर्शन-परंपरा का हिस्सा है. उस समय सौ में से अस्सी का एक ही जवाब होता है—‘हं…हं! नास्तिक में भी तो अस्तिः(नः+अस्तिः) छिपा हुआ है. उस समय कोई लाख तर्क दे कि ‘‘भइया, ‘अस्तिः’ को नकारने के लिए ही ‘नः’ उपसर्ग लगाया गया है.’’—बात उनके गले नहीं उतरती. जिद पर कायम रहने के लिए ईश्वरवादियों के रटे-रटाए तर्क होते हैं. उनके दिमाग की सुई हजार-दो-हजार साल पहले के समय पर अटकी होती है, जब साम्राज्यवादी लालसा में दर्शन का धार्मिकीकरण कर मनुष्य के सहजबोध को उससे बांध दिया गया था.

ईश्वरवादियों का दूसरा तर्क होता है, इस दुनिया को किसी ने तो बनाया है! वही शक्ति ईश्वर है. फिर ईश्वर को किसने बनाया है? ईश्वर को भला कौन बनाएगा? वह तो अनादि-अनंत और सर्वशक्तिमान है. यही बात हम इस सृष्टि के लिए कहें तो? कार्य-कारण का उनका नियम ईश्वर तक जाकर ठहर जाता है. उससे पीछे ले जाने में उनके पसीने छूटने लगते हैं. यदि उनपर जोर डाला जाए, कहा जाए कि यदि ईश्वर अनादि-अनंत हो सकता है तो सृष्टि क्यों नहीं? यदि ब्रह्मांड का विस्तार ही कल्पनातीत है तब उसके कथित निर्माता की कल्पना कैसे संभव है? उस समय बहस से कन्नी काटते हुए वे सृष्टि को ही ईश्वर मान लेंगे. यानी चिपके अपनी बात से रहेंगे. डरे हुए लोग ठहरे. उनका डर उनके किस पापबोध की परिणति है, वे जानें. विज्ञान और धर्म के रास्ते एकदम अलग हैं. विज्ञान संदेह का रास्ता है. ईश्वर आस्था का मसला. दिमाग की सुई एक जगह ठहर जाए, तब आदमी धार्मिक कहलाता है. उदाहरण के लिए इन दिनों भारत की ओर से भेजा गया मंगलयान रास्ते में है. सब कुछ ठीक ठाक रहा तो अगले कुछ दिनों में मंगल की कक्षा में होगा. मान लीजिए उस यान को किसी सुदूर ग्रह पर बैठा ऐसा व्यक्ति देखे जिसके दिमाग की सुई रामायण काल पर अटकी हुई है तो वह यही कहेगा—देखों धरती से फेंगी गई पवनपुत्र हनुमान की गदा आसमान में उड़ रही है.’ ऐसे ही दूसरा व्यक्ति जो किसी कारणवश महाभारत युग पर अटका हुआ है, उसे भीम की गदा बताएगा. इसे आप मजाक की तरह भी ले सकते हैं. लेकिन अशोक की लाट को भीम की गदा बतानेवाले लोग भी इसी देश-समाज में होते आए हैं.

अतिप्राचीन समाजों में धर्म की चाहे जो प्रासंगिकता रही हो, आज वह सामाजिक भेदभाव और ऊंच-नीच का कदाचित सबसे बड़ा मददगार है. शीर्षस्थ वर्गों के साम्राज्यवादी मंसूबों ने धर्म को राजनीति और समाज में प्रासंगिक बनाए रखा. करीब ढाई-तीन हजार वर्ष पहले यह महसूस किया जाने लगा था कि छोटे-छोटे राज्यों से काम नहीं चलनेवाला. हमलावर दुश्मनों से सुरक्षा के लिए बड़ी ताकत बनना होगा. ऐसे में धर्म ने आसंजक और संसजक दोनों का काम किया. इस अवधि में कुछ अच्छे परिणाम भी धर्म के कारण देखने को मिले. भौतिकता की आड़ के रूप में वह अनेक व्यक्तिगत और सामाजिक तनावों को कम करने का माध्यम बना है. धर्म का औचित्य बनाए रखने के लिए उसको नैतिक मूल्यों से जोड़ा गया था, लेकिन बाद में उन्हें धर्म का पर्याय बताना आरंभ कर दिया. उसकी सबसे बड़ी भूमिका सामजिक-आर्थिक और राजनीतिक विभाजन को शास्त्रीय रूप देने में रही, जिससे कालांतर में बड़े आर्थिक-सामाजिक विभाजनों को जगह मिली. धर्म का अतिवादी रूप महाभारतकाल में भी दिखाई पड़ता है, जब आर्यवर्त पर एकक्षत्र राज्य कायम करने के लिए कृष्ण चतुराई पूर्वक समस्त आर्यवर्त के राजाओं को परस्पर लड़वा देते हैं. सभी छोटे-बड़े राजा खेत रहते हैं. कौरवों को पराजित कर, देर-सवेर पांडव भी महाप्रयाण पर चले जाते हैं. आगे चलकर कुछ ऐसी ही कोशिश चाणक्य के नेतृत्व में नजर आती है.

सवाल है कि यदि कि विज्ञान ही सबकुछ है तो जीवन, मृत्यु जैसे प्रश्न अनुत्तरित क्यों हैं. इसके अलावा भी ऐसे अनेकानेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर विज्ञान नहीं दे पाया है. लेकिन विज्ञान ने कभी दावा भी नहीं किया कि उसने सबकुछ जान लिया है. धार्मिक प्रवृत्ति के लोग दुनिया के सारे ज्ञान को परमात्मा में अवस्थित मान लेते हैं. धीरे-धीरे अधिकांश के लिए यह परमात्मा को प्रसन्न रखने का कर्मकांड बन जाता है. धीरे-धीरे वह सुबह-शाम की आरती में सिमट जाता है. ऐसे आस्थावादी समाज में लोग 24—25 पृष्ठ रटकर सत्यनारायण की कथा सुनाने वाले पुरोहित को ‘पंडित’ मान लें, तो आश्चर्य कैसा! वैज्ञानिक को अपने ज्ञान का कभी गुमान नहीं होता. सच्चा वैज्ञानिक भली-भांति जानता है कि उसका अज्ञान उसके ज्ञान कहीं अधिक बड़ा है. इसलिए वह निरंतर और जानने के लिए प्रयासरत रहता है. अपने ही ज्ञान पर निरंतर संदेह करता है. इसी में उसकी सिद्धि है. इसके लिए विज्ञान की आलोचना करना उचित नहीं. अनसुलझे सवालों के उत्तर की खोज के लिए वैज्ञानिकों को पर्याप्त समय देना होगा. यूं भी सृष्टि की उम्र छोडि़ए, पृथ्वी की आयु के समक्ष भी विज्ञान की उम्र शिशु जितनी नहीं है. इस बारे में अमेरिकी लेखक हावर्ड बूस फ्रेंकलिन ने एक मजेदार उदाहरण दिया है—

‘‘पृथ्वी की उम्र लगभग साढ़े चार अरब है. हिम युग को पूरी तरह समाप्त हुए लगभग 10000 साल हुए हैं. तदनुसार पृथ्वी की उम्र हिम युग बीतने की अवधि के लगभग 4,50,000 गुना अधिक है. इसे समझने के लिए हम एक तस्वीर की कल्पना करते हैं. हम मान लेते हैं कि पृथ्वी की उम्र 45,000 फुट के समतुल्य है ठीक उतनी ही जिसपर कोई जेट वायुयान उड़ान भर सकता है. उस पैमाने पर यदि हिम युग की अवधि को दर्शाया जाए तो वह मात्र 1.2 इंच को दर्शाएगा. अब यदि आधुनिक विज्ञान के अवधि, जब उसने तकनीक और प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में कदम रखा, मात्र 200 वर्ष पुरानी घटना है. वह हमारे पैमाने पर मात्र 0.024 की ऊंचाई को दर्शाएगी. यह इतनी बारीक रेखा होगी, जैसे मामूली बाल पाइंट पेन द्वारा खींची गई रेखा की मोटाई.’’

सत्य से परे होने के बावजूद मैं अनविन के प्रयासों की सराहना करूंगा. उन्होंने ईश्वरत्व को गणित के आधार पर आकलित करने का विचार तो दिया. आगे और लोग भी आएंगे. जिसके फलस्वरूप पारंपरिक धर्म ने अपने चारों ओर जो बाड़ें लगाई हैं, वे कमजोर होंगी; तथा धर्म की वैज्ञानिकता पर बहस का सिलसिला आगे बढ़ेगा. तब शायद लोग महाभारत के इस सत्य को स्वीकारने को राजी हो जाएं—

गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रीवीमि। न हिं मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचितः। (महाभारत, शांतिपर्व, 299/20)—एक बात बताता हूं, संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ, मनुष्य के लिए मनुष्य से उपयोगी कुछ भी नहीं है. सच मानिए, ईश्वर भी नहीं.

[पुनश्चः: मुझे एक बात जानकर हैरानी होती है कि धर्म के नाम पर, अपने समय के शीर्षस्थ महारथियों, अठारह अक्षौहिणी सेना, देवता-राक्षस तथा यादव कुल का विनाश लिख देने के पश्चात महाभारतकार ने कानाफूसी के अंदाज में ही क्यों कहा कि ‘इस संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है.’ युद्ध में अपनों से लड़ाई छेड़ने के लिए अर्जुन को उकसानेवाले कृष्ण भी इस ‘परमसत्य’ को लोगों से छिपा ले जाते हैं और गीता इससे वंचित रह जाती है. अगर यह उपदेश पहले ही दे दिया होता तो क्या युद्ध होता? प्रजा यदि जानती कि मनुष्य के लिए एकमात्र श्रेष्ठतम मनुष्य है तो क्या वह दूसरों के कहने पर अपनों का गला काटने को तैयार होती? हरगिज नहीं! दरअसल शिखर पर विराजमान लोगों के लिए केवल वही मनुष्य होते हैं, जो उनके सगे या सत्ता के आसपास होते हैं. बाकी या तो सेवक होते हैं अथवा प्रजा. वे सुन न लें, इसलिए अच्छी बात हमेशा चुपके-चुपके कानाफूसी के अंदाज में, केवल अपनों के बीच कही जाती है, और उकसाने की जरूरत आ पड़े तो ‘धर्म-धर्म चिल्लाया जाता है.]

© ओमप्रकाश कश्यप

opkaashyap@gmail.com

भारतीय दर्शनों में समय की अवधारणा

समय का दर्शन : चार

समय को लेकर आज भले ही हम नियतिवादी द्रष्टिकोण से आगे कुछ न सोच पाते हों, परंतु हमेशा ऐसा नहीं था. मानवीय चेतना में विकास के साथ समयसंबंधी अवधारणा में भी परिवर्तन होते रहे हैं. वैदिक युग में जब मनुष्य प्रकृति के सान्निध्य में जीवनयापन करता था, अपने चारों ओर बिखरी विपुल प्राकृतिक संपदा नदियां, पहाड़, झरने, महासागर, फलफूल, वनवनस्पतियों को देखकर अभिभूत था….जीवनमृत्यु, दिनरात और ग्रहनक्षत्रों को देख चमत्कृत रह जाता था. तब समय को लेकर उसका सोच भी लगभग नियतिवादी था. वह मानता था जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी आदि जैसे दूसरे भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है, वैसे ही समय का भी है. समय की सीधे प्रतीति भले न हो, परंतु दिनरात, धूपछांव, जीवनमृत्यु के अंतर से उसकी उपस्थिति का एहसास होता था. इतना स्वाभाविक कि यह मानकर भी कि परिवर्तन वस्तुओं की सहज प्रवृत्ति है, उसे लगता था कि वस्तुओं के अपने गुण के अलावा भी कुछ ऐसा है जो उन्हें नियंत्रित रखता है. उनके रूपाकार को बदलते हुए देखता है. इसी गुण को कभी ‘समय’ की संज्ञा दी गई, तो कभी ‘काल’ कहकर संबोधित किया गया. फिर घटनाओं की सटीक परख, आवृत्ति, अंतराल आदि की जांच के लिए समय के घंटा, मिनट, सैकंड, पल, अनुपल, वर्ष, संवत्सर जैसे मात्रक गढ़े गए. कालांतर में धूपवर्षाताप आदि के उपादान कारणों की भांति समय को भी देवता का दर्जा दिया गया था. यज्ञ में उसके नाम समिधा अर्पित की जाने लगी. उष्मा और प्रकाश बांटने वाले सूरज तथा परिवर्तन के प्रतीक ‘द्यौ’(दिन, उजास) की गिनती भी वैदिक देवताओं में होने लगी. उसको ‘प्रकृति पूजा की पहली श्रेणी का उपलक्ष्य’ माना गया. विकास की आरंभिक बेला में यह अप्रत्याशित भी नहीं था. दिनारंभ के साथ शरीर में नई स्फूर्ति आ जाती है. नवीन ऊर्जा से ओतप्रोत मनुष्य अपना काम शुरू कर देता है. उजास प्रकृति में नई चेतना भर लाता है. जीवजगत से लेकर जड़जंगम, वनस्पति आदि सभी पर उसका प्रभाव बहुआयामी होता है. यह सब बिना किसी दैवीसामर्थ्य के संभव नहीं. इसलिए वह देवता है. सभी को हर्षित, ऊर्जस्वित, उमंगित एवं आलोकित करनेवाला. प्राणिमात्र को नई स्फूर्ति एवं चेतना से भर देने वाला. पूरी तरह प्रकृतिआश्रित जीवन में यह विश्वास स्वाभाविक ही था. एक अन्य स्थान पर ऋग्वेद में समय को शक्तिरूप कहा गया है. ऐसी सचेतन शक्ति जो जीवनसंघर्षों, आपदाओं के बीच सबकी रक्षा करती है. जीवनचक्र को आगे बढ़ाती और उसका संवर्धननिर्देशन आदि करती है.

समय का प्रत्यय मानवीय बोध के साथ ही जन्म ले चुका था. उसको उतना ही पुराना माना गया, जितनी सृष्टि. हालांकि सृष्टि के विकास में समय का योगदान जल के बाद आंका गया. नासदीय सूक्त के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति जल से मानी गई है. वही आदिमहाभूत है. इस मान्यता के अनुसार सृष्टि निर्माण में सहायक बने पंचमहाभूतोंअग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश में जल सर्वप्रथम आया. उसी से बाकी तत्वों का विकास हुआ है. यह सीधेसीधे अनुभव से जन्मा दर्शन था. जल से प्रकृति हरियाती है. जीवन संभव हो पाता है. वह प्राणतत्व की पहली आवश्यकता है. ऋग्वेद में प्राकृतिक सत्ताओं के प्रति श्रद्धाभाव से विकसित बहुदेववाद है. मगर सृष्टि की प्रथम कारक सत्ता होने के कारण जल सबसे महत्त्वपूर्ण है. डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार—‘ऋग्वेद की प्रवृत्ति एक सीधासादासरल यथार्थवाद है….(वह) केवल एक जल की ही परिकल्पना करता है. वही आदिमहाभूत है, जिससे धीरेधीरे दूसरे तत्वों का विकास हुआ.’ (भा. . पृष्ठ 83). लेकिन सृष्टि की रचना अकेले जल द्वारा संभव न थी. जल की अवस्था से आकाश, अग्नि, जल, वायु के विकास के बीच सुदीर्घ अंतराल है. नासदीय सूक्त के अनुसार आरंभ में न दिन था न रात. इसलिए समय का बोध कराने वाले भूतभविष्य आदि का भी लोप था. इस तरह महाशून्य अवस्था से दिनरात से भरपूर ब्रह्मांड में आने के बीच जो लाखों, करोड़ों वर्ष बीते, उनसे समय की उपस्थिति स्वतः सिद्ध है. कह सकते हैं कि सृष्टि के निर्माण में पंचतत्वों के सहयोग के अलावा समय का भी योगदान रहा. वैदिक ऋषियों को लगा होगा कि सतत परिवर्तनशील जगत की व्याख्या के लिए अंतरिक्ष अपर्याप्त है. उससे सृष्टि के विस्तार और व्याप्ति की परिकल्पना तो संभव है, मगर चराचर जगत की परिवर्तनशीलता एवं क्रमानुक्रम की व्याख्या के लिए, कुछ ऐसा भी होना चाहिए जो अंतरिक्ष जैसा अनादिअनंत होकर भी वस्तुजगत की गतिशीलता की परख करने में सक्षम हो. अंतरिक्षनुमा होकर भी उससे भिन्न हो. जिसमें वह अपने होने को सार्थक कर सके. अपनी चेतना को दर्शा सके. जिसके माध्यम से घटनाओं के क्रम तथा उनके वेग आदि की व्याख्या भी संभव हो. जो सकल ब्रह्मांड के चैतन्य का साक्षी, उसकी गतिशीलता का परिचायक एवं संवाहक हो.

अंतरिक्ष आभासी संरचना है. वह ग्रहनक्षत्रों तथा तरहतरह के गतिमान पिंडों को अपने भीतर समाए रहता है. कह सकते हैं कि गतिमान पिंडों की स्थिति तथा उनका अंतराल हमें अंतरिक्ष का आभास कराते हैं. तदनुसार अंतरिक्ष वह त्रिविमीय आभासी संरचना है जो विभिन्न प्रकार के छोटेबड़े पिंडों, कणों को अपने भीतर समाहित रखता है. उनके भीतरीबाहरी, भौतिक अथवा काल्पनिक अंतराल की प्रतीति कराता है. उनकी गतिशीलता के लिए पर्याप्त आकाश देता है. दूसरी ओर समय महज एक विमीय सरंचना है. उसका गुण है कि वह ब्रह्मांड में पलछिन घटने वाली कोटिक घटनाओं का साक्षी बन सके. वह दो या उससे अधिक घटनाओं के क्रमानुक्रम, बारंबारता, अंतराल तथा उनके आपसी संबंधों का बोध कराता है. यह भी कह सकते हैं कि घटनाओं का वेग, मानवमस्तिष्क द्वारा उन घटनाओं को सहेजने का क्रम तथा उनका अंतराल समयबोध का निर्माण करते हैं. व्यवहार में समय आभासी मगर सापेक्ष सत्ता है. दूसरी ओर समय की निरपेक्षता के समर्थन में भी अनेकानेक उल्लेख शास्त्रों में मौजूद हैं. यह माना जाता रहा कि समय बाह्यः प्रभावों, दृश्यअदृश्य घटनाओं से मुक्त है. वह घटनाओं पर नियंत्रण रखता है, मगर स्वयं किसी से प्रभावित नहीं होता. इसलिए उसकी गति सदैव एकसमान बनी रहती है. यह धारणा भी बनी रही कि चराचर जगत में जो कुछ बनतामिटता है, समय उसका साक्षी है. काल नहीं मिटता, हम ही बनतेमिटते हैं—कहकर समय की परमसत्ता को स्वीकृति दी गई. उसे अजेय माना गया. एकेश्वरवादी चिंतन में ईश्वर के अतिरिक्त समय या उस जैसी शाश्वत सत्ता की परिकल्पना, ईश्वर की सर्वोच्चता पर प्रश्नचिह्न लगाती थी. अतएव परमात्मा की सर्वोच्चता को दर्शाने के लिए गीता में श्रीकृष्ण के मुख से कहलवाया गया—कालोऽस्मि.’ ‘मैं ही समय हूं.’ यहां काल समस्त घटनाओं के आगार, विराट ब्रह्मांडीय विस्तार का द्योतक है. वह श्रीकृष्ण के मुख से उच्चारित हुआ है, इसलिए वह विराट शक्ति का भी बोध देता है. समय के साथ बीतना, गुजरने, घटित होने जैसी प्रतीतियां सहजरूप से जुड़ी हुई हैं. उसे परिवर्तनशील माना गया है. मगर परमसत्ता की महत्ता को रेखांकित करने के लिए यत्रतत्र उसको कालातीत भी कहा जाता है. सृष्टि निर्माण में समय के योगदान को स्वीकार करते हुए प्राचीन आचार्यों ने लिखा—‘जल की अवस्था से उन्नत होकर इस जगत का विकास समय, संवत्सर अथवा वर्ष, इच्छा या काम, एवं बुद्धिरूपी पुरुष तथा तप की शक्तियों से हुआ था.’ (भा. . पृष्ठ 83). इसमें समय तथा ‘संवत्सर अथवा वर्ष’ को अलगअलग लिखा हुआ है. जबकि व्यवहार में संवत्सर और वर्ष समय के ही मात्रक हैं.

उपर्युक्त से सिद्ध होता है कि समय को लेकर वैदिक आचार्यों की दो स्पष्ट प्रतीतियां थीं. पहली उसे अनंत, ब्रह्मांडनुमा सत्ता मानती थी. उसके अनुसार समय को स्थिर, विचलनहीन और अनंत विस्तारयुक्त सत्ता माना गया. जिसमें सबकुछ घटता रहता है. जो घटनाओं का क्रमानुक्रम मात्र न होकर अंतहीन त्रिविमीय फैलाव है. चराचर जगत का सहयात्री न होकर सर्वस्व द्रष्टा है. जिसका न आदि है न अंत. जो इतना विस्तृत है कि कोटिक कोटि ग्रहनक्षत्रनीहारिकाएं उसमें सतत गतिमान रहती हैं—या जो कोटिक घटनाओं, गतियों का एकमात्र द्रष्टा एवं साक्षी है. दूसरी प्रतीति के अनुसार समय भूत, वर्तमान तथा भविष्य के रूप में परिलक्षित होने वाली, नदीसम निरंतर प्रवाहशील एकविमीय संरचना है. घटनाओं के साथ घटते जाना उसका स्वभाव है. वह न केवल घटनाओं के क्रमानुक्रम का साक्षी है, बल्कि उनका हिसाब भी रखता है. मगर है आदिअंत से परे. उनकी न शुरुआत है न ही अंत. समय को लेकर ये दोनों ही धारणाएं कमोबेश आज भी उसी रूप में विद्यमान हैं. इस तरह यह संभवतः अकेली अवधारणा है जिसके बारे में मनुष्य के विचारों में शुरू से आज तक बहुत कम परिवर्तन हुआ है. इतना अवश्य है कि समय जब तक दर्शन का विषय था, तब तक उसे लेकर वस्तुनिष्ठ ढंग से विचार होता रहा. विशेषकर जैन और बौद्ध दर्शन में समय की सत्ता पर गंभीर चिंतन हुआ. कालांतर में समय के दार्शनिकवैज्ञानिक पक्ष पर विचार करने के बजाय केवल उसके व्यावहारिक पक्ष पर विमर्श होता रहा. आगे चलकर जीवन में स्पर्धा और सामाजिक विभाजनकारी स्थितियां बढ़ीं तो पोंगा पंडितों ने समय को प्रारब्ध से जोड़ दिया. एक निरपेक्ष सत्ता को नियामक सत्ता मान लिया गया. इससे मानवमन में समय के प्रति अतिरिक्त श्रद्धाभाव उमड़ने लगा. उसके पीछे समय को जानने की वांछा कम, डर और समर्पण का अंश कहीं अधिक था. समय के प्रति डर, अविश्वास एवं स्थूल चिंतन का दुष्प्रभाव यह हुआ कि उसे लेकर दार्शनिक चिंतन लगभग ठहरसा गया. इससे उन पोंगापंथियों को सहारा मिला जो समय को लेकर लोगों को डराते थे.

 

 

समय का बोध मानवीय बोध के साथ जन्मा और उतना ही पुराना है. सवाल है कि समय की उत्पत्ति कब हुई? क्या समयबोध के साथ? अथवा उससे पहले? इस मामले में वैदिक ऋषि और वैज्ञानिक दोनों एकमत थे कि समय का जन्म सृष्टि के जन्म के साथ हुआ. उससे पहले समय की कोई सत्ता नहीं थी. हालांकि दोनों की मान्यताओं का आधार अलगअलग है. स्वाभाविक रूप से वैज्ञानिक इसकी व्याख्या तार्किक आधार पर करना चाहते हैं, जबकि वैदिक आचार्यों का द्रष्टिकोण अध्यात्मप्रेरित था. अंतरिक्षीय महाविस्फोट द्वारा सृष्टिरचना के सिद्धांत में विश्वास रखने वाले वैज्ञानिक मानते हैं कि उससे पहले ब्रह्मांड अतिउच्च संपीडन की अवस्था में था. इस तरह विज्ञान की दृष्टि में ब्रह्मांड और समय दोनों एक ही घटना का उत्स हैं, जिसे वैज्ञानिक महाविस्फोट का नाम देते हैं. इसलिए ‘समय का संक्षिप्त इतिहास’ लिखने के बहाने स्टीफन हाकिंग जैसे वैज्ञानिक प्रकारांतर में इस ब्रह्मांड का ही इतिहास लिख रहे होते हैं. ब्रह्मांड के जन्म की घटना से पहले समय की उपस्थिति को नकारना वैज्ञानिकों की मजबूरी थी. क्योंकि उससे पहले समय की उपस्थिति स्वीकार करने के लिए उनके पास कोई तार्किक आधार नहीं था. समय ही प्रतीति ‘घटित होने’ से जुड़ी हुई है और उच्च संपीडन की अवस्था में घटना का आधार ही गायब था. ऐसा कोई कारण नहीं था जिससे समय की उपस्थिति प्रमाणित हो सके. समय के बारे में एक महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक द्रष्टिकोण आइंस्टाइन के शोध में मिलता है. सापेक्षिकता के सिद्धांत की खोज के बाद घटना विशेष के संदर्भ में दिक् और काल को अपरिवर्तनशील एवं निरपेक्ष मानना संभव नहीं रह गया था. वे प्रभावशाली मात्राएं बन गई थीं, जिनका स्वरूप पदार्थ और ऊर्जा पर निर्भर था. सापेक्षिकता का सिद्धांत महाविस्फोट से पहले समय की संभावना को नकारता है. उसके अनुसार समय और दिक् की परिकल्पना केवल ब्रह्मांड के भीतर रहकर संभव है. उससे पहले चूंकि घटनाओं के बारे में कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा सकता, अतएव यह माना गया कि समय की परिकल्पना केवल ब्रह्मांड की संभावनाओं में संभव है. इसके बावजूद समय की निरपेक्ष तस्वीर कुछ वैज्ञानिकों को आज भी लुभाती है. हालांकि 1915 में आइंस्टीन द्वारा ‘जनरल थ्योरी आफ रिलेटिविटी’ का क्रांतिकारी सिद्धांत पेश होने के बाद उसपर दृढ़ रहना आसान नहीं रह गया था. सापेक्षिकता के सिद्धांत को स्वीकृति मिलने के बाद स्पेस और टाइम किसी घटना के स्थिर आधार जैसे अपरिवर्तनशील और निरपेक्ष नहीं रह गए. बल्कि वे बेहद प्रभावशाली मात्राएं बन गईं, जिनकी रूपरेखा पदार्थ और ऊर्जा से तय होती है. यह मान लिया गया कि दिक्, काल की व्याख्या केवल ब्रह्मांडीय सीमाओं में संभव है. तदनुसार ब्रह्मांड के जन्म से पहले दिक्, काल की परिकल्पना करना बिल्कुल बेमानी हो गया. इस निरीश्वरवादी परिकल्पना थी, जिसके समर्थक जैन और बौद्ध दर्शन थे.

वैदिक मनीषियों का द्रष्टिकोण सर्वथा भिन्न था. समय और सृष्टि की उत्पत्ति को एकदूसरे से जोड़ना उनके आस्थावादी मन के लिए जरूरी था. जहां वैज्ञानिक महाविस्फोट से पहले समय की परिकल्पना करने से इसलिए हिचकते हैं कि उसके लिए उनके पास उपर्युक्त तर्कों का अभाव है, और उसको सिद्ध कर पाना फिलहाल असंभव, वहीं आस्थावादी दार्शनिकों की समस्या थी कि समय को पूर्व अथवा समानांतर सत्ता मान लेने से उसकी सर्वेश्वरवादी व्याख्याएं संकट में पड़ने लगती हैं. सर्वशक्तिमान परमात्मा की परिकल्पना तो असंभव हो जाती है. इसलिए ऋग्वेद में कहा गया, ‘वह काल की, देश की, आयु, मृत्यु और अमरता आदि सबकी पहुंच के बाहर और उनसे परे है. हम इसकी ठीकठीक व्याख्या नहीं कर सकते, सिवाय इसके कि यह अस्तित्व रखती है.’(. . पृष्ठ – 81). यह एक प्रकार का रहस्यवाद ही था. इस संकट से उबरने की कोशिश बौद्ध दर्शन में दिखाई पड़ती है. उसके अनुसार समय चिरंतन है. मनुष्य की भांति वस्तुजगत का भी समय निर्धारित है. समय के सुदीर्घ अंतराल में ब्रह्मांड भी बनतेमिटते रहे हैं.

नासदीय सूक्त में उद्गाता ऋषि ब्रह्मांड की उत्पत्ति की कल्पना शून्य से करता है—नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्, किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीन्दहनं गभीरम्.’ इसका सरल पद्यात्मक अनुवाद यशदेव शल्य द्वारा किया गया है. लेकिन हम मैक्समूलर द्वारा किए गए अनुवाद को लेना चाहेंगे, जिसे डॉ. राधाकृष्णन ने ‘भारतीय दर्शन’ खंड—एक में उद्धृत किया है. उसके अनुसार—‘उस समय न तो सत था, न ही असत्. न आकाश विद्यमान था, न ही उसके ऊपर अंतरिक्ष. तब किसने उसे आवृत कर रखा था. वह कहां था? किसके आश्रय में रखता था? क्या वह आदिकालीन गहनगंभीर जल था? जिसमें समाहित था सबकुछ. मृत्यु का अभाव था. इस कारण अमरताबोध अजन्मा ही था. जिसके माध्यम से दिन और रात का होना निश्चित किया जा सके. केवल और केवल ब्रह्म था, बिना श्वांसप्रश्वांस की प्रक्रिया के जीवित रहने वाला. बाकी था अंधकार, घोर अंधकार….तब फिर कौन जानता है कि सृष्टि कहां से हुई? जिससे इस सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ, उसने इस सृष्टि को बनाया या नहीं बनाया, ऊंचे से ऊंचे अंतरिक्षलोक लोक में, ऊंचे से ऊंचा देखने वाला, वही यथार्थरूप में जानता है, अथवा क्या वह भी नहीं जानता?’(भा. . पृष्ठ 81). सृष्टि के उत्स को जानने के बहाने असल में यह निराकार ब्रह्म की कल्पना थी, जो बहुदेववाद की आलोचनाओं के बीच आवश्यक हो चुकी थी. परमात्मा सृष्टि की कारक सत्ता है. इसलिए वह उससे पहले है. किसी को कोई संदेह न हो, इसलिए ऋग्वेद में यह नासदीय सूक्त से पहले, हिरण्यगर्भ सूक्त के माध्यम से स्पष्ट कर दी जाती है. हिरण्यगर्भ सूक्त में उद्गाता मुनि ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पहले की स्थिति की कल्पना करते हुए लिखता है—हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्. स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय् हविषा विधेम.’ वह था. परंतु क्या था? किस रूप में था? इस बारे में दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता….हम उसकी अभ्यर्थना करते हैं. यह भी एकेश्वरवाद की ओर संकेत रहस्यवादी कल्पना है. उद्गाता ऋषि कल्पना की उड़ान भरतेभरते विराट शून्य में तल्लीनसा प्रतीत होता है और अव्याख्येय को परमात्मा का नाम देकर तसल्ली कर लेता है.

वैदिक साहित्य में समय को लेकर जो आस्थावादी द्रष्टिकोण बना, वह सहòाब्दियों तक बना रहा. उपनिषदों में समय को लेकर चर्चा हुई, परंतु उसी समर्पण भाव के साथ. समय की सत्ता को स्वीकारते हुए. ब्रहदारण्यक उपनिषद में याज्ञव्ल्क्य भी समय के बारे में वैदिक द्रष्टिकोण को ही आगे रखते हैं—‘‘हे गार्गी! वह जो अंतरिक्ष से ऊपर है, और वह जो पृथ्वी के भी नीचे है, वह जिसे मनुष्य भूत, वर्तमान और भविष्य कहते हैं, उस सबकी रचना अंदर और बाहर देश के अंतर्गत है. किंतु फिर इस देश की रचना भीतर और बाहर किसके अंदर हुई? हे गार्गी! सत्य के अंदर, इस अविनाशी के अंदर, सब देश के अंदर और बाहर गुंथा हुआ है’’ बृहदारण्यक 3-6-7). एक अन्य स्थान पर ऋग्वेद में ब्रह्म का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि वह काल की मर्यादा से स्वतंत्र है. अर्थात वह अनित्य है, जिसका न आदि है न अंत. अथवा वह एक तात्कालिक अवधि है जिसे एक नियमित कालव्यवधान की आवश्यकता नहीं है. वह भूत् और भविष्यत् के विचार से मुक्त है(भा. . 142). वेदादि धर्म ग्रंथों में अनादि, अनश्वर, कालातीत, अमर जैसे विशेषण बारबार आते हैं. उसके पीछे एकमात्र कारण था, मृत्यु का भय. इसलिए आस्थावादी दर्शन का बड़ा हिस्सा मृत्यु के चंगुल से बाहर निकल जाने की कोशिश तक सिमटा हुआ है. साफ है कि ‘अमरताबोध’ जैसी परिकल्पना के पीछे भी मृत्युभय निहित था. मृत्यु तथा आकस्मिक रूप से आ धमकने वाली आपदाओं ने ही समय के प्रति डर को जन्म दिया था. अमरत्व की कल्पना का एकमात्र आशय था, समय के साथ अनंतकाल तक बने रहने की सुविधा; या फिर समय की पकड़ के बाहर आकर अनंत में बने रहने की प्रतीति. लेकिन जब आप मृत्यु अथवा उसके पार जाने के लिए कथित अमरता की कल्पना कर रहे होते हैं, तो प्रकारांतर में अंतहीन समय की परिकल्पना कर, उसे भी अमरत्व प्रदान कर रहे होते हैं. आस्थावादी दार्शनिकों के लिए यह कोई समस्या ही नहीं थी. इसलिए ऐसी कल्पनाएं प्रायः हर धर्म ग्रंथ का हिस्सा बनी हैं. श्वेताश्वरोपनिषद कतिपय बाद की रचना है. मगर उसमें भी समय को लेकर इसी प्रकार का आस्थावादी द्रष्टिकोण सामने आता है. परमसत्ता की स्थिति की कल्पना करते हुए उपनिषदकार लिखता है—‘वहां फिर न दिन रहता है, न रात रहती है, न कोई अस्तित्व रहता है, और न कोई अनस्तित्व रहता है—केवल ईश्वर रहता है.’(भा. . 160). इसका भी सीधा सा अर्थ है कि ईश्वर पर समय का कोई असर नहीं पड़ता. वह उसकी पकड़ से बाहर है.

दरअसल समय पर निरपेक्ष सत्ता के रूप में विचार करना वैदिक ऋषियों की प्राथमिकता था भी नहीं. गंभीरतापूर्वक विचार करने पर हम पाएंगे कि वैदिक काल में दर्शन का स्तर अपेक्षाकृत स्थूल था. भारतीय दर्शनों में समय को लेकर थोड़ाबहुत वस्तुनिष्ट चिंतन मिलता भी है तो केवल बौद्ध और जैन दर्शन में. जैन दर्शन में संसार की समस्त वस्तुओं को ‘जीव’ और ‘अजीव’ दो श्रेणियों में रखा गया है. ‘जीव’ में समस्त प्राणी समुदाय आता है. ‘अजीव’ वर्ग में आकाश, पुद्गल, धर्म, अधर्म के अलावा ‘काल’ को भी सम्मिलित किया गया है. ‘अजीव’ को कहींकहीं अर्धद्रव्य की से भी संबोधित किया गया है. तदनुसार ‘काल’ भी अर्धद्रव्य है, ‘यह विश्व की वह सर्वव्यापक आकृति है, जिसके द्वारा संसार की समस्त गतियां सूत्रबद्ध हैं. यह एक व्यवधानपूर्ण परिवर्तनों की शृंखलाओं का केवल जोड़मात्र नहीं है, किंतु स्थिरता की एक प्रक्रिया है—भूत् एवं वर्तमान काल को चिरस्थायी बनाना है(भा. . 256).’ इसमें समय संबंधी दोनों धारणाओं का सम्मिलन दिखाई पड़ता है. सर्वदर्शन संग्रह में अंतरिक्ष और काल को समानधर्मा माना गया है. उसके अनुसार अंतरिक्ष और काल दोनों सर्वव्यापी हैं. इसके बावजूद दोनों में अंतर है. अंतरिक्ष चतुर्विमीय संरचना है. जबकि काल एकपक्षीय विस्तार. सर्वदर्शन संग्रह के अनुसार काल का अस्तित्व तो है, किंतु उसमें कायत्व अथवा विशालता का अभाव है. एक पक्षीय होने के कारण इसमें विस्तार नहीं है.(भा. . 256) जैन ग्रंथ ‘पंचास्तिकारसमयसार’ में समय को लेकर गहन चिंतन मिलता है. देखा जाए तो यही वह ग्रंथ है जिसमें समय के बारे में आधुनिक चिंतन की सच्ची झलक मौजूद है. पंचास्तिकारसमयसार समय को नित्यकाल और सापेक्षकाल में बांटता है. नित्य काल निराकार एवं आदिअंत से सर्वथा मुक्त है. जबकि सापेक्षकाल समय के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण. नित्यकाल का न आदि है न ही अंत. दूसरी ओर सापेक्षकाल का आदि भी है तथा अंत भी. सुविधा के लिए उसको घंटे, मिनट आदि में भी विभाजन किया जा सकता है, ‘नित्यरूप काल को हम ‘काल’ के नाम से एवं सापेक्षकाल को ‘समय’ के नाम से पुकारते हैं. काल समय का महत्त्वपूर्ण कारण है. वर्तन अथवा परिवर्तनों की निरंतरता परिणाम द्वारा अनुमान की जाती है. (पंचास्तिकायसमयसार-89) सापेक्ष समय का निर्णय परिवर्तनों अथवा वस्तुओं के अंदर गति के द्वारा होता है. यह परिवर्तन अपने आपमें निरपेक्षकाल के कार्य हैं. (पंचास्तिकायसमयसार-107-108). काल को चक्र अथवा पहिया या घूमने वाला कहा जाता है. चूंकि काल की गति से सब पदार्थों की आकृति का विलयन संभव होता है, नई आकृतियां जन्म ले पाती हैं—अतएव काल को संहारकर्ता भी कहा गया है. बौद्ध मतावलंबी भी समय को अंतविहीन मानते हैं. बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति के अनुसार संसार सतत प्रवाह है. इसका न आदि है न ही अंत. इसलिए समय का भी न आदि है न अंत.

 

 

प्रकट में, अपनेअपने आग्रहों के फलस्वरूप विज्ञान और दर्शन दोनों ही सृष्टि पूर्व समय की उपस्थिति को नकारते हैं. विज्ञान मानता है महाविस्फोट से पहले समय का कोई अस्तित्व नहीं था. ब्रह्मांड अतिउच्च संपीडन की अवस्था में. रातदिन का अस्तित्व ही नहीं था. महाविस्फोट के साथ ब्रह्मांड का जन्म हुआ और अगले ही क्षण वह तेजी से फैलने लगा. सेकंड के बेहद सूक्ष्म हिस्से के भीतर ब्रह्मांड का आकार दोगुना हो गया. उसके बाद तो यह और भी तीव्र गति से फैलने लगा. आगे चलकर आकाशगंगाएं बनीं. सौरमंडल अस्तित्व में आया. लेकिन वैज्ञानिक भी इतना तो मानते ही हैं कि महाविस्फोट से पहले ब्रह्मांड उच्च संपीडित अवस्था में था. भले ही इतनी सघनावस्था में कि दिनरात आदि का अस्तित्व ही संभव न हो. परंतु महाविस्फोट से पहले भी कुछ था. भले ही वह उच्च संपीडित अवस्था में, बिंदुरूप में हो. वैज्ञानिक यह जानने के लिए सिर नहीं खपाते कि उच्चतम संपीडन की अवस्था कब से थी? क्यों थी? इस बारे में उनकी परिकल्पनाएं मौन दिखाई पड़ती हैं. असल में ब्रह्मांड के अस्तित्व से पहले समय को ले जाने की कठिनाई है कि तब हमें एक और ब्रह्मांड की कल्पना करनी पड़ेगी, भले ही उसका आकार लघुत्तम अथवा बिंदुसम क्यों न रहा हो. जैसा कि बौद्ध दर्शन में किया गया है. वह ब्रह्मांड की नश्वरता के सिद्धांत पर विश्वास रखता है. बौद्ध दर्शन के लिए यह आसान है. इसलिए कि वह आत्मा और ईश्वर के अस्तित्व पर मौन रहने की सलाह देता है. ब्रह्मांड के सातत्य का सिद्धांत उसके लिए कोई मुश्किल खड़ी हीं करता. मगर सर्वेश्वरवादियों के लिए यह संभव नहीं है.

आस्थावादी ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पहले परमात्मा की सत्ता को स्वीकारते हैं. उनके अनुसार समय की कोई बाहरी प्रतीति नहीं है. वह परमात्मा का ही गुण है, उसके भीतर समाया हुआ—‘यह सब भूत और भविष्यत् जगत् पुरुष ही है.’(10/90/2). ऐसे में समय की सत्ता को चुनौती देना, उसके ऊपर सवाल खड़े कर देता है—स्वयं परमात्मा की सत्ता के ऊपर सवाल खड़े करता है. सर्वेश्वरवादी तो परमात्मा को ही सब कुछ मानते हैं. उनके अनुसार यह चराचर जगत, दृश्यअदृश्य सभी सत्ताएं ईश्वरीय चेतना का ही विस्तार हैं. परमात्मा उनके लिए वह अनंत शुभ का पर्याय है. यह सृष्टि उसका अनंत विस्तार है. सीमित ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मनुष्य इसको समझने का प्रयत्नमात्र कर सकता है. इसी को विस्तार देते हुए ऋग्वेद में आगे लिखा गया है—‘हमारे भौतिक विभाग केवल इंद्रियगम्य भौतिक जगत की व्याख्या देश, काल और कारणों से आबद्ध आकृतियों के रूप में कर सकते हैं. किंतु यथार्थ सत्ता इस सबसे परे है. देश को वह अपने अंदर धारण करते हुए भी स्वयं काल की सीमा में बद्ध नहीं, यह काल से ऊपर है. ’ (भा. . – पृष्ठ 142). समय की स्वतंत्र सत्ता सर्वेश्वरवादी मान्यताओं के आगे प्रश्नचिह्न लगा देती है. ईश्वर यदि समय है, अथवा समय ईश्वर की विशिष्टता है तो क्या समय की भांति ईश्वर भी बीतता है? ईश्वर का बीतना अथवा उसकी परिवर्तनकारी अवस्था प्रकारांतर में उसमें विक्षोभ की ओर इशारा करती है. इससे बचने के लिए परमात्मा को मृत्यु और काल की सीमाओं से परे माना गया.

हालांकि समय पूर्व परमात्मा की उपस्थिति अथवा परमात्मा में समय को स्थित मानकर अध्यात्मवादी अपने ही तर्कों के जाल में फंसे नजर आते हैं. होना अपने आप में घटना का प्रतीक है. आस्थावादियों के अनुसार यदि सृष्टि की कारक सत्ता के रूप में ईश्वर पहले से ही अस्तित्व में था तो उसके होने की क्रिया स्वयं सिद्ध है. चाहे वह ईश्वरीय सत्ता के विस्तार के रूप में हो अथवा उसके समानांतर एक स्वतंत्र सत्ता. दूसरे शब्दों यदि सृष्टि से पहले परमात्मा की सत्ता को स्वीकार कर लेते हैं और उससे समस्त घटनाओं की अन्विति मान लेते हैं तो परमात्मा के एक गुण के रूप में अथवा उसके समानांतर, भले ही कितनी ही अवधि के लिए क्यों न हो, समय की उपस्थिति को भी स्वीकार करना पड़ेगा. उस अवस्था में नए सवालों का सिलसिला शुरू हो जाता है. सृष्टि से पहले परमात्मा यदि परमशांत अवस्था था, जैसा कि अध्यात्मवादी स्वीकार करते हैं, तो उसके कथित निष्क्रिय अवस्था से सक्रिय अवस्था में आने तक कुछ न कुछ अंतराल अवश्य रहा होगा. यदि वह निरपेक्ष निष्क्रिय सत्ता के रूप में मौजूद था, तो भी उसके होने की क्रिया अपने आप में स्वयं एक घटना है. आशय है कि दोनों अवस्थाओं में चाहे वह महाविस्फोट से पहले अंतरिक्ष के उच्च संपीडन की अवस्था हो अथवा सृष्टि की प्रमुख कारक शक्ति परमात्मा के रूप में—व्यावहारिक समय की मौजूदगी से इन्कार नहीं किया जा सकता. क्योंकि ऐसी अनेकानेक वस्तुएं हैं जिनके होने की क्रिया से हमारा सीधा परिचय नहीं है. इसके बावजूद हम उनके होने को स्वीकार करते हैं. जैसे अंतरिक्ष.

उस अवस्था में विकास की अभी तक ज्ञात समस्त परिकल्पनाएं सवालों के घेरे में आ जाती हैं. इससे बचाव का दूसरा उपाय भी है कि यह कि समय की सत्ता और उसके अस्तित्व को ही चुनौती दी जाए. यह मान लिया जाए कि अंतरिक्ष की भांति वह भी एक भ्रांति है. घटनाओं की क्रमिकता और मानवस्मृति के योग से बना एक एहसास मात्र है. प्रत्येक घटना अपनी विशिष्ट गति से संपन्न होती है. उसके अनुसार हमारे मनस् पर स्मृति के योग से बना प्रभाव समयांतराल की प्रतीति देता है. यहां एक सामान्यसा प्रश्न उठाया जा सकता है कि घटनाओं के प्रभाव, क्रमानुक्रम अथवा उनकी अन्वति से परे समय क्या है? यदि यह माना जाए कि समय भूतभविष्य, वर्तमान आदि न होकर अंतरिक्षसम संचरना है और घटनाएं उसके भीतर घटती रहती हैं, तो घटनाओं की आवृत्ति, क्रमानुक्रम से परे भी क्या समय की प्रतीति संभव है? यदि हां, तो तब समय की प्रतीति और अंतरिक्ष की प्रतीति के बीच भेद कैसे संभव होगा. वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड के जन्म से पहले उच्च संपीडन की अवस्था तथा अध्यामवादियों की दृष्टि में ब्रह्मांड से पहले परमात्मा की मौजूदगी अपने आप में स्वयं एक घटना थी. तदनुसार किसी न किसी रूप में सृष्टिपूर्व समय की उपस्थिति भी अवश्य रही होगी, भले ही अपनी सीमाओं में हमारा मस्तिष्क उसकी कल्पना कर पाने में असमर्थ हो. समय की सत्ता को मान्यता प्रदान करना, ऐसी ही उलझनों से दोचार होना है. दर्शन का कार्य ऐसी ही चुनौतियों से संवाद करते रहना है.

समय को लेकर मौलिक चिंतन पश्चिम में इमानुएल कांट के दर्शन में प्राप्त होता है. विशेषकर समय और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में. क्या ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई? अथवा यह हमेशा ऐसा ही था? इमानुएल कांट के लिए यह विवेचना का विषय था. कांट जीवन में नैतिक मूल्यों को महत्त्व देता था और विचारों से उसका द्रष्टिकोण समन्वयवादी था. उसको लगता कि समय के प्रति लोगों के मन में समाया डर अनेक नैतिक समस्याएं खड़ी कर देता है. भयभीत मनुष्य दूसरों को भूलकर केवल अपनी चिंता करने लगता है. इसलिए समय और ब्रह्मांड के अस्तित्व को लेकर तत्कालीन चिंताएं उसके दर्शन का हिस्सा भी बनीं. दोनों पर विचार करने के बाद उसको लगा कि दोनों ही विचारधाराओं में न केवल अंतर्विरोध हैं, बल्कि वे अतिवादी भी हैं. यदि यह माना जाए कि किसी बिंदू पर ब्रह्मांड की शुरुआत हुई तो फिर कर्ता ने शुरुआत के लिए अनंतकाल तक प्रतीक्षा क्यों की? आखिर क्या कमी थी, जो अपने संरचना को लंबे समय तक दबाए रखा. और यदि यह मान लिया जाए कि ब्रह्मांड अनंतकालीन सत्ता है, उसमें बस परिवर्तन होते रहते हैं हैं तो ब्रह्मांड ने अपनी पुरानी स्थिति से, इसको बिग बैंग कहें या कुछ और, वर्तमान अवस्था तक आने में इतना लंबा समय क्यों लिया? कांट ने इन दोनों धारणाओं को क्रमशः ‘थीसिस’ और ‘एंटीथीसिस’ का नाम दिया. लेकिन समय को लेकर वह किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सका.

कांट के समय तक भी अधिकांश दार्शनिकों का विचार था कि समय निरपेक्ष और अपरिवर्तनशील सत्ता है. वह अनंत भूतकाल से अनंत भविष्य की ओर अग्रसर है. महाविस्फोट(बिग बैंग) सैद्धांतिकी ने भले ही समय को ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पहले मानने से इन्कार कर दिया था, मगर अधिकांश दार्शनिकों का कहना था कि समय अनंत भूतकाल से अनंत भविष्य की ओर अग्रसर है. वह इससे अप्रभावित है कि उसकी पृष्ठभूमि में किसी ब्रह्मांड का अस्तित्व है या नहीं? इन्हीं चुनौतियों ने आइंस्टाइन को समय को चौथा आयाम स्वीकारने के लिए प्रेरित किया था. प्रयोगों के आधार पर आइंस्टाइन ने सिद्ध किया कि समय पर भी ब्रह्मांड की दूसरी गतिविधियों का प्रभाव पड़ता है. समय संबंधी उसके दो प्रयोग चौंकानेवाले थे—पहला यह कि यदि स्रोत और प्रेक्षक दोनों के बीच वेग की स्थिति है और विस्थापन बढ़ रहा है, उस अवस्था में यदि स्रोत टार्च का प्रकार प्रेक्षक पर डालकर देखता है, तो स्रोत और प्रेक्षक के बीच वेग की चाहे जो स्थिति हो, प्रकाशवेग दोनों के लिए एकसमान रहेगा. दूसरा समय की सिकुड़न का विचार था. आइंस्टाइन से पहले माना जाता था कि समय का वेग हर स्थिति में एक ही होता है. मगर आंइस्टान ने अपने सापेक्षिकता के सिद्धांत द्वारा सिद्ध किया था कि यदि अलगअलग पिंडों पर मौजूद दो व्यक्ति समय का आकलन करते हैं और उनमें से एक अतिउच्च वेग, प्रकाशवेग के बराबर से गमितान है तो गतिशील पिंड पर मौजूद प्रेक्षक के लिए समय ठहरा हुआ प्रतीत होगा. यह मानते हुए कि प्रकाश वेग से उच्च वेग असंभव हैं और समय के वेग को प्रकाशवेग से कम आंकने पर दूसरी समस्याएं खड़ी हो सकती हैं, आइंस्टाइन ने समय के वेग को प्रकाशवेग के बराबर माना.

आइंस्टाइन के शोध से आगे बढ़ते हुए पेनरोज और स्टीफन हाकिंग इस नतीजे पर पहुंचे थे कि यदि सापेक्षिकता का सिद्धांत सही है तो ‘परमबिंदू’(सिंगुलैरिटी) की अवस्था भी होनी चाहिए, जिसमें उन्होंने अनंत घनत्व और दिक्काल कर्वेचर वाले ऐसे बिंदू की कल्पना की थी, जहां से समय की शुरुआत होती है. यदि हम समय को प्रकाश जैसा वेगवान मान लेते हैं या फिर हाकिंग के शब्दों में परमबिंदू की कल्पना करने लगते हैं तो, प्रकाश की ही भांति समय भी भौतिक पदार्थ सिद्ध हो जाता है. जैसा निरीश्वरवादी जैन दर्शन मानता है. उसमें समय को अर्धद्रव्य माना गया है. मगर इससे भी शंकाओं का समाधान नहीं हो पाता. क्योंकि द्रव्य हो या अर्धद्रव्य, दोनों ही नश्वर हैं. उस अवस्था में समय को भी एक न एक दिन नष्ट हो जाना चाहिए. परंतु समय ऐसी कोई प्रतीति नहीं देता. वह हमारे चारों और घट रही घटनाओं के रूप में निरंतर अपने होने का एहसास कराता है. यदि ध्यानपूर्वक देखें तो हाकिंग द्वारा प्रस्तुत परमबिंदू की अवस्था घटनाओं की परमशून्यता की स्थिति भी है, जहां समय की परख के लिए संभावनाएं ही समाप्त हो जाती हैं. कुल मिलाकर समय एक पहेली के रूप में हमारे सामने आता है. सुलझाने के लिए यदि हम पीछे की ओर लौटते हैं तो उसकी पैठ सुदूर अतीत में दिखाई पड़ती है. यदि भविष्य की ओर झांकते हैं तो वह हम सबसे कहीं आगे चल रहा मुसाफिर जान पड़ता है.

क्रमशः….

© ओमप्रकाश कश्यप

opkaashyap@gmail.com

समय का दर्शन-तीन

ज्ञान, ज्ञानार्जन की प्रक्रिया और चौथा आयाम

अक्सर कहा जाता है, ज्ञानी बनो. पुस्तकें ज्ञान का समंदर हैं. उन्हें पढ़ो. जितना संभव हो ज्ञान को समेट लो. समेटते जाओ. ज्ञार्नाजन को अपना लक्ष्य मानकर गुरु की शरण लो. उसकी कृपा से अपने अज्ञान के अंधेरे को दूर करो. लेकिन ज्ञान की ललक में दौड़ते, भागते. उसकी तलाश में भटकते, ठोकरें खाते कभी-कभी यह विचार भी मन में कौंध उठता है कि ज्ञान आखिर है क्या? हम कैसे जाने कि ज्ञान के लिए हमारी दौड़-भाग का जो परिणाम निकला, देर तक भटकने के बाद जिस लक्ष्य पर हम पहुंचे हैं—वह सचमुच ज्ञान है? ज्ञान और अज्ञान के बीच सीमारेखा कैसे खींची जाए? ज्ञान के कौन से लक्षण हैं जो उसको अज्ञान होने से बचाते हैं? साधारणजन के लिए यह उतनी बड़ी समस्या नहीं है. वह गुरुजनों पर विश्वास कर लेता है. धर्मग्रंथों में शताब्दियों पूर्व लिखी गई बातों से अपना काम चला लेता है. उसके लिए ज्ञान स्थायी, अपरिवर्तनशील, कभी न बदलने वाला, युगांतर सत्य है. तर्कबुद्धि को किनारे रखकर वह अपने आस्थावादी दिमाग से सोचता है. उसकी निगाह में गंगा शताब्दियों पहले जब प्रदूषण जैसी कोई समस्या नहीं थी जितनी पवित्र थी, आज भी उतनी ही पवित्र है. ऐसा व्यक्ति समाज की सामान्य समझ और रीति-रिवाजों से अनुशासित होता है. दूसरी ओर जिज्ञासु व्यक्ति मानता है कि ज्ञानार्जन की प्रक्रिया अंतहीन है. वह अपने संदेहों को सम्मान देता है. उसका विश्वास है कि ज्ञान सदैव अज्ञान की बांह पकड़कर चलता है. दोनों के बीच इतना बारीक अंतर है कि ज्ञान कब अज्ञान की सीमा तक पहुंच जाए, और अज्ञान यह कहकर कि वह कम से कम इतना तो जानता ही है कि उसको फलां का ज्ञान नहीं है—स्वयं को ज्ञानवान की परिधि में ले आता है. ऐसा व्यक्ति किसी बंधी-बंधाई लीक पर चलने के बजाय अपना लक्ष्य स्वयं तय करता है. उसका बोध निरंतर परिष्करण को उन्मुख रहता है. वह ज्ञान की चिरंतनता और सतत परिवर्तनशीलता पर अटूट विश्वास रखता है.

ऐसे जिज्ञासु के लिए ज्ञान का सामान्य-सा लक्ष्य है जानना, किसी वस्तु, व्यक्ति, स्थान अथवा विचार को, जैसा वह है—जो वह दिखता है, और उस दृश्यमान के पीछे जो अनदिखा सत्य निहित है, उसका संपूर्ण बोध….वस्तु के रूप, रंग, गंध, गुण, दोष, आंतरिक-बाह्यः संचरना आदि का सर्वांग-परिचय. बेहतर ज्ञान अर्थात बेहतर जानकारी. एक वस्तु का दूसरी वस्तु से, एक विचार का दूसरे विचार से, साम्य-वैषम्य का निष्पक्ष-निरपेक्ष तत्वातत्व विवेचन. लेकिन यह कहना जितना आसान है, उतना है नहीं. किसी वस्तु को समग्रता के साथ जानना-समझना जितना कठिन है, उतना ही कठिन है ज्ञान को परिभाषित करना. किसी वस्तु, व्यक्ति का ज्ञान होना दर्शाता है कि हमें उसके व्यावहारिक एवं सैद्धांतिक पक्ष की संपूर्ण जानकारी है. हालांकि उस समय भी ज्ञान के कई ऐसे पक्ष हो सकते हैं, जो अभी मानवी मेधा के लिए समस्या बने हुए हों, अथवा जिनकी ओर उसका अभी ध्यान ही नहीं गया हो. उस अवस्था में वस्तु के बारे में उपलब्ध जानकारी को ही तत्संबंधी ज्ञान मानकर संतोष कर लिया जाता है. लेकिन ज्ञान का ज्ञान कैसे संभव हो? हम सामान्यतः ज्ञान की बाह्यः उपस्थिति से संतुष्ट हो जाते हैं. ज्ञान स्वयं क्या है? इस ओर हमारी दृष्टि कम ही जा पाती है. यह समस्या हम साधारण लोगों की नहीं है. बड़े-बड़े दार्शनिक और विचारकों के लिए भी ज्ञान को परिभाषित करना कठिन रहा है. किसी वस्तु, व्यक्ति आदि के बारे में सामान्य सूचना को ही उसके बारे में ज्ञान मानकर संतोष कर लिया जाता है. ऐसे में कई सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं. ज्ञान क्या वस्तु में अवस्थित होता है अथवा जिज्ञासु के मानस में? वह स्थायी है अथवा परिवर्तनशील? यदि वह परिवर्तनशील है तो किसी काल-विशेष में ज्ञान की प्रामाणिकता का आधार क्या हो? ऐसे कुछ प्रश्न ज्ञान और ज्ञानार्जन की प्रक्रिया से जुड़े हैं. किसी वस्तु के बारे में हमारे ज्ञान का स्तर इस बात पर निर्भर करता है, कि उसके बारे में हमें कितना बोध है? तथा उसको परखने में लगे हमारे उपकरण कितने निरपेक्ष, संवेदनशील, विश्वसनीय और सुग्राही हैं? इस तरह से देखा जाए तो ज्ञान एक पैमाना है, जिसके द्वारा हम किसी वस्तु, स्थान, व्यक्ति, विचार आदि के बारे में अपने अनुभवों को वैध तथा दूसरे के अनुभवों को परखने हेतु कसौटी तैयार करते हैं. जिससे स्वयं हमारे अपने विवेक की कसौटी तैयार होती है. ज्ञान स्वयं में भी ऐसी कसौटी है जिसपर खरा उतरने के बाद ही कोई तर्क कुतर्क कहलाने से बच पाता है.

ज्ञान की पूर्णता संदेहों को विराम देती, तर्कों को समापन की ओर ले जाती है. ज्ञान की संपूर्णता सदैव एक लक्ष्य होती है. जैसे ही किसी एक रहस्य से पर्दा हटता है, दूसरा आवरण चुनौती बनकर उपस्थित हो जाता है. यह सिलसिला निरंतर बना रहता है. व्यवहार में कहा जाता है कि जहां ज्ञान है, वहां शंकाओं के लिए कोई स्थान नहीं है. पर हकीकत है कि जहां शंकाएं हैं वहीं ज्ञान की खुली आमद है. भले किसी को यह विचित्र लगे, पर सच यही है कि हमारी शंकाएं हमारे ज्ञान के सफर को आगे बढ़ाती हैं. निरंतर बढ़ते रहने की प्रेरणा देती हैं. पीटर अबेलार्ड के मन में भी कुछ प्रेरणादायी शंकाएं रही होंगी, जब उसने ये शब्द कहे—‘संदेह हमें जांच-पड़ताल को प्रेरित करती है और जांच-पड़ताल हमें सत्य का रास्ता दिखा देती है.

ज्ञान इतना बहुआयामी होता है कि मनुष्य किसी वस्तु या विचार के एक समय में एक पक्ष को लेकर ही बात कर पाता है. किसी वस्तु या विचार को लेकर हमारी शंकाएं दर्शाती हैं कि हमारे भीतर उस वस्तु को जानने की अभिलाषा जन्म ले चुकी है. जब हम सवाल करते हैं कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा क्यों करती है? तो निश्चितरूप से हमें इसके पूर्व प्रश्न कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, का बोध होता है. पृथ्वी सूरज की परिक्रमा क्यों करती है? उसकी गति और कारण क्या है? उसके लिए ऊर्जा कहां से प्राप्त होती है? दूसरे ग्रहों, उपग्रहों की गति से उसका क्या संबंध है? ऐसे प्रश्नों की अंतहीन शृंखला किसी एक प्रश्न के साथ ही आरंभ हो जाती है. जरूरी नहीं कि सभी प्रश्न किसी एक व्यक्ति के दिमाग में एक ही बार में आ जाएं. परंतु आपसी चर्चा के दौरान, बहस के दौरान, चिंतन-मनन अथवा इतिहास के भिन्न-भिन्न दौर में, ये प्रश्न जन्मते ही रहते हैं. कह सकते हैं कि प्रश्न बीजमंत्र होते हैं. एक छिटका तो उसके बाद प्रश्नों की झड़ी लग जाती है. हमारे अबूझे प्रश्न हमें बताते हैं कि जानना सीमित एक पड़ाव-भर है. ज्ञानार्जन की कोशिश में लगे उपकरणों की भी सीमा है. इसके बावजूद ज्ञान के किसी एक चरण में ही हम उसके बारे में प्रश्नों की सुदीर्घ शृंखला से जुड़ जाते हैं. ज्ञानार्जन की अनवरत चलने वाली प्रक्रिया में कुछ के उत्तर हमें मिलते हैं, कुछ के नहीं भी मिलते. इसी प्रकार प्रथम और द्वितीयक चरणों में ज्ञान आगे बढ़ता है. यह परंपरा इतनी लंबी और सुदीर्घ होती है कि हमारे ज्ञान का स्तर हमेशा प्रथम पायदान पर होता है. जिज्ञासु के रूप में हम स्वयं को सदैव एक नए लक्ष्य के सामने पाते हैं, जो हमेशा लक्ष्य बना रहता है. रोजमर्रा के जीवन में शंका और संदेह को अच्छे मन से नहीं देखा जाता. शंका-युक्त ज्ञान को अज्ञान का दर्जा दे दिया जाता है. उसको अपूर्ण माना जाता है. लेकिन दर्शन ऐसा नहीं मानता. उसके लिए शंकाएं समाधान से कम महत्त्वपूर्ण नहीं होतीं. वे ज्ञान को उसकी पूर्णता की ओर ले जाने का एक अनिवार्य माध्यम हैं. इस तरह हमारा ज्ञान हमारी अंतर्बाह्यः दुनिया के बारे में सांगोपांग बोध है. जिसके माध्यम से हम दृश्य-अदृश्य वस्तुओं, ब्रह्मांड, आचार-विचार आदि के बारे में अपनी तथा दूसरों की विवेकशीलता के स्तर का अनुमान लगा पाते हैं.

ज्ञानार्जन की प्रक्रिया

स्मृति मनुष्य का वह गुण है जो उसको मनुष्येत्तर प्राणियों से अलग और विशिष्ट ठहराता है. यह ज्ञानार्जन की प्रक्रिया का प्रथम उपकरण है. मनुष्य को जो अनुभव होते हैं, हमारी स्मृति उन्हें मानसिक छवियों में संग्रहित करती रहती है. दार्शनिक शब्दावली में ये छवियां प्रत्यय कहलाती हैं. अनुभव के साथ हमारी मानस-छवियों में भी वृद्धि होती रहती है. उनमें से कुछ कम महत्त्वपूर्ण पद विस्मृति के रूप में लगातार ओझल होते रहते हैं. हालांकि मस्तिष्क उनके प्रभाव को हमेशा के लिए कभी विस्मृत नहीं होने देता. अनुकूल अवसर देख वह उन्हें विस्मृति के गर्भ से बाहर ले आता है. प्रत्यय निर्माण की सामग्री हमारे मनस् में प्रायः दो प्रकार से आती है. हमारे निजी अनुभव जो सीधे हमारी इंद्रियों के माध्यम से हमारे मस्तिष्क तक पहुंचते हैं. जैसे मेज को देखने के साथ ही एक छवि हमारे मस्तिष्क में पैठ जाती है. भविष्य में जैसे ही हमारे सामने मेज जैसी संरचना आती है अथवा कोई उसका जिक्र भी करता है तो हम जान जाते हैं कि वह मेज के बारे में है. सीधे अनुभव के अलावा दूसरों के अनुभव भी हमारे प्रत्यय-निर्माण में मददगार होते हैं. वे बातचीत, किस्से-कहानी, पुस्तक, लोकसंवाद या ऐसे ही किसी अन्य माध्यम से हमारे संज्ञान में आते हैं. उनके बारे में पढ़ते-सुनते-देखते समय ही हम उनकी छवियां अपने मनस् में पैठा लेते हैं. प्रत्ययों को सहेजते समय हमारा मस्तिष्क लगातार क्रियाशील रहता है. नवांतुक प्रत्ययों की पूर्वस्थापित प्रत्ययों से तुलना करते हुए वह उनके आधार पर नई मानस-छवियां गढ़ता रहता है. फलस्वरूप अगली बार जब भी कोई नया प्रत्यय बनता है, उससे तुलना करने के लिए अपेक्षाकृत अधिक संख्या में प्रत्यय पहले से ही मनस् में मौजूद रहते हैं. उनके सहयोग-टकराव से कुछ नए प्रत्यय बनते रहते हैं, जो हमारी मेधा को समृद्धि प्रदान करते हैं. हमारे मस्तिष्क में प्रत्ययों की एक स्वतंत्र दुनिया बसी होती है. हमारा बोध, हमारा ज्ञान कहीं न कहीं उन्हीं से निर्धारित होता है.

प्रत्यय निर्माण में वस्तु-विशेष के अस्तित्व का योगदान होता है. दूसरे शब्दों में अस्तित्व किसी वस्तु का वह गुण अथवा गुणों की अन्योन्याश्रित शृंखला है, जिससे वह पहचानी जाती है. जिसके आधार पर वह दूसरों से भिन्न सिद्ध होती है. यह वैभिन्न्य मानव-मस्तिष्क की रचना है, जो उसने दृश्य वस्तुओं के भौतिक-भाविक रूप को देखते हुए उनकी स्वतंत्र पहचान बनाए रखने के लिए उन्हें दी है. आवश्यक नहीं कि वे भी स्वयं उस पहचान से परिचित हों. घड़ा और ईंट दोनों ही मिट्टी से व्युत्पन्न हैं. अपने रूपाकार में दोनों स्वतंत्र. इतने कि उन्हें एक-दूसरे से अस्तित्व से, गुणों से कोई वास्ता नहीं. पर आदमी को उनसे वास्ता है. घड़ा र्या इंट भले न जानते हों कि वे क्या हैं? मनुष्य उन्हें अलग-अलग पहचान लेता है. इसलिए कि ये संज्ञाएं उसी के द्वारा दी गई हैं. बचपन से ही बालक को उसके आसपास मौजूद विभिन्न वस्तुओं तथा उनके रूपाकारों के बारे में बताया जाता है. ये रूपाकार अलग-अलग छवियों के रूप हमारे मस्तिष्क में मौजूद रहते हैं. ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति वस्तु अथवा विचार विशेष तथा मस्तिष्क में मौजूद प्रत्ययों की तुलना द्वारा जान लेता है कि प्रेक्षित वस्तु क्या है. आवश्यक नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति के मनस् में सभी प्रत्यय मौजूद हों. उस अवस्था में व्यक्ति दूसरे के अनुभवों और छवियों से काम चला लेता है. इस तरह ज्ञान सामूहिक प्रक्रिया भी है.

प्रश्न है कि क्या गुण वस्तुओं की निजी विशेषता होते हैं? यदि हां, तो क्या हम वस्तुओं को उसी रूप में जान पाते हैं, जैसी वे हैं. आम को ‘आम’ संज्ञा मनुष्य द्वारा दी गई है. निर्जीव वस्तुएं नहीं जानतीं कि वे स्वयं क्या हैं? आप आम को ‘आम’ कहें या ‘इमली’, इससे आम को कोई फर्क नहीं पड़ता. आम यह भी नहीं जानता कि वह खट्टा है या मीठा. यह तय करना उसका काम नहीं है. खट्टा-मीठा स्वाद या अनुभूतियां हैं, जिनका नामकरण प्रकृति साहचर्य से गुजरते हुए मनुष्य द्वारा किया गया है. पृथ्वी के अलग-अलग प्रांतों में भटकते हुए मनुष्य को भिन्न-भिन्न अनुभव हुए. उसके फलस्वरूप अलग-अलग भाषाएं बनीं. सभ्यताओं के संपर्क के आधार पर भाषायी परिवर्तन-संबर्धन के दौर भी चलते रहे. कह सकते हैं कि ज्ञान प्रकृति के साहचर्य द्वारा अर्जित बौद्धिक-आनुभविक संपदा है. लेकिन उसके प्रमाणीकरण का आधार क्या हो? कैसे कहें कि हमें वस्तु का यथातथ्य ज्ञान है? ज्ञान के प्रमाणीकरण की सबसे बड़ी समस्या है कि सृष्टि में मनुष्य अकेला विवेकवान प्राणी है. ज्ञान उसके लिए वरदान है तो अभिशाप भी है. वरदान इसलिए कि बाकी प्राणियों की ओर से मनुष्य के श्रेष्ठत्व को कोई बड़ी चुनौती कभी दी नहीं जा सकी. अपने ज्ञान के बल पर मनुष्य पशु-पक्षियों से अपने स्वार्थानुकूल काम लेता आया है. बल्कि उसने सृष्टि के विभिन्न तत्वों की व्याख्या ही अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर की है. अभिशाप इसलिए कि अपनी खूबियों, खामियों, स्वाध्याय, साधना, अध्ययन और चिंतन द्वारा मनुष्य ने भाषा की जो कसौटियां बनाईं, उन्हें यदि मनुष्येत्तर प्राणियों की ओर से भी चुनौती मिल पाती तो निश्चय ही विमर्श का दायरा और उसकी परिधि में विस्तार होता.

प्रकृति द्वारा केवल मनुष्य को स्मृति का वरदान प्राप्त है. इसके माध्यम से वह अपने अनुभवों, ज्ञान आदि को आने वाली पीढ़ियों को सौंपता आया है. आज के मनुष्य के प्रबोधीकरण में उसकी सैकड़ों पीढ़ियों का योगदान है. जिसे हम ज्ञान कहते हैं, उसकी कसौटियां मनुष्य ने ही तैयार की हैं. इन कसौटियों में समय-समय पर संशोधन भी होता रहा है. कई बार मनुष्य को अपना ज्ञान अपर्याप्त लगने लगता है. उदाहरण के लिए भाषा का मुद्दा. जैसे ‘खट्टी’ कही जाने वाली दो वस्तुओं में से एक वस्तु कम खट्टी है, दूसरी अधिक खट्टी. भाषा की सीमा है कि वह अधिक से अधिक खट्टेपन के स्तर को ‘कम’ या अधिक’ के रूप में अभिव्यक्त कर सकती है. संभव है कुछ लोकभाषाओं में अधिक खट्टेपन और कम खट्टेपन को अभिव्यक्त करने के लिए अलग शब्द हों. फिर भी अधिक और कम के बीच खट्टेपन के जो भिन्न स्तर हो सकते हैं, उनकी सटीक अभिव्यक्ति में हमारे भाषायी उपकरण काम नहीं आते. कोई वस्तु ठीक-ठीक कितनी खट्टी है, यह बताने में भाषा असमर्थ रहती है. रसायन विज्ञान पदार्थ में मौजूद अम्लीयता को मापकर पीएच मूल्य के आधार पर खट्टेपन को अंकों में अभिव्यक्त कर सकता है. लेकिन उसके द्वारा हमारे मस्तिष्क में दर्ज सूचना आंकिक होगी. खट्टेपन के बोध से सर्वथा परे. दूसरे शब्दों में विज्ञान खट्टेपन को लेकर उसके कारण अम्लीयता का सटीक पीएच स्तर तो बता सकता है. लेकिन स्वाद का अंकीकरण, पीएच मूल्य का ज्ञान हमारे मन में खट्टेपन का बोध जाग्रत नहीं कर पाते. यह जानकारी हमें अलग-अलग तरह से प्रभावित करती है. खट्टापन हमारी अनुभूति का विषय है. जबकि पीएच स्तर विशुद्ध बौद्धिक सूचना. इसे एक कथात्मक उदाहरण के माध्यम से भी समझा जा सकता है—

‘एक राजा था. प्रजा हित में उसे एक किसान के खेत की जरूरत पड़ी. खेत में था कटहल का पेड़. उसने मांग की कि उसको कटहल के पेड़ का भी मुआवजा दिया जाए. फरियाद लेकर वह राजा के दरबार में पहुंचा.
‘पेड़ का मुआवजा! ऐसा तो आज तक सुनने में नहीं आया….कितना मुआवजा चाहते हो?’
‘महाराज मेरा कटहल का पेड़ तीन हाथियों जितना ऊंचा है. हर साल वह इतने फल देता है कि तीन हाथियों का पेट भर सके. इसलिए मुझे उस पेड़ के बदले तीन हाथियों जितना मुआवजा दिया जाए?’
किसान ने अपनी बात कुछ इस तरह रखी कि जो दरबारी पेड़ के मुआवजे की बात सुनकर हंसे थे, उसके पक्ष में हो गए. कटहल के एक पेड़ के बदले तीन हाथियों जितना मुआवजा, राजा एकाएक निर्णय न ले सका. अगले दिन निर्णय सुनाने को कहकर उसने किसान को वापस कर दिया. संयोगवश राजा अगले दिन ही चल बसा. कुछ दिनों बाद किसान भी दुनिया से कूंच कर गया. उसके बाद तो वर्षों बीते. समय बदला. निजाम बदला. राजशाही की जगह लोकतंत्र ने ले ली. अनपढ़ किसान के बेटे पढ़-लिखकर नौकरी करने लगे. सरकार को फिर उस जमीन की जरूरत पड़ी. कटहल का पेड़ पहले की भांति अब भी हर साल फलता था. जेठ-बैशाख में उसकी डालियां फलों से लद जातीं. किसान के बेटों ने भी कटहल के पेड़ का मुआवजा मांगा. सरकारी कर्मचारियों ने टाल-मटोल की तो उन्हांेने मुकदमा दायर कर दिया.
‘कितना मुआवजा चाहते हो?’ अदालत में पूछा गया.
‘श्रीमान पेड़ बड़ा ही होनहार है. हमारे पिता के जमाने से ही फल देता आ रहा है. दस-पंद्रह वर्ष और फल देगा. ऐसा कमाऊ पेड़ हमसे ले लिया गया तो हमारा लाखों का नुकसान हो जाएगा.’
‘कितने वर्ष और फल देगा, दस या पंद्रह. ठीक-ठीक बताओ?’
‘जी पंद्रह वर्ष!’
‘एक साल की फसल और पेड़ की लकड़ी की कीमत बताओ?’ किसान के बेटों ने बता दिया.
अदालत ने लकड़ी की कीमत के साथ एक साल के कटहल के बाजार-मूल्य का पंद्रह गुना जितना मुआवजा तय कर दिया. किसान के बेटों ने इसे अपनी जीत माना.

किसान और उसके बेटों में एक समानता है. दोनों ही अपने अधिकार के बारे में जानते थे. दोनों को लगता था कि कटहल के पेड़ का मुआवजा मिलना चाहिए. न मिलने पर आगे फरियाद की जा सकती है, यह भी उन्हें मालूम था. लेकिन कटहल के मुआवजे में रूप में किसान ने तीन हाथी मांगे थे. जबकि उसके बेटे लकड़ी और पंद्रह वर्ष की फसल मुआवजा लेकर संतुष्ट हो गए. इसलिए कि किसान से उसके बेटों तक आते-आते समय वातावरण बदल चुका था. इस आधार पर कह सकते हैं कि मनुष्य का बोध अनुभव सिद्ध होता है. परिवेश बदलने के साथ ही उसके ज्ञान का स्वरूप भी बदलता रहता है. किसान का जैसा अनुभव था, उसने उसके अनुसार मुआवजे की मांग की थी. उसके बेटों के अपने अनुभव के अनुसार. इसलिए यह कहना कि गुण केवल मनोजगत की रचना है उचित नहीं है. दूसरी ओर यह कहना भी सही न होगा कि गुण वस्तु में अवस्थित होते हैं. गुण यदि केवल वस्तु में स्थित होते तो प्रत्येक प्रेक्षक को उन्हें समान रूप से प्रभावित करना चाहिए. जबकि ऐसा नहीं होता. चार चित्रकारों को यदि एक मूर्ति के चारों ओर बिठाकर चित्र बनाने को कहा जाए तो उनके बनाए चित्र अलग-अलग होंगे. लेकिन यदि मूर्ति न हो और उन्हें कल्पना के आधार पर उसका चित्र बनाने को कहा जाए तो उसकी प्रस्तुति में और भी बड़ा अंतर होगा. फिर भी अवलोकन न तो कोई यांत्रिक क्रिया है, न ही ज्ञान के हमारे सारे के सारे पैमाने जड़ हैं. हमारा बोध न केवल स्वतंत्र है, बल्कि उसमें संशोधन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. लेकिन गुण केवल मनोरचना नहीं हो सकते. उनका मूलाधार वस्तुएं होती हैं, एक प्रेक्षक के रूप में मनुष्य उनसे अपनी सीमाओं के अनुसार ग्रहण करता है. भाषा एवं अभिव्यक्ति के अन्य उपकरणों के विकास की दर, आनुभविक जगत की विकासदर से बहुत कम होती है. किसी भी लेखक-साहित्यकार का सामथ्र्य नहीं है कि वह अपनी अनुभूतियों को सटीक अभिव्यक्ति दे सके. उस समय उसको तुलना द्वारा काम चलाना पड़ता है. मसलन बहुत खट्टे आम को ‘तेजाब की तरह खट्टा’ कह देना. अभिप्राय है कि किसी वस्तु के गुण भले ही उसकी अपनी विशेषता हों, लेकिन उन्हें अपनी अभिव्यक्ति के लिए मनुष्य पर निर्भर करना पड़ता है. यह अलग है कि अभिव्यक्ति के उसके उपकरण अधूरे और अक्षम हों. वस्तु के बारे में उसके जो गुण हमारे लिए उपयोगी नहीं होते उसके अवगुण कहलाते हैं. यह विशेषण हैं जो मनुष्य ने अपनी सुविधा और हित के अनुसार निर्धारित किए हैं. गुण और अवगुण का भेद भी व्यक्तिपरक और परिस्थतिकीय हो सकता है. किसी भूखे व्यक्ति को करेले का कड़वा रस भी आम के रस की भांति अमृत तुल्य लगेगा. जबकि भरे पेट वाला व्यक्ति आम के रस के स्वाद का भी आनंद नहीं उठा पाएगा.

वस्तुओं को टिककर देखने-परखने की सम्यक दृष्टि के अभाव में हम सामान्यीकरण करने लग जाते हैं. मसलन आम चीनी तरह मीठा है. ‘इमली’ तेजाब जितनी खट्टी है. ऐसे उदाहरण हमारे प्रबोधीकरण में सहायक होते हैं. परंतु इनसे सारा जोर वस्तु के किसी एक गुण पर ही अटक जाता है. वस्तु के बाकी गुणों की ओर हमारी निगाह ही जा पाती. हर भाषा की एक सीमा होती है. कभी-कभी शब्द चुकने लगते हैं. कभी-कभी हम कहना कुछ चाहते हैं, कह कुछ और जाते हैं. घर नदी पर है, उसमें कहने और समझने वाले दोनों का वही अर्थ नहीं होता जो शब्दों की निष्पत्ति है. उस अवस्था में शब्दार्थ के बजाय लक्षणार्थ को प्रधानता दी जाती है. लक्षण की अभिकल्पना भाषायी दुर्बलता को दूर करने की कोशिश का ही रूप है. इस भाषायी दुर्बलता का कारण भी है, क्योंकि उसकी रचना जिस मानवी मेधा द्वारा हुई है, वह सीमित होती है. लेकिन बोध की सीमाओं और भाषायी अक्षमताओं के चलते इस प्रकार के तुलनात्मक प्रयास अनिवार्य होते हैं. इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अज्ञान ज्ञान का विलोम न होकर उसके अभाव की अवस्था है. कोई बात जो झूठ नहीं है, आवश्यक नहीं कि वह सच भी हो. ऐसे ही काला और सफेद रंग दो विभिन्न स्थितियां हैं. नदी के दो पाटों के समान. एक इस तरफ दूसरी उस तरफ. एक के हाथ में हजार रुपये आए. उसने वे तत्काल दूसरे को सौंप दिए. दूसरे के पास भी इतने ही रुपये आए. उसने अपनी गांठ में बांध लिए. यह तो अपना-अपना व्यवहार है; या कि व्यापार करने का अपना अलग ढंग. वस्तुतः विलोम की संकल्पना प्रतिकूल परिस्थितियों की सही ढंग से व्याख्या न कर पाने के वाली हमारी वौद्धिक अक्षमता की उपज है. यह हमारी वुद्धि और अभिव्यक्ति की सीमा भी है.

ज्ञान का स्वरूप

ज्ञान अनंत है. उसे हम परमसत्ता का प्रतीक भी कह सकते हैं. लेकिन वह है इसी प्रकृति और ब्रह्मांड का रूप. उससे बाहर कुछ नहीं. कुछ हो भी नहीं सकता. दोनों एक ही रूप हैं. अलग-अलग मानेंगे तो व्यवस्था संबंधी अनेक समस्याएं पैदा हो जाएंगी. एक अनंत में दूसरी अनंत सत्ता कैसे समा सकती है. समाएगी तो फिर उनमें से किसी को भी अनंत भला कैसे कहा जा सकता है. परमसत्य के इन सभी रूपों को जानना समझना संभव नहीं है. वैसे ही परमसत्ता को उसकी समग्रता के साथ समझ पाना असंभव है. सीमित सामथ्र्य वाली मानवेंद्रियांे की क्षमता से यह बिलकुल बाहर है. उन आंखों का हम कैसे भरोसा करें जो तस्वीर के दूसरे पक्ष की ओर एक समय में एक साथ कभी जाती ही नहीं. जबकि परमसत्ता को समझने के लिए कम से कम पंचविमीय दृष्टि चाहिए, जो आइंस्टाइन के चतुर्विमीय संसार के अलावा उसके भीतर झांकने में भी सामथ्र्यवान हो. घ्राण, स्पर्श, और श्रवणेद्रियों के अनुभवों को भी अंतिम और प्रामाण्य नहीं माना जा सकता.

ज्ञान वस्तुनिष्ठ होने के साथ-साथ व्यक्तिनिष्ठ भी होता है. देशकाल के अनुसार किसी वस्तु के बारे में प्रेक्षकों की धारणाएं भिन्न-भिन्न हो सकती हैं. आम के वृक्ष को देखकर कृषि विज्ञानी, चिकित्सक, भौतिकविज्ञानी और साधारण आदमी सभी देखने का दावा कर सकते हैं. लेकिन उनके अनुभव और अभिव्यक्तियां परस्पर शायद ही मेल खाएंगी. कृषिविज्ञानी संभव है फसल का अनुमान लगाते हुए उससे होने वाली आय के बारे में बताना चाहे. उसका आम संबंधी ज्ञान वृक्ष की प्रजाति औसत पैदावार, पत्तियों और तने की आंतरिक संरचना जैसी जानकारी से भरपूर होगा. कृषि-विज्ञानी आम के औषधीय गुणों की चिकित्सक जैसी जानकारी रखता हो, यह आवश्यक नहीं है. चिकित्सक के उम्मीद की जा सकती है कि वह आम के साथ उसके तने, पत्तियों, और बौर के औषधीय गुणों का भी ज्ञान रखे. इसी प्रकार भौतिक-विज्ञानी आम के वृक्ष के रूपाकार के बारे में ही बेहतर टिप्पणी कर सकता है. साधारण आदमी आम के पत्तों, लकड़ी, फल और बौर आदि के सांस्कृतिक उपयोग, उसके फल और उससे तैयार होने वाले व्यंजनों आदि के बारे में व्यावहारिक जानकारी दे सकता है. इन सभी का ज्ञान प्रामाण्य है. एक मनुष्य भले ही वह कितनी ही विलक्षण प्रतिभा का स्वामी हो, ब्रह्मांड से अपने हिस्से का केवल उतना ज्ञान समेट पाता है, जितना अरबों-खरबों वर्ष पुरानी प्रकृति के आगे उसके अपने जीवन के चंद दिन.

दर्शनशास्त्रीय स्थापनाएं ठोस एवं तर्कशास्त्रीय आधार होने के बावजूद काफी लचीलापन लिए होती हैं. वह किसी भी विचार को अंतिम मानकर नहीं चलता. जबकि विज्ञान में नियम बनाने के साथ ही धारणा विशेष को सर्वस्वीकृति मिल जाती है. उसके बाद नियमों का उपयोग वैज्ञानिक गवेष्णाओं में आप्तवचन की भांति, बिना किसी विवाद एवं संदेह के चलता रहता है. जब तक कि कोई बड़ी और क्रांतिकारी खोज उसके नियमों में आमूल-चूल परिवर्तन न कर दे. जैसे कि न्यूटन के गति के नियम जो आश्चर्यजनक रूप से बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक सर्वमान्य बने रहे, लेकिन आइंस्टाइन ने अपने अध्ययन के दौरान माना कि गति के समीकरण केवल साधारण वेगों के लिए सही हैं. अति उच्च यथा प्रकाशकीय वेगों के लिए गति के समीकरण अनफिट हैं. जाहिर है कि आइंस्टाइन की इन घोषणाओं से न्यूटन के गति नियमों की शाश्वता पर प्रश्नचिह्न लग चुका है. लेकिन उसका उपयोग साधारण वेगों के लिए आज भी पूर्ववत जारी है. कुछ ऐसा ही आइंस्टाइन के सिद्धांत के साथ हुआ. करीब एक शताब्दी तक वह वैज्ञानिकों के मानक सिद्धांत का काम करता रहा. आज स्टीफन हाकिंग जैसे कई वैज्ञानिक सापेक्षता के सिद्धांत में खामी तलाश चुके हैं. क्वांटम थ्योरी ने भौतिकी के परंपरागत सिद्धांतों को उलट-पलट दिया है.

दर्शनशास्त्र का कोई भी विचार संदेह से परे नहीं होता. विज्ञान की तरह वह भी इस बात को महत्त्व देता है कि संदेह से जांच पड़ताल पर पहुंचते हैं और जांच पड़ताल हमें निष्कर्ष तक ले जाती है. विज्ञान और दर्शन में आगे चलकर एक मूलभूत अंतर यह बना कि विज्ञान जहां संदेहों के निवारण के लिए सार्वभौमिक नियमों की ओर अग्रसर रहता है, वहीं दर्शनशास्त्र संदेहों, विरोधी विचारधाराओं को भी सम्मानजनक स्थान देते हुए सत्य की खोज की ओर अग्रसर रहता है. इस प्रकार दर्शनशास्त्र में प्रतिविचार का महत्त्व विचार जैसा ही होता है. जबकि विज्ञान की कोशिश प्रति विचार के उन्मूलन के बाद एक सामान्य-सर्वस्वीकार्य नियम बनाने की होती है, जिसको प्रयोगों पर कसा जा सके. जो प्रत्येक तर्क और परीक्षण की कसौटी पर खरा उतर सके. दर्शनशास्त्रीय संकल्पनाओं का ध्येय मात्र इतना होता है कि वे परमसत्य अथवा उसके किसी अंश की पहचान करने वाले विविध मार्गों में से किसी एक की ओर संकेत भर करती हैं. चूंकि ब्रह्मांड की कारण सत्ता का स्वरूप इतना विराट और अकल्पनीय रहा है, कि कोई विचार-विशेष जो परमसत्ता के एकांश का भी प्रदर्शन करता है, वह भी काफी महत्त्वपूर्ण मान लिया जाता है. यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि परमसत्ता का अभिप्राय किसी दैवीय या ईश्वरीय व्यवस्था से कदापि नहीं है, जैसी कि आस्था या अंधविश्वास के नाम पर अक्सर थोपी जाती रही है. परमसत्ता से हमारा आशय विराट प्रकृति से है जिसमें अखिल ब्रह्मांड और उसके आरपार भी यदि कुछ है तो वह सब समाया हुआ है. दर्शनशास्त्र विज्ञान न होकर भी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की सभी धाराओं से समानरूप में प्रेरणा ग्रहण करता है. इसके साथ ही यह समानांतर रूप में उनके निष्कर्षों को प्रभावित भी करता है.

विज्ञान सामान्यतः प्रमेय और यथार्थ विषयों या ऐसे विषयों को जिनका प्रकारांतर में अन्वीक्षण-विश्लेषण संभव हो सके, अपने अध्ययन की विषय वस्तु बनाता है. यद्यपि यह आवश्यक नहीं है कि अध्ययन के प्रारंभ में भी वे विषय प्रमेय और यथार्थ माने जाते रहे हों. वैज्ञानिक जिज्ञासाएं अक्सर अज्ञेय समझे जाने वाले विषयों को चुनौती देती हैं, अंततः वैज्ञानिक को अपने श्रम और संकल्प के बूते सफलता भी मिलने लगती है. इस प्रकार दार्शनिक विवेचन का मुद्दा रहे विषय वैज्ञानिकों की मेधा के सहयोग द्वारा विशुद्ध वैज्ञानिक विषयों में ढलने लगते हैं. यहां स्पष्ट करना भी जरूरी है कि दर्शन और विज्ञान के बीच कोई स्पष्ट विभाजन रेखा खींच पाना असंभव है. महज अनुमान या कल्पना के आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि फलां विषय विशुद्ध वैज्ञानिक है और फलां केवल दार्शनिक विवेचन की अपेक्षा रखता है. जीनोम की खोज, मास्तिष्क की संरचना, क्वांटम भौतिकी, बह्मांड और समय के बारे में नवीनतम आविष्कार कई ऐसी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां हैं, मानवी मेधा की जिनके कारण हमें सृष्टि की व्युत्पत्ति संबंधी अपनी धारणाओं में संशोधन करना पड़ा. परिणामतः इन खोजों का प्रभाव दर्शन और ज्ञान-विज्ञान की दूसरी शाखाओं पर भी पड़ा है.

कुछ विद्वान समय को भी चैथे तत्व के रूप में जोड़ने का आग्रह करते हैं. इनमें आधुनिक भौतिकविदों की संख्या अधिक है. वस्तुतः प्रेक्षक और प्रेक्षित वस्तु के बीच प्रेक्षण की घटना को संपन्न करने के लिए दोनों के बीच अंतःसंबंधों का विकसित होना अनिवार्य है. यदि प्रेक्षक वस्तु के सापेक्ष प्रकाश आवर्तन की दिशा में प्रकाशीय वेग से जा रहा हो. वस्तु से परावर्तित प्रकाश किरणें प्रेक्षक तक कभी नहीं पहुंच पाएंगी. परिणामतः उपर्युक्त तीनों तत्वों के उपस्थित रहने के बावजूद देखने की क्रिया कभी संभव नहीं हो पाएगी. ऐसी स्थिति में वस्तु संबंधी हमारा ज्ञान शून्य होगा. सत्य एवं तार्किक होने के बावजूद यह नितांत काल्पनिक स्थिति है. विज्ञान की दृष्टि में संभावनाएं भी बहुत महत्त्वपूर्ण होती हैं. प्रत्येक नियम अपने पूरक नियम को साथ रखता है. इसलिए कि वह अपने आप में संपूर्ण नहीं है. सच तो यह है कि खरबों वर्ष पुराने इस ब्रह्मांड और सहस्रों प्रकाशवर्ष में विस्तृत सृष्टि को जानने समझने के लिए हमारे पास जो अनुभव और भाषा है, वह मात्र कुछ हजार वर्ष पुरानी है. स्वयं हमारा अस्तित्व भी कुछ लाख वर्ष पुराना है. इसलिए ‘सर्वखाल्विदं ब्रह्म’ कहकर ज्ञानार्जन की कोशिश से कुछ देर के लिए विराम ले लेता था. हम चाहें स्वयं को जितना बड़ा ज्ञानी माने, सृष्टि-रहस्य को जानने-समझने का जितना दावा करें, हमारा ज्ञान अभी शैशवास्था में है. सृष्टि को जानने का हमारा दावा उस बच्चे की भांति है, जो चांद को पानी से भरे कटोरे में देखकर रोटी समझ लेता है. हमारा यह अहं होगा यदि हम अपने कामचलाऊ ज्ञान को प्रकृति के रहस्यों के अनावरण की संज्ञा से विभूषित करें.

तक क्या मनुष्य को हार मान लेनी चाहिए? छोड़ दे कोशिश प्रकृति को जानने-समझने की. इसके अबूझ रहस्यों से पर्दा हटाने का संकल्प भुला दे. नहीं….इस विराट ब्रह्मांड और अपनी समस्त ऐंद्रियक सीमाओं, विशिष्टताओं, दुबर्लताओं और खूबियों के साथ मनुष्य अभी तक जितना समेट पाया है, वह भी कुछ कम संतोष की बात नहीं है. क्योंकि अपनी उस बीहड़ ज्ञान-यात्रा में मनुष्य को कदम-कदम पर भीतरी और बाहरी संकटों से जूझना पड़ा है. और यह भी कि असंख्य जीवों और उनकी असंख्य प्रजातियों में केवल मनुष्य ही है जो प्रकृति को चुनौती देने का साहस कर पाया है. जिसने अवसर मिलते ही समय धारा के विपरीत चलने का साहस जुटाया है. इस दुस्साहसी संकल्पयात्रा के लिए मानवी जिजीविषा को नमन करने का मन हो आता है. इसी जिजीविषा के दम पर मानवी मेधा ने चुनौतियों को स्वीकारा है. मानवी संकल्प की विराटता को दर्शाने के लिए यह कम नहीं है कि खरबों प्रकाश वर्ष में फैले ब्रह्मांड को जानने का जो दावा करता है, उसकी अपनी कद-काठी केवल पांच-छह फुट की है. उसका जीवन क्षणभंगुर है. मगर यह मानवी मेधा की अदम्य ज्ञान लालसा ही है कि सत्य शोधन के पथ पर वह स्वयं को खुशी-खुशी बलिदान कर देता है. चाहे वह जहर का प्याला पीने वाले सुकरात हों या हंसते हुए मौत को गले लगा लेने वाला का॓परनिक्स. हमारा ज्ञान हमारी उपलब्धियां उन सबकी कर्जमंद हैं.

क्रमश:….

© ओमप्रकाश कश्यप

समय का दर्शन-दो

कालसैद्धांतिकी

समय को लेकर उपर्युक्त दोनों मान्यताएं प्रेक्षक के सोच और उसकी मनोरचना पर निर्भर हैं. हमारी दृष्टि प्रायः अपने परिवेश की सामान्य गतिविधियों तक सीमित रहती है. समाज, संस्कृति अथवा रोजमर्रा के कार्यकलापों पर चर्चा के दौरान समय के प्रत्यय का जिक्र घटनाचक्र को सहेजने वाले उपकरण के रूप में किया जाता है. उस समय मान लिया जाता है कि रेलगाड़ी के डिब्बों की भांति वह भी प्रखंडों में प्रवाहमान है. सामान्य शब्दावलि इन प्रखंडों को भूत, वर्तमान और भविष्य के रूप में बांचती है, जबकि दर्शन इसे समय की कालसैद्धांतिकी(Tense Theory) कहता आया है. कालसैद्धांतिकी की संकल्पना मनुष्य की व्यावहारिक जरूरत है. यह प्रेक्षकसापेक्ष होती है. जैसे इतिहास के सामान्य अध्ययन के आधार पर हम कह सकते हैं कि 1857 का स्वाधीनता संग्राम तात्या टोपे के लिए उसका ‘वर्तमान’ था. हमारे लिए वह अतीत यानी ‘भूतकाल’ का हिस्सा है. जनसाधारण का समयबोध इसी आधार पर विकसित होता है. अधिकांश बुद्धिजीवी भी यही मानते हैं. लेकिन व्यवहार से परे कालसैद्धांतिकी की क्या प्रामाणिकता है? क्या भूत, वर्तमान और भविष्य की सत्ता वास्तविक है, यह असली प्रश्न है. दूसरे शब्दों में जिसे हम ‘वर्तमान’ कहकर संबोधित करते हैं, क्या वह सचमुच वर्तमान होता है? क्या हम घटनाओं को ठीक उसी क्षण ग्रहण कर पाते हैं, जब वे घटित होती हैं? प्रयोगों की बात करें तो ऐसा संभव नहीं है. घटनाओं के जन्म तथा उनके बोध में प्रयोगसिद्ध अंतर होता है. घटनाओं के प्रेक्षण की हमारी योग्यता ध्वनि, प्रकाश, स्पर्श आदि किसी न किसी माध्यम पर निर्भर होती है. किसी घटना का आकलन दो स्वतंत्र प्रेक्षकों में से एक यदि ध्वनि को आधार मानकर करे, दूसरा प्रकाश कोतो उन दोनों के निष्कर्षों में परस्पर इतना अंतर होगा कि उनपर विश्वास करना कठिन हो जाएगा. हालांकि अपनेअपने निष्कर्ष में दोनों ही सही होंगे. हम कह सकते हैं कि ध्वनि और समय के वेग के तुलनात्मक अध्ययन और गणना के समायोजन से घटना का वास्तविक कालबिंदू तय किया जा सकता है. परंतु क्या इतने भर से काम चल जाएगा? और उसके बाद जो निष्कर्ष प्राप्त होगा, क्या वह पूरी तरह सही होगा? शायद नहीं! इसलिए कि घटनाओं के सामान्य प्रेक्षण के दौरान तीसरे आयाम को प्रायः पूरी तरह भुला दिया जाता है. वह तीसरा आयाम प्रेक्षक का है. जो घटना को देखकर, छूकर अथवा सुनकर उसका अनुभव करता और तदनुसार निर्णय लेता है.

       जिसको हम वर्तमान कहते हैं, समय को लेकर क्या वह ठीक वैसा ही साक्ष्य है जैसा हमें प्रतीत होता है. जिसे हम साधारणतः मान भी लेते हैं? वर्तमान हमारी हालिया अनुभूति से गुजर रही घटनाएं हैं. वे प्रत्यक्ष भी हो सकती हैं और परोक्ष भी. का॓फी हाउस में चाय का आनंद ले रहे व्यक्ति के लिए वहां की अंदरूनी हलचलों के अलावा, वहां लगे टेलीविजन सेट पर राष्ट्रपति के अभिभाषण का सजीव प्रसारण वर्तमान है. मैं इस लेख को कंप्यूटर पर टाइप कर रहा हूं, यह मेरा वर्तमान है, और इसको लेकर संदेह की गुंजाइश नहीं है. समस्या वर्तमान के सटीक आकलन को लेकर है, जो वर्तमान के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर देती है. कदाचित आश्चर्यजनक मगर विज्ञानसम्मत तथ्य है कि वर्तमान जैसी कोई चीज नहीं होती. हम सदैव भूतकाल में वास करते हैं. मान लीजिए कि कोई व्यक्ति एक साथ अपने दाएं हाथ से अपनी कान एवं बाएं हाथ द्वारा पैर के अंगूठे का स्पर्श करता है. वह सामान्यतः यही दावा करेगा कि उसने दोनों कार्य एक साथ, एक ही क्षण में किए हैं. कान और पैर के अंगूठे दोनों को एक साथ छुआ है. उसकी गतिविधि पर नजर रख रहा पर्यवेक्षक इसकी पुष्टि आसानी से कर सकता है. संभव है उस व्यक्ति ने कान और पैर दोनों को सचमुच एक ही कालबिंदू पर छुआ हो. लेकिन छूने का बोध हमारे वास्तविक संवेदनतंत्र यानी मस्तिष्क की निर्णय प्रक्रिया पर निर्भर करता है. दोनों घटनाएं भले ही किसी एक क्षण में घटी होंलेकिन हमारा मस्तिष्क, यदि वह सूक्ष्मतम अंतराल को पकड़ लेने में सक्षम हो तो, उन्हें अलगअलग क्षणों में घटी घटना बताएगा. आखिर क्यों? इसलिए कि स्पर्श और उसकी अनुभूति दोनों भिन्न घटनाएं हैं. स्पर्श का संबंध हमारे हाथ अथवा शरीर के उस हिस्से से है, जो किसी वस्तु के संपर्क में आता है. जबकि अनुभूति उस स्पर्श की तरंगों के मस्तिष्क तक पहुंचने के बाद वहां हुई हलचल है. अतः उपर्युक्त घटना में प्रेक्षक को भले ही लगे कि दोनों हाथों द्वारा किया गया स्पर्श किसी क्षणविशेष में घटी घटनाएं हैं. इसके बावजूद मस्तिष्क जो निर्णय देगा वह वास्तविकता से परे होगा. इस कारण कि कान मस्तिष्क के निकट है. अतः उसके स्पर्श से बने संकेत को मस्तिष्क तक पहुंचने में पैर के स्पर्श से बने संकेत की अपेक्षा कम समय लगता है. इसलिए मस्तिष्क कान के स्पर्श को प्रारंभ में घटी घटना बताएगा. दोनों के बीच लगभग 80 मिली सैकिंड का अंतराल होगा. यह अंतराल प्रयोगों द्वारा प्रमाणित है. स्वतंत्र पर्यवेक्षक इन घटनाओं का अवलोकन प्रकाश के माध्यम से करेगा. उसकी अनुभूति घटनास्थल से उसकी भौतिक दूरी पर भी निर्भर करेगी.

       चूंकि प्रकाश एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में समय लेता है, इसलिए जिस समय घटना का संदेश प्रकाश के जरिये पर्यवेक्षक तक पहुंचेगा, घटना उससे कुछ क्षण पहले ही संपन्न हो चुकी होगी. घटनास्थल से अलगअलग दूरी पर खड़े दो पर्यवेक्षक यदि उसका अवलोकन करें तो दोनों द्वारा अभिव्यक्त घटना का ‘वर्तमान’ अलगअलग होगा. वह घटना के वास्तविक समय से पूरी तरह भिन्न होगा. चूंकि हम बहुत छोटे कालखंडों का हिसाबकिताब रखने में प्रवीण नहीं हैं, इसलिए प्रायः ऐसे अंतराल हमारे मस्तिष्क की पकड़ में नहीं आते. खासकर प्रकाश वेग जैसे उच्चतम वेग. परिणामस्वरूप हम उनकी अनजाने ही उपेक्षा करते जाते हैं. आम जीवन में इससे कुछ बिगड़ता भी नहीं है. पर यदि घटनास्थल और प्रेक्षक के बीच की बहुत लंबी दूरी हो, अरबोंखरबांे किलोमीटर का अंतराल हो तो वर्तमान की संद्धिग्धता एकदम साफ नजर आने लगती है. खगोल वैज्ञानिक बताते हैं जिन तारों को देखकर हम उनके अस्तित्व का आकलन करते हैं, संभव है वे आज जीवित ही न हों. सैकड़ोंहजारों वर्ष पहले ही नष्ट हो चुके हों. उस समय उनसे निकला प्रकाश हम तक पहुंचने में सैकड़ोंहजारों वर्ष बाद पहुंचा हो. इसलिए घटना के प्रेक्षण के लिए आइंस्टाइन ने समय को चौथे आयाम के रूप में स्वीकार किया है, जिसके अनुसार वह घटनाओं के आकलन के लिए समय को ध्यान में रखने का सुझाव देता है. वही आइंस्टाइन मानते हैं कि वर्तमान जैसी कोई चीज नहीं होती. हम भूतकाल में जीते हैं. इसे यों भी कह सकते हैं कि जब तक वर्तमान का अनुभव करते हैं, वह भूतकाल में ढल चुका होता है. प्रेक्षण को अभिव्यक्ति की अवस्था तक आतेआते हमारे मस्तिष्क और उसकी निर्णय प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. उस अवस्था में जिसे हम वर्तमान मानते हैं, वह भूत में बदल जाता है. जीवन और प्रकृति को लेकर यह अनिश्चितावादी द्रष्टिकोण ईसा पूर्व पांचवी शताब्दी के दार्शनिक हेराक्लाइट्स के विचारों से मिलताजुलता है. वह पानी को परमतत्व मानता था. नदी के प्रवाह को देखकर जो अनुभूति उसके मनस में कौंधी, उसने माना कि संसार सबकुछ परिवर्तनशील है. कुछ भी निश्चित नहीं है. जल की भांति प्रवाहमान है. हम एक ही नदी में दूसरी वार पांव नहीं रख सकते. हेराक्लाटस तत्ववादी विचारक था, जिसने सृष्टि की विराटता से प्रभावित हुए बिना उसके सूक्ष्म रूप की चंचलता को पहचाना तथा उसके भीतर मौजूद अस्थिरता पर कटाक्ष किया था. आधुनिक विज्ञान की क्वांटम थ्योरी पदार्थ के इस अस्थिरतावादी गुण पर वैज्ञानिकता की मुहर लगाती है. उसके अनुसार परमाणु की कक्षा में दौड़ रहे इलेक्ट्रान का किसी एक क्षण में उसके सुनिश्चित ठिकाने का पता लगाना असंभव है, केवल उसके संभावित क्षेत्र का आकलन किया जा सकता है. यह संदेह समय के मापन से लेकर उसके अस्तित्व तक बना रहता है.

        प्रश्न उठता है कि जब वर्तमान की सत्ता नहीं है तो भविष्य और भूतकाल की सत्ता कैसे संभव है? उपर्युक्त विश्लेषण से एक सामान्य निष्कर्ष यह निकलता है कि हमारा समयबोध घटनाओं के प्रेक्षण से बनता है. जिन घटनाओं का अनुभव हम स्वयं नहीं कर पाते, उनके लिए दूसरों के अनुभव अथवा बोध का लाभ उठाते हैं. इतिहास जिसे हम विगत का दस्तावेज कहते हैं, वह दूसरों के समयबोध का संकलनमात्र है. पुस्तकें दूसरों के समयबोध से परचाने का बेहतरीन माध्यम हैं. अपने अनुभवअन्वीक्षण की सीमाओं के चलते हम किन्हीं घटनाओं के अंतराल को ही पकड़ पाते हैं. दो घटनाओं के बीच के अंतराल के मापन की प्रत्येक समाज की अपनी प्रविधियां और पैमाने होते हैं. घटनाओं की आवृति तथा उनके क्रम के निर्धारण हेतु अंतराल की परख अनिवार्य होती है. इस अंतराल का अंकन स्मृति एवं संदर्भों द्वारा घटनाओं को उनके सही क्रम में सहेजने के लिए किया जाता है. यह वस्तुतः दो स्वतंत्र घटनाओं के बीच की अवधि है. अपने चारों ओर घट रही दृश्यअदृश्य सहस्रों किस्म की घटनाओं के क्रम को पहचानने एवं उनके आकलन के लिए हम इसे भाषासंकेत भी कह सकते हैं. संक्षेप में दो घटनाओं के बीच का अंतराल ठीक ऐसी ही आभासी रचना है जैसे बाग में खड़े दो वृक्षों के बीच आकाश. जिसका महत्त्व केवल घटनाओं की स्वतंत्र पहचान तक सीमित है.

       अगर समय की सत्ता ही संद्धिग्ध है तो समयबोध क्या है? यह बोध जन्म कैसे लेता है? इसको समझने के लिए आप घटनाओं की शृंखला की कल्पना कीजिए. उनमें कुछ घटनाएं भूतकाल की होंगी, बहुत पीछे गुजर चुकी घटनाएं. कुछ हाल के भूतकाल की होंगी, जो अभीअभी गुजरी हैं. कुछ घटनाएं ऐसी होंगी जो वर्तमान में भी जारी हैं. परंतु उनका एक हिस्सा भूतकाल में प्रवेश कर चुका है. और दूसरा हिस्सा अभी भविष्य का गिरफ्त में है. ये सब घटनाएं हमारे ही अंतरिक्ष में घट रही हैं. उसी अंतरिक्ष में मौजूद हम उनके दृष्टा या भोक्ता हैं. जो घटना सुदूर अतीत में बीत चुकी है, वह हमारे मनस् पर सूचना अथवा स्मृतिप्रभाव के रूप में विद्यमान है. वे हमारे किसी पूर्वज अथवा पूर्वज के पूर्वजों के अनुभव का हिस्सा भी हो सकती है, जो संचरण के किसी मान्य तरीके से हम तक पहुंची हो. हमारा मस्तिष्क किसी भी प्रसंग, घटना, वस्तु या विचार के संपर्क में आने के साथ ही सक्रिय हो उठता है. स्वाभाविक रूप से वह उन्हें दूसरी घटनाओं, प्रसंगों आदि के साथ संयोजित करता है तथा उनके बीच संबंध सेतु बनाने की कोशिश करता है. आवश्यकता पड़ने पर वह उन्हें सुदूर अतीत, कुछ देर पहले अतीत और हाल के अतीत की घटनाओं के क्रम में लौटाता है. उससे हम जान जाते हैं कि कोई घटना किसी अन्य घटना से कितनी आगे अथवा पीछे घटी थी. यह बोध मन में समय नाम के काल्पनिक आकाश का निर्माण करता है, जिसमें विभिन्न घटनाएं विशिष्ट अनुक्रम से बंधी होती है. इस अनुक्रम को हम समयांतराल से बांटते हैं, वह विभिन्न घटनाओं, प्रसंगों के बीच वह रिक्त अंतराल है, जिसे मस्तिष्क उन घटनाओं, प्रसंगों को एक दूसरे से अलग, विशिष्ट और उनका क्रमानुक्रम दर्शाने के लिए बनाता है. भूतकाल के बारे में हम वहीं तक कल्पना कर पाते हैं, जहां तक हमारी स्मृति में घटनाओं का सिलसिला जाता है. दूसरे शब्दों में घटनाओं के अनुक्रम अथवा उनकी ऐतिहासिकता से परे हमारे लिए समय का कोई बोध नहीं होता. उदाहरण के लिए अंतरिक्ष विस्फोट, सृष्टि का विकास, मानव सभ्यता का जन्म आदि हमारे लिए केवल सूचनाओं का संकलन है. चूंकि हमारा मस्तिष्क उन घटनाओं से अब तक की अरबोंखरबों घटनाओं को याद रखने, उनकी विशेषताओं को सहेजने तथा उनके बीच तारतम्यता बनाने में अक्षम है, इसलिए इतनी बहुत लंबी अवधियों को लेकर हमारा समय(अथवा अंतराल)बोध शून्य होता है. इसके बरक्स किसी वस्तु या व्यक्ति का घंटे भर का अंतराल हमें भारी पड़ने लगता है. इसलिए कि प्रतीक्षा के दौरान हमारा मस्तिष्क आसपास के परिवेश एवं घटनाओं के प्रति तुलनात्मक रूप में अधिक सक्रिय होता है. इसलिए उसको लेकर हमारा समयबोध भी सघन होता है. इस तरह जिसको हम अतीत अथवा भूतकाल कहते हैं, वह हमारी स्मृति की व्यापकता और उसकी सीमाओं को दर्शाता है. तदनुसार समय स्वतंत्र सत्ता न होकर केवल हमारी मनोरचना है.

       समयबोध को समझने के लिए एक और उदाहरण देखते हैं. मान लीजिए एक व्यक्ति को नीचे तहखाने में एकसमान परिस्थितियों के बीच रखा गया है. बाहरी संसार से उसका संपर्क कटा हुआ है. कमरे में सदैव एक जैसी तीव्रता का प्रकाश बना रहता है. व्यक्ति की अपनी गतिविधियां भी शून्य हैं. आसपास का परिवेश भी आदर्श की अवस्था तक स्थिर है. इससे उसकी शारीरिक मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर जो नकारात्मक असर पड़ेगा, उसे हम भुलाए देते हैं. लेकिन एक जैसी परिस्थिति में रहने के बावजूद व्यक्ति का समयबोध सुरक्षित रहेगा. भले ही वह दिनरात का अनुमान लगा पाने में अक्षम हो. उस अवस्था में उसका समयबोध उसकी धड़कनों तथा उन शारीरिक क्रियाओं से निर्मित होगा, जिनसे उसका जीवन आबद्ध है. इस बारे में कम से एक बात तो विश्वास के साथ कही जा सकती है कि घटनाएं समय की प्रतीति का माध्यम हैं. उनके बिना समय की अनुभूति असंभव है. वैज्ञानिक समय को मापने के लिए घटनाओं के वेग को आधार बनाते हैं. अब जैसे गति के नियम को देखिए. उसके अनुसार किसी कालखंड विशेष में किसी वस्तु ने जो दूरी तय उसको उसके वेग से भाग कर दिया जाए तो समय आ जाता है. यह तो हुई वेगवान वस्तु के समय के आकलन के बारे में. परंतु यदि कोई वस्तु स्थिर है तो समय का आकलन उसके आसपास घट रही घटनाओं के वेग से निर्धारित होता है.

      हमने देखा कि सटीक वर्तमान एक संद्धिग्ध अवधारणा है, हम केवल भूतकाल में जीते हैं और भूतकाल वह प्रभाव है जिसे मानवस्मृति विभिन्न घटनाओं की प्रवृत्ति, आवृति तथा उनके अन्यान्य लक्षणों के आधार पर उन्हें मस्तिष्क में सहेजकर रखती है, ताकि उसमें दर्ज घटनाओं का क्रम और उनका अंतराल जाना जा सके. बीतने के बाद घटना स्मृति का हिस्सा बन जाती है