‘सृष्टि के आरंभ में सभी प्राणी एक पुनीत स्थल पर निवास करते थे. वे सुगंधित हवाओं का आनंद लेते. सुरम्य धरा पर मग्न–मन नृत्य करते थे. तब उन्हें न तो भोजन की आवश्यकता थी, न वस्त्रों की, न निजी संपत्ति थी, न सरकार, न ही किसी प्रकार का कानून. धीरे–धीरे सृष्टि के पतन का आरंभ हुआ. मनुष्य सुरम्य लोक से पतित होकर पृथ्वी पर आ गिरा. अब उसे भोजन और आवास की आवश्यकता महसूस होने लगी. मनुष्य की आरंभिक पवित्राता और कीर्ति धुल चुकी थी. वर्ण–व्यवस्था का आरंभ हुआ और लोगों ने एक दूसरे के साथ अनुबंध के आधार पर रहना आरंभ किया. परिवार और निजी संपत्ति उस अनुबंध का हिस्सा बने. इसी के साथ चोरी, हत्या, लूटमार, पर–स्त्राीगमन जैसे अपराध होने लगे. समस्या से मुक्ति पाने के लिए सब मनुष्य एक बार एकत्रा हुए, उन्होंने मिल–जुलकर एक राजा चुना, जो उनकी फसल का वाजिब हिस्सा उन्हें बांट सके. अपने उस चयन को उन्होंने ‘अनेक द्वारा एक का चयन’ (महासामत्त) कहा. उस व्यक्ति से अनेक लोगों को खुशी प्राप्त हुई थी, इसलिए उन्होंने उसे ‘राजा’ कहना आरंभ कर दिया. उसी से ‘राजनीति’ का विकास हुआ.’- THE WONDER THAT WAS INDIA, A. L. Basham, page-82.
किसी भी समाज की पहचान उसकी संस्कृति से होती है. उसका काम समाज में एकता की अनुभूति जगाना तथा मानवीकरण को गति प्रदान करना है. इसके लिए आवश्यक है कि वह सामाजिक संबंधों, लोगों के सामान्य व्यवहारों, लोकजीवन के आदर्शों, सार्वकालिक जीवन–मूल्यों और भविष्य के सपनों से अनुप्रेत हो. उसके मूल में न्याय की भावना हो. साथ ही समानता और बराबरी की गंध उसके हर प्रतीक में रची–बसी हो. इस आधार पर भारतीय संस्कृति को दो हिस्सों में वर्गीकृत किया जा सकता है. पहली जनसंस्कृति. जो समाज में आपसी संबंधों, जरूरतों और सपनों के आधार पर स्वयं विकसित होती है. दूसरी धर्मानुप्रेत अभिजन संस्कृति जो अनेक प्रकार के डरों, प्रतीकों और कर्मकांडों के जरिये जीवन में प्रवेश करती है. पहली संस्कृति स्वयं–स्फूर्त्त होती है. बदलते समय और आवश्यकताओं के अनुसार वह स्वयं परिवर्तित होती रहती है. वह सहयोग और सहकार की संस्कृति है. दूसरी संस्कृति में परिवर्तन ऊपर से थोपे जाते हैं. उसके बदलाव की गति धीमी होती है. धर्मानुप्रेत समाजों में प्रायः दूसरी संस्कृति को ही वास्तविक एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है. जबकि पहली संस्कृति जो साथ में श्रम–संस्कृति भी है, की सतत उपेक्षा होती रहती है. चूंकि अधिकांश विमर्श पर उन लोगों का कब्जा होता है जो अभिजन संस्कृति से लाभान्वित होते हैं, इसीलिए येन–केन–प्रकारेण उसी को विमर्श में बनाए रखते हैं. परिणामस्वरूप जनसंस्कृति केवल शब्दों एवं सपनों तक सिमटकर रह जाती है. वह अभिजात हितों की पैरोकार बनकर सामाजिक असमानता की मुख्य कारक एवं परिणाम के रूप में सामने आती है. चूंकि इस संस्कृति के मुख्य वास्तुकार ब्राह्मण रहे हैं, इस कारण आमचलन में इसे ब्राह्मण संस्कृति भी कहा जाता है. बहुप्रचलित होने के कारण इसी को भारतीय संस्कृति का पर्याय भी मान लिया जाता है.
सामान्य अर्थों में धर्म और संस्कृति को एक मान लिया जाता है. यह उचित नहीं है. आस्था और विश्वास को अपनी पीठ पर ढोने वाला परंपरानुगामी धर्म, विराट संस्कृति का हिस्सा तो हो सकता है, उसका पूरक अथवा पर्याय नहीं. बावजूद इसके अधिकांश लोग धर्म और संस्कृति में अंतर नहीं कर पाते. इस कारण सांस्कृतिक प्रतीकों की व्याख्या के लिए वे बार–बार धर्म की शरण में चले जाते हैं. अपनी चतुर किस्सागोइयों के बल पर धर्म उन्हें लुभाता है. वह व्यक्ति के चारों ओर ऐसा जादुई आभामंडल खड़ा कर देता है, जिसके आकर्षण से बाहर निकल पाना आसान नहीं होता. उसके प्रभामंडल में हर किसी को विजेता होने का भ्रम बना रहता है. इस दौरान धर्म के विकार संस्कृति को भी दूषित करने लगते हैं. पुरोहित वर्ग जो धर्म और धार्मिक प्रतीकों का उपयोग धंधागिरी के लिए करता है, जाने–अनजाने संस्कृति और धर्म को परस्पर गड्–मड किए रहता है. इससे सामाजिक स्तरीकरण मजबूत होता है, सांस्कृतिक विकास में जड़ता आने लगती है. भारतीय संस्कृति इसी ठहराव का शिकार है. जिस तेजी से उसका इन दिनों राजनीतिकरण हुआ है, सांस्कृतिक विकास पश्चगामी रूप ले चुका है. भारतीय संस्कृति के अभिजन चरित्र को दर्शाने वाले कई उदाहरण हैं. एक उदाहरण हमारे दैनिक जीवन से जुड़ा है. सामान्य शिष्टाचार के नाते दो व्यक्ति जब मिलते हैं तो उनके बीच नमस्ते, प्रणाम, नमस्कार जैसे संबोधनों का आदान–प्रदान होता है. अपने से बड़ों के चरण–स्पर्श करने की भी परंपरा है. कोई व्यक्ति जब नमन करता था तो बड़े व्यक्ति के प्रति श्रद्धा भाव उसके व्यवहार से झलकता है. यह सीधे–सीधे दो व्यक्तियों के बीच सम्मान और स्नेह का लेन–देन होता है. पहला प्रणामकर्ता, दूसरा वह जिसके सम्मान में प्रणति–निवेदन किया गया है. तीसरी शक्ति का नाम या हस्तक्षेप बीच में नहीं होता. सहज मानवीय व्यवहार के बीच उसकी कदाचित आवश्यकता भी नहीं है. लेकिन कुछ शताब्दी पहले से संस्कृति के क्षेत्र में धार्मिक हस्तक्षेप के चलते ‘राम–राम’, ‘राधे–राधे’ जैसे संबोधनों को भी प्रणति निवेदन का पर्याय मान लिया गया. देवताओं के नाम को प्रणति निवेदन का हिस्सा बनाए जाने के उदाहरण शास्त्रों में भले न मिलते हों, किंतु लोक–परंपरा में खूब प्रचलित हैं.
प्रणति निवेदन के बीच देवता का प्रवेश केवल धर्म के प्रति अनुराग का मामला नहीं है. यह सामाजिक संबंधों को जो वास्तविक हैं तथा यथार्थ के धरातल पर विकसित होते हैं, अमूर्त्त और वायवी बना देने का षड्यंत्र है. मानवीय संबंधों को औपचारिक बनाने, उनके बीच संदेह पैदा करने में इनका परोक्ष योगदान है. अधिकांश धर्म इस संसार को ‘माया’ या ‘भ्रम’ बताते हैं. वे मानते हैं कि सांसारिक संबंध मनुष्य को भरमाकर मुक्ति की राह को कठिन बनाते हैं. वे यह भी बताते हैं कि संसार के सभी संबंध कोरा भ्रम या दिखावा हैं. ‘एकमात्र ब्रह्म सत्य है, और कुछ नहीं‘(एकम अद्वितिया ब्रह्म‘) अथवा ‘ब्रह्म सत्य, जगन्नमिथ्या‘ जैसे कथन इसी को दर्शाते हैं. इस आधार पर मोक्ष के अभिलाषी मनुष्य को सांसारिक सुखों, संबंधों के प्रति गहनानुराग से बचने की सलाह दी जाती है. धर्माचार्य समझाते हैं कि मोक्ष की यात्रा में प्रत्येक मनुष्य अकेला होता है, केवल कर्म उसका साथ निभाते हैं. प्रणति निवेदन के साथ देवता का नाम लेने से व्यक्ति मान लेता है कि देवता उससे प्रसन्न होंगे. होते हैं या नहीं यह उसे अंत तक पता नहीं चल पाता. मगर इससे दो व्यक्तियों के स्नेह और सम्मान के आदान–प्रदान के बीच अनायास एक व्यवधान आ जाता है. व्यक्ति विशेष के प्रति सम्मान–स्नेह प्रदर्शित करने का सिलसिला देवताओं को प्रसन्न करने का आयोजन मान लिया जाता है. इस तरह प्रणति निवेदन का उद्देश्य जो पूरी तरह सामाजिक है, वह प्रतीकों और वायवी संबोधनों तक सीमित हो, केवल कर्मकांड में सिमट जाता है. इसका लाभ चरमपंथी आसानी से उठा लेते हैं. कुछ दशाब्दी पहले उग्र हिंदुत्व को बढ़ावा मिला तो ‘राम–राम’ और ‘राधे कृष्ण’ की जगह ‘जय–श्रीराम’ जैसे शब्द–वाणों ने ले ली. प्रणाम जो विनय समर्पण एवं सम्मान को दर्शाता था, उसके नए प्रारूपों से बल की भावना साफ झलकने लगी. सामान्य व्यवहार में धर्म की घुसपैठ हुई तो धर्म खुद को और भी ताकतवर समझने लगा. यही नहीं परंपरानुसार छोटों द्वारा बड़ों का चरण–स्पर्श आदर्श प्रणति निवेदन माना जाता है. इसकी प्रेरणा की खोज भारतीय समाज में व्याप्त वर्ण–व्यवस्था तक ले जाती है. उसमें शूद्रों को प्रजापति ब्रह्मा के पैर से उत्पन्न बताया गया है. ‘लोक परंपरा’ में भी ‘पाय–लागन’ संबोधन वर्ण–व्यवस्था के शिखर पुरुष ब्राह्मणों के लिए आरक्षित रहा है. बाद में वह इतर वर्गों के लिए भी प्रचलित होता गया. संभव है इससे धर्म मजबूत हुआ हो, उसका संगठन क्षेत्र भी बढ़ा हो, किंतु संस्कृति लगाातार आहत होती रही है.
भारतीय संस्कृति को अधिकांश विद्वान ‘विविधता की संस्कृति’ मानते हैं. वे ‘सनातन संस्कृति’ कहकर इसे महिमा मंडित करते हैं. जबकि इनमें से एक भी धारणा मूल्यबोधक नहीं हैं. सांस्कृतिक वैविध्य तभी तक सार्थक है जब वह मानवीय चेतना का स्वयं–स्फूर्त्त विस्तार हो. साथ ही लोकतांत्रिक सोच को बढ़ावा देता हो. इसी प्रकार ‘विविधता में एकता’ की भावना भी तब उपयोगी हो सकती है, जब सदस्य इकाइयों के बीच स्वयं–स्फूर्त्त एैक्य–भाव हो. लोग अपने कर्म से, विचारों से स्वतंत्र होकर भी एक–दूसरे के साथ अपनापन महसूस करते हों. भारतीय संस्कृति पर यह बात खरी उतरती है, ऐसा दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. हमारे समाज में जाति और संप्रदाय के अनगिनत खाने हैं, अलग–अलग पहचान के लिए जूझते हुए लोग हैं, भारी समाजार्थिक विषमताएं हैं. परिणामस्वरूप एक पक्ष, बाकी के लिए परिस्थिति चाहे जैसी हो, सदैव शिखर पर बना रहता है. जबकि दूसरा उसके दमन से बचने के लिए चुप्पी साधे रहता है. ऐसे समाज में सांस्कृतिक विविधता में एकता की दावेदारी, खुद को भरमाए रखने के लिए जानबूझकर की गई कवायद से अधिक नहीं लगती.
प्राचीनता भी किसी व्यक्ति, वस्तु या विचार का स्वतंत्र गुण न होकर काल–सापेक्ष स्थिति है, जो उसकी ऐतिहासिकता की ओर संकेत करती है. वह अपने आप में किसी भी प्रकार की श्रेष्ठता का मापदंड नहीं है. संस्कृति का असल बड़प्पन इसमें है कि अपने अनुयायियों के बीच न्याय एवं समानता के वितरण को लेकर वह कितनी उदार है! कितने प्रयास उसने अपने अंतर्विरोधों के समाहार हेतु किए हैं. सदस्य इकाइयों की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखने हेतु वह कितनी संकल्पबद्ध है. इस कसौटी पर भारतीय संस्कृति उतनी सफल सिद्ध नहीं होती, जितनी बताई जाती है. यहां वर्ण और जाति के अनगिनत खाने और ऊंची–नीची दीवारें हैं. उनमें विविधता किसी व्यक्ति का स्वतंत्र चयन न होकर, उनपर थोप दी जाती है. कैद की तरह, जिससे बाहर आने के लिए व्यक्ति निरंतर छटपटाता रहता है. चूंकि यह असंभव–सा कार्य है, अतएव अधिकांश लोग इसी को अपनी नियति मानकर समझौतावादी बन जाते हैं. स्वतंत्रता और समानता के मानवीय लक्ष्यों को लेकर यहां वर्ण, जाति, संप्रदाय, धर्म आदि के नाम पर तरह–तरह के मतभेद, बहुसंख्यक वर्ग के लिए बाध्यकारी बन जाते हैं. उस अवस्था में ‘विविधता में एकता’ के सभी दावे आडंबर में सिमट जाते हैं.
सच तो यह है कि स्मृति–ग्रंथों, पुराणों, महाकाव्यों आदि के माध्यम से जो संस्कृति हमारे जीवन में दाखिल होती है; उसका चरित्र पूरी तरह अभिजनोन्मुखी होता है. वह सर्वहारा बहुसंख्यक के श्रम पर पलती है, साथ ही श्रम का तिरस्कार भी करती है. वहां देवता वे हैं जो चमत्कार प्रिय हैं. हथेली पर सरसों उगाते हैं. श्रम से जिनका दूर तक नाता नहीं होता. वे भक्तों के द्वारा चढ़ाए गए भोग के बल पर पलते तथा दाता कहे जाते हैं. इसमें मौलिकता के अवसर न्यूनतम होते हैं. जबकि कापालिकों, तांत्रिकों, पंडे–पुजारियों तथा धर्म का धंधा करने वाले पुरोहित लाखों–करोड़ों में खेलते हैं. कुल मिलाकर यह संस्कृति सामाजिक न्याय की अवरोधक तथा सामूहिक विवेक का क्षरण करने वाली है. सामान्य नैतिकता एवं लोकादर्शों को अमल में लाने के बजाय वह धर्म के हाथों में खेलती है; और बड़ी आसानी से खुद को उसकी सामंती वृत्तियों के अनुसार ढाल लेती है. वह लोगों से अपेक्षा रखती है कि वे क्या करें, क्या खाएं, क्या पियें, क्या पढ़े–लिखें, और किन लोगों से कैसे संबंध बनाएं? न तो उसे मानवीय विवेक की परवाह रहती है, न उसकी रुचियों की. इस तरह वह जीवन में अनावश्यक दखल देकर, समानता और स्वतंत्रता की भावना का हनन करती है. कभी धर्म, कभी समाज और कभी परंपरा–वैविध्य के बहाने, असमानता को मानवीय नियति घोषित करना उसकी मूल प्रवृत्ति रही है. वह असल में शासक संस्कृति है.
जाति व्यवस्था के रंग में रंगी वह संस्कृति व्यक्ति के जन्म के साथ ही घोषित कर देती कि उसका जन्म शासन करने के वास्ते हुआ है या शासित होने के लिए. जो लोग शासक वर्ग में जन्म लेते हैं, अभिजनोन्मुखी संस्कृति का रेशा–रेशा उनकी मदद में जुटा होता है. शासितों की कोटि में जन्मे व्यक्ति, यदि दुर्दशा से उबरना चाहें या इस तरह का सपना भी देखें तो वह लगातार अवरोध उत्पन्न कर, परिवर्तन की चाहत को ही मिटाने पर तुल जाती है. लोगों के सवाल करने की आदत को छुड़ाकर वह उनके निर्मानवीकरण को गति देती है. उससे सामूहिकता बोध, जो संस्कृतिकरण का प्रमुख उद्देश्य है, का हृास होता है. सांप्रदायिकता पनपती है. परिणामस्वरूप विपुल जनशक्ति छोटे–छोटे टुकड़ों में बंटकर निष्प्रभावी हो जाती है. इसे नेतृत्व का अभाव कहें या पराश्रितता की भावना–बहुसंख्यक जनसमाज सांस्कृतिक विषमता के प्रतीकों को संस्कृति के अंग के रूप में अपनाए रखता है. यह समर्पण एक अवधि के उपरांत अनुकूलन का रूप ले लेता है. व्यवस्था से अनुकूलित व्यक्ति वास्तविक हित को भुलाकर उन प्रतीकों को अपने अस्तित्व का पर्याय समझने लगता है, जो उसकी दासता का कारण रहे हैं. उदाहरण के लिए अधिकांश हिंदू विवाहिताएं ‘सुहाग की निशानी’ के रूप में अपनी मांग में सिंदूर डालती हैं. भरी हुई मांग दर्शाती है कि स्त्री विवाहिता है. यह पुरुष सत्तात्मकता एवं योनि शुचिता से जुड़ा प्रतीक है. यह उन दिनों की याद दिलाता है जब कन्याएं रजस्वला होने के साथ ही दान में सौंप दी जाती थीं या यूं कहो कि धर्म के नाम पर दान में हड़प ली जाती थीं. अधिकांश स्त्रियां पढ़–लिखकर भी इस तथ्य को नहीं समझतीं. जो समझती हैं, वे ‘वाचाल’ कहकर उपेक्षित–अपमानित की जाती हैं. परिणामतः स्त्री की अस्मिता तथा उनके समूचे कार्य–व्यवहार पर स्वाभाविक दासता पसरी रहती है.
हम भारतीयों, विशेषकर जो लोग स्वयं को हिंदू मानते हैं, का जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक तरह–तरह के कर्मकांडों से बंधा होता है. कर्मकांड अनेक प्रकार के हो सकते हैं. एक समाज से दूसरे समाज, यहां तक कि एक जाति समूह से दूसरे जाति–समूह के बीच उनका रूप बदलता रहता है. सभी कर्मकांडों का उद्देश्य होता है, किसी बड़ी शक्ति को प्रसन्न करना. उनमें एक पक्ष दाता(जाहिर है काल्पनिक) तो दूसरा यजमान की भूमिका में होता है. यजमान अपने सर्वश्रेष्ठ को समर्पित करने की भावना के साथ दाता के आगे नतशिर होता है. उसी समय खुद को दाता का नुमाइंदा घोषित करते हुए पुरोहित बीच में आ टपकता है. यजमान द्वारा दाता के नाम अर्पित की गई सामग्री को समेट लेने के अलावा वह दक्षिणा की दावेदारी भी करता है. चूंकि कर्मकांडों को लोक की सामान्य स्वीकृति प्राप्त होती है, इसलिए उनसे पैदा स्तरीकरण समाज में अपनी पैठ बना लेता है. तदनुसार जो दाता या उसके स्वयं–घोषित प्रतिनिधि की इच्छा है, उसे उसी रूप में बगैर किसी ना–नुकर के, स्वीकार कर लेना यजमान की विवशता होती है. इसका लाभ शिखर पर बैठे लोग उठाते हैं. राज्य की कुल उत्पादकता में उनका योगदान भले ही नगण्य हो, मगर लाभ के नब्बे प्रतिशत को किसी न किसी बहाने वे हड़प ही लेते हैं. फिर उसे अपनी ताकत बनाकर दाता की भूमिका निभाए जाते हैं. यह अनाज के बदले रेत की या शायद उससे भी बदतर सौदेबाजी है. इसमें यजमान पुरोहित को दक्षिणा देता है. कर्मकांडों के तामझाम पर भी अपनी आय का एक हिस्सा खर्च करता है. किंतु पुरोहित की ओर से सिवाय वायवी आश्वासनों के कुछ और प्राप्त नहीं होता. इस बात को यजमान के साथ–साथ पुरोहित भी भली–भांति जानता है. लेकिन धर्म तथा उसकी रूढि़यों से गहरे जुड़ाव तथा उसकी कमजोरियों को न समझने की प्रवृत्ति मनुष्य से तर्कसम्मत ढंग से सोचने का अवसर छीन लेती है. इस तरह पूरी संस्कृति दिखावे और कर्मकांडों में ढल जाती है.
कर्मकांडों की व्याख्या जिन ग्रंथों में है, वे सब ब्राह्मणों द्वारा रचे गए हैं. उनकी समीक्षा, आलोचना अथवा किसी तरह के संशोधन–विस्तार का अधिकार ब्राह्मणेत्तर वर्गों को नहीं है. उनसे केवल इतनी अपेक्षा होती है कि ब्राह्मणों द्वारा बनाए गए लिखित–अलिखित विधान का बिना किसी ना–नुकुर के अनुसरण करें. उसपर किसी प्रकार का संदेह, आलोचना, समीक्षा पाप की कोटि में आता है. उसके लिए तरह–तरह के दंड–विधान पहले भी थे, आज भी हैं. समाजार्थिक असमानता का पोषण करने वाली संस्कृति के प्रति विरोध के स्वर आरंभ से ही उठते रहे हैं. जाहिर है, आक्रोश जनसंस्कृति के उन अनुयायियों की ओर से उभरता है जो विषमता और सांस्कृतिक अन्याय का शिकार होते आए हैं. यदि विकृतियों का समाधान कर लिया जाए तो अपेक्षाकृत उदार एवं समावेशी जनसंस्कृति हमारे सामने होगी, जिसमें वर्चस्व की भाषा नहीं चलती. सहकार और सहयोग पर टिकी उस संस्कृति के संवाहक निचले पायदान पर स्थित वे लोग हैं, जिन्हें शिखरस्थ वर्ग उपेक्षित और तिरष्कृत करते आए हैं. उनकी खूबी है कि वे सुख–दुख को साझा करके जीते हैं. कबीर की तरह संतोष को धन समझते हैं. बहुत कम में जीवन बिता सकते हैं. अभावों को भी हंसते–गाते झेल जाना उनकी प्रवृत्ति रही है. भूख का उत्सव मनाकर जीने वाले ऐसे लोग देश में हर जगह हैं. वे इस देश के लाखों–करोड़ों मेहनतकश लोग हैं, जो केवल अपने बाजुओं पर भरोसा रखते हैं. यही वे लोग हैं जो किसी भी संस्कृति के महात्म्य का कारण बन सकते हैं, इन्हीं को भुलावे में रखने के लिए विविधता में एकता के गीत गाए जाते हैं. उनके सपने इस देश और इस जन्म के नहीं होते. इस कारण वे शिखर पर विराजमान लोगों के लिए कभी खतरा नहीं बनते. इनमें से अधिकांश कदाचित ऐसे होंगे जो संस्कृति का अर्थ भी न जानते हों. इस उदासीनता का लाभ उठाकर दूसरे लोग उन्हें अपनी ही संस्कृति का अनुपालक घोषित करते आए हैं. जबकि अपने श्रम–कौशल पर जीवन जीने वाले स्वाभिमानी मजदूरों, शिल्पकारों तथा दूसरों के श्रम–कौशल पर मजे उड़ाने वाले परजीवी लोगों की संस्कृति एक हो ही नहीं सकती. यदि कहीं एकता दिखती है, तो वह पूरी तरह आभासी है. इस देश की असल संस्कृति को समझने के लिए उसपर पड़ी अभिजन संस्कृति की धूल को उठाना अत्यावश्यक है.
संस्कृति चाहे वह कितनी ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो, खुद लक्ष्य नहीं होती. वह केवल लक्ष्य की ओर संकेत करती है तथा उसके लिए उपयुक्त मार्ग चुनने में मदद करती है. उसका काम मानवीय वृत्तियों को सुसंस्कृत करना है, किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की स्वतंत्रता को बाधित करने के बजाय वह मनुष्य की नैसर्गिक स्वतंत्रता को लौटाने के लिए प्रतिबद्ध होती है. विडंबना है कि भारतीय संस्कृति, जिसे कई बार उदार भी मान लिया जाता है, की अधिकांश ऊर्जा मनुष्य की रोजमर्रा की गतिविधियों को नियंत्रित करने में खपती आई है. कारण यह उन शक्तियों द्वारा अनुशासित होती है, जिनका काम दूसरों के मूलभूत अधिकारों का हनन करना है. शिखरस्थ ब्राह्मण उनके विधान का निर्माता, व्याख्याता, पालक–अनुपालक सब होता है. विशेष मामलों में, या यूं कहिए कि अपवाद–स्वरूप संस्कृति के विशिष्ट प्रवर्तकों, जन्मना ब्राह्मण न भी हों तो उन्हें कर्मणा ब्राह्मण मान लिया जाता है. व्यास, वाल्मीकि, महीदास आदि शास्त्रीय परंपरा के ब्राह्मण नहीं हैं. फिर भी उन्हें ब्राह्मण माना गया है. क्योंकि वे उस संस्कृति के सिद्ध संहिताकार हैं, जो वर्ण–व्यवस्था को आदर्श तथा ब्राह्मणों को समाज का सर्वेसर्वा मानकर उन्हें अंतहीन अधिकार सौंप देती है. कुछ लोग इसे भी संस्कृति की उदारता या उसका लचीलापन मानते हैं. जबकि स्थिति एकदम विपरीत है. असल में यह दूसरे वर्गों के बुद्धिजीवी, उनकी उपलब्धियों का श्रेय हड़प लेने की स्वार्थ–पूर्ण व्यवस्था है. जिससे निम्नस्थ वर्गों की उच्च स्तरीय मेधा, उच्चस्थ वर्गों की स्वार्थ–सिद्धि में लगी रहती है. परिणामस्वरूप वे वर्ग स्वाभाविक कुंठा और हताशा से उबर ही नहीं पाते हैं.
इस प्रवृत्ति के प्रमाण ऋग्वेद से लेकर आधुनिक साहित्य तक उपलब्ध हैं. गुरु उद्दालक के पास सत्यकाम जाबाल जब यह कहता है कि वह घरों में काम करने वाली दासी के गर्भ से जन्मा है और पिता का नाम पता नहीं है, तो महर्षि उससे यह कहकर कि ‘तूने सत्य कहा, ऐसा सत्यभाषी ब्राह्मण पुत्र ही हो सकता है.’—दीक्षा देने के लिए तैयार हो जाते हैं. भारतीय संस्कृति के अध्येता इस उद्धरण को उसके उदात्त लक्षण के रूप में प्रस्तुत करते आए हैं. यदि आरोपित सांस्कृतिक महानता के प्रभाव से परे होकर विचार किया जाए तो यह बौद्धिक धूत्र्तता है. इसके माध्यम से न केवल ब्राह्मणेत्तर वर्गों से उनके बुद्धिजीवी हड़प लिए जाते हैं, बल्कि एक ही झटके में उन्हें ‘मिथ्याभाषी’ घोषित कर दिया जाता है. महीदास की कहानी भी मिलती–जुलती है. सत्यकाम जाबालि की भांति वह भी दासी पुत्र था. जन्म से शूद्र किंतु मन–बुद्धि से ब्राह्मण संस्कृति का प्रतिभाशाली संहिताकार. ऋग्वेद शाखा के ‘ऐतरेय ब्राह्मण’, ‘ऐतरेय उपनिषद’ और ‘ऐतरेय आरण्यक’ का रचियता. इस संस्कृति ने महीदास को भी शूद्रों से झटक लिया. अपवाद स्वरूप ही सही, ब्राह्मणेत्तर वर्ग के अतिप्रतिभाशाली बुद्धिजीवियों को अनुलोम परंपरा के अनुसार ब्राह्मण मान लिए जाने की नीति, प्रतिभाहीन ब्राह्मण पुत्रों के लिए शिखर का स्थान सुरक्षित रखती है. तथा थोपी गई असमानता को वैध बनाती है. इससे यह दुखदायी निष्कर्ष भी निकलता है कि भारतीय संस्कृति तथा उसके नामित देवता, कर्मकांड, धर्मग्रंथ आदि केवल ब्राह्मणों का सृजन नहीं हैं. उसमें ब्राह्मणेत्तर वर्गों का भी योगदान रहा है. हालांकि लाभ सर्वाधिक ब्राह्मणों ने उठाया है. क्योंकि ब्राह्मणेत्तर वर्गों से शिखरस्थ वर्ग में पहुंचे बुद्धिजीवी अंततः असमानताकारी संस्कृति का ही महिमामंडन करते हैं. इससे सामाजिक–सांस्कृतिक वैषम्य को स्थायी एवं स्वाभाविक मान लिया जाता है.
वैषम्यकारी ब्राह्मण संस्कृति किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति–समूह का उत्पाद नहीं है. इसे बनाने में ब्राह्मण पुरोहितों की सैकड़ों पीढि़यां खपी हैं. इस कठिन लक्ष्य तक पहुंचने के लिए ब्राह्मण बुद्धिजीवियों ने कम श्रम नहीं किया. कम से कम इस बात के लिए वे प्रशंसा के पात्र हैं कि अपनी सामाजिक श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए उन्होंने निजता के स्थान पर सामूहिकता को वरीयता दी. रचना का श्रेय स्वयं लेने के बजाय वर्गीय श्रेय हेतु आजन्म समर्पित रहे. अपनी विचारों को स्वतंत्र कृति के रूप में प्रस्तुत करने के बजाय, पीढ़ी–दर–पीढ़ी परंपरा से प्राप्त ग्रंथों में ही संशोधन–संवर्धन करते रहे. वेद, उपनिषद, पुराण, महाकाव्य, स्मृतियां किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं हैं. इन्हें लिखने के लिए ब्राह्मण बुद्धिजीवियों ने शताब्दियों तक बिना नाम या व्यक्तिगत श्रेय की आकांक्षा के श्रम किया है. शायद वे समझ चुके थे कि प्रतिभा के बल पर वे स्वयं सम्मान का पात्र माने जा सकते हैं. लेकिन यदि ब्राह्मणत्व को स्थापित कर वर्गीय श्रेष्ठता बनाए रखना है, और कुछ लोगों के श्रेय को उत्तराधिकार के रूप में पीढ़ी–दर–पीढ़ी अंतरित करना है, तो व्यक्तिगत श्रेय के आगे वर्गीय श्रेय को वरीयता देना आवश्यक है. व्यास, वशिष्ट, याज्ञवल्क्य, भरद्वाज, वाल्मीकि, ब्रहश्पति, शुक्राचार्य आदि किसी एक ऋषि अथवा आचार्य के नाम नहीं हैं, बल्कि उनके पीछे पूरी परंपरा निहित है. या शायद केवल परंम्परा है, और कुछ नहीं. कुछ उपनिषदों, पुराणों, स्मृति–ग्रंथों के साथ उनके कथित रचनाकार का नाम जुड़ा है, लेकिन वे किसी एक मनीषी की रचना हैं—यह बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती. रचने के बाद भी उनमें निरंतर प्रक्षेपण हुआ है. रामायण और महाभारत को ही ले. रामायण की आदि रचना वाल्मीकि ने ‘पुलत्स्य वध’ शीर्षक से की थी. उस समय वह सामान्य साहित्यिक रचना रही होगी. लेकिन ‘पुलत्स्य वध’ से ‘रामायण’ और आगे चलकर ‘रामचरित मानस’ में ढलने तक मूल रचना में निरंतर प्रक्षेपण हुआ है. इसी तरह मूल महाभारत भी ‘जय’ शीर्षक के अंतर्गत रची गई थी. मूल रचना अप्राप्य है. वह व्यास के अलावा किसी अन्य कवि की भी हो सकती है. महाभारत को उसका वर्तमान स्वरूप करीब 2200 वर्ष पहले, उस समय प्राप्त होता है, जब साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं का उदय हो चुका था. गणराज्यों को अपने में समाहित कर, वृहत्तर भारत की कल्पना को आकार दिया जा रहा था. सशक्त एकराष्ट्र की चाणक्य और कृष्ण की अवधारणाओं में विशेष अंतर नहीं है. ज्ञान को परंपरा में ढाल देने का लाभ जो हुआ सो हुआ, नुकसान कम नहीं हुआ. वर्ण–व्यवस्था के चलते पोंगा पंडितों को भी बौद्धिक नेतृत्व मिलता रहा. पीढ़ी–दर–पीढ़ी एक ही धारा के लेखन से मौलिकता का हृास हुआ तथा तंत्र–मंत्र, पूजा–पाखंड में वृद्धि. चूंकि धर्म ग्रंथों में प्रक्षेपण अलग–अलग समय में हुआ था, इसलिए उनमें परस्पर विरोधी बातें भी शामिल होती गईं. जिस महाभारत(शांतिपर्व) कहा गया,‘वर्ण–विभाजन जैसी कोई चीज असलियत में नहीं है. यह पूरी सृष्टि ब्रह्म है, क्योंकि इसे ब्रह्मा ने बनाया है.’ उसी में द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा मांग लेने के धत्तकर्म को भी ‘धर्म’ की संज्ञा दी गई.
संस्कृतिकरण के लंबे अंतराल में व्यवस्था से अनुकूलित गरीब–विपन्न लोग लगातार यह आस बांधे रहे कि जो पंडित लोग चौंसठ लाख योनियों का हिसाब रखते हैं, आदमी के ‘भाग्य’ का अगला–पिछला सब बांच लेने का दावा करते हैं, वे उनका भी ‘हिसाब’ रखेंगे! यदि उनका परमात्मा छोटे–बड़े, गरीब–अमीर, ब्राह्मण और शूद्र में भेद नहीं रखता तो वे भी नहीं रखेंगे. इस भरोसे के साथ वे अपने अधिकारों की ओर से, इतिहास की ओर से मुंह फेरे रहे. समय के दस्तावेजीकरण के प्रति निचले वर्गों की उदासीनता का लाभ ऊपर वालों ने खूब उठाया. उन्होंने कर्मफल का सिद्धांत पेश किया. उसके जरिये शोषित वर्गों को समझाया जाने लगा कि उनकी दुर्दशा के लिए कोई दूसरा नहीं, वे स्वयं जिम्मेदार हैं. दुर्दशा का कारण उनके पूर्वजन्मों के कर्म हैं. इससे पीढ़ी दर पीढ़ी वे जातीय उत्पीड़न का शिकार होने लगे. संस्कृति के आवरण में उन्होंने पहले अवसर छीने, फिर मान–सम्मान. अपने श्रम–कौशल के बल पर स्वाभिमान युक्त जीवन जीने की चाहत रखने वाले मेहनतकश लोगों को बर्बर, असभ्य, गंवार, गलीच घोषित करके खुद इतिहास में तोड़–मरोड़ करते रहे. उनके द्वारा रचे गए इतिहास में ‘भेड़ों’ और ‘मेमनों’ को जंगल में अव्यवस्था का दोषी बताकर दंडित किया जाता रहा. दूसरी ओर शेर और भेडि़यों के लिए प्रत्येक अपराध से बरी रहने की व्यवस्था की गई. पंडित, देवता, करुणानिधान, अन्नदाता, रक्षक, सेठ, साहूकार जैसे सुशोभन विशेषण उन्होंने अपने लिए सुरक्षित कर लिए. पिछले दो हजार साल का सांस्कृतिक खेल उनकी चालों और समझौतापरस्ती से बना है. ऐसी संस्कृति में सामाजिक न्याय की उम्मीद करना, मरुस्थल में भरे–पूरे जलाशय की उम्मीद करने जैसा है.
वैसे भी सामाजिक न्याय भारतीय अवधारणा नहीं है. जाति और वर्ग को मानव–नियति बताने वाली ब्राह्मण संस्कृति इसकी संभावनाओं को अपने उदय के साथ ही खत्म कर चुकी थी. यहां तक कि समाजार्थिक समानता और स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज उठाने वाले गौतम बुद्ध, संत परंपरा के महान कवि रैदास, कबीर, ज्ञानेश्वर आदि की वाणी को भी अनसुना कर दिया गया था. अगर ऐसा होता तो सामाजिक न्याय की अवधारणा को विकसित होने के लिए 1840 तक की प्रतीक्षा न करनी पड़ती. इटली निवासी अध्यात्मशास्त्री लुईज डी’अंजेग्लो, जिसने इस शब्द का पहली बार प्रयोग किया था, मध्यकाल के चर्चित विचारक थामस एक्वीनस से प्रभावित था. वह मशीनीकरण द्वारा पैदा की गई समस्याओं का निदान धर्म के माध्यम से चाहता था. उसे लगता था कि ईसाई धर्म का करुणा और प्राणिमात्र के प्रति दया का सिद्धांत अनियोजित मशीनीकरण द्वारा उत्पन्न समस्याओं से मुक्ति दिला सकता है. भारत में हालात अलग थे. मशीनीकरण की शुरुआत यहां देर से हुई. सामंतवादी उत्पीड़न का शिकार रहे जिन वर्गों को ‘सामाजिक न्याय’ की जरूरत थी, वे औद्योगिकीकरण को एक उम्मीद के रूप में देख रहे थे. उसकी असल लड़ाई धार्मिक वर्चस्ववाद, घोर विपन्नता और जड़ हो चुकी वर्ण–व्यवस्था से थी. जिनके द्वारा उत्पन्न समस्याएं औद्योगिकीकरण की समस्याओं की अपेक्षा कहीं अधिक विकराल थी. माना यह गया था कि सामाजिक न्याय के लक्ष्य की प्राप्ति के बगैर वैकल्पिक संस्कृति का गढ़न असंभव है. किंतु रैदास, कबीर आदि प्रमुख संत कवि जिन वर्गों से आए थे, ब्राह्मण–परंपरा उनको बुद्धिजीवी मानना तो दूर, सामान्य मानवीय अधिकार देने से भी बचती थी. इसलिए संत–कवियों की बातों को दबा दिया गया. उसके बाद तो दमन और उत्पीड़न की लंबी परंपरा है, जिसमें जातिवाद उत्तरोत्तर मजबूत होगा गया.
ब्राह्मण संस्कृति ईश्वरीय न्याय में विश्वास करती है. न्याय का स्वरूप क्या हो? वंचित तबकों की उन्नति में वह किस भांति सहायक हो सकता है—यह नहीं बताती. ईश्वरीय न्याय की अवधारणा की कमजोरियां किसी से भी छिपी नहीं हैं. वह व्यक्ति के सपनों और आवश्यकताओं पर केंद्रित न होकर अनुकंपा पर टिका होता है. व्यक्ति के मान–सम्मान को सुरक्षित रखने की उसमें कोई व्यवस्था नहीं होती. सारा कारोबार डर के भरोसे चलता है. एक ही बात व्यक्ति के दिलो–दिमाग में तरह–तरह से बिठाई जाती है कि ईश्वर खुश तो उसकी अनुकंपा की कमी नहीं रहती. ईश्वर के नाम पर चढ़ावा मत चढ़ाओ, उसका नाम मत लो, उसके आगे मान–सम्मान और स्वाभिमान की बातें करो तो वह नाराज होकर कुटिल सामंत से भी क्रूर भांति व्यवहार करने लगता है. सुनवाई का अवसर तक नहीं देता. यानी सवाल ईश्वर की नाक का है. और उसे अपनी नाक बेहद प्यारी है. वह नहीं चाहता कि किसी और की नाक उसकी नाक से ऊंची हो. ईश्वर का डर भक्त के डर से कहीं ज्यादा बड़ा है. लेकिन ईश्वर डरता क्यों है? और उसका डर कहां से आता है? इस प्रश्न के उत्तर में जनसमाज की अनेक समस्याओं का हल भी छिपा है. असल में यह वर्चस्ववादी शक्तियों का अपना भय है. जब कोई व्यक्ति बल या कूटनीति के सहारे दूसरों को दबाना चाहता है तो वह जानता है कि वह प्रकृति–विरुद्ध आचरण है. डरे हुए लोग कभी भी विद्रोह कर सकते हैं. उस समय डर का वह हिस्सा जिसे पर दूसरों पर आजमाना चाहता है, उसके अपने मनो–मस्तिष्क पर भी छा जाता है. ऐसे में उनके द्वारा कल्पित ईश्वर भी उसके डर से मुक्त नहीं हो पाता. कह सकते हैं कि ईश्वर की परिकल्पना असल में वर्चस्ववादी परिकल्पना है. शिखर पर बैठे लोग अपनी कामनाओं के हिसाब से ईश्वर को गढ़ते हैं. उस समय उनके मन में समाये डर का एक हिस्सा उनके मनोमस्तिष्क पर छाया रहता है. यह बात शासक गण भी जानते हैं. बावजूद इसके संस्कृति–पुरुष उसे भक्त–वत्सल, कृपा–निधान, करुणागार जैसे सुशोभन संबोधनों से अलंकृत रखते हैं. दूसरी ओर दुनिया को ‘मायाजाल’ बताया जाता है. मानवीय संबंधों को ‘भ्रम’, ‘छलावा’, मोह–ममता आदि कहकर अवमूल्यित किया जाता है. लोगों को ऐसी स्पर्धा में जोत दिया जाता है, जो न केवल अंतहीन बल्कि अर्थहीन भी होती है. ऐसे स्वाभिमान रहित समाज में न्याय एवं कल्याण का लक्ष्य व्यक्तिगत मोक्ष की कामना तक सिमट जाता है.
‘सामाजिक न्याय’ के पैरोकारों का प्रथम लक्ष्य उस संस्कृति का पुनरुद्धार करना है, जिसमें संगठित धर्म का हस्तक्षेप न्यूनतम हो. जिसमें लोग एक–दूसरे से सहयोग और सद्भाव के आधार पर जुड़े हों तथा एक–दूसरे के हित के लिए काम करने में सुख का अनुभव करते हों. परस्पर सहयोग एवं सहभागिता पर आधारित संस्कृति की कल्पना भारत के लिए नई नहीं है. बाद के ग्रंथों में उसका बार–बार विरूपण किया गया है. इस बात के भी पर्याप्त प्रमाण है कि वैदिक काल से लेकर गौतम बुद्ध तक और उसके बाद भी यज्ञ, कर्मकांड और वर्गभेद को बढ़ावा देने वाली ब्राह्मण–संस्कृति का विरोध लगातार होता रहा. किंतु उस धारा का प्रतिनिधि साहित्य आज अप्राप्य है. उनका छिटपुट उल्लेख ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में ही प्राप्त होता है. उसे भी ब्राह्मणवादी नजरिये से प्रस्तुत किया गया है. संकेत साफ हैं कि विजेता ब्राह्मण संस्कृति ने, पराजित संस्कृति के प्रमाणों एवं प्रतीकों को मिटाने का काम पूर्णतः योजनाबद्ध ढंग से किया. बौद्धिक गतिविधियों पर ब्राह्मण का एकाधिकार होने के बाद ब्राह्मण संस्कृति को ही भारतीय संस्कृति के रूप में पेश किया जाने लगा. अब तो कदाचित यह सवाल तक नहीं उठता कि क्या इस देश में कभी कोई वैकल्पिक संस्कृति भी थी?
भारत के संदर्भ में सामाजिक न्याय की लड़ाई गरीबी के साथ–साथ जाति एवं वर्गभेद द्वारा पैदा की गई विषमताओं के विरुद्ध जंग भी है. उत्पीड़न का शिकार रहे वर्गों को लगता है कि लोकतांत्रिक माहौल का लाभ उठाकर वे अपने संघर्ष को आगे बढ़ा सकते हैं. इसलिए वे जाति को संगठनकारी ‘टूल’ की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन जाति–आधारित संगठनों की अपनी परेशानी हैं. इस देश में हजारों जातियां हैं. अपने दम पर कोई भी जाति परिवर्तनकारी ताकत बनने में अक्षम है. इस लिए समान श्रेणी की जातियां को वर्ग के रूप में संगठित करने की कोशिशें चल रही हैं. परंतु दृष्टिकोण पूरी तरह अलग है. पहले जातियों को शीर्षस्थ शक्तियों के स्वार्थ के अनुसार बांटा जाता था. लोग उसमें कुढ़ते रहते थे. आज दमित वर्ग मान चुके हैं की बिना राजनीतिक–आर्थिक ताकत हासिल किए सामाजिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव है. और यह कार्य किसी की दया या चमत्कार भरोसे संभव नहीं है. उन्हें खुद इसके लिए प्रयास करने होंगे. इसलिए निम्न और मंझौले वर्ण की जातियां अपने–अपने हितों के लिए संगठित हो रही हैं. इस परिवर्तन की विडंबना है जो लोग जाति प्रथा के सताए हुए थे, उससे नफरत करते थे, उसे भारतीय समाज–व्यवस्था का कलंक मानते थे, अब वे उसी का सहारा लेकर एक ताकत में ढलने की कोशिश में जुटे हैं. यह जहर को जहर से मारने, कांटे से कांटा निकालने की तरतीब है. इस तरह के खेल अभी तक अल्पसंख्यक अभिजन वर्ग के लोग ही खेलते आए थे. बल्कि यह उनका पसंदीदा खेल था. अब बाकी लोग भी उन्हीं गोटियों के साथ मैदान में हैं, जिनके सहारे अभी तक उन्हें छला गया है. लोग यह भी समझने लगे हैं कि सामाजिक न्याय के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए समानांतर लड़ाई संस्कृति के मोर्चे पर भी लड़नी होगी. इसके लिए उस जनसंस्कृति को उभारना होगा, जो ब्राह्मण संस्कृति के उभार के बाद निरंतर हुई उपेक्षा के कारण बेअसर हो चुकी है.
ऐसे अनेक महापुरुष हैं, जो वैकल्पिक संस्कृति के संवाहक रहे हैं. महिषासुर, बालि, शिव पौराणिक सम्राट वेन के अलावा गणेश जैसे अनेक नाम हैं. वे मिथक भी हो सकते हैं और यथार्थ भी. यदि इन्हें मिथक माना जाए तो ब्राह्मण संस्कृति के अन्य संवाहकों को भी मिथक मानना पड़ेगा, क्योंकि उनका पूरा का पूरा इतिहास इनके कंधों पर खड़ा है. शिव भारत की आदिम जातियों के मुखिया थे. उनके सहयोगी के रूप में भूत, पिशाच, प्रेत आदि को हम भारत के आदिम कबीलों की याद दिलाते हैं. आर्यों ने शिव को तो अपनाया. मजबूरी में उन्हें आराध्य भी माना, किंतु उनके सहयोगी कबीलों की पूरी तरह उपेक्षा की. उन्हें असभ्य मानते हुए भूत, प्रेत, कापालिक आदि कहा गया. बख्शा शिव को भी नहीं गया. उन्हें आक, धतूरा खाने वाला, भभूत लगाकर रमने वाले अवधूत की तरह दर्शाया गया. इससे सृष्टि को चलाने की जिम्मेदारी ‘ब्राह्मण ब्रह्मा’ तथा ‘क्षत्रिय विष्णु’ पर आ गई. और एक बार वे सत्ताकेंद्र बने तो आगे चलकर सत्ता उन्हें रास आने लगी. परिणामस्वरूप सत्ता में बने रहने का उपक्रम खोजने लगे. इसके लिए जो भी लंद–फंद उन्हें जरूरी वह किया भी. गणेश का मिथक भी प्राचीन भारतीय गणतंत्रों के मुखिया की याद दिलाता है. गणतांत्रिक व्यवस्थाओं में मुखिया का निर्णय सर्वोपरि होता है. उसे प्रथम पूज्य माना जाता है. ईसा की पहली–दूसरी शती के आसपास बड़े राज्यों का चलन बढ़ा तो सभा का नेतृत्व करने वाले गणप्रमुख के चरित्र का विरूपण किया गया. बैठे–बैठे सूंड लटक आना, खाते–खाते उदर बढ़ जाना जैसे प्रहसन गण–प्रमुख को बदनाम करने के लिए रचे जाने लगे. ब्राह्मण संस्कृति के चंगुल से बहार निकलने के लिए जनसंस्कृति के इन प्रतीकों की पुनर्व्याख्या करना हम सब का युग धर्म है.
अब हम इस लेख के अंतिम चरण पर आते हैं. सामाजिक न्याय के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक है, प्राचीन संस्कृति के उन प्रतीकों की पहचान की जाए जो कभी ब्राह्मण संस्कृति के विरोध में या उसके समानांतर खड़े थे. क्या यह धर्म के भीतर एक और धर्म की खोज सिद्ध नहीं होगी? ऐसी आशंका उठ सकती है. ध्यान यह रखना होगा कि समानांतर संस्कृति के इन प्रतीकों, नायकों, मिथकों का योगदान दमित–शोषित वर्गों के आत्मविश्वास को लौटाने तक सीमित हो. यह एहसास दिलाने के लिए हो कि हम हमेशा से ही ‘ऐसे’ नहीं थे. हम न केवल ‘वैसे’, बल्कि कई मायनों में उनसे भी बहुत–बहुत आगे थे. उनकी संस्कृति का महल हमारे ही महानायकों के कंधों पर खड़ा है. जिस दिन हम अपने महानायक उनसे वापस ले लेंगे, असमानताकारी ब्राह्मण संस्कृति का भवन भरभराकर गिर पड़ेगा. जिस दिन वैकल्पिक संस्कृति को उसकी पहचान वापस दिला पाएंगे, सामाजिक न्याय की गाड़ी अपने आप आगे बढ़ने लगेगी.
© ओमप्रकाश कश्यप