जैन और बौद्धदर्शन में समाजवादी चेतना

हितोपदेश की एक सुभाषित है : अयं निज परोवेति गणना लघुचैतसाम्। उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम् यानी ‘यह अपना है, वह पराया हैयह सोच क्षुद्र वृत्ति की उपज है. उदारचरितों, सज्जनों के लिए तो पूरा विश्व एक परिवार के समान है, पृथ्वी पर रहने वाले सभी नरनारी उनके परिजन हैं.’जिस दौर की यह उक्ति है वह मानवीय मेधा के प्रस्फुटन का था. जैन और बौद्ध दर्शन का उदय उससे करीब तीन सौ वर्ष पहले हो चुका था. जिन दिनों पंचतंत्रादि ग्रंथों की रचना हुई ये दोनों दर्शन देश की सीमाओं से बाहर निकलकर दुनिया को अपनी कल्याणकारी मेधा से प्रभावित कर रहे थे. उल्लेखीय है कि बौद्ध दर्शन का उद्भव वैदिक धर्म की प्रतिक्रिया में हुआ था. वेदों में बहुदेववाद, कर्मकांड और युद्धों का इतना विशद् वर्णन है कि उनके आगे उनकी दार्शनिक, नैतिक, आध्यात्मिक चिंतनधारा म्लान दिखने लगती है. इसलिए वे तत्वचिंतन के नाम पर कर्मकांड, धर्म के बजाय पाखंड, नीति के स्थान पर ऊंचनीच और आडंबर रचते हुए नजर आते हैं. पुरोहित वर्ग उनके माध्यम से धर्मदर्शन की स्वार्थानुकूल और मनमानी व्याख्याएं थोपने का प्रयास करता है. राजनीति के सहयोग से वह इस धृष्टता में कामयाब भी होता है. धर्म और राजसत्ता परस्पर मिलकर लोगों के शोषण के लिए नएनए विधान गढ़ते हैं. समाजार्थिक शोषण का यह सिलसिला लगभग पांच शताब्दियों तक निरंतर चलता है. ऐसा भी नहीं है कि शेष समाज शोषण को अपनी नियति मान चुका था. बल्कि जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, ब्राह्मणवाद का विरोध उसके आरंभिक दिनों से ही होने लगा था. मगर उसको रचनात्मक दिशा देने का काम किया था, जैन और बौद्ध दर्शन ने. इन दोनों दर्शनों ने वेदों की बुद्धिवाद की उस धारा को नई एवं युगानुकूल दिशा देने का काम किया, जो कर्मकांड और मिथ्याडंबरों के बीच अपनी पहचान लगभग गंवा चुकी थी.

जैन और बौद्ध धर्म के प्रवर्त्तक क्रमशः महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध, ईसा से छह शताब्दी पहले, क्षत्रिय कुल में जन्मे थे. अपनेअपने दर्शन में दोनों ने ही कर्मकांड और आडंबरवाद का जमकर विरोध किया था. दोनों ही यज्ञों में दी जाने वाली पशुबलियों के विरुद्ध थे. दोनों ने शांति और अहिंसा का पक्ष लिया था, और भरपूर ख्याति बटोरी. जैन और बौद्ध, दोनों ही दर्शनों को भारतीय चिंतनधारा में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. इनमें से जैन धर्म अहिंसा को लेकर अत्यधिक संवेदनशील था, जबकि जीवन को लेकर बुद्ध का दृष्टिकोण व्यावहारिक था. अहिंसा के प्रति अत्यधिक आग्रहशीलता के कारण जैन दर्शन प्रचारप्रसार के मामले में बौद्ध दर्शन से पिछड़ता चला गया. व्यावहारिक होने के कारण बौद्ध दर्शन को उन राजाओं आ समर्थन भी मिला जो ब्राह्मणवाद से तंग हो चुके थे; और उपयुक्त विकल्प की तलाश में थे.

गौतम बुद्ध ने कर्मकांड के स्थान पर ज्ञानसाधना पर जोर दिया था. पशुबलि को हेय बताते हुए वे अहिंसा के प्रति आग्रहशील बने रहे. वेदवेदांगों में आत्मापरमात्मा आदि को लेकर इतने अधिक तर्कवितर्क और कुतर्क हो चुके थे कि बुद्ध को लगा कि इस विषय पर और विचार अनावश्यक है. इसलिए उन्होंने आत्मा, परमात्मा, ईश्वर आदि विषयों को तात्कालिक रूप से छोड़ देने का तर्क दिया. उसके स्थान पर उन्होंने मानवजीवन को संपूर्ण बनाने पर जोर दिया. समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए उन्होंने पंचशील का सिद्धांत दिया. जिसमें पहला शील है, अहिंसा. जिसके अनुसार किसी भी जीवित प्राणी को कष्ट पहुंचाना अथवा मारना वर्जित कर दिया गया था. दूसरा शील था, अचौर्य. जिसका अभिप्राय था कि किसी दूसरे की वस्तु को न तो छीनना न उस कारण उससे ईर्ष्या करना. तीन शील सत्य था. मिथ्या संभाषण भी एक प्रकार की हत्या है. सत्य की हत्या. इसलिए उससे बचना, सत्य पर डटे रहना. तीसरे शील के रूप में तृष्णा न करना शामिल था. व्यक्ति के पास जो है, जो अपने संसाधनों द्वारा अर्जित किया गया, उससे संतोष करना. आवश्यकता से अधिक की तृष्णा न करना. इसलिए कि यह पृथ्वी जरूरतें तो सबकी पूरी कर सकती है, मगर तृष्णा एक व्यक्ति की भी भारी पड़ सकती है. पांचवा शील मादक पदार्थों के निषेद्ध को लेकर है. पंचशील को पाने के लिए उन्होंने अष्ठांगिक मार्ग बताया था, जिसमें उन्होंने सम्यक दृष्टि(अंधविश्वास से मुक्ति), सम्यक वचन(स्पष्ट, विनम्र, सुशील वार्तालाप), सम्यक संकल्प(लोककल्याणकारी कर्तव्य में निष्ठा, जो विवेकवान व्यक्ति से अभीष्ट होता है), सम्यक आचरण(प्राणीमात्र के साथ शांतिपूर्ण, मर्यादित, विनम्र व्यवहार), सम्यक जीविका(किसी भी जीवधारी को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुंचाना), सम्यक परिरक्षण(आत्मनियंत्रण और कर्तव्य के प्रति समर्पण का भाव), सम्यक स्मृति(निरंतर सक्रिय एवं जागरूक मस्तिष्क) तथा सम्यक समाधि(जीवन के गंभीर रहस्यों पर सुगंभीर चिंतन) पर जोर दिया था.

बुद्ध की चिंता थी कि किस प्रकार मानवजीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाया जाए. सुख से उनका अभिप्राय केवल भौतिक संसाधनों की उपलब्धता से नहीं था. इसके स्थान पर वे न केवल मानवजीवन के लिए सुख की सहज उपलब्धता चाहते थे, बल्कि समाज के बड़े वर्ग के लिए सुख की समान उपलब्धता की कामना करते थे. यह वैदिक ब्राह्मणवाद के समर्थकों से एकदम भिन्न था. जिन्होंने परलोक की काल्पनिक भ्रांति के पक्ष में भौतिक सुखों की उपेक्षा की थी, जबकि उनका अपना जीवन भोग और विलासिता से भरपूर था. यही नहीं वर्णाश्रम व्यवस्था के माध्यम से उन्होंने समाज के बहुसंख्यक वर्गों, जो मेहनती और हुनरमंद होने के साथसाथ समाज के उत्पादन को बनाए रखने के लिए कृतसंकल्प थे, सुख एवं समृद्धि से दूर रखने की शास्त्राीय व्यवस्था की थी. शूद्र कहकर उसको अपमानित करते थे. और इस आधार पर उन्हें अनेक मानवीय सुविधाओं से वंचित रखा गया था.

उल्लेखनीय है कि वेदों के आडंबरवाद का विरोध उन्हीं दिनों शुरू हो चुका था. उस समय के महानतम विद्वान कौत्स तो वैदिक ऋचाओं को शब्दाडंबर मात्र मानते थे. समाज का बड़ा वर्ग वैदिक परंपराओं का खंडन करता था. इस कारण वेद समर्थकों और उनके विरोधियों के बीच घमासान भी होते रहते थे. जिनसे कूटनीति और छल के कारण ब्राह्मणवादियों को विजय प्राप्त हुई थी. दरअसल यह बुद्ध ही थे जिन्होंने दर्शन को वायवी आडंबर से बाहर लाकर आचरण और व्यवहार के धरातल पर लाकर अवस्थित किया था. उन्होंने दर्शन को निरर्थक और अनुपयोगी प्रश्नों के चक्र से बाहर लाकर जीवन से जोड़ा. मानव मन की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के सापेक्ष नैतिकता को केंद्र में लेकर आए. पंडितों और पुरोहितों से अलग भाषा अपनाते हुए उन्होंने जोर देकर कहा कि धर्म और दर्शन, दोनों का उद्देश्य इस विश्व का पुनर्निर्माण करना है, ब्रह्मांड की उत्पत्ति की व्याख्या नहीं. आज प्रयोगों द्वारा सिद्ध हो चुका है कि ब्रह्मांड की व्याख्या वैज्ञानिक नियमों द्वारा ही सटीक ढंग से की जा सकती है. नैतिकता से कटा हुआ धर्म महज आडंबर है. विरोधियों की आलोचना की परवाह न करते हुए उन्होंने आगे कहा कि सृष्टि का केंद्र मनुष्य है, न कि ईश्वर. धर्म के बारे में उनका कहना था कि उसका केंद्रविषय नैतिकता है. वे जीवन में दुःख को अवश्यंभावी मानते थे. साथ ही उनका मानना था कि दुःखों से मुक्ति संभव है. इसके लिए जीवन के प्रति संपूर्ण समर्पण अनिवार्य है.

पुरोहितों और पंडितों के चंगुल से आमजन को बचाने के लिए उन्होंने अष्ठांग मार्ग का प्रवर्त्तन किया. जीवन की पवित्रता के लिए उन्होंने उसको संपूर्णता के साथ अपनाने की सलाह दी. बातबात पर पुरोहितों और धर्माचार्यों की शरण में जाने वाले लोगों को उन्होंने नेक सलाह दी—अप्प दीपो भवः! अपना दीपक स्वयं बनो. उन्होंने जोर देकर कहा कि सुख केवल शीर्षस्थ वर्गों की बपौती नहीं है. गृहस्थ के लिए धनार्जन न तो पाप है, न कोई अभिशाप. जीवन के प्रति मध्यमार्गी दृष्टिकोण अपनाते हुए उन्होंने धर्नाजन को गृहस्थ के लिए अनिवार्य उपक्रम माना. वे पहले धर्माचार्य थे, जिन्होंने गणतंत्र का पक्ष लिया, यह उस युग में एकदम क्रांतिकारी था. परिणाम यह हुआ कि सांसारिक सुखों के प्रति जनसामान्य पापबोध लगातार घटने लगा. शिल्पकर्मियों को शूद्र का दर्जा देकर उन्हें तरहतरह से प्रताड़ित किया जाता था. बौद्ध धर्म में जातिवर्ण के लिए कोई स्थान न था. बल्कि सभी के लिए सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार था. इसलिए जातीय उत्पीड़न का शिकार रही जातियां बड़ी तेजी से बौद्धधर्म में शामिल होने लगीं. देखते ही देखते वह देश की सीमाएं पार कर, विदेशी भूमियों पर अपनी पकड़ बनाता गया.

बुद्ध स्वयं क्षत्रिय थे. उनके समकालीन महावीर स्वामी भी क्षत्रिय ही थे. दोनों ने ही राजनीतिक सुखसुविधाओं को ठुकराकर अध्यात्मचिंतन का मार्ग चुना था. राजघराना छोड़कर उन्होंने चीवर धारण किया था. इसलिए बाकी वर्गों में विशेषकर उन लोगों में जो ब्राह्मणों और उनके कर्मकांडों से दूर रहना चाहते थे, जैन और बौद्धधर्म की खासी पैठ बनती चली गई. मगर सामाजिक स्थितियां बौद्ध धर्म के पक्ष में थीं. इसलिए कि एक तो वह व्यावहारिक था. दूसरे जैन दर्शन में अहिंसा आदि पर इतना जोर दिया गया था कि जनसाधारण का उसके अनुरूप अपने जीवन को ढाल पाना बहुत कठिन था. यज्ञों एवं कर्मकांडों के प्रति जनसामान्य की आस्था घटने से उनकी संख्या में गिरावट आई थी. उनमें खर्च होने वाला धर्म विकास कार्यों में लगने लगा था. पहले प्रतिवर्ष हजारों पशु यज्ञों में बलि कर दिए जाते थे. महात्मा बुद्ध द्वारा अहिंसा पर जोर दिए जाने से पशुबलि की कुप्रथा कमजोर पड़ी थी. उनसे बचा पशुधन कृषि एवं व्यापार में खपने लगा. शुद्धतावादी मानसिकता के चलते ब्राह्मण समुद्र पार की यात्रा को निषिद्ध और धर्मविरुद्ध मानते थे. बौद्ध धर्म में ऐसा कोई बंधन न था. इसलिए अंतरराज्यीय व्यापार में तेजी आई थी. चूंकि अधिकांश राजाओं द्वारा अपनाए जाने से बौद्ध धर्म राजधर्म बन चुका था, इसलिए युद्धों में कमी आई थी, जो राजीनितिक स्थिरता बढ़ने का प्रमाण थी. व्यापारिक यात्राएं सुरक्षित हो चली थीं. जिससे व्यापार में जोरदार उछाल आया था.

ये सभी स्थितियां जनसामान्य के लिए भले ही आह्लादकारी हों, मगर ब्राह्मणधर्म के समर्थकों के लिए अत्यंत अप्रिय और हितों के प्रतिकूल थीं. इसलिए उसका छटपटाना स्वाभाविक ही था. अतएव महात्मा बुद्ध को लेकर वे ओछे व्यवहार पर उतर आए थे. बुद्ध का जन्म शाक्यकुल में हुआ था, जो वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार क्षत्रियों में गिनी जाती थी. ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र कहकर लांछित किया, जिसको बुद्ध इन बातों से अप्रभावित बने रहे. दर्शन को जनसाधारण की भावनाओं का प्रतिनिधि बनाते हुए उन्होंने दुःख की सत्ता को स्वीकार किया. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि दुःख निवृत्ति संभव है. उसका एक निर्धारित मार्ग है. दुःख स्थायी और ताकतवर नहीं है. बल्कि उसको भी परास्त किया जा सकता है.

बुद्ध का दर्शन वर्जनाओं का दर्शन है. सबसे पहले वह वर्णाश्रम व्यवस्था पर प्रहार करते हैं. उस व्यवस्था पर प्रहार करते हैं, जो ब्राह्मणों को विशेषाधिकार संपन्न बनाती है. पुरोहितवाद की जरूरत को नकारते हुए वे कहते हैं‘अप्प दीपो भव!’ अपना दीपक आप बनो. तुम्हें किसी बाहरी प्रकाश की आवश्यकता नहीं हैं. किसी मार्गदर्शक की खोज में भटकने से अच्छा है कि अपने विवेक को अपना पथप्रदर्शक चुनो. समस्याओं से निदान का रास्ता मुश्किलों से हल का रास्ता तुम्हारे पास है. सोचो, सोचो और खोज निकालो. इसके लिए मेरे विचार भी यदि तुम्हारे विवेक के आड़े आते हैं, तो उन्हें छोड़ दो. सिर्फ अपने विवेक की सुनो. करो वही जो तुम्हारी बुद्धि को जंचे. उन्होंने पंचशील का सिद्धांत दुनिया को दिया. उसके द्वारा मर्यादित जीवन जीने की सीख दुनिया को दी. कहा कि सिर्फ उतना संजोकर रखो जिसकी तुम्हें जरूरत है. तृष्णा का नकारहिंसा छोड़, जीवमात्र से प्यार करो. प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन जीने का उतना ही अधिकार है, जितना कि तुम्हें है. इसलिए अहिंसक बनो. झूठ भी हिंसा है. इसलिए कि वह सत्य का दमन करती है. झूठ मत बोलो. सिर्फ अपने श्रम पर भरोसा रखो. उसी वस्तु को अपना समझो जिसको तुमने न्यायपूर्ण ढंग से अर्जित किया है. पांचवा शील था, मद्यपान का निषेध. बुद्ध समझते थे वैदिक धर्म के पतन के कारण को. उन कारणों को जिनके कारण वह दलदल में धंसता चला गया. दूसरों को संयम, नियम का उपदेश देने वाले वैदिक ऋषि खुद पर संयम नहीं रख पा रहे थे. अपने आत्मनियंत्रण को खोते हुए उन्होंने खुद ही नियमों को तोड़ा. मांस खाने का मन हुआ तो यज्ञों के जरिये बलि का विधान किया. कहा कि ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’और अपनी जिव्हा के स्वाद के लिए पशुओं की बलि देते चले गए. नशे की इच्छा हुई तो सोम को देवताओं का प्रसाद कह डाला और गले में गटागट मदिरा उंडेलने लगे. ऐसे में धर्म भला कहां टिकता. कैसे टिकता!

बुद्ध पहले महात्मा थे, साहचर्य का पाठ दुनिया को पढ़ाया. उससे पहले आश्रम सहजीवन की पहचान हुआ करते थे. लेकिन वहां गुरु का नाम चलता था. सारे आश्रम गुरु के नाम से जाने जाते थे. वौद्ध विहार किसी एक भिक्षु की संपत्ति नहीं थे. वे सबसे साझे थे. बुद्ध का कहना था कि जो है, सबका है. जितना है, उसको मिलबांटकर उपयोग करो. उनके भिक्षुसंघ की व्यवस्था ही ऐसी थी. प्रारंभ में गौतम बुद्ध का शिष्यत्व धारण करने वाले अधिकांश भिक्षु राजपरिवारों से आए थे. संघ के नियमानुसार प्रत्येक भिक्षु को चीवर धारण करना पड़ता था. जिसका अर्थ है जीर्णशीर्ण परिधान. उस समय आम आदमी के यही वस्त्र थे. वह मेहनत मजदूरी करता और अपने राजा के लिए कमाता था. जमीन या संपत्ति पर उसका अधिकार न था. वह राजा की मानी जाती थी. लगान चुकाने के बाद जो बचता उससे वह सिर्फ आधा तन ही ढक पाता था. बहुत बाद में अपने राजनीतिक गुरु गोविंदवल्लभ पंत के कहने पर गांधी जी जब ‘भारत को जानने’ के लिए यात्रा पर निकले तो उन्होंने भी एक नदी तट पर ऐसे ही अंधनंगे स्त्रीपुरुषों को देखकर अपने वस्त्र उनकी ओर बहा दिए थे. उसके बाद साबरमती का वह फकीर अधनंगे तन की अंग्रेजों से जूझता रहा. वह जनता के दुःखदर्द को पहचानकर उसके करीब आने की, राजा से रंक बनने की कोशिश थी. बिना इसके लोगों के दिल में बनाना आसान न था. बौद्ध संघों के नियम भी ऐसे थे कि जो भी वहां आए, अतीत के वैभव को बिसराकर सच्चे मन से आए.

बुद्ध के कुछ शिष्यों को अच्छा नहीं लगा कि उनका गुरु ऐसे जीर्णशीर्ण वस्त्र धारण करे. यह उनका प्रेरक रहा होगा. मगर यह उस सत्ता की प्रतीति का भी परिणाम था, जो धर्मसत्ता के संगठित होतेहोते आकार ले लेता है. ऐसे शिष्यों ने बुद्ध के लिए नए कपड़े से बुना चीवर लाकर दिया. प्रार्थना की कि उसको पहनें. बुद्ध ने अपने शिष्यों पर निगाह डाली. वे भी जीर्णशीर्ण चीवर में थे. ‘मुझे कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन संघ में तो सभी बराबर हैं. बाकी भिक्षु भी पुराने वस्त्र क्यों धारण करें. उस दिन के बाद से संघ में पुराने कपड़े का बना चीवर पहनने की शर्त हटा दी गई.

ऐसा ही एक और उदाहरण है. गौतम बुद्ध की मां माया तो उन्हें जन्म देने के नवें दिन ही मर चुकी थीं. उन्हें मां का स्नेह देकर पालने वाली थी, गौतमी, जिन्हें वे सदैव मां का सम्मान देते रहे. गौतम बुद्ध ने भिक्षु संघ की स्थापना की तो गौतमी भी उसमें सम्मिलित हो गई. सर्दी का मौसम था. गौतमी ने बुद्ध को एकमात्र चीवर में देखा तो उनका वात्सल्य मचलने लगा. जानती थीं कि राजपाट को ठोकर मार चुका उनका संन्यासी बेटा सर्दी से बचाव के लिए भी अन्य वस्त्र धारण नहीं करेगा. इसलिए उन्होंने रातदिन लगकर बुद्ध के लिए एक गुलुबंद तैयार किया. उसको लेकर वे खुशीखुशी उनके पास पहुंची और उनसे पहनने का आग्रह किया. बुद्ध ने बाकी भिक्षुओं की ओर देखा. वे सभी एकमात्र चीवर में थे. उन्होंने गुलुबंद लेने से इनकार कर दिया. बोले कि यदि यह उपहार है तो सभी भिक्षुओं के लिए होना चाहिए. सिर्फ उन्हीं के लिए क्यों? गौतमी ने बहुत अनुनयविनय की. लेकिन बुद्ध नहीं माने. समाजवाद की, सहजीवन की पहली शर्त है, संसाधनों में बराबर की हिस्सेदारी. इसके लिए उनका राष्ट्रीयकरण. बुद्ध ने भिक्षु संघ की जो व्यवस्था की थी, उसके अनुसार समस्त संपत्ति संघ की मानी जाती थी. संपत्ति और संसाधनों के समान बंटवारे के अतिरिक्त भिक्षु संघ में अधिकारों का भी एकसमान विभाजन था. सभी निर्णय सहमति के आधार पर लिए जाते थे. भिक्षु संघ के बीच महात्मा बुद्ध की हैसियत अधिक से अधिक एक प्रधान सचिव जैसी थी. किसी को भी मनमानी करने अथवा अपना निर्णय थोपने का अधिकार नहीं था. महात्मा बुद्ध वैशाली गणतंत्र के प्रशंसक थे. ऐसी ही व्यवस्था वे भिक्षु संघ में चाहते थे. जीवन के उत्तरार्ध में कम से कम दो अवसर ऐसे आए, जब उनसे उनके उत्तराधिकारी के बारे में पूछा गया था. कहा गया कि जिसको वे उपयुक्त समझते हों उसको संघ की व्यवस्था सौंप सकते हैं. उस समय यदि वे चाहते तो किसी भी व्यक्ति को यह दायित्व सौंपकर उपकृत कर सकते थे. मगर हर बार उन्होंने यही कहा कि धम्म ही संघ का सेनापति है. और आजकल के कथावाचक टाइप स्वयंभू भगवानों को देखें, जो धर्म के नाम पर बने अपने संगठन को भी किसी कारपोरेट कंपनी की भांति चलाते हैं. धर्म के नाम पर जनसाधारण की भावनाओं का दोहन कर मुनाफा बटोरना और पूंजी बटोरना ही उनका ही उनका व्यवसाय है. शंकराचार्य की गद्दी पाने के लिए षड्यंत्र किए जाते हैं, हत्याएं तक होती हैं.

बुद्ध कोरे अध्यात्म पर जोर नहीं देते. बल्कि व्यक्ति की दैनंदिन की समस्याओं पर भी विचार करते हैं. बुद्ध का दुःख की शाश्वतता को स्वीकारना और उसे अपने चिंतन की परिधि में लाना उन्हें व्यावहारिक और जनसाधारण के निकट लाता है. मगर दुःख की बात कहकर, वे डराते नहीं हैं. वे स्पष्ट कहते हैं कि दुःख की सत्ता है, और उसका कारण भी है. कारण का निवारण कर दुःख से मुक्ति संभव है. इसके लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है. खुद को पहचानो. अपने भीतर छिपे प्रकाश को पकड़ो.

यूं तो हिंदू दर्शन भी चार पुरुषार्थों को मान्यता देता है. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष. लेकिन काम और मोक्ष को लेकर भारतीय परंपरा विरोधाभासों का शिकार रही है. एक ओर तो व्यक्ति को अर्थ और काम के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा है, दूसरे उन्हें माया और भ्रांति कहकर पारलौकिक सुख का लालच दिया जाता रहा. बुद्ध मुक्ति की बात नहीं कहते. मुक्ति का अभिप्राय वैदिक आचार्यों को लिए आत्मा का परमात्मा से सम्मिलन रहा है. बुद्ध आत्मा और परमात्मा को अचिंत्य मानते थे. इसलिए उन्होंने निर्वाण का पक्ष लिया. मुक्ति के लिए मृत्यु अनिवार्य है. निर्वाण इसी जीवन में संभव है. बस उसके लिए चित्तवृत्तिनिरोध और आत्मसंयम की आवश्यकता है. भिक्षु के लिए उन्होंने किंचित कठोर नियम बनाए थे. संन्यासी को संचय की आवश्यकता ही क्या. यदि संचय से लगाव था तो संन्यास की आवश्यकता ही क्या थी. अतः भिक्षु को चाहिए कि वह प्रतिदिन पहनने के लिए तीन वस्त्र(त्रीचीवर), एक कटिबांधनी यानी कमर में बांधने वाली पेटी, एक भिक्षापात्र, वाति यानी उस्तरा, सुईधागा तथा पानी साफ करने के लिए एक छननी अथवा छन्ना के अतिरिक्त कुछ और न रखे. भिक्षु के लिए महंगी धातुएं यथा सोना, चांदी पहनना या पास में रखना निषिद्ध था. डर था कि सोने को बेचकर वह विलासिता का प्रतीक बाकी वस्तुएं भी खरीद सकता है.

एक ओर जहां भिक्षु के लिए इतने सख्त नियम थे, वहीं गृहस्थ को उन्होंने उदारतापूर्वक संपत्ति संचय की छूट दी थी. इस संबंध में एक कथा है

अनाथ पिंडक गौतम बुद्ध का प्रिय शिष्य था. एक बार उसने सोचा कि गौतम बुद्ध ने भिक्षुओं की संचय की प्रवृत्ति के निषेध के लिए काफी कठोर नियम बनाए हैं. इसलिए उसके मन में जिज्ञासा जगी कि बुद्ध से व्यक्तिगत संपत्ति के बारे में उनका मत जाना जाए. निर्वाण की लालसा तो जितनी भिक्षु को है, करीबकरीब उतनी ही गृहस्थ को भी होती है. इसलिए अभिवादन करने के बाद उसने गौतम बुद्ध से पूछा—

क्या भगवन, यह बताएंगे कि गृहस्थ के लिए कौनसी बातें स्वागतयोग्य, सुखद एवं स्वीकार्य हैं, परंतु जिन्हें प्राप्त करना दुष्कर है?’

प्रश्न सुनने के उपरांत बुद्ध ने कहा—

इनमें प्रथम विधिपूर्वक धन अर्जित करना है. दूसरी बात यह देखना है कि आपके संबंधी भी विधिपूर्वक धनसंपत्ति अर्जित करें. तीसरी बात है दीर्घकाल तक जीवित रहो और लंबी आयु प्राप्त करो.’

गृहस्थ को इन चार चीजों की प्राप्ति करनी है, जो कि संसार में स्वागतयोग्य, सुखकारक तथा स्वीकार्य हैं. परंतु जिन्हें प्राप्त करना कठिन है. चार अवस्थाएं भी हैं, जो कि इनसे पूर्ववर्ती हैं. वे हैं, श्रद्धा, शुद्ध आचरण, स्वतंत्रता और विवेक. शुद्ध आचरण दूसरे का जीवन लेने अर्थात हत्या करने, चोरी करने, व्यभिचार करने तथा मद्यपान करने से रोकता है.

स्वतंत्रता ऐसे गृहस्थ का गुण होती है, जो धनलोलुपता के दोष से मुक्त, उदार, दानशील, मुक्तहस्त, दान देकर आनंदित होने वाला और इतना शुद्ध हृदय का हो कि उसे उपहारो का वितरण करने के लिए कहा जा सके.

बुद्धिमान कौन है?

जो यह जानता हो कि जिस गृहस्थ के मन में लालच, धन लोलुपता, द्वेष, आलस्य, उनींदापन, निद्रालुता, अन्यमनस्कता तथा संशय है और जो कार्य उसको करना चाहिए, उसकी उपेक्षा करता है, और ऐसा करने वाला प्रसन्नता तथा सम्मान से वंचित रहता है.

लालच, कृपणता, द्वेष, आलस्य तथा अन्यमनस्कता तथा संशय मन के कलंक हैं. जो गृहस्थ मन के इन कलंकों से छुटकारा पा लेता है, चह महान बुद्धि, प्रचुर बुद्धि एवं विवेक, स्पष्ट दृष्टि तथा पूर्ण बुद्धि व विवेक प्राप्त कर लेता है.

अतएव, न्यायपूर्ण ढंग से तथा वैध रूप में धन प्राप्त करना, भारी परिश्रम से कमाना, भुजाओं की शक्ति व बल से धन संचित करना, तथा भौहों का पसीना बहाकर परिश्रम से प्राप्त करना, एक महान वरदान है. ऐसा गृहस्थ स्वयं को प्रसन्न तथा आनंदित रखता है तथा अपने मातापिता, पत्नी तथा बच्चों, मालिकों और श्रमिकों, मित्रों तथा सहयोगियों, साथियों को भी प्रसन्नता तथा प्रफुल्लता से परिपूर्ण रखता है.’

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि बुद्ध का दर्शन मानव जीवन को संपूर्ण और परिपक्व बनाने के लिए आग्रहशील है. वह सीधेसीधे उस ब्राह्मणवाद के विरोध में जन्मा था, जिसके केंद्र में जनसाधारण था ही नहीं. जो आत्ममोह से ग्रस्त समाज था, एक प्रकार से लड़ाकू कबीला. जो सिर्फ वर्चस्व की भाषा जानता था. बुद्ध गणतंत्र के प्रशंसक थे. इसलिए उनके दर्शनचिंतन में भी गणतंत्र की खूबियां हैं. वे न केवल सामाजिक समानता पर जोर देते हैं, और उसके लिए सामाजिक समाज के जातीय विभाजन को दोषी ठहराते हैं, वहीं आर्थिक अधिकार देकर व्याक्ति को उन सामंती संस्कारों से बचाए रखना चाहते हैं, जो धर्म और राजनीति की कुटिल संधियों की उपज थे. इन सब कारणों से बुद्ध का दर्शन समाजवादी भावनाओं से ओतप्रोत जान पड़ता है. कई मायने में तो वह माक्र्स के वैज्ञानिक समाजवाद तथा व्यक्ति से भी आगे ले जाता है. इसलिए कि भौतिक द्वंद्ववाद का विश्लेषण करता हुआ माक्र्स उत्साह के साथ शुरू तो करता है, मगरउसका चिंतन आर्थिक पहलुओं से आगे नहीं बढ़ पाता. वह आर्थिक समस्याओं को जीवन की मूल समस्याओं के रूप में देखता है. जबकि ऐसा नहीं है. दूसरी ओर बुद्ध का दर्शन राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक समानता यानी समानता के सभी पहलुओं की विस्तार से चर्चा करता है. और आर्थिक मानवीकरण के मुद्दे पर कई जगह से मार्क्स के समाजवाद से आगे निकल जाता है.

जैन दर्शन में समाजवादी तत्त्व

जैन धर्म के चैबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी, बुद्ध के समकालीन, उनसे लगभग तीस वर्ष बड़े थे. दोनों के दर्शन में काफी समानता है. जैसे कि दोनों ही क्षत्रिय परिवार में जन्मे थे. दोनों ने ही अपना दर्शन ब्राह्मणवाद के विरोध में प्रस्तुत किया था. दोनों ही कर्मकांड के बजाय आचरण की पवित्रता के प्रति अधिक आग्रहशील थे. आत्मापरामात्मा और ईश्वर आदि की वैदिक मताब्लंबियों की बंधीबंधाई धारणा पर उन्हें विश्वास नहीं था. वैदिक ग्रंथों में श्रमणों का जगहजगह उल्लेख हुआ है. ये श्रमण कर्मकांड के विरोधी थे. अपनी जिज्ञासा के समाधान हेतु अधिकांश प्रकृति के सान्न्ध्यि में रहकर सृष्टि के रहस्यों की खोज में लगे रहते थे. जैन धर्म में विश्वास करने वाले श्रद्धालुओं का मानना है कि नदी को पाटने का पहला चमत्कार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी किया था. इसके अतिरिक्त लिपिकला, कुंभकारी, चित्रकारी तथा मूर्तिशिल्प का भी आविष्कार उन्होंने ही किया था. ऋषभदेव का नाम यजुर्वेद तथा श्रीमद् भागवत में भी आया है. ईसा से लगभग 900 वर्ष पूर्व जन्मे बाइसवें तीर्थंकर अरिष्ठनेमि भी क्षत्रिय वंशज तथा कृष्ण के चचेरे भाई थे. कृष्ण के प्रयासों के फलस्वरूप ही राजकुमारी राजमती से उनका विवाह तय हुआ था. लेकिन अरिष्ठनेमि ने जब अपने विवाह में हिरन समेत अन्य निरीह प्राणियों को बलि होते देखा तो उनका मन उचट गया, उसके बाद उन्होंने अपना समस्त जीवन बलि की कुप्रथा को समाप्त करने पर झोंक दिया. तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भी अहिंसा पर जोर देते थे. एक किवदंति के अनुसार उन्होंने एक सर्प की उस समय प्राणरक्षा की थी, जब ब्राह्मण उस वृक्ष को जहां वह रहता था, जला देने का प्रयास कर रहे थे. उनका विवाह एक राजकुमारी के साथ हुआ था. तीस वर्ष तक सुखी गृहस्थ का जीवन जीने के बाद एक दिन उन्हें वैराग्य सूझा और अपनी समस्त संपत्ति दान देकर प्रवज्या ले ली. पार्श्वनाथ अपने शिष्यों के बीच बहुत प्रिय थे. उन्हें जैन साधुओं एवं साध्वियों को संगठित कर उन्हें संगठन का रूप देने का श्रेय दिया जाता है. उनके आदर्श ऊंचे थे. जीवन नैतिकता के उच्च मापदंडों ये युक्त एवं अनुशासित होता था.

जीवन परिचय

जैन धर्म के प्रवर्त्तक चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म ईसा से 599 वर्ष पहले वैशाली के निकट कुंदपुरा नामक स्थान पर हुआ था. बुद्ध की भांति वे भी क्षत्रिय परिवार से संबंधित थे. उस समय पुरोहितों के कर्मकांड अपने शिखर पर थे. यज्ञादि अनुष्ठानों के बीच पोंगापंथी, बुद्धि के नाम पर वितंडा रचना, ज्ञान के स्थान पर पौरोहित्य का प्रशिक्षण देना और तर्क की जगह तंत्रमंत्र साधना ही उस समय अध्यात्म चिंतन मान लिया जाता था. चारों ओर ब्राह्मणवाद का बोलबाला था, जो स्वयं छोटेछोटे गुटों में बंटे थे. उनके बीच ढेर सारे मतांतर थे. उनमें आपस में बहसें चलती रहती थीं. सिर्फ वर्गीय श्रेष्ठता के दावे और स्वार्थ संबंधी मुद्दों को छोड़कर दूसरा शायद की कोई ऐसा पक्ष था, जिसपर वे सभी एकमत होते हों. देश छोटेछोटे राज्यों में बंटा था. राजा अन्यान्य कारणों से परस्पर लड़तेझगड़ते रहते थे. पूरी श्रमण परंपरा, जिनमें कौत्स एवं सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि जैसे विद्वान, चार्वाक दार्शनिक उनके विरोध में थे. प्रजा मन से लोकायतों और श्रमणों के साथ थी, किंतु ब्राह्मणवादी कर्मकांडों से गुजरना उसकी व्यावहारिक मजबूरी थी.

महावीर स्वामी के पिता का नाम सिद्धार्थ और मां त्रिशला थीं. पिता पाश्र्वनाथ के अनुयायी थे. त्रिशला देवी वैशाली के राजा की बहन थी. महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्धमान था. इस नामकरण के पीछे भी एक रहस्य था. बताते हैं कि जब वे गर्भ में थे, उन दिनों राजकोष में तीव्र वृद्धि हुई थी. यही उनके वर्धमान नामकरण का कारण बना. बचपन में उनका लालनपालन राजकीय वैभव के बीच हुआ. वे स्वभाव से उदार, निडर और शक्तिशाली थे. एक बार उत्तेजित हाथी की सूंड पकड़कर उसपर सवारी गांठने और दूसरी घटना में विषैले नाग को पूंछ पकड़कर एक ओर फेंक देने जैसे साहसपूर्ण कार्य दिखाने के बाद सभी उन्हें ‘महावीर’ कहने लगे थे. उनका विवाह राजकुमारी यशोदा के साथ हुआ, जिनसे एक बेटी भी जन्मी. राजसी वैभव के बीच पलनेबढ़ने के बावजूद वहां का वातावरण उन्हें पसंद न था. सारे ठाठबाट, नौकरचाकर, वैभवविलास बनावटी लगने लगे. मातापिता की मृत्यु के बाद महावीर का संसार से मन उचट गया. उन्होंने संन्यास लेने का निर्णय लिया. उस समय उनकी अवस्था मात्र अठाइस वर्ष की थी. मगर अपने बड़े भाई के आग्रह पर उन्होंने दो वर्ष और परिवार के साथ बिताने के लिए सहमत हो गए.

अगले दो वर्ष महावीर ने खुद को सुखसुविधाओं से मुक्त करने का अभ्यास करते हुए बिताए. उन्होंने एकएक कर अपनी सारी वस्तुएं भिखारियों को दान कर दीं. राजकीय वैभवविलास से परे रहकर अपने मन और शरीर को तापसी जीवन के लिए तैयार करने लगे. तीस वर्ष की अवस्था तक वे अपनी समस्त धनसंपत्ति, विलासितापूर्ण साम्रगी, परिवार यहां तक कि पत्नी से भी किनारा कर चुके थे. अपने गांव कुंदपुरा में दो दिनों तक निराहार, निर्जल, मौन रहते हुए उन्होंने अपने सिर के बाल उखाड़ लिए. देह से वस्त्राभरण दूर करने के उपरांत उन्हें अद्भुत शांति की प्रतीति हुई. एकमात्र उत्तरीय को कंधों पर डाल उन्होंने गृहस्थान छोड़ने का संकल्प कर लिया. जिस समय वे प्रस्थान कर रहे थे, ठीक उसी समय एक भिखारी वहां उपस्थित हुआ. यह कहकर कि गत दो वर्षों से वे जो दान करते आ रहे हैं, उससे वह वंचित रहा है, उसने महावीर से दान की अपेक्षा की. इसपर महावीर ने कंधे पर पड़े उत्तरीय में से आधा फाड़कर उस भिखारी को थमाया और वहां से प्रस्थान कर गए.

वास्तविक ज्ञान और आत्मशांति की खोज करते हुए महावीर मोरेगा पहुंचे. वहां एक मठ के अधिपति उनके पिता के मित्र थे. मठाधीश के आग्रह पर महावीर ने वर्षाकाल को वहीं ठहरकर बिताने का निश्चय किया. ठहरने के लिए मठ की ओर से उन्हें एक झोपड़ी भी मिल गई. उससे पिछले वर्ष मोरेगा और आसपास के क्षेत्र में भयानक सूखा पड़ा था. उसकी भीषण मार से समस्त वनस्पतियां झुलस चुकी थीं. जंगली पशुपक्षियों के समक्ष भीषण खाद्यसंकट था. एक दिन आश्रम में अपेक्षाकृत हरियाली देख, भूख से व्याकुल पशुओं का रेला वहां आ धमका. मठ में रह रहे बाकी संन्यासी पशुओं को भगाने के लिए बलप्रयोग करने लगे. मगर महावीर क्षुधापीड़ित पशुओं को देख करुणा से आद्र हो गए. बजाय भगाने के लिए वे स्वयं झोपड़ी से एक ओर हो गए. भूखे पशुओं ने कुछ ही देर में सारा छप्पर साफ कर दिया. उनकी शिकायत मठाधिपति तक पहुंची. इसपर महावीर स्वामी ने आश्रम छोड़ दिया. वर्षाकाल बिताने के लिए निकटवर्ती गांवों की ओर प्रस्थान कर गए. एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकते हुए महावीर स्वामी को विचित्र अनुभव हुए. उन्हें समाज को करीब से देखनेसमझने का अवसर प्राप्त हुआ. ज्ञान की खोज में वे उन ब्राह्मण साधुओं से भी मिले जिनका जीवन के नाम पर खुद को सांसारिक सुखों से दूर रखने के लिए उन्होंने अपने लिए पांच कठोर नियम बनाए. वे नियम थे: किसी अस्नेही, अनुदार व्यक्ति का आथित्य ग्रहण न करना. प्रस्तर प्रतिमा की भांति, एक ही स्थान पर देर तक अडोल खड़े रहना, शांत रहना. बिना बर्तनों के भोजन करना तथा गृहस्थों के साथ विनम्रता से पेश न आना.

पांचवा नियम कुछ विचित्र था, मगर खुद को सांसारिक सुखों से वंचित रखना, किसी भी प्रकार की श्रद्धा के अतिरेक से स्वयं को बचाए रखना ही उसका उद्देश्य था. गर्मियों में तपते मैदान में नंगे पैर एक ही स्थान पर खड़ेखड़े वे पूरी दोपहरी बिता देते थे. सर्दियों में खुले आसमान के नीचे नंगे तन रहकर शीतमार झेल जाते. रास्ता चलते हुए एकएक कदम बहुत सावधानी से रखते, ताकि निरीह जीवों की हत्या न हो. सायं होने पर वे सुनसान खंडहर, शमशान घाट, वन, उपवन अथवा जहां भी एकांत मिलता ठहर जाते. मन सृष्टि के रहस्यों की अन्वीक्षा में लीन रहता. भोजन वे बहुत कम करते. भिक्षा भी सिर्फ उतनी ही लेते, जितने से न्यूनतम भोजन की जरूरत पूरी हो सके. भीख वे मांगते नहीं थे. बस घर के सामने से मूक गुजर जाते. उस समय यदि गृहस्वामी बुलाकर स्वेच्छा से कुछ देना चाहता, तो चुपचाप रख लेते. नहीं तो आगे बढ़ जाते. कई बार तो पूरा गांव पार हो जाता. उस अवस्था में उन्हें निराहार रहना पड़ता था. निराहार रहने का उन्हें अभ्यास था. वे लंबेलंबे उपवास रखते. कभीकभी तो पूरा महीना ही निराहार रहकर बिता देते. भोजन करते समय भी यदि कोई भिखारी, पशुप्राणी भोजन की चाहत में सामने पड़ जाता तो अपना भोजन उसको सौंप, निर्लिप्त भाव से आगे प्रस्थान कर जाते थे.

उन दिनों देश छोटेछोटे राज्यों में बंटा हुआ था. राजाओं के बीच युद्ध और संघर्ष चलते ही रहते थे. शीतयुद्ध की स्थिति बनना तो सामान्य बात थी. महावीर स्वामी को यहां से वहां भटकते देख कुछ लोग उनपर संदेह करते. उन्हें दुश्मन देश का जासूस समझकर पकड़ लिया जाता. कुछ लोग उनपर संदेह भी करते. एक बार बंगाल में चोरेगा नामक स्थान पर राजा के जासूसों ने उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया. एक अन्य अवसर पर रस्सी से बांधकर उनकी पिटाई की गई. वहां से छूटे तो कुइया नामक स्थान पर एक बार फिर जासूसों के चक्कर में फंस गए. उस समय उनके सहयोगी और समर्थक गोसला उनके साथ थे. अंततः राजकर्मियों की गलतफहमी दूर हुई और क्षमायाचना करते हुए उन्हें छोड़ दिया गया. उस घटना के बाद लोग महावीर स्वामी को जानने लगे थे. अपने सहयोगी गोसला के साथ वे पांच वर्ष तक सत्य की खोज में यहां से वहां भटकते रहे. छठे वर्ष में गोसला उनसे अलग हुए. मगर यह अभिन्नता मात्र छह महीने ही रह पाई. अवधि बीतते ही गोसला वापस लौट आए. तत्पश्चात वे चार वर्ष और महावीर स्वामी के साथ रहे. बाद में उन्होंने स्वयं को आजीवक संप्रदाय का प्रवत्र्तक घोषित कर दिया.

महावीर वैशाली लौट गए. उस समय वहां का अधिपति शंख था. जंगल में यहां से वहां भटकते हुए उनक वस्त्र जर्जर हो चुके थे. मगर उन्हें अपनी देह तक सुध न थी. जिस समय वे वैशाली से गुजर रहे थे, कुछ शैतान बच्चों ने उन्हें घेर लिया. वे उन्हें परेशान करने लगे. शंख के प्रयास से ही महावीर स्वामी मुक्त हो सके. बोध की तलाश में यहां से वहां भटकते हुए उन्हें बारह वर्ष बीत गए. अंततः उन्हें सफलता मिली. आत्मबोध हुआ. इस बीच घोर साधना में उनका शरीर सूखकर कांटा हो चुका था. देह के वस्त्र तारतार होकर लटक चुके थे. मगर आत्मलीन महावीर को उसकी सुध ही नहीं थी. आत्मबोध के आनंद में वे एक ही स्थान पर बिना हिलेडुले छह महीने तक लगातार बैठे रहे. मगर उनकी वह साधना सफल न हो सकी. उनकी पत्नी उन्हें खोजती हुई वहां आ पहुंचीं. इसे अपनी साधना में विघ्न मानकर वे प्रायश्चित में डूब गए.

धीरेधीरे एक वर्ष और बीत गया. महावीर ने उपवास साधा हुआ था. निर्जल रहते हुए ढाई दिन बीत चुका था. वे मौन साधनारत थे कि अचानक उन्हें निर्वाण की अनुभूति हुई. महावीर स्वामी ने उस अवस्था को कैवल्य कहा है, विदेह हो जाने की उच्चतम स्थिति जब शरीर में रहते हुए भी शरीर का बोध, उसकी सीमाएं समाप्त हो जाता है. व्यक्ति परमज्ञान की अवस्था में होता है. निर्वाण प्राप्ति के उपरांत महावीर स्वामी ने पहला उपदेश दिया. उनके आत्मबोध की प्रथम अनुभूति का विवरण मज्झिम निकाय में है—‘मुझे सबकुछ समझ आ रहा है, मैं सबकुछ पूरी तरह साफसाफ देख रहा हूं. मुझे पवित्र आत्मज्ञान की प्रतीति हो चुकी है. अब चाहे मैं चलता रहूं अथवा एक ही स्थान पर स्थिर होकर खड़ा रहूं. चाहे सो जाऊं अथवा जागता रहूं, परमज्ञान और उसकी अंतरानुभूति प्रतिपल मेरे साथ है…’

उच्चतम ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत उन्होंने लिजुवेलिया नदी के तट पर धार्मिक सभा को संबोधित किया. यह उनका पहला जनसंबोधन था. मगर पहला प्रभाव बहुत कम रहा. वहां से वे महसाणा के लिए प्रस्थान कर गए. रास्ते में उनकी ब्राह्मणों के एक दल से भेंट हुई जो आत्मबलिदान करने जा रहे थे. उनकी संख्या ग्यारह थी. उन्होंने संस्कृत में बोलने की परंपरा को तोड़ा था, यही उनका अपराध था, जिसके प्रायश्चित के लिए उन्हें आत्मबलिदान करना था. भाषा तो संवादवहन का माध्यम होती है. इसके बावजूद भाषाविशेष के प्रति इतना दुराग्रह. महावीर को यह बहुत विचित्र जान पड़ा. उन्होंने उन्हें अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिया, जिससे प्रभावित होकर सभी उनके शिष्य बन गए. यह उनकी ब्राह्मणवाद पर पहली विजय थी. जैन दर्शन के प्रथम ग्रंथ अर्धमागधी भाषा में ही लिखे गए हैं.

इस घटना के बाद महावीर स्वामी का यश चतुर्दिक फैलने लगा. लोग उन्हें सिद्ध पुरुष मानने लगे. इंद्रभूति गौतम नाम के एक ब्राह्मण के कानों में जब उनकी ख्याति पहुंची तो वह ईष्र्या से भर उठा और उनसे मिलने के लिए चल दिया. उस समय महावीर स्वामी एक बाग में ठहरे हुए थे. जैसे ही इंद्रभूति बाग तक पहुंचा, महावीर स्वामी ने अपनी अंतर्दृष्टि से उसको पहचान लिया. उन्होंने उसका स्वागत करते हुए कहा—

आइए गौतम! मैं जानता हूं कि इस समय आपके मस्तिष्क में आत्मा की सत्ता को लेकर संदेह है. हम उसपर चर्चा कर सकते हैं.’

उसके पश्चात स्वामी महावीर ने उन्हें उपदेश दिया. भारतीय दर्शन में आत्मा की उपस्थिति को लेकर जो विशद चिंतन किया गया है, उसका संदर्भ लेते हुए उन्होंने आत्मतत्व की विवेचना की. इंद्रभूति उनका प्रवचन सुनकर अभिभूत हो गया. उसी दिन उसने महावीर स्वामी का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया. यह सूचना जैसे ही इंद्रभूति के बड़े भाई अग्निभूति तक पहुंची, वह उद्धिग्न हो उठा. अग्निभूति शास्त्रज्ञ पंडित था. अपने तत्वचिंतन पर उसे बड़ा गुमान था. भाई द्वारा महावीर स्वामी का शिष्यत्व ग्रहण करना उसको सहन न हुआ. सूचना मिलते ही वह उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए चल पड़ा. उसने कर्म की वास्तविकता और आत्मा से उसके संबंध को लेकर महावीर स्वामी के समक्ष कई प्रश्न किए, जिनका उन्होंने तथ्यपरक उत्तर दिया. अग्निभूति उनका ज्ञान देख प्रभावित हुआ और अपने छोटे भाई की भांति वह भी उनका शिष्य बन गया. तत्पश्चात एक के बाद एक नौ विद्वान महावीर स्वामी से शास्त्रार्थ पहुंचे और परास्त होकर उनके शिष्य बन गए. उनके शिष्यों की संख्या बढ़कर ग्यारह हो गई. जैन पंरपरा के अनुसार ग्यारह शिष्य अपने साथ अपने अनुयायियों को भी लाए थे, जिनको मिलाकर महावीर के शिष्यों की कुल संख्या 4400 तक पहुंच गई.

कुछ दिनों के बाद अपने शिष्यों के साथ महावीर स्वामी वहां से प्रथान कर गए. रास्ते में न कोई प्रवचन न सभा. उनकी मौन यात्रा 66 दिन तक चलती रही. लगातार चलते हुए वे राजगृह पहुंचे, जो उस समय के शक्तिशाली राज्य मगध की राजधानी था. उस समय बिंबसार वहां का सम्राट था. महावीर स्वामी द्वारा प्रवत्तित नए धर्म को लेकर सम्राट बिंबसार ने उनसे अनेक प्रश्न किए. जिनका उन्होंने संतोषजनक उत्तर दिया. इंद्रभूति ने महावीर स्वामी का शिष्यत्व अवश्य ग्रहण किया था. मगर अपनी विद्वता पर उसको अब भी बड़ा घमंड था. मगध प्रवास के दौरान ही एक वृद्ध व्यक्ति अपनी शंकाएं लेकर महावीर स्वामी के सामने पहुंचा. उसने संस्कृत में एक श्लोक पढ़कर उसकी विवेचना का अनुरोध किया. महावीर उस समय मौन अवस्था में थे. तब आगंतुक ने अपनी जिज्ञासा इंद्रभूति के समक्ष प्रकट की. मगर इंद्रभूति अपने उत्तर से वृद्ध को संतुष्ट न कर सका. वहां उपस्थित अन्य विद्वानों को भी उसकी व्याख्या आधीअधूरी जान पड़ी. उस समय तक महावीर स्वामी का मौनव्रत पूरा हो चुका था. उन्होंने वृद्ध का प्रश्न सुनकर उसकी शास्त्रसम्मत व्याख्या की. उससे वृद्ध संतुष्ट हो गया. यह देख इंद्रभूति का रहासहा दंभ भी जाता रहा.

जैन दर्शन को आरंभिक पहचान मिलने के साथ उसके अनुयायियों को संगठित करना भी अत्यावश्यक था. उन्होंने कुल शिष्यों को भिक्षु, साध्वी, गृहस्वामी और गृहस्वामिनी नामक चार वर्गों में विभाजित किया. धर्म में अनुशासन एवं नैतिकता के स्तर को बनाए रखने के लिए पांच व्रत साधने होते थे. ये हैं: अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह तथा पवित्रता. इनमें से प्रथम चार पाश्र्वनाथ के विचारों से अनुप्रेरित थे. राजगृह में वर्षाकाल व्यतीत करने के उपरांत महावीर ने वैशाली के लिए प्रस्थान कर दिया. वहां उन्होंने अपनी पुत्री और दामाद जामाली को धर्माेपदेश दिया. इसी दौरान उन्हें पूर्वाभास हुआ कि सम्राट रुद्रायण उनसे मिलना चाहते हैं, वे सिंधुसौवीर स्थित उनकी राजधानी पहुंचे. रुद्रायण महावीर के विचारों से प्रभावित होकर जैनश्रमण बन गया. सिंधुसौवीर से वापसी का रास्ता बहुत कठिनाइयोंभरा था. रास्ते में लंबा रेगिस्तान पड़ता था. भिक्षुदल के साथ उस रास्ते से गुजरते हुए महावीर को भोजन एवं पानी की समस्या का सामना करना पड़ा. किंतु कठिन साधना की अभ्यस्त हो चुकी देह ऐसी भीषण चुनौतियों से भी निकलना जानती थी. वहां से वे अपनी छोटीसी शिष्य मंडली के साथ वाराणसी पहुंचे, जिसे वैदिक परंपरा में पवित्र नगरी माना जाता था. वाराणसी में उन्होंने एक अरबपति सेठ को अपना शिष्य बनाया और फिर राजगृह के लिए प्रस्थान कर गए, जहां उन्होंने दो वर्षाकाल बिताए. इस अवधि में उन्होंने युवराज और उनके 25 भाईबहनों को जैन धर्म की दीक्षा दी. महावीर स्वामी का यशकीर्ति लगातार बढ़ती ही जा रही थी. उनसे प्रभावित होकर अनेक लोग मिलने आते और श्रमण परंपरा में सम्मिलित होते जाते थे. इस बीच वैदिक ब्राह्मणों से भी शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें उन्होंने अपनी विद्वता से सभी को प्रभावित किया. जैन मत ब्राह्मणपंथ के लिए लगातार चुनौती बनता जा रहा था.

मगध प्रवास के दौरान ही उन्हें कोशांबी सम्राट का निमंत्रण मिला. वहां पहुंचकर उन्होंने सम्राट प्रद्योत तथा अनेक साम्राज्ञियों को जैनमत की दीक्षा दी. उस वर्ष का वर्षाकाल उन्होंने वैशाली में व्यतीत किया. चातुर्मास पूरे होते ही वे मगध वापस लौट गए. राजगृह में उन्होंने फिर सैकड़ों श्रद्धालुओं को श्रमणपरंपरा में सम्मिलित किया. इस बीच अजातशत्रु ने मगध पर आक्रमण कर उसपर अधिपत्य जमा लिया. राजनीतिक उथलपुथल से स्वयं के दूर रखते हुए उन्होंने राजगृह छोड़ दिया. वहां से वे चंपा पहुंचे, वहां उन्होंने राजकुमार सहित अनेक नगरवासियों को जैन धर्म में सम्मिलित किया. मगधसम्राट अजातशत्रु महावीर स्वामी का सम्मान करता था. किंतु यह आस्था उसकी साम्राज्यवादी भावनाओं पर नियंत्रण करने में अपर्याप्त थी. उसने भारी संख्याबल के साथ वैशाली गणतंत्र पर आक्रमण कर दिया. भीषण युद्ध में सम्राट चेतक की मृत्यु के बाद वैशाली पर मगध के कब्जे में आ गई. युद्ध में हुए भारी नरसंहार ने महावीर स्वामी को आहत कर दिया. उन्होंने स्वयं को एकांत तपश्चर्या में लीन कर दिया. अंततः 72 वर्ष की अवस्था में उन्हें निर्वाण की प्राप्ति हुई. संयोग देखिए कि महावीर स्वामी के मृत्यु के अगले ही दिन उनका पहला शिष्य इंद्रभूति गौतम भी निर्वाण प्राप्त हो गया. मगर उस समय तक लाखों श्रद्धालु जैन धर्म को अपना चुके थे.

 

जैनदर्शन परदुःखकातरता और करुणा पर केंद्रित दर्शन है. इसमें व्यक्तिगत संपत्ति की भावना का निषेध किया गया है. गृहस्थों के लिए तो संपत्तिसंबंधी मान्यताओं में फिर भी किंचित छूट है. किंतु जैन तापसों के लिए तो देह पर वस्त्र धारण करना भी विलासिता की श्रेणी में आता है. यह मान लिया जाता है कि शरीर ढकने के लिए वस्त्र का लालच भी मोक्ष प्राप्ति की अवधि को लंबा खींचने का काम करता है. जैन दर्शन में आवश्यकता से अधिक संचय को पाप माना गया है. समझा गया है कि यह भी एक प्रकार की हिंसा है. जैन दर्शन का संपत्ति संबंधी अवधारणा समाजवादी विचारधारा से मेल खाती है. समाजवाद भी हर व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुरूप देने का आश्वासन देता है. वहां संपत्ति कल्याणकारी राज्य के अधीन सुरक्षित मानी जाती है, जिसका उपयोग नागरिकों की आवश्यकता को ध्यान में रखकर व्यापक लोककल्याण की कामना के निमित्त किया जाता है. जैनमत के संपत्तिसंबंधी सिद्धांत और समाजवाद में महज इतना अंतर है कि समाजवाद राजनीतिकसंवैधानिक व्यवस्था है. जबकि जैन दर्शन नैतिक आचरण है. वह त्याग और सर्वकल्याण की भावना पर टिका है. यह आत्मानुशासन के बिना संभव नहीं. समाजवाद में अनुशासन के लिए राजनीति की मदद ली जाती है. जोकि बाहरी और खर्चीला उपक्रम है. उसकी अपेक्षा अपरिग्रह नैतिकता की जमीन पर खड़ा होता है. जाहिर है कि यह उच्च मानवादर्श है.

जैनमत में लोकतांत्रिक समाजवाद का एक अन्य रूप ‘स्याद्वाद’ के रूप में भी मिलता है. जैन मतावलंबियों की विशेषता यह है कि वे किसी भी कोटि के दुराग्रह का संपूर्ण निषेध करते हैं. अपनी बात दूसरों से बलात् मनवाना या केवल अपने ही मत को अंतिम सत्य मानना हठधर्मी, एक प्रकार की वैचारिक हिंसा है. इसलिए वहां अहिंसा पर इतना जोर दिया गया है. जैनमत के अनुसार किसी भी जीव की हत्या करना तो पाप है ही, विचारों की हिंसा भी वहां सर्वथा वज्र्य है. इसलिए कि विचार भी जीवात्मा की देन, उसकी विशेषता हैं. वैचारिक सहिष्णुता, विरोधों को आत्मसात करने की यह प्रवृत्ति जैन मत में स्याद्वाद के सिद्धांत के उद्भव का कारण बनी. ‘स्याद्वाद’ जैनदर्शन का सर्वाधिक मौलिक एवं वैज्ञानिकता पर आधारित विचार है. इसके अनुसार किसी भी वस्तु अथवा विचार के बारे में जो कहा जाता है, वह अनेक संभावनाओं से युक्त होता है. सत्य कई रूपों में प्रकट होता है.

अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए हाथी और छह अंधों की कहानी का उदाहरण देते हैं. कहानी के छह अंधों को हाथी के सामने खड़ा कर उसकी शरीर रचना के बारे में बताने को कहा जाता है. जिस अंधे ने हाथी के कान का स्पर्श किया था, उसके अनुसार हाथी की देह पंखे के समान है. दूसरा जो हाथी की सूंड का स्पर्श करता है, वह हाथी को मोटी बेल जैसा बताता है. तीसरा अंधा जो हाथी के पैर का स्पर्श करता है, वह उसकी रचना को खंबेनुमा कहकर अपने अनुभव का बखान करता है. वे सभी अपनी जगह सही है. सभी सच्चे हैं. मगर उनका सत्य आंशिक और परिस्थितिजन्य है, जो उनकी सीमा को दर्शाता है. उन छह के अलावा एक दृष्टिसंपन्न व्यक्ति भी है. हाथी की वास्तविक देहरचना के बारे में केवल वही जानता है. ज्ञान की स्थिति केवल प्रज्ञावान को ही संभव है. यही निर्वाण की अवस्था भी है, जब कोई तापस सृष्टि के वास्तविक रहस्य को जान चुका होता है. जैनमत मानता है कि साधारण व्यक्ति की ऐंद्रियानुभूति सीमित होती है. इसलिए उसका बोध भी सीमित होता है. मगर वह गलत नहीं है. अंधों की कहानी में यदि उन सभी के अनुभवों को परस्पर मिला दिया जाए तो हाथी की संपूर्ण रचना सामने आ सकती है. यही लोकतंत्र में होता है, जो समाजवादी व्यवस्था की धुरी है. वहां अनेक नागरिक मिलकर अपने विकास के लिए उपयुक्त व्यवस्था का चयन करते हैं.

जैनदर्शन की सृष्टि संबंधी व्याख्या आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से मेल खाती है. उसके अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति का कारण छोटेछोट पुद्गलों को माना है. ये पुद्गल परस्पर मिलकर अणु बनाते हैं. अणुओं के संयोग से संसार की विभिन्न वस्तुओं, जड़चेतनादि की उत्पत्ति होती है. जड़चेतन में पुद्गलों की उपस्थिति उसे जीवनमय बनाती है. जैन दर्शन का पुद्गल का विचार कणाद मुनि के वैशेषिक दर्शन से मेल खाता है. पुद्गल की तुलना हम परमाणुवाद के साथ के आधुनिक सिद्धांत से भी कर सकते हैं. यह भी विज्ञानप्रमाणित है कि दो परमाणु परस्पर मिलकर एक अणु की रचना करते हैं, जो सृष्टि के समस्त पदार्थों की उत्पत्ति का कारण है. लेकिन पुद्गल परमाणु नहीं है. परमाणु में जीवन है, वैज्ञानिक ऐसा कोई दावा नहीं करते. वे परमाणु की गति का आकलन कर सकते हैं. परमाणु में अंतनिर्हित ऊर्जा की खोज भी की जा चुकी है. वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार परमाणु जड़चेतन से परे लघुत्तम कण है, जो संसार की प्रत्येक वस्तु, जड़ और चेतन दोनों की व्युत्पत्ति का कारण है. इससे भिन्न पुद्गल चेतनामय इकाई, जीवन का लघुत्तम रूप है. तदुनुसार यह समस्त संसार छोटेछोट पुद्गलों से मिलकर बना है. अतएव जैन दर्शन के अनुसार दृश्यमान जगत के कणकण में जीवन है. उनका सम्मान करना जीवन का सम्मान करना है.

जैन शब्द ‘जिन’ धातु से बना है. यानी ऐसा व्यक्ति जिसने इंद्रियों को अधीन कर लिया हो. इंद्रियनिग्रह के लिए अपरिग्रह अस्तेय, अहिंसा, सत्य आदि की कसौटियां बनाई र्गइं. जिनका अर्थ है, जरूरत से अधिक संचय न करना. चोरी न करना. दूसरे के धन की लालसा न रखना. हिंसा का पूर्ण निषेध और सत्याचरण. यही सिद्धांत बौद्ध धर्म के भी थे. आशय यह है कि नैतिक मान्यताओं को लेकर जैन और बौद्ध धर्म एक ही कोटि के माने जा सकते हैं. इसलिए कुछ विद्वानों ने जैनधर्म को बौद्ध धर्म की ही एक शाखा माना है. हालांकि कुछ मायने में दोनों में अंतर भी है. बौद्ध दर्शन व्यावहारिक बोध को महत्त्व देता है. वह जीवन की उपेक्षा करने के बजाय, उसको संयमित ढंग से जीने पर विश्वास रखता है. ऐसा जीवन जो अपने और दूसरों के लिए समानरूप से सुखकारी हो. इसलिए जैनदर्शन का अतिअनुशासन भी वहां वज्र्य है. कामनाओं से भागने से उनसे बच पाना संभव नहीं. वे पीछा करती हैं. उनसे मुक्ति का एक ही उपाय है, कामनाओं के बीच रहकर उनसे मुक्ति. मन को साधना. यह आसान नहीं है. लेकिन अभ्यास से इसको साधा जा सकता है. इसके लिए बुद्ध ने अष्ठांग योग का विचार दुनिया के सामने रखा था. मगर उनका अष्ठांग योग भी व्यावहारिक है. वह मनुष्य की पहुंच में है. जबकि जैन मत का अहिंसा का सिद्धांत और अन्य धार्मिक अनुशासन बहुत कड़े हैं. यही कारण है कि जैन धर्मदर्शन जनसाधारण के बीच अपनी जगह बनाने में असमर्थ रहा था.

बोधि वृक्ष के नीचे साधना करते समय बुद्ध को समझ आया था कि जीवन वीणा के तारों की तरह भांति है. ढीला छोड़ने पर सुर नहीं निकलते. अधिक कसने पर तार टूट भी सकते हैं. इसलिए उन्होंने मध्यम मार्ग को अपनाने का आग्रह किया था. लेकिन अहिंसा जैसे विषय को लेकर जैन मत व्यावहारिकता की सीमा तक प्रतिबद्ध है. वहां अपरिग्रह पर इतना आशय है कि शरीर पर वस्त्र धारण करना भी मोक्ष की राह में बाधक माना गया है. बौद्ध धर्म की अहिंसा के सिद्धांत को उसकी तत्व विवेचना के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है. जैन दर्शन सम्यक व्यवहार, सम्यक बोध, तथा सम्यक आचरण पर जोर देता है.

जैन दर्शन एक भौतिकवादी दर्शन है. वह संसार की सत्ता को नकारता नहीं है. बल्कि उसकी वास्तविकता को स्वीकारते हुए कतिपय वैज्ञानिक आधार पर उसकी व्याख्या करता है. जीवनमूल्यों को वरीयता देते हुए वह मनुष्य को अपनी चिंताओं के केंद्र में रखता है. उसकी आचारसंहिता तीन प्रमुख सिद्धांतों पर टिकी है. जैन दर्शन को यदि श्रेष्ठ विचारों की एक माला स्वीकारा जाए तो इन तीन सिद्धांतों को उसके माणिकमुक्ता समझा जाता है, जिनपर माला की समस्त सुंदरता निर्भर करती है. ये हैं—सम्यक आचरण, सम्यक कर्तव्य एवं सम्यक बोध. सम्यक आचरण से अभिप्राय सृष्टि के प्रत्येक प्राणी के साथ भेदभाव रहित दयालुतापूर्ण व्यवहार से है. हर प्राणी में एक ही जीवात्मा है, इसलिए उसका सम्मान. सभी के साथ एक समान व्यवहार. सम्यक बोध मानव चेतना के विकास के पांच स्तरों को दर्शाता है. वे हैं अध्ययन, साधना, सिद्धि एवं कैवल्य. सम्यक कर्तव्य आत्मानुशासन, निश्छल व्यवहार, सदाशयता को दर्शाता है. यह मानवेंद्रियों को विचलन से बचाकर उन्हें साधना पथ पर अग्रसर करने से संभव है. वह उपदेश से अधिक आत्मनियंत्रण पर जोर देता है. जैनग्रंथ ‘उत्तरध्यान’ में आत्मानुशासन की आवश्यकता पर लिखा गया है—

खुद को जीतो

इसलिए कि आत्मविजय सबसे बड़ी साधना है

यदि तुम स्वयं को जीत लेते हो

तो संसार में रहकर भी बनोगे अनिवर्चनीय आनंद के भागी

उससे भी श्रेष्ठ है

इससे पहले कि दुनिया के प्रलोभन और मायावी शक्तियां

मेरी इंद्रियों को अपने जाल में फंसा लें

मुझे भटकाएं

प्रताड़ित करें

आत्मनुशासन एवं प्रायश्चित द्वारा खुद को जीतकर

आत्मविजयी बनना.

इन सिद्धांतों की तुलना हम बौद्ध धर्म के अष्ठांग योग से कर सकते हैं. महावीर स्वामी का जन्म बुद्ध से पहले हुआ था. मगर दोनों में अधिक अंतर नहीं है. दोनों का कार्यक्षेत्र भी भारत का पूर्वी क्षेत्र है. हम आसानी से कल्पना कर सकते हैं कि जिन दिनों महात्मा बुद्ध ने संन्यास के लिए घर छोड़ा था, उन दिनों देशभर में महावीर स्वामी के विचारों की धूम मची होगी. कर्मकांड और यज्ञ के नाम पर होने वाली जीवहत्या से उकताए हुए लोग जैन धर्म में दीक्षित हो रहे थे. उनमें हर वर्ग के लोग सम्मिलित थे. वैशाली जैसे गणराज्य जिसके महात्मा बुद्ध प्रशंसक थे, के शासक भी भी जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण कर चुके थे. आचार्य वर्षकार जब वैशाली पर आक्रमण से पहले बुद्ध से परामर्श लेने पहुंचते हैं तो बुद्ध वैशाली गणराज्य की मिलजुलकर निर्णय लेने की गणतांत्रिक प्रणाली की प्रशंसा करते हुए वैशाली को अजेय घोषित करते हैं.

सम्यक आचरण मनुष्य के मानवीय स्वरूप को बनाए रखने की कला है. प्रत्येक मनुष्य के भीतर एक ही जीवात्मा है. स्त्रीपुरुष सभी एक समान हैं. इसलिए मनुष्य का पहला धर्म है कि वह सभी के साथ एक जैसा आचरण करे. बिना किसी पक्षपात, वगैर किसी स्वार्थलिप्सा के सबके साथ समानतापूर्ण व्यवहार करते हुए प्राणीमात्र के कल्याण के निमित्त समर्पित हो. दूसरों के साथ वही व्यवहार करो, जैसा उनसे अपने प्रति अपेक्षित है. संसार में रहकर भी उसके प्रलोभन से विरक्ति. देह में रहकर भी विदेहत्व की साधना. मुक्ति का साक्षात अनुभव. वौद्धदर्शन की भांति जैन दर्शन भी वेदों को प्रामाण्य नहीं मानता. उसके स्थान पर वह व्यक्ति की सत्ता को सर्वोच्च ठहराता है. नैतिक आचरण पर जोर देता है.

संसाधनों के न्यायिक बंटवारे और प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार देना ही समाजवादी व्यवस्था का प्रमुख ध्येय है. यह कार्य वह राज्य की नियामक शक्ति की मदद से करती है. राज्य भी व्यक्तियों से परे नहीं है. वह नागरिकों की सहमति और अनुशंसा के आधार पर बनी संस्था है. अंधों की कहानी में जैसे किसी एक अंधे की राय का कोई मूल्य नहीं है, लेकिन जब उन सबके अनुभवों को मिला दिया जाता है, तो उससे वही विंब बनता है, जो एक दृष्टिसंपन्न व्यक्ति की चेतना में बनता है. राज्य भी अपने नागरिकों की संस्तुति के आधार पर बनी संस्था है, जो एक नियामक संस्था सत्ता का रूप ग्रहण कर लेती है. कह सकते हैं कि जैन दर्शन की नैतिक मान्यताएं समाजवाद की मूल आस्था के अनुकूल हैं. हालांकि इसकी कड़ी अनुशासनव्यवस्था, इसको जनसाधारण के लिए असहज बनाती है.

© ओमप्रकाश कश्यप

राजनीति क्या बुरी चीज है !

राजनीति क्या सचमुच बुरी चीज है? ठीक एक साल पहले जिस टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध पूरे देश को एकजुट किया था, छोटेबड़े सभी की आंखों में उम्मीद के सपने बोये थे. जो सालभर पहले बहुत ताकतवर दिख रही थी, उसी टीम अन्ना में सक्रिय राजनीति में आने के मुद्दे पर मतभेद गहरा चुके हैं. टीम की प्रमुख सदस्य किरन बेदी ने कहा कि टीम को राजनीति में आने की आवश्यकता नहीं है. वे टीम को दबावकारी समूह(प्रेसर ग्रुप) के रूप में कार्य करते देखना चाहती हैं. उनका मानना है कि जनलोकपाल बिल के लटकाए जाने तथा एक के बाद एक उजागर हो रहे घोटालों के लिए सत्तारूढ़ पार्टी होने के नाते कांग्रेस ज्यादा जिम्मेदार है. इसके लिए उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री पर आरोप लगाए हैं. दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल का विचार है कि जनलोकपाल और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस तथा देश की प्रमुख विरोधी पार्टी भाजपा एक हैं. जनलोकपाल के मुद्दे पर भाजपा का रवैया दिखावे की राजनीति था. जहां तक सीधे भ्रष्टाचार में लिप्त होने की बात है, उसमें कांग्रेस और भाजपा दोनों में कोई अंतर नहीं है. पक्षविपक्ष सभी के चेहरे पर समान कालिख पुती है. कोल घोटाले पर सोनिया गांधी के तेवर गर्म होने का राज भी यही था. देश को ऐसे सार्थक विकल्प की आवश्यकता है, जो राजनीति में नैतिक का अभिस्थापन कर सके. टीम अन्ना द्वारा सक्रिय राजनीति में उतरने की घोषणा इसी नीयत से लिया गया निर्णय था. इसी संकल्प के साथ पिछला जनांदोलन संपन्न हुआ था. इस दो अक्टूबर को नए दल के नाम और नीति की औपचारिक घोषणा करने की योजना भी बनी थी. लेकिन हाल ही में टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य मनीश सिशौधिया और अन्ना की ओर से बयान आया है कि राजनीतिक दल बनाने के बारे में अंतिम निर्णय जनता की राय के बाद किया जाएगा. इसके लिए लिए फेसबुक, ईमेल, पत्रव्यवहार और घरघर जाकर सर्वे द्वारा जनता की राय जानने की कोशिश की जाएगी. टीम अन्ना के सबसे मुखर सदस्य कहे जाने वाले केजरीवाल का इस बाबत कोई बयान नहीं आया है. हालांकि सर्वे के जो परिणाम आए हैं, उनका बहुमत राजनीतिक दल बनाने के पक्ष में बताया जाता है.

असल में जिस दिन से टीम अन्ना ने राजनीति में आने का निर्णय लिया है, देश का जनमत और स्वयं ‘टीम अन्ना’ दो हिस्सों में बंटी दिखाई पड़ती है. एक वर्ग को लगता है कि राजनीति इन दिनों ऐसे लोगों के हाथों का खिलौना बन चुकी है, जो सिवाय स्वार्थ के कुछ और सोचना ही नहीं जानते. उनसे मुक्ति का एक ही रास्ता है कि जनता की आत्मा को जगाया जाए तथा भ्रष्ट एवं निकम्मे नेताओं को सीधे चुनावी मैदान में टक्कर दी जाए. दूसरा वर्ग इसके लिए तैयार नहीं है. ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि राजनीति क्या सचमुच बुरी चीज है? समाज जिन्हें महान मानता आया है, जो इस राष्ट्र, समाज और संस्कृति के सिरजनहार कहे जाते रहे हैं, क्या वे भी राजनीति को इतनी ही गंदी चीज मानते थे? इतिहास के आइने में देखें तो ऐसा नहीं लगता. भारतीय समाज पर रामायण और महाभारत का प्रभाव जगजाहिर है. साहित्यिक कृतियां होने के बावजूद इनके कथापात्रों के प्रति लोकश्रद्धा इतनी प्रबल है कि वे समाज में देवता के रूप में स्थापित हैं. रामायण के कथानायक राम राजनीति को लोकनीति जितना ही महत्त्वपूर्ण मानते हुए लक्ष्मण को मरणासन्न रावण के पास राजनीति का ज्ञान लेने भेजते हैं. महाभारत के भीष्म पांडवों को श्रेष्ठ राजनीति का उपदेश देते हैं. विदुर नीति श्रेष्ठ राजनीति का ही पर्याय है. महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध दोनों राजपरिवारों से आए थे. उन्होंने राजकाज में सीधे हिस्सा नहीं लिया, लेकिन वे अपनेअपने समय में बड़े साम्राज्यों के संपर्क में रहे. धर्मदर्शन के विस्तार के लिए उन्होंने उनका सहारा लिया. चाणक्य प्रणीत ‘अर्थशास्त्र’ उस समय का महत्त्वपूर्ण राजनीतिक विमर्श है.

मध्यकाल में जब देश का राजनीतिक वैभव उतार पर था, तब समाज के एक वर्ग में राजनीति के प्रति अरुचि देखी गई. अकबर के बुलावे पर फतेहपुरी सीकरी पहुंचे कुंभनदास ने उसे सीधेसीधे संबोधित किया‘संतन को कहा सीकरी सो काम/आवतजात पनहियां टूटी बिसर गयो हरिनाम/जाको मुख देखे दुख लागे ताको करन परी परनाम.’ उन्हीं के समकालीन तुलसीदास ने भी मंथरा के मुंह से कहलवाया‘कोउ नृप होय हमें का हानि. चेरि छांड़ि न होइब रानी.’ यह असल में एक दासी द्वारा अपनी रानी को उलाहना था, जिसके द्वारा वह कैकयी को अयोध्या में चल रही राजनीतिक गतिविधियों से सावधान करना चाहती है. मंथरा का उद्देश्य राजनीति से पलायन नहीं है. वह तो राजनीति की दौड़ में आगे रहने के लिए रानी कैकयी को उकसावे भरी सलाह देती है. कुंभनदास भी राजनीति का तिरस्कार नहीं करते. बल्कि सत्ता द्वारा दूसरों के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप का विरोध उनके कथन में है. यह जनसाधारण का आक्रामक सत्ता के अनाचारों दूर रहने तथा उसको अपनी नैतिक सत्ता से परचाने वाला अनुभवसिद्ध बोध था.

भारतीय वर्णव्यवस्था हालांकि क्षत्रियों को ही शासन का अधिकार देती है. इसके बावजूद यह भी सच है कि इतिहास का कोई कालखंड ऐसा नहीं रहा, जिसमें केवल और केवल क्षत्रियों का ही राज रहा हो. राजनीति में समाज के सभी वर्गों की समान रुचि रही है. उनीसवीं और बीसवीं शताब्दी में तो भारत का पूरा परिवेश ही राजनीतिक घटनाक्रमों से भरा हुआ था. किसी भी प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए उससे बचाव असंभव था. राष्ट्रपिता का गौरव प्राप्त महात्मा गांधी को तो लोग याद ही इसलिए करते हैं कि उन्होंने राजनीति में उच्चतम नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए काम किया. इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब राजनीति की भूमिका परिवर्तनकारी रही है. इसके बावजूद केजरीवाल के सक्रिय राजनीति में जाने के, उन्हीं की टीम द्वारा विरोध के क्या कारण हो सकते हैं? यही बड़ा सवाल है, जिसमें वर्तमान राजनीति की पेचीदगियां छिपी हैं. साथ में उसमें बदलाव की कामना करनेवालों की संकल्पनिष्ठा और उनका डर भी. आजादी के बाद भारत में पूंजीवाद और कहीं सफल हुआ हो या नहीं. वह लोगों को डराने, एकदूसरे के प्रति अविश्वास पैदा करने तथा लोगों के मन में भय और असुरक्षाबोध पैदा करने में पूरी तरह कामयाब रहा है. इससे लोगों में यह संदेश गया कि अपने बूते कुछ हो ही नहीं सकता. दावा दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का, परंतु डरे हुए लोग मतदान से पहले किसी दल या मतदाता विशेष के पक्षविपक्ष में गंभीर चर्चा शायद ही कर पाते हैं.

ऐसे भयभीत और दिगभ्रमित समाज में एकजुट होने के लिए जिस विश्वास और संकल्पसामथ्र्य की आवश्यकता पड़ती है, आखिर वे वह आएं कहां से! राजनेता इसलिए डरे हुए हैं कि अरविंद केजरीवाल यदि सीधे उनकी साख पर उंगली उठाएंगे तो उनकी नैतिक छवि की काट हेतु नए मुद्दे कहां से लाएंगे? ऊहापोह की स्थिति टीम अन्ना के साथ भी है. उन्हें लगता है कि चुनाव लड़ने के लिए स्वच्छ, ईमानदार और चरित्रवान छवि वाले नेता आएंगे कहां से? और जिन लोगों पर वे भरोसा करके राजनीति के समर में उतरेंगे, वे उनके भरोसे को कब तक कायम रख पाएंगे? यह बड़े जतन से पैदा किया गया, बनावटी डर है. इसे पैदा करने और बनाए रखने वाली वे धार्मिकराजनीतिक और आर्थिक शक्तियां हैं जो लोगों को बांटे रखकर अपना उल्लू सीधा करना चाहती हैं. जबकि अच्छी राजनीति के लिए अच्छे और बड़े नैतिक संकल्प की आवश्यकता पड़ती है. दुरवस्था से मुक्ति के लिए संकल्प का धनी, नैतिक और निष्ठावान केवल एक व्यक्ति पर्याप्त है, जिसका लोकतंत्र में अटूट विश्वास हो और जो अतीत की अपनी सभी दुर्बलताओं को भुलाकर वह परिवर्तन को अपना एकमात्र लक्ष्य बना ले. गांधी जैसे नेता सैकड़ों वर्षों में जन्मते हों, इसलिए उनकी उम्मीद न भी करें, परंतु विश्वनाथ प्रताप सिंह का उदाहरण तो ठीक हमारे सामने है. राजीव गांधी सरकार को हटाने के लिए उनके सामने भी उनके सामने एकमात्र भ्रष्टाचार का ही मुद्दा था.

केवल सत्तासीन हो जाना राजनीति नहीं है. सत्ता को लोकोन्मुखी बनाए रखने के लिए किया जाने वाला संघर्ष भी राजनीति ही है. इसलिए टीम अन्ना अपने आंदोलन को चाहे जितना अराजनीतिक कहे, वह राजनीति का हिस्सा ही कहा जाएगा. बुरों को सत्ताच्युत कर, अच्छे लोगों को जनमत के जरिये सत्तासीन करने की राजनीति. इसलिए यहां अनमन्यस्कता से काम नहीं चलने वाला. एक ओर तो हम यह मानते हैं कि राजनीति भले लोगों का काम नहीं है, पर यदि कोई संकल्परथी, ऐसा करने की कोशिश भी करता है तो हम डर जाते हैं कि ऐसी राजनीति के लिए अच्छे और ईमानदार लोग आएंगे कहां से! यहीं बाजारवादी शक्तियों द्वारा फैलाए गए जाल को देखा जा सकता है. अपने स्वार्थ के लिए उन्होंने लोगों को भय, असुरक्षा और अविश्वास के वातावरण में जीने को विवश कर दिया है. आपाधापी के बीच परस्पर अविश्वासी और डरे हुए लोग चुनावों में राष्ट्रीय हित के बजाय निजी स्वार्थ से प्रभावित हो ऐसे लोगों को चुन लेते हैं जो राजनीति में केवल स्वार्थसिद्धि के लिए आते हैं. लोकप्रिय बने रहने के लिए झूठ और लालच के आधार पर अपनी छवि बनाते हैं. इसी कारण वे खुद भी भयभीत हैं. ऐसे लोगों से बनी सरकार भी हमेशा असुरक्षाबोध से ग्रस्त रहती है. परिणामस्वरूप लोकहित के कार्यक्रमों का ईमानदार कार्यान्वन उसके लिए संभव नहीं होता. बाजारवादी शक्तियां बड़ी आसानी से उन्हें अपनी कठपुतली बना लेती हैं.

बहरहाल, टीम अन्ना राजनीति में आती है या नहीं, यह उसका निजी मामला है. उनके पास बेहतर राजनीति का कोई ठोस विकल्प भी नहीं है. अरविंद केजरीवाल ने अपनी पुस्तक ‘स्वराज’ में जो लिखा है वह बहुत घिसापिटा है. स्वयं अन्ना बारबार ‘लोकनीति’ शब्द को दोहराते हैं. इस बारे में बता दें कि लोकनीति, लोकतंत्र का पर्याय न होकर उसका सीधा विलोम है. यह प्राचीन कुलीनतंत्र का ही लुभावना रूप है. लोकनीति के एक पैरोकार विनोबा भावे लोकतंत्र को भीड़तंत्र, जनता को भेड़ और उम्मीदवार को गड़ेरिया कह कर उसकी खिल्ली उड़ाया करते थे, ‘‘एक भाई पूछ रहे थे, ‘हम किसको वोट दें?’ ऐसा सवाल कोई पूछता है तो मन में आता है, क्या हम दूसरों को वोट देने के लिए जन्मे हैं? इसका अर्थ यही हुआ कि ‘अरे भेड़ो, तुम्हें कौनसा गड़ेरिया चाहिए? जो गड़ेरिया तुम्हें प्रिय होगा वही रखा जाएगा.’ हम कहते हैं, ‘हम भेड़ नहीं हैं. हमें कोई गड़ेरिया नहीं चाहिए.’ एक कहता है, ‘यह गड़ेरिया अच्छा है, इसे चुनो!’ दूसरा कहता है, ‘हमें चुनो!’ हम कहते हैं कि ‘आप गड़ेरिये हैं या बुरे, हम नहीं जानते. लेकिन न हम भेड़ हैं, न हमें आपकी जरूरत है.’’

इसलिए टीम अन्ना यदि सक्रिय राजनीति में आती है तो उसके सामने ‘लोकतंत्र’ और ‘लोकनीति’ में से किसी एक को चुनने की चुनौती भी होगी. लोकनीति गांधीवादी विचारधारा का राजनीतिक संस्करण है, यह न पहले कारगर थी, आगे कारगर हो पाएगी. यह कुलीनतंत्र का लुभावना मुखौटा है. किसी को संदेह न हो, इसलिए इस बारे में विनोबा के कुछ और विचार जान लेते हैं, ‘‘चुनाव को कितना ही महत्त्व क्यों न दिया जाए, आखिर वह ऐसी चीज नहीं है, कि उससे समाज के उत्थान में हम कुछ मदद पहुंचा सकें. वह डेमोक्रेसी में खड़ा किया हुआ एक यंत्र है, एक ‘फार्मल डेमोक्रेसी’, औपचारिक लोकसत्ता आई है, जो मांग करती है कि राजकार्य में हर मनुष्य का हिस्सा होना चाहिए….यह तो हर कोई जानता है कि ऐसी कोई समानता परमेश्वर ने पैदा नहीं की है कि जिसके आधार पर एक मनुष्य के लिए जितना एक वोट है, उतना ही वह दूसरे मनुष्य के लिए भी हो, इस बात का हम समर्थन कर सकें. लेकिन यह स्पष्ट है कि पंडित नेहरू को एक वोट है, तो उनके चपरासी को भी एक ही वोट है. इसमें क्या अक्ल है, हम नहीं जानते.’’ ऐसी लोकनीति के समर्थक और व्याख्याकार अकेले विनोबा भावे नहीं थे. उस समय के प्रमुख गांधीवादी विचारक दादा धर्माधिकारी, कुमारप्पा, शंकरराव देव, धीरेंद्र मजुमदार आदि बड़े गांधीवादी नेता ऐसी ही व्याख्या द्वारा लोकतंत्र के प्रति अपना खुला विरोध जता रहे थे.

टीम अन्ना की ओर से सबसे हालिया बयान में कहा यह जा रहा है कि वह राजनीति और जनांदोलन दोनों दिशाओं में साथसाथ आगे बढ़ेगी. ऐसे में उसके सामने बड़ी चुनौती लोकतांत्रिक निष्ठा दर्शाने की भी होगी. यदि वह इस काम में असफल रहती है, यदि वह लोकतंत्र और लोकनीति में अंतर नहीं कर पाती है तो उसके आंदोलन की आड़ में सामंती शक्तियों के फलनेफूलने का ही अंदेशा रहेगा. इसलिए चुनौती न केवल देश को बेहतर राजनीति विकल्प देने की, बल्कि अपने दिलोदिमाग दुरस्त करने की भी होगी. बहरहाल, सक्रिय राजनीति में आने की घोषणामात्र से टीम अन्ना में जो मतभेद उभरे हैं, उनसे एक संकेत तो जनता के बीच जा ही रहा है कि राजनीति भले लोगों का काम नहीं. हालांकि यह धारणा समाज में कमोबेश पहले भी थी. लेकिन सालभर पहले टीम अन्ना ने जो उम्मीद बंधाई थी, जिसके कारण हजारों युवा घरों से बाहर निकले थे, इस निर्णय से बहुत संभव है कि वे हतोत्साहित हों. यदि सचमुच ऐसा होता है तो यह आंदोलन की पराजय मानी जाएगी.

© ओमप्रकाश कश्यप

बालशिक्षा एवं लोकतंत्रीय संस्कार

लोकतंत्र की सफलता का मूलाधार है कि लोग उसको जानें. उसे अपने आचरण का हिस्सा बनाएं. इसके लिए जरूरी है कि उन्हें उसके बारे में संपूर्ण जानकारी हो. नहीं है तो बताया जाए. बताने का काम सरकार का है. उन लोगों का है जो खुद को किसी न किसी रूप में देश और समाज के प्रति जिम्मेदार मानते हैं. शिक्षा का अनिवार्य कर्म होना चाहिए कि वह बच्चों के लोकतांत्रिक प्रबोधीकरण पर ध्यान दे. उन्हें स्कूल के दिनों में ही सिखाया जाना चाहिए कि लोकतंत्र ऊपर से थोपी गई व्यवस्था नहीं है. बल्कि यह तो व्यवस्था के नाम पर शासक थोपे जाने, सत्ताशिखर पर बैठकर मनमानी करने का विरोध है. यह व्यक्तिमात्र के विवेक का सार्वजनिकरण कर, उसे सामूहिक विवेक में ढालने की प्रणाली है. यही वह विधान है जिसको प्रबुद्ध नागरिक अपने कल्याण के लिए स्वेच्छाभाव से अपनाते हैं. जब उन्हें लगे कि सत्ताशिखर पर विराजमान लोग अपने रास्ते से भटके हुए हैं, सही काम नहीं कर पा रहे हैंतब बड़े बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से उन्हें अंगूठा भी दिखा देते हैं. लोगों की मर्जी से, उनके अनुशासन में जो सरकार बनती है, उसके लिए लोकेच्छा की अवहेलना करना संभव नहीं होता. इस तरह लोकतंत्र सरकार का सरकारीपन निचोड़कर उसे लोकानुशासन से बांध देने की व्यवस्था है. बच्चों को जान लाॅक के उन शब्दों के बारे में भी बताया जाना चाहिए जिनमें उसने कहा है

मनुष्य की नैसर्गिक स्वाधीनता के मायने हैं कि वह इस सृष्टि की किसी भी बलशाली शक्ति के नियंत्रण से बाहर है. वह किसी व्यक्ति के वैधानिक अथवा स्वयंघोषित अधिकार से भी सर्वथा मुक्त है. इनके बजाय मानवमात्र को केवल प्राकृतिक नियमों से अनुशासित होना चाहिए. समाज में मानवीय स्वाधीनता केवल और केवल ऐसी शक्ति से मर्यादित होनी चाहिए, जिसका गठन उसके सदस्यों ने परस्पर मिलबैठकर, आमसहमति और स्वेच्छा के आधार पर किया है.’

सामान्यवुद्धि धर्म को समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना का मूलाधार मानती है. यह जानते हुए कि उसका विकास के आधुनिक मापदंडों से कोई लेनादेना नहीं है, बच्चों को धर्म, जाति, पूजापाठ, देवीदेवता तथा कर्मकांडों के बारे में लगातार बताया जाता है. इसके परिणामस्वरूप घर में मातापिता को आरती करते देख अबोध बालक भी ‘जै’ करना सीख जाता है. पत्थर और कागज की मूर्तियों को देखकर वह हाथ जोड़ लेता है. मांबाप उसे देखकर प्रसन्न होते हैं. सोचते हैं कि बालक ठीक रास्ते पर है. पड़ोसी के सामने वे उसकी संस्कारशीलता की प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते. वे समझ नहीं पाते कि बालक का अपने परिवार और समाज से कटने का सिलसिला आरंभ हो चुका है. उसकी एकाकी यात्रा अनजाने ही आरंभ हो चुकी है. कारण साफ हैप्रत्येक धर्म व्यवहार में नैतिकता की बात करता है, संगठन की बात करता है, कल्याण की बात करता है. सबको साथ लेकर चलने की बात करता है. लेकिन जब वास्तविक फल की बात आती है. लक्ष्य की बात आती है, परिणाम से गुजरने की बात आती है तो वह प्राणी को अकेला छोड़ देता है. स्वर्ग के बहाने, जन्नत के बहाने, मोक्ष और कैवल्य के बहाने—उसकी रीतिनीति व्यक्ति को अंततः अकेला कर देने की होती है. मृत्युभय से जन्मा धर्म मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मुक्ति को मानता है. ईश्वरप्राप्ति को मानता है. कहता है कि मुक्ति के रास्ते पर, ईश्वरप्राप्ति के रास्ते पर अकेला ही बढ़ा जा सकता है….कि धर्म के उच्चतम सफर में प्रत्येक व्यक्ति अकेला होता है. चौबीस घंटे वह समझाता है कि अपने सिवाय हम जो कुछ देख रहे हैं, सब माया है, नश्वर है, भवप्रपंच है. यहां तक कि हमारे मातापिता, घरपरिवार में जीवन की कथित पवित्रतम यात्रा के दौरान कोई हमारा साथ देने वाला नहीं है. संबंधों का मोहजाल व्यक्ति को संसारचक्र में उलझाता है. लेकिन जिस मोक्ष के नाम पर इस खूबसूरत और सजीली दुनिया को माया, मिथ्या, प्रपंचादि कहकर तिरस्कार किया जाता है, उसकी वास्तविकता को लेकर बड़े से बड़ा भक्त भी तार्किक दावा नहीं कर पाता. इसके बावजूद उसका प्रलोभन इतना प्रबल कि व्यक्ति आजीवन उससे बाहर कुछ सोच ही नहीं पाता है. परिणामस्वरूप बालक जन्म से ही निराधार फंतासी की दुनिया में जीने लगता है, जो उसको पलायनवादी संस्कार देता है.

धर्म की नींव आस्था पर टिकी होती है, जो विवेकबुद्धि के ठहराव की अवस्था है. धर्म के व्यापार में लगी शक्तियां आस्था के नाम पर कुछ प्रतीक व्यक्ति के मानस पर आरोपित कर देती हैं. वे प्रतीक हालांकि पूरी तरह बाह्यारोपित होते हैं, लेकिन चतुराईपूर्वक व्यक्ति को यह विश्वास दिला दिया जाता है कि वे उसका अपना वरण हैं. आरोपित प्रतीक व्यक्ति की मनोरचना पर इस प्रकार सवार हो जाते हैं कि वह उनसे स्वतंत्र रहकर कुछ भी सोच नहीं पाता. हिंदू धर्म जाति प्रथा को मान्यता देता है. वह इसे समाजीकरण की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग मानता है. कहा जाता है कि स्वयं सृष्टिपुरुष ब्रह्मा ने लोगों के लिए अलगअलग वर्णों की रचना की है. इसके आधार पर कुछ व्यक्तियों को जन्म के साथ ही कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हो जाते हैं. विशेषाधिकारों का जन्म के आधार पर आरक्षण प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध है. परंपरागत धर्म इस व्यवस्था का पोषण करता है. अतः उसके द्वारा अनुशासित व्यवस्था लोकतांत्रिक हो ही नहीं सकती. जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त समाज में बालक जब खेलने के लिए बाहर निकलता है तो मां प्रायः उसे समझाती है कि अमुक के साथ मत खेलना. अमुक गंदा बच्चा है. अमुक अछूत है, उसके संपर्क में भी मत आना. अबोध बालक ऊंचनीच नहीं जानता. पर जब बारबार उसको समझाया जाता है, पिटाई का डर दिखाया जाता है, तो उसको मानना ही पड़ता है. इस तरह होश संभालते ही बालक प्रतिगामी सोच के प्रभाव में आ जाता है. जिसका उसके चारित्रिक विकास से दूरदूर तक संबंध नहीं होता. आरंभ में ही बच्चों की मनोरचना ऐसी बना दी जाती है कि वे धर्म, जाति, परिवार, कुलपरंपरा आदि के दायरे से बाहर सोच ही नहीं पाते. इसलिए जब असल चुनौती सामने आती है, जीवन में प्रतिकूल स्थितियों का सामना होता है, तो वे घबरा जाते हैं. संकट से त्राण के लिए उन्हीं शक्तियों की ओर देखने लगते हैं, जिनके बारे में बचपन से रटाया जाता है. वे हैं या नहीं, इस बारे में विश्वास के साथ कुछ भी कह पाना उनके लिए संभव नहीं होता. ऐसे में पंडा, पुजारी, ज्योतिषी, तांत्रिक, पादरी और मुल्लामौलवियों की बन आती है. इन सबका तो कारोबार ही लोगों के अज्ञान और चमत्कारप्रियता का दोहन करना है.

बालक अनुभव से सीखता है. वह अपने मातापिता, गुरु, अग्रज आदि से प्रेरणा लेता है. परिवार में जिन्हें वह पसंद करता है, उन्हीं का सर्वाधिक अनुसरण भी करता है. परिवार में लोकतांत्रिक परिवेश होगा तो उसका असर बालक पर अवश्य पढ़ेगा. पाठशाला में लोकतांत्रिक वातावरण हुआ तो बालक उससे भी प्रेरणा लेगा. इसलिए मातापिता को चाहिए कि वे परिवार की निर्णय प्रक्रिया में बच्चों को भागीदार बनाएं. उनके निर्णयसामर्थ्य को बढ़ाएं. यह कहा जा सकता है कि परिवार के हजार मसले होते हैं. उन्हें तय करना बड़ों की जिम्मेदारी होती है. बच्चे जब उन कामों के बारे में जानते ही नहीं तो राय कैसे दे पाएंगे? ऐसे में उनकी राय लेने की आवश्यकता ही क्या है? यह संभव है कि बच्चों को किसी काम के बारे में जानकारी ही न हो. फिर भी बालकों को लोकतांत्रिक संस्कार देने के लिए उचित होगा कि निर्णय प्रक्रिया के दौरान अथवा उसके बाद में मातापिता बच्चों को पास बिठाकर बताएं कि उस निर्णय के पीछे उनका तर्कसम्मत दृष्टि क्या है. वे उनसे पूछ सकते हैं उन परिस्थितियों में वे होते तो क्या निर्णय लेते? संभव है बच्चे इसपर चुप्पी साध लें. लेकिन इससे उनकी निर्णय क्षमता अवश्य विकसित होगी, प्रोत्साहन भी मिलेगा. संभव है अगली बार जब ऐसी ही स्थिति आ बने तो वे विकल्पों के साथ तैयार रहें. उनका यह जानना जरूरी है कि संसार से भागकर उसे नहीं बदला जा सकता. बीहड़ में रास्ता बिना जूझे नहीं मिलता. मानवीय सौहार्द, करुणा, समानता, समरसता, विश्वबंधुत्व, नैतिकता जैसे जीवनमूल्यों की स्थापना के लिए लोकतांत्रिक समझ जरूरी है. और ये सब हों इसके लिए आवश्यक है कि नागरिकों को उसकी शिक्षा बचपन से ही जाए. ठीक ऐसे ही जैसे दूसरी चीजों के बारे में बताया जाता है.

बालक अपने साथ ढेर सारी जिज्ञासाएं लेकर आता है. शिक्षा का प्रथम ध्येय उन जिज्ञासाओं का समाधान करना है. उसका वास्तविक कर्म है बालक की प्रश्नाकुलता को बढ़ावा देना. उसके व्यक्तित्व का परिष्कार करना, आत्मविश्वास को बढ़ाना. यह तभी संभव है बालकों को बताया जाए कि मानवीय सभ्यता ने शताब्दियों में जो प्रगति की है. वह सिर्फ और सिर्फ मानवीय श्रमकौशल की देन है. उसके पीछे न तो कोई चमत्कार है न ऊपरी कृपा. दुनिया में जिन्होंने भी विलक्षण कार्य किया, जोजो लोग महान कहलाए, जिन्होंने इतिहास की धारा को मोड़ने का युगांतरकारी कार्य किया, बाकी लोगों तथा उनमें बस इतना अंतर था कि वे अपने सपने को संकल्प में ढालना चाहते थे. इसलिए उन्होंने पलायन के बजाय प्रयाण का वरण किया. भागने के बजाय दुनिया को बदलना बेहतर समझा. मनुष्यता में विश्वास, इसलिए मानवमात्र के कल्याण की राह बनाते समय उन्होंने अपने सुख की परवाह तक नहीं की. संघर्ष किया, कष्ट भी सहे. इसलिए कि उनके लिए लौकिक लक्ष्य निजी सुखदुख से कही बड़े थे. बालक को समझाया जाना चाहिए कि मानुषजात होने के नाते उसमें भी वही गुणसामथ्र्य संभव हैं जो उन लोगों में थे. यही नहीं बाकी लोगों में भी वे सब गुण संभव हैं. इसलिए आवश्यकता सभी को साथ लेकर चलने की, उसकी क्षमताओं का लाभ उठाने और सम्मिलित बुद्धिविवेक से संसार संवारने की है.

स्कूल में अध्यापकगण को चाहिए कि वे बालकों के बीच किसी प्रकार का स्तरीकरण न पनपने दें. कक्षा में और उससे बाहर भी वे बच्चों को विभिन्न मसलों पर राय रखने के लिए आमंत्रित करें. विद्यालय की पाठननीति के बारे में बच्चों की राय लें. विभिन्न अवसरों पर उसपर परिचर्चा आयोजित कराएं, जिसमें बच्चों की मुक्त भागीदारी हो. महत्त्वपूर्ण अवसरों पर उन्हें विश्वास दिलाया जाना चाहिए कि उनमें से प्रत्येक अपनी विचारधारा में स्वतंत्र है….कि उनमें से किसी की भी विचारधारा केवल उसकी नहीं है. बल्कि वह उसके परिवेश की देन है. इसलिए उस विचारधारा को समझना प्रकारांतर में उसके परिवेश को समझने के लिए जरूरी है. तभी उसमें अपेक्षित सुधार संभव है. परिवेश सुधरेगा तो समाज अपने आप सुधरता जाएगा. उनमें से प्रत्येक की राय का महत्त्व है, अतः हर एक को अपनी बात रखनी ही चाहिए. सप्ताह के अंत में होने वाली सभाओं में निष्कर्ष निकालते समय भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे किसी एक व्यक्ति अथवा कुछ व्यक्तियों के मंतव्य के भरोसे न छोड़ दी जाएं. उन सभाओं में अधिक से अधिक बच्चों को अपनी राय रखने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए.

गणतंत्र आदर्श शासन प्रणाली भले न हो. मगर सभ्यता के इतिहास में आज तक आजमायी जा चुकी प्रायः सभी राजनीतिक प्रणालियों में यह श्रेष्ठतम है. इस कारण फिलहाल विकल्पहीन भी है. जिन कमजोरियों की चर्चा होती है, वे भी ऐसा नहीं कि आज ही जन्मी हैं. वर्षों पहले लोकतंत्र की आलोचना करते हुए प्लेटो ने कहा था—‘प्रजा में परिवर्तन की चाहत और उत्साह देख समाज का कुलीनतंत्र यानी वह तंत्र जो किसी न किसी भांति राजसत्ता पर आसीन रहा है—लोकतंत्र का राग अलापने लगता है. एक दिन वह पूरे समाज को तानाशाही की जद में ले आता है.’ लोकतंत्र की यह बीमारी पुरानी सही, लाइलाज नहीं है. इसका सर्वोत्तम निदान तो यही है कि समाज में कुलीनतंत्र को पनपने ही न दिया जाए. कुलीनतंत्र की जान असमान आर्थिक विभाजन में होती है. समाज के संसाधन जब कुछ हाथों में सिमट जाते हैं तो वे उनका मनमाना उपयोग करने लगते हैं. आर्थिकसामाजिक और राजनीतिक सत्ता पर काबिज होकर वे स्वयं को विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग घोषित कर लेते हैं. विशेषाधिकारों का पीढ़ीदरपीढ़ी मनमाना अंतरण ही कुलीनतावाद है. यह तभी फलताफूलता है जब समाज का बड़ा वर्ग निर्णय प्रक्रिया से खुद को अलगथलग कर लेता या कर दिया जाता है तथा निर्णय लेने का अधिकार दूसरों के हाथों में सौंपकर स्वयं भाग्यवादी बन जाता है.

व्यक्तिमात्र का कर्तव्य है कि वह अपने मौलिक अधिकारों के प्रति सचेत रहे. उन अधिकारों के प्रति सचेत रहे जिनका सीधा सरोकार उसके होने से है. जिनसे उसका अस्तित्व, उसकी पहचान सुरक्षित है. उसे जानना चाहिए कि ये अधिकार किसी बाहरी सत्ता की बख्शीश न होकर, मनुष्य होने के नाते उसको नैसर्गिक रूप से प्राप्त हैं. इस प्रकार के अधिकारों में बौद्धिक संपदा संबंधी अधिकार, अभिव्यक्ति का अधिकार तथा अन्य वे सभी कार्यकारी अधिकार सम्मिलित हैं, जिनके अनुसार वह दूसरों के नैसर्गिक अधिकारों को प्रभावित किए बिना, अपनी सुखसुविधा एवं प्रसन्नता अर्जित करता है. इसके लिए जरूरी है कि मनुष्य के सामने जहां कहीं भी राय देने का अवसर आए, आत्मविश्वास के साथ निर्भय, निस्संकोच अपनी राय रखे. यदि कहीं अधिकारों पर आंच आती दिखाई पड़े तो जमकर उनका विरोध करे. राज्य के संसाधनों का असमान विभाजन किसी एक व्यक्ति या वर्ग के लिए नुकसानदेह न होकर संपूर्ण राज्य के लिए नुकसानदेह होता है. इस बारे में थामस पेन ने बहुत काम की बात कही है. उसने कहा था कि जिस राज्य में आर्थिक विभाजन जितना अधिक समान होगा, उस राज्य के कानून आम जनता के लिए उतने ही हितकारी होंगे. दूसरे शब्दों में आर्थिक बंटवारा जितना अधिक समान होगा, नागरिकों की क्रियाशील मांगों में उतनी ही समानता होगी. उतना ही लोग एकदूसरे पर विश्वास रखेंगे. उनमें सहयोग की भावना उतनी ही प्रबल होगी. उनके अंतर्विरोध क्षीण होंगे. राज्य में अधिक अटूट एकता और समरसता होगी.

बालक को लोकतंत्रीय संस्कार देने में साहित्य की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है. हिंदी बालसाहित्य का जन्म औपनिवेशिक वातावरण में हुआ. उन दिनों समाज में सामंतीमूल्य प्रचलित थे. इसलिए आरंभिक हिंदी बालसाहित्य पर उसका असर साफ नजर आता है. आज हालात तेजी से बदल रहे हैं. बालसाहित्यकार को चाहिए कि वह पाठकों के लोकतांत्रिक प्रबोधीकरण पर ध्यान दे. नए जीवनमूल्यों से भरपूर बालसाहित्य की रचना करे. जिसमें बच्चों की इच्छाआकांक्षाओं, सपनों, संकल्पों और अधिकारों की अभिव्यक्ति होती हो. जिसमें आर्थिकसामाजिकसमानता के बारे में बताया गया हो. समाज की रचना ही इसलिए हुई है कि उसमें मनुष्य के मूलभूत अधिकारों की रक्षा हो. न इसलिए कि उसके अधिकारों पर कुछ साधनसंपन्न लोग कब्जा जमा लें—यह ध्वनि बालसाहित्य की हर रचना से आनी चाहिए. बालक का परिवेश लोकतांत्रिक होगा तभी वह अपने जीवन को उसके अनुसार ढाल पाएगा. लोकतंत्र में विश्वास रहेगा तो उसकी वे कमियां भी दूर होंगी, जिनके लिए आज उसकी आलोचना की जाती है.

© ओमप्रकाश कश्यप

रियल्टी सेक्टर की रीयल्टी

यह बात 1974 के आसपास की है. उन दिनों हाई स्कूल में पढ़ता था और दूसरे किशोरों की तरह सुंदर भविष्य का सपना देखता था. सरकारी नौकरी अच्छे, सुरक्षित भविष्य की द्योतक थी. गांव के कई और व्यक्ति भी नौकरी पर थे. जिनकी प्रतिष्ठा का आधार थी, अच्छी नौकरी तथा उससे जुड़ी आमदनी. उससे वे गांव में खेती की जमीन खरीदकर अपनी हैसियत बढ़ाते रहते थे. सही मायने में उन दिनों आदमी की हैसियत उसके अधिकार में मौजूद भूसंपदा से आंकी जाती है. नौकरीपेशा लोगों द्वारा अपनी बचत का निवेश कृषि भूमि की खरीद में करना आम था. गांव छोड़ शहर बसने का ख्याल तक नहीं आता था. गांव बड़ा था. ऐसे लोगों की संख्या काफी थी, जो सेवामुक्त होने के बाद गांव में जमे हुए थे. उन लोगों में सेना से सेवामुक्त मेजर, सूबेदार से लेकर थानेदार, सिपाही, अध्यापक, पटवारी आदि शामिल थे. रिटायरमेंट के बाद खेती की देखभाल करनी है, अभ्यास कहीं छूट न जाए, इस डर से ऐसे भी नौकरीपेशा लोग थे, जो छुट्टियों में गांव आते ही हलबैल लेकर शान से खेतों में चले जाते तथा तपती धूप में, नंगे पांव खेतों की जुताईबुवाई करते थे. जैसेजैसे सेवाकाल करीब आता, घरघेर की मरम्मत आरंभ हो जाती, जिस सामंती सोच के लिए गांव आज बदनाम हैं, उन दिनों अशिक्षित जनसमाज में वह और भी प्रबल हुआ करता था. इसके बावजूद नौकरीपेशा लोगों का अगला सपना रिटारयमेंट के बाद गांव में चैन की जिंदगी जीना होता. गांव छोड़ने की बात कम ही लोगों के दिमाग में आती थी.

इसी को संदर्भ देती कुछ घटनाएं बचपन की याद आती हैं. गांव से चौदहपंद्रह किलोमीटर दूर बुआजी का गांव था. साल में दोतीन बार जाना होता. वहां हमउम्र लड़कों के संग खेलतेबतियाते हम एक मुहल्ले से दूसरे तक निकल जाते. वहीं कच्ची मिट्टी का बड़ा घर था. चौड़ा आंगन, बीच में नीम का पेड़. चारों दिशाओं में कच्ची मिट्टी के बने छप्परदार कमरे. तीन कोठरियों में एकएक परिवार. हर समय चहलपहल रहती. बस एक कोठरी का छोटासा खिड़कीनुमा दरवाजा हमेशा बंद मिलता. एक दिन पता चला कि चारों भाइयों में सबसे बड़े, जिनके हिस्से में वह कोठरी आई है, शहर जा बसे हैं. सालछह महीने में जब आते हैं, तभी दरवाजा खुलता है. यह कोई नई बात न थी. गांव में ऐसे और भी घर, मकान थे जिनके दरवाजे पर ताला पड़ा रहता. घर की संपत्ति को बेचा जा सकता है, ऐसा विचार कभी दिमाग में भी नहीं आता था. कभीकभी उदारमना लोग अपनी संपत्ति को भाइयोंरिश्तेदारों के सुपुर्द कर आते. उस संपत्ति पर उनका नैतिक कब्जा सदा बना रहता. हालात चाहे जैसे हों, पुरखों की जमीन को बेचना पाप समझा जाता था. ऐसे लोग जिन्होंने शहरों में कामयाबी के झंडे गाड़कर वहां पर बड़े, आलीशान मकान बना लिए थे, जो शायद ही कभी गांव लौटने वाले थे, वे भी गांव की कच्चीपक्की पैत्रिक संपत्ति के बहाने उससे जुड़ा रहना चाहते थे. यह बात गांव से निकले लोगों में आज भी कमोबेश वैसी ही है. घरों से आदमी का अपनापा होता है. घर उनकी मानमर्यादाइज्जतशोहरतजातबिरादरी से जुड़ा होता है.

1990 तक आतेआते हालात बदलने लगे थे. आबादी बढ़ने से जोतें सिकुड़ने लगी थीं. खेती अब लाभ का धंधा नहीं रह गई थी. गांव में खेती के सहारे सम्मानजनक जीवन जी पाना सभी के लिए संभव नहीं रह गया था. इस कारण सोच में भी बदलाव आया था. इस दौर में जमीन की किल्लत बढ़ी थी. इसके साथ ही सुविधाएं और शहर में रहने की ललक भी. रंगीन टेलीविजन के साथ उपभोक्तावाद दस्तक दे चुका था. नौकरी के चलते गांव छोड़कर शहर आने वाले लोग सुविधाओं के मोह में वहीं बसने का ख्वाब पालने लगे थे. गांव में कईकई बीघा, एकड़ जमीन रखने वालों का नया सपना था, शहर या उसके आसपास एक टुकड़ा जमीन, जहां वे अपने लिए हैसियत के अनुसार घर बना सकें. शहर की अवैध कालोनी में बने घर की हैसियत गांव की उपजाऊ जमीन से अधिक हो चुकी थी. शहर में रहने का ठिकाना हो तो बेरोजगार न चिंता न कर लोग लड़के से अपनी बेटी ब्याह दिया करते थे. शहर में रहेगा तो खाकमा लेगा, लड़की और उसके गरीब मातापिता के लिए इतना भरोसा पर्याप्त था. कृषि अब घाटे का धंधा थी. जीविका के लिए नौकरी और व्यवसाय जैसे विकल्पों को महत्त्व दिया जाने लगा था. घाघ की कहावत, ‘उत्तम खेती, मध्यम बान’ झूठी पड़ने लगी थी. शिक्षा के प्रति आकर्षण बढ़ रहा था. इसके बावजूद किसी न किसी रूप में मिट्टी से लगाव अब भी शेष था. शहरों में फ्लैट संस्कृति जोर मारने लगी थी. जमीन की बढ़ती किल्लत को देखते हुए बहुमंजिला इमारतें सिर उठा रही थीं. पर ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए लोगों का सपना अब भी अपनी जमीन पर घर बनाना या बनाबनाया एक मंजिला घर खरीदना होता, ताकि जमीन से नाता बना रहे तथा आसमान आने वाली संततियों के लिए सुरक्षित रहे. इन दोतीन दशकों में जो बदलाव आया था, वह यह कि पहले गांव में खेतीयोग्य भूमि प्रतिष्ठा का मापदंड थी. बदले सोच के साथ शहर में मकान होना सुखसमृद्धि का प्रतीक माना जाने लगा था. इसके बावजूद मकान अब भी सिर पर छत की व्यवस्था के रूप में देखा जाता था. वह निवेश का द्योतक नहीं बन पाया था.

देश में उदारवाद की हवा चली. सरकार ने निजीकरण के बहाने अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ना शुरू कर दिया था. बाजार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खोल दिए गए. अब सबकुछ निजी पूंजी के भरोसे था. अनियोजित आयात के चलते छोटे उद्योगधंधे तबाह होने लगे तो उनमें से बहुतों ने समय रहते हथियार डालने में भलाई समझी. वे उन सुरक्षित रास्तों की ओर पलायन करने लगे जो अभी तक स्पर्धा से बचे थे. उनमें विपणन, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास क्षेत्र प्रमुख थे. कारपोरेट जगत के लिए ये चारों बड़े काम के थे. इनमें सबसे अधिक संभावनाओं वाला क्षेत्र थाआवास निर्माण. माल की बिक्री के लिए उन्हें बाजार की जरूरत थी. ऐसे पढे़लिखे युवकों की जरूरत थी जो संस्कृति के मोहपाश से मुक्त, उपभोक्ता वस्तुओं को ललचाई नजरों से देखते हों. ऐसे ही युवक उपभोक्ता वस्तुओं को प्रतिष्ठा की वस्तु बताकर बेच सकते थे. बाजार उनकी ख्वाबगाह था. वे कहीं सेल्समेन थे, कहीं पर उपभोक्ता. बाजार संस्कृति के चौतरफा विस्तार के लिए उपभोक्ता के मन को बदलना अनिवार्य था. वह तभी संभव था, जब मनुष्य अपनी परंपरा से बंधा दबा हुआ न हो. नौकरी की मजबूरी के चलते आम भारतीय का शहर में बसना विवशता थी. परंतु संस्कार एकाएक पीछा नहीं छोड़ते. रोजगार की तलाश में शहर आए आम भारतीय का मन अब भी गंवई मानसिकता में डूबा रहता. न्यूनतम खर्च में काम चलाकर वह भविष्य के लिए बचत का इंतजाम करता. सुरक्षित भविष्य के बहाने कुछ न कुछ बचाकर रखना चाहताबाजार के पंडितों की दृष्टि में यह मानसिकता बड़ी बाधा थी.

पूंजीपति कारपोरेट कंपनियों का लक्ष्य था उपभोक्ताओं के उपनिवेश बनाना. देश के भीतर छोटेछोटे उपदेश ‘क्रिएट’ करना. शहरीकरण के बहाने उपभोक्तासंस्कृति के नए टापू बसाना. सभ्यता और संस्कृति के कमजोर पहलुओं की पहचान कर वहां सूराख करना; तथा उन छेदों से अपने लिए प्राणवायु खींचना. ऐसी बस्तियां खड़ी करना जहां थोक के भाव उपभोक्ता उपलब्ध हों. जिनका अपना न कोई दिल हो न दिमाग. जो पूंजीवाद के आकाओं के अनुसार सोचें, उनका बताया हुआ खाएं, उनका दिखाया हुआ पहने. उनकी समयसारणी के अनुसार जिनकी जीवनचर्या हो. यह संभव कैसे हो? इलाज सोचासमझा और आजमाया हुआ था, औपनिवेशीकरण. बाधा थी तो एक, बचतसंस्कृति. अतीत से प्रेरणा लेना. भविष्य पर नजर रखना और वर्तमान को सबके साथ मिलजुलकर, सुखदुख बांटते हुए जी लेना. उसी के चलते तो हर आदमी अपने बुरे दिनों के लिए, आड़े वक्त में मित्रों, रिश्तेदारों की मदद के नाम पर, कुछ न कुछ बचाकर रखना चाहता था. आदमी की बचत पर कब्जा किया जाए! यह सोच तो कभी का पुराना पड़ चुका था. नया कारपोरेटी चिंतन था आदमी की पूरी की पूरी कमाई को अपनी जेब के हवाले कर लेना. उसके हिस्से बस इतना छोड़ना कि वह लकदक रहे. अगले दिन काम पर जाए और उनके लिए कमाकर लाए, ताकि किश्तें समय पर चुकाए. रास्ता तय था. आदमी को उसकी पूरी संस्कृति, परंपरा, कुल, मर्यादा, देश, समाज से अलगथलग कर देना. उसके लिए इतनी सुविधाएं जुटा देना कि उनसे बाहर वह कुछ देखसोच न सके. उपभोग में इतना डुबा देना कि उसकी अपनी ही सांसें एकदूसरे के साथ स्पर्धा करने लगें. अधिक से अधिक सुविधाएं कैसे जुटाई जाएंइसके अलावा आदमी यदि कुछ सोच पाए तो बस इतना कि पड़ोसी उससे ईर्ष्या करते हैं. रिश्तेदार उससे खार खाते हैं. दोस्त उससे जलते हैं. उन सबके कारण उसका भविष्य असुरक्षित है. उसका न स्वयं पर विश्वास हो, न किसी और पर. अपने मित्रों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों के प्रति संदेह और डर उसके दिलोदिमाग में समाया हुआ हो. डरा हुआ आदमी भविष्य से भागेगा. वह केवल वर्तमान में जिएगा. कल की चिंता से मुक्त होगा तभी वह आज में डूब पाएगा.

यह भूमिका थी, नए विशुद्ध बाजारवादी संस्कृति पर आधारित उपनिवेश बसाए जाने की. देश के आंतरिक औपनिवेशीकरण की. निरंकुश विस्तार के इस शातिराना तरीके को पूंजीपति उन स्थानों पर आजमाता है जहां सरकारें ढुलमुल हों. जहां सरकार कमजोर न हो, वहां उसकी विश्वसीनयता पर सवाल उठाकर उसको कमजोर करने का भरसक प्रयास किया जाता है. संस्कृति के कृत्रिम संकट खड़े कर आदमी को भरमाया जाता है. इसका उल्लेख मार्क्स ने किया था. अंतोनियो ग्राम्शी ने भी इस खतरे को पहचान लिया था. पर वे बीती बातें हो चली थीं. खुद लोगों ने ही उन्हें भुला दिया. नई संचार प्रौद्योगिकी के कंधों पर सवार पूंजीवाद विकास के नाम पर दबे पांव दफ्तर से बेडरूम तक पसर गया. दिलोदिमाग पर बाजार ने कब्जा कर लिया. समाजवाद को दकियानूसी कहा गया. साम्यवाद को दिमागी फितूर. कल की चिंता करना दिमागी पिछड़ापन मान लिया गया. आदमी बाहर का कुछ सोच न पाए इसके लिए फ्लैट संस्कृति का अंधाधुंध विस्तार किया गया. आवास समस्या के समाधान के नाम पर कंक्रीट के जंगल उगाए जाने लगे. हर किसी के लिए महंगा घर खरीद पाना संभव न था. स्पर्धा में पिटे हुए उद्योगपति पैसा, जमीन, दलाली और माफियागर्दी के नए सिंडीकेट का सदस्य बन गए. कंक्रीट के जंगल बसे. परंतु जनसाधारण अब भी किराये के मकानों में जैसेतैसे गुजारा कर रहा था. कीमत से चार गुना महंगा घर खरीद पाना उसके लिए संभव न थ. वह उन्हीं के लिए संभव था, जिनके पास अतिरिक्त आमदनी की अफरात हो. ऐसे लोगों को न्योंता जाने लगा. उन्हें बताया गया कि दूसरा मकान खरीदना सुरक्षित निवेश है. यानी निश्चित भविष्य की गारंटी और समझदारी का सौदा. एक रहने को दूसरा मुनाफा कमाने के लिए. और इस तरह अतिरिक्त घर का सपना उनकी आंखों में पिरो दिया गया. बैंकों के लुभावने आ॓फर आने लगे. मानो घर खरीदना चुटकी बजाने जैसा काम हो. लोग उस प्रलोभन का शिकार होने लगे. उसके बाद जो हुआ सामने है. घर जो मातापिता के आशीर्वाद की छांव, विरासत में मिली अनमोल थाती, वुजुर्गों की मीठीसुहानी याद था, उसको निवेश का माध्यम बन गया. जिस आंगन से मिट्टी की गंध उभरती थी, वहां इटालियन पेंट की गैसें सिर घुमाने लगीं. फुर्सत के जो क्षण परिवार के साथ बतियाने, हंसनेबोलने के थे, उसपर टेलीविजन और इंटरनेट सवार हो गए. आदमी गिनीपिग बन गया.

घर की संकल्पना तो करीब 12000 वर्ष पहले ही इंसान से जुड़ चुकी थी जब आदमी ने एक स्थान पर टिककर रहना शुरू किया. तब उसे पता चला कि एक जगह टिके रहने से वह तेजी से विकास कर सकता है. घर से रिश्तों में ठहराव आया. रिश्तों से समाज बना, समाज से सभ्यता की शुरुआत हुई. घर से मनुष्य का भावनात्मक रिश्ता दिनोंदिन गहरा होता गया. पर बारह हजार वर्ष पुराना यह सपना अब और अधिक नहीं टिकने वाला. कारपोरेटी कल्चर में घर सिर पर छत से अधिक कुछ नहीं. अब वह सीमेंट, बिजली, टेलीफोन, मोबाइल, परिवहन, टेलीविजन, रेफ्रीजरेटर, एयरकंडीशनर, जेनरेटर, लोहा, हार्डवेयर, सेनेटरी, वित्त कंपनियों की इजारेदारी है. घर बनाने से लेकर फिनिशिंग तक सैकड़ों कारपोरेट कंपनियों को काम मिलता है. बाकी जो बच जाती हैं वे ‘गृह प्रवेश’ के बाद मोर्चा संभाल लेती हैं. आवास ऋण की किस्तों के अलावा बिजली, पानी, टेलीफोन, सीवर, मेंटेनेंस, लिफ्ट, जेनरेटर, सेटेलाइट टीवी, कारऋण, बीमा जैसे दर्जनों खर्च जुड़ जाते हैं, जिनका किश्तवार भुगतान करना ही पड़ता है. यहां रहते हुए बचत की आदत छूट जाती है. आदमी उपनिवेश बसाने वालों की मर्जी का शिकार बन जाता है. उनके सुखसमृद्धि के लिए जीने की आदत डाल लेता है.

बहुमंजिला इमारतों में रहने वाले प्रायः सोचते हैं कि वे अपने मकान में रह रहे हैं. परंतु यह केवल आभासी सच होता है. वे शायद ही कभी समझ पाते हैं कि अपने ही देश में वे ऐसे उपनिवेश में रह रहे हैं, जिन्हें बड़ी पूंजीपति कंपनियों जिनमें वित्त, संचार, मनोरंजन, परिवहन, यातायात, बीमा, सीमेंट, लोहा, रंगरोगन, शराब, शरबत आदि सम्मिलित हैं, ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए खड़ा किया है. घर खरीदने के लिए आदमी दस से तीस वर्ष की किश्तों पर कर्ज उधार लेता है. एकतिहाई से ज्यादा आमदनी घर की किश्त चुकाने में निकल जाती है. एकतिहाई बिजली, पानी, जेनरेटर, मेनटेनेंस, बीमा के भुगतान पर. खानेपीने, बच्चों की लिखाईपढ़ाई के बाकी काम कतरब्योंत से चलते हैं. बीसतीस साल बाद जब मकान की किश्तें पूरी होने का समय आता है, तब तक उन मकानों की उम्र भी पूरी होने लगती है. दीवारें पलस्तर झड़ने से बेआब हो चुकी होती हैं. सड़कें मेंटेनेंस को तरसने लगती हैं. बुढ़ापा घर और गृहस्वामी दोनों को साथसाथ आता है. जिस बस्ती को उसने स्वर्णनगरी समझाकर घर लिया था, वह मलिन बस्ती बन जाती है. तब जाकर आदमी जान पाता है कि जिसको वह अपना घर समझा था, वह उसका था ही नहीं. उसके हिस्से रह जाता है केवल बुढ़ापा, बदरंग झुर्रियां, तनाव तथा अनगिनत बीमारियों से भरा ढला शरीर.

सरकार केंद्र की हो या राज्य की. अपनेअपने प्राधिकरणों के जरिये भूअधिग्रहण में जुड़ी हैं. केंद्र सरकार को जमीन चाहिए ताकि हाईवे निकालने के बहाने आटोमोबाइल, सीमेंट, लोहा, कंस्ट्रक्शन, हार्डवेयर, संचार जैसे क्षेत्रों में काम कर रही कंपनियों से दलाली खा सके. राज्य सरकारों को भी जमीन चाहिए, ताकि वे हाईवे के किनारेकिनारे नई बस्तियां बना सकें. एक के बाद एक राज्य सरकारें नए शहर बनाने की घोषणा कर रही हैं. ’अपना घर’ आज सबसे बिकाऊ सपना है. बड़ेबड़े पूंजीपति घर बनाने में लगे हैं. जिसे घर बनाने में रुचि नहीं वह बनेबनाए शहरों को बिजली, पानी, सड़क, संचार आदि उपलब्ध कराने में जुटा है. नए शहर बसाने के नाम पर किसानों को उजाड़ा जा रहा है. बहुमूल्य कृषि भूमि कौड़ियों के दाम कब्जाने का खेल जारी है. पहले औद्योगिक क्षेत्र और आवास बस्तियां बंजर और अनुपजाऊ भूक्षेत्रों पर बसाई जाती थीं. अब बस्तियां उपजाऊ जमीनों पर है. जमीन हथियाने के लिए किसानों को तरहतरह के प्रलोभन दिए जाते हैं. सवाल है कि ये घर किसके लिए हैं. बेघर लोगों के लिए? जिस देश की औसत आमदनी पांच हजार रुपये महीना है, वहां बीसबाइस हजार रुपये की औसत मासिक किश्त वाले मकान भला कौन खरीद सकता है? मतलब इन घरोंउपनिवेशों में उनको बसाया जाए जिनकी परचेज पावर अधिक है. जो आगे चलकर कमाई का जरिया बन सके. यही कारण है जो अंबानी और टाटा जैसे पूंजीपतियों को आम आदमी के सिर पर छत न होने की चिंता सताने लगी है? इन सभी को स्थायी उपभोक्ताओं की तलाश है. इसलिए आंतरिक औपनिवेशीकरण का खेल बड़े पैमाने पर जारी है. आपको भरोसा न हो तो किसी पंद्रहबीस मंजिला टावर को बिजली भाग जाने के कारण अंधेरे में डूबी बस्ती बीच खड़े होकर गौर से देखिए. इधर आपको पसीने से लथपथ बिजली कंपनी को कोसते हुए लोग नजर आएंगे, उधर जेनरेटर की रोशनी से लकदक अपार्टमेंट में मजे की बेफिक्र नींद लेते संभ्रांत. शहर के भीतर बसे उपनिवेशों की हकीकत आप झट से समझ जाएंगे. परंतु क्या वे लोग भी समझ पाएंगे कि वे जो देख रहे हैं, वह खुली आंखों का सपना है. उनके सिर पर छत, कमरे की ठंडी हवा है तो इसलिए कि अगले दिन तरोताजा होकर वह नए सिरे से जुट सकें….इन उपनिवेशों की प्रगति और उनकी समृद्धि के लिए. रियल्टी सेक्टर की यही ‘रीयल्टी’ है.

तो क्या देश के सामने आवास जैसी कोई समस्या नहीं है? जो लोग किराये के मकानों में रहते हैं, जिनके आवास शहर की पुरानी सघन बस्तियों में हैं, क्या उन्हें उन्हीं के हाल पर छोड़ देना चाहिए? हरगिज नहीं. बेघरों को घर उपलब्ध कराना सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है. पर यह लाजिम है कि घर लोगों की जरूरत को देखकर वनाए जाएं. न कि बेघरों को बिल्डरों, भूमाफिया और फाइनेंस कंपनियों के स्वार्थ के हवाले कर दिया जाए, समाज यदि एक शरीर है तो उसका विकास ऐसे होना चाहिए कि शरीर का प्रत्येक अंग समानरूप से लाभान्वित हो. शरीर का यदि कोई एक हिस्सा फूलने लगेगा तो वह गूमड़े के समान अलग दिखाई देगा. यदि कोई हिस्सा काम करना बंद कर देगा तो वह पक्षाघात से पीड़ित नजर आएगा. विकृति हर हाल में होगी. अशोभन हालात से बचने के लिए जरूरी है कि विकास का समांगीकरण हो. वह सबके हिस्से बराबर आए. तब शहरों की आवास समस्या का हल क्य़ा है? एक निदान तो यह हो सकता है कि आसपास के गावों को उजाड़ने के बजाय उनका नागरीकरण किया जाए. नीति गांव के सर्वांगीण विकास को लेकर बने और ध्येय आवास समस्या के निदान को बनाया जाए. पर यह तभी हो सकता है जब विवेकपूर्ण तरीके से चुनी गई सरकारें अपने ही विवेक से चलें, कार्पोरेट घरानों के स्वार्थ से हांकी न जाएं.

 © ओमप्रकाश कश्यप

इस आंदोलन को सफल होना ही चाहिए

अन्ना हजारे गांधी नहीं हैं. पर वे अच्छे उद्देश्य के लिए अड़ जाने वाले नेता हैं. ऐसे व्यक्ति उन चुनौतियों को आसानी से पार करने में सफल हो जाते हैं, जहां लक्ष्य का एका हो तथा समूह की बागडोर पूरी तरह अपने हाथों में हो. जहां बहुत से शक्तिकेंद्र हों, उलझावभरी, जटिल सत्तासंरचना हो, जहां मौजूद लोगों में अधिकांश का उद्देश्य महज स्वार्थसिद्धि हो, ऐसे लोगों को सही रास्ते पर लाने के लिए जैसा बुद्धिचातुर्य तथा रणनीतिक कौशल चाहिए, उसका उनमें अभाव है. इसलिए यह संघर्ष अन्ना हजारे और सरकार के बीच न होकर टीम अन्ना और सरकार के बीच है. टीम अन्ना के दूसरे सदस्य अरविंद केजरीवाल राजनीति के क्षेत्र में व्याप्त अराजकता, अनैतिकता, अनाचार तथा भ्रष्टाचार से आहत, भावुक और संवेदनशील इंसान दिखते हैं. कई बार वे अपने जज्बात पर काबू नहीं रख पाते. किरन बेदी ने अपनी छवि सख्त पुलिस अधिकारी की बनाई थी. बाद में प्रशासन से पटरी न बैठ पाने के कारण वे नौकरी से इस्तीफा देकर समाज सेवा के क्षेत्र में गईं. उन्हें वहां प्रतिष्ठा भी मिली. परंतु कुछ अति उत्साह, कुछ उनकी गलती से सरकार उनकी छवि को दागदार करने में कामयाब रही है. इकानॉमी क्लॉस में यात्रा करके, बिजनिस क्लॉस का किराया लेना उनकी नैतिकता पर सवाल बनकर आया. इससे भी भारी पड़ा था रामलीला मैदान में किरन बेदी छाप प्रहसन, जिसने उनकी गंभीरता को सवालों के घेरे में ला दिया. शांति भूषण और प्रशांत भूषण पितापुत्र का योगदान आंदोलन से जुड़े कानूनी मुद्दे देखना है. अभी तक उन्होंने अपनी भूमिका का सफल निर्वाह किया है. पिछले वर्ष अगस्त आंदोलन में अन्ना हजारे द्वारा रिहाई की पेशकश को ठुकराकर थाने में धरना देने की घोषणा उनकी रणनीतिक जीत थी. मनीष सिशौधिया प्रायः लोप्रोफाइल दिखते हैं. जनलोकपाल से इतर राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक सुधार के लिए उनके पास भी कोई ठोस रणनीति नहीं है. बाकी सदस्य बाड़ के समान हैं. संख्या बढ़ाने वाले. भ्रष्टाचार जो टीम अन्ना का केंद्रीय मुद्दा है, को लेकर भी जनलोकपाल बिल पर मौन सहमति से आगे नहीं जाते. यही कारण है कि सरकार को घेरने के लिए टीम अन्ना पुराने मुद्दों से आगे नहीं बढ़ पाई है. वह अभी तक जनलोकपाल पर अटकी हुई है, जिसे लेकर सरकार और बुद्धिजीवियों में अनेक मतभेद हैं. उसी का लाभ उठाकर सरकार मुद्दे को लगातार टालती आ रही है.

एक कानून के रूप ‘जनलोकपाल’ एक प्रतिबंधात्मक व्यवस्था है. वह अपराधियों को दंड दिलवाने पर केंद्रित है. अपराध की स्थितियां पैदा ही न हों, उसकी यह कोई व्यवस्था नहीं करता. दूसरे यह केवल आर्थिक अपराधों पर विचार तथा उनके निषेध तक सीमित रहता है. सामाजिक कदाचार, निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार पर वह चुप्पी साधे हुए है. जो कदाचित आर्थिक भ्रष्टाचार से भी खतरनाक है. उनके सहयोगी बाबा रामदेव का मुख्य मुद्दा विदेशों में जमा धन वापस लाना है. आगे क्या होगा, इस बारे में वे भी कोई विचार नहीं रखते. विदेशी बैंकों में जमा धनराशि को वापस लाना अव्वल तो आसान नहीं है. यदि यह चमत्कार संभव भी हो जाए तब क्या होगा? क्या गारंटी है कि उस धन को लेकर उनके नएपुराने दावेदार परोक्षरूप में कोर्ट में दावेदारी पेश नहीं करेंगे! तब क्या यह संभव नहीं कि पद्मनाभ मंदिर के खजाने की तरह वह भी दिखावटी बनकर रह जाए! विनोबा ने भूदान में चालीस लाख एकड़ से अधिक भूमि जुटाई थी. ठोस एवं सक्षम कार्यनीति के अभाव में वह, पचाससाठ वर्षों के बाद आज तक, भूमिहीनों में नहीं बांट पाई है. परिणामस्वरूप अधिकांश भूमि पर दबंगों ने कब्जा कर लिया है.

इधर सरकार तथा जनलोकपाल आंदोलन का विरोध कर रहे दलों को लगता है कि वे टीम अन्ना के सदस्यों से लोगों का विश्वास डिगाने में कामयाब हो चुके हैं. इसलिए वे पूरी तरह जनलोकपाल के विरोध में उतर आए हैं. कानून मंत्री का हालिया कथन कि आंदोलनकारी सरकारी रवैये से असहमत हैं तो वे संयुक्त राष्ट्र में जा सकते हैं, बहुत ही बचकानी और गैरजिम्मेदराना टिप्पणी है. यह लोकपाल या जनसरोकारों से युक्त अन्य मसलों पर बिल के प्रति सरकार की उपेक्षा और उसकी दीठता को दर्शाता है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि गत वर्ष अगस्त आंदोलन के बाद अन्ना हजारे की रैलियों में लोगों की उपस्थिति घटी है. इस बार टीम अन्ना का फेसबुक अभियान भी पहले जैसा नहीं है. संभव है उसको सेंसर किया जा रहा हो. लेकिन यदि टीम अन्ना का कथित ‘सोशल’ साइट्स से भरोसा टूटा है तो यह अच्छा ही है. जिसे सोशल मीडिया कहा जाता है, वह प्रायः समाज से कटे या ऐसा महसूस कर रहे व्यक्तियों के लिए आभासी संबंधों का मंच है. उससे सूचनाओं का त्वरित आदानप्रदान तो संभव है. लेकिन समुचित विवेकनिर्माण और समाज की संगठित ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग संभव नहीं है. आभासी समूहों का प्रत्येक सदस्य स्वयं को समूह का नायक अथवा नायकजैसा माने रहता है. वह काल्पनिक और गढ़ी हुई आभासी दुनिया होती है, जिसमें सहमति या असहमति कंप्यूटर की मात्र एक ‘क्लिक’ जितना महत्त्व रखती है. अव्वल तो वह व्यावहारिक चुनौतियों से दूर रहता है, लेकिन उसकी स्थिति बने भी तो उनका नायकत्व एक झटके में बिखर जाता है. सोशल मीडिया द्वारा समाज का ऐसा विवेक निर्माण संभव नहीं है, जिससे वह अपने अंतद्र्वंद्वों से उभरकर एकजुट हो, विकास के रास्ते पर आगे बढ़ सके. 2011 के आरंभ में अरब देशों में हुई क्रांति इसका उदाहरण है. सालडेढ़ साल के भीतर वहां नई पोशाक में पुराना निजाम वापस आ चुका है.

ऐसी परिस्थितियों में क्या टीम अन्ना से मोह भंग हो जाना चाहिए? उनके चालू आंदोलन को चंद सिरफिरों की उछलकूद मानकर क्या हमें स्वयं को उससे पूरी तरह अलग कर लेना चाहिए? यदि यह हुआ तो वह बहुत ही बुरा होगा. टीम अन्ना के हम प्रशंसक हों या आलोचक, परंतु हमें यह हरगिज नहीं मानना चाहिए कि जनता में बदलाव की इच्छा मर चुकी है. न सरकार को यह लगने देना चाहिए कि जनता का मनोबल टूट चुका है. बल्कि अधिक विचारवान ढंग से, अधिक जागरूकता, समर्पण एवं चेतनाशक्ति से लोगों को मतभेद भुलाकर इस आंदोलन में साथ देना चाहिए. जिन लोगों की टीम अन्ना से सैद्धांतिक असहमति है, उन्हें सकारात्मक विरोध की नई संभावनाओं के बारे में सोचना चाहिए. मेधा पाटकर, अरुंधति राय, सुंदरलाल बहुगुणा जैसे आंदोलनकारी इससे पहले भी जनसहभागिता के बल पर निरंतर आंदोलन करते रहे हैं, लेकिन लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप पर सवाल खड़ा करने वाला यह शायद अकेला आंदोलन है. इसकी सफलता देश में लोकतंत्र की बुनियादी मजबूती के लिए अपरिहार्य है.

पर्याप्त लोकचेतना के अभाव में राजनेता मनमानी पर उतर आए हैं. उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने अपने पुत्र अखिलेश यादव को प्रदेश के मुख्यमंत्री की गद्दी देकर वंशवाद की राजनीति में एक नया आयाम जोड़ा है. वही काम अब कांग्रेस करने जा रही है. राहुल गांधी को सरकार में अतिरिक्त जिम्मेदारी देने की घोषणा इसी का संकेत है. उत्तर प्रदेश के दो चुनावों में असफलता का मुंह देर चुके राहुल की कामयाबी पर पूरा भरोसा तो खुद कांग्रेसियों को भी नहीं है. मंच पर बांह चढ़ाकर दो हाथ करने की मुद्रा में भाषण देने से संभव है एकदो प्रतिशत वोट और अधिक मिल जाएं. लेकन पार्टी और देश को सफलतापूर्वक चलाने के लिए दूरदर्शी सोच और विवेक की जरूरत पड़ती है. उसका कोई प्रमाण राहुल ने अभी तक नहीं दिया है. लोकतंत्र के नाम पर वंशवाद की अमरबेलि, राजनीति के नाम पर अनाचार, विकास योजनाओं के पीछे छिपे भ्रष्टाचार पर यदि अंकुश लगाना है तो उसका केवल एक ही उपाय है, सरकार को लगे कि जनता उसके प्रत्येक धत्कर्म पर नजर रखे है. इसके लिए आवश्यक है कि सरकार जनलोकपाल जैसे परिवर्तनकामी आंदोलनों को कामयाबी मिले. उससे जनता के आत्मविश्वास में वृद्धि हो. सरकार को लगे कि सर्वकल्याणकारी राजनीति की मांग को अब और टालना असंभव है. फिलहाल ‘जनलोकपाल’ आंदोलन संभवतः अकेला ऐसा उदाहरण है जिसने इस देश के लोकतांत्रिक विकारों को लेकर बहस की शुरुआत की है. ऐसे आंदोलनों का बचे रहना, देश में लोकतंत्र अच्छी सेहत के लिए बहुत जरूरी है, फिर बहाना चाहे जनलोकपाल बिल हो या कुछ और.

ओमप्रकाश कश्यप

क्रिकेट-करकट


भारत में जितनी चर्चा क्रिकेट की लोकप्रियता की होती है, उसका सहस्रांश भी उसके कारणों की समीक्षा पर खर्च नहीं होता. जैसे मान लिया गया है कि क्रिकेट हमारे खून में है. एक नामी-गिरामी संपादक जो सती प्रथा और क्रिकेट का एकसमान गुणगान करते थे, हाल ही में ‘क्रिकेट-क्रिकेट’ भजते दिवंगत हुए. लोग उनके क्रिकेट-बोध पर फिदा थे, वे खुद देश की सती प्रथा पर. भगवान यदि लापता नहीं है तो उनकी आत्मा को शांति बख्शे. श्रीमान जाते-जाते भी बता गए कि लोग सचिन तेंदुलकर की कामयाबी का राज नाहक उनकी मेहनत और कलाइयों की उस करामात में ढूंढते हैं, जो बल्ले को ऐसे घुमाती हैं कि गेंद सीधी मैदान बाहर सांस लेती है. उनकी माने तो यह सब सचिन के ब्राह्मण होने का प्रताप है. गोया दुनिया के जितने भी बल्लेबाज हैं, गैरी सोबर्स से लेकर डेनिस लिली तक, सबके सब ब्राह्मण की औरस-जात हों.

‘उनने’ भी जितने ‘कागद’ सचिन की महानता का गुणगान करने के लिए ‘कारे’ किए, उसका शतांश भी क्रिकेट की लोकप्रियता के कारणों की पड़ताल पर जाया नहीं किया. क्या वे नहीं जानते थे कि क्रिकेट कोरा खेल न होकर समाज पर पूंजीवादी बाजार का शिकंजा है! सस्ता मनोरंजन है, जिसे नकली देशभक्ति की थाली में सजाकर परोसा जाता है. एक मोहपाश है जो देश के करोड़ों लोगों को भरमाए रखता है! ऎसा खेल जो सीधे-सादे लोगों को इलीट होने का झूठा एहसास देता है. क्या वे नहीं जानते थे कि फिल्मों की भांति क्रिकेट ने भी देश को नकली नायक ही दिए हैं, जो खेलने के अलावा बाजार की मांग पर नाच-गा सकते हैं. बल्कि वे क्रिकेट में जाते ही इसलिए हैं कि बाजार की आंखों के चांद-तारे बन सकें. देशभक्ति उनके लिए, बाजार और विज्ञापन-जगत के लिए महज एक धंधा है.

यह बाजार और उसका स्वार्थ ही है जो अभिताभ बच्चन को सदी का महानायक और सचिन तेंदुलकर को महान बल्लेबाज लिखता है. ‘महान’ शब्द को कितना छोटा बना दिया है इन्होंने. अगर अभिताभ सदी के महानायक हैं, तब भगत सिंह क्या थे! महात्मा गांधी से उनका दर्जा क्यों नहीं छीन लेना चाहिए? यदि इन्हें महान मान जाए तो वैशाली की नगरवधु आम्रपाली को केवल ‘कुशल’ नृत्यांगना कहकर कैसे निपटा सकते हैं! उसे तो भारतीय इतिहास की महादेवी की पदवी मिल ही जानी चाहिए. नचनियों को नायक बनाकर पेश करना लुटेरी बाजारवादी सभ्यता में ही संभव है. इसलिए बाजार में सवाल नहीं उठाए जाते. बाजार चाहता भी यही है कि लोग विज्ञापन के तानपुरे पर केवल गर्दन हिलाएं. अर्थों की खोज की हिमाकत न करें. बात पर कान दें, ध्यान हरगिज न दें.

पिछले दिनों क्रिकेट टीम में छोटे शहरों के कई खिलाड़ी लिए गए. इस बात का बहुत शोर मचाया गया कि छोटे शहरों से भी क्रिकेट की प्रतिभाएं उभर रही हैं. इस सबके पीछे विज्ञापनदाता कंपनियों की सोची-समझी रणनीति थी. सब जानते हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां शहरों को निचोड़ चुकी हैं. रीयल ऐस्टेट और दूर संचार कंपनियां जो ऐसे मैचों के प्रमुख प्रायोजक की भूमिका निभाती हैं, सहस्राब्दि की शुरुआत से ही भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बाजार की संभावनाएं तलाश की रही थीं. उनके निशाने पर छोटे शहर और गांव थे. उनके सुरसामुखी विस्तार के लिए अकेले सचिन का शहरी और उम्रदराज चेहरा काफी नहीं था. इसलिए धोनी को लाया गया. रैना जैसे नए चेहरे लिए गए. टीम का कप्तान बनने के बाद धोनी के खेल में गिरावट आई थी. फिर भी बाजार ने संभाले रखा. किसी न किसी तरह उनके नायकत्व को बनाए रखा गया. इसलिए कि उसकी जितनी धोनी को थी, उतनी ही मीडिया को भी थी. उन कंपनियों को भी थी जो धोनी के ऊपर करोड़ों का दाव लगा चुकी थीं.

इस बात का दावा खूब बढ़-चढ़कर किया जाता है कि भारतीय क्रिकेट बोर्ड क्रिकेट की दुनिया की सबसे धनी संस्था है. मगर यह सवाल कोई नहीं उठाता कि एक गरीब देश का क्रिकेट बोर्ड दुनिया का सबसे मालदार क्रिकेट बोर्ड कैसे बना. हमारा आधुनिकताबोध, समकालीनताबोध क्रिकेटबोध से ऐसा जुड़ा है, कि कोई अलग नहीं होना चाहता. यहां तक कि हम इससे बाहर झांकना तक नहीं चाहते. कितने लोग जानते हैं कि क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड एक प्राइवेट संस्था है; और जिसे हम भारतीय क्रिकेट टीम कहते हैं, वह दरअसल भारतीयों की टीम है! असल में वे ऎसे चेहरें हैं जिनकी विज्ञापन जगत को आवश्यकता है. फिर भी भारत-पाकिस्तान का मैच हो तो नकली देशभक्ति जुनून ऐसा उमड़ता है कि दंगों जैसे हालात पैदा हो जाते हैं. दर्शकों की भावुकता और उनके जुनून को भुनाने वाला मीडिया हमें यह कभी नहीं बताता कि क्यों अमेरिका में क्रिकेट नहीं खेला जाता. ओलंपिक में सबसे अधिक मेडल जीतने वाले चीन और जापान को क्रिकेट के नाम पर इतना परहेज क्यों है? आस्ट्रेलिया को छोड़कर वही देश इस खेल में आगे क्यों हैं, जिनकी अपनी समस्याएं बेशुमार हैं? क्या कारण है कि क्रिकेट का खेल पश्चिमी देशों में जहां यह जन्मा, वहां निरंतर कम होता जा रहा है. आस्ट्रेलिया, इंग्लेंड जैसे देशों में भी हमारे यहां से कम क्रिकेट खेली जाती है. जबकि एशिया महाद्वीप में बिना क्रिकेट के आप कल्पना भी नहीं कर सकते.

कारणों की पड़ताल के लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा. सत्तर का दशक भारतीय अर्थव्यवस्था में परिवर्तन और नए औद्योगिक घरानों और कारखानों के उभार का भी दशक था. राजनीतिक उथल-पुथल के उस दौर में पूंजीवाद समाज और शासन पर अपनी पकड़ बनाता जा रहा था. तेजी से बढ़ते कारखानों को अपने नए उत्पादों के लिए आकर्षक चेहरे-मोहरे वाले मा॓डल्स की तलाश हमेशा रहती है. उससे पहले वे नायक फिल्मों और टेलीविजन से आते थे. किंतु शिक्षा के प्रसार के साथ देश का आम दर्शक-श्रोता भी जानने लगा था कि फिल्मी अभिनेताओं का नायकत्व झूठा है. सेलुलाइड की चमक-दमक नकली और अस्थायी है. सिवाय शारीरिक सौष्ठव के फिल्मी नायक-नायिकाओं की बहादुरी, उनकी कला-प्रवीणता, यहां तक कि उनकी आवाज भी उनकी अपनी नहीं है. बहादुरी के लिए उनके डुप्लीकेट्स हैं, जिनके नाम तक नहीं लिए जाते. गीतों के सुरीले बोल पार्श्व गायकों के गले से आते हैं. इसलिए उत्पादों की बढ़ती संख्या को बाजार में लोकप्रिय बनाने, उनके लिए बड़ा उपभोक्तावर्ग पैदा करने के लिए उन्हें ऐसे नायकों की जरूरत थी, जिनका नायकत्व असली-सा जान पड़े. जिनके माध्यम से वे दर्शकों के हुजूम को अपने विज्ञापन परोस सकें. ऐसे चेहरों की तलाश के लिए विज्ञापन जगत का ध्यान खेलों की ओर गया, जहां सारा का सारा दारोमदार खिलाड़ियों के कौशल पर निर्भर करता है. खेलों में भी क्रिकेट उन्हें सर्वाधिक अनुकूल लगा.

सवाल है कि क्रिकेट का कौन-सा गुण उसको लोकप्रिय बनाता है. जिससे दूसरे खेलों के दर्शक उसकी ओर खिंचे चले आते हैं? चार-पांच दशक पहले तक इस देश का सर्वाधिक लोकप्रिय खेल हाकी था. वही देशभक्ति और राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान था. उसके बरक्स क्रिकेट अंग्रेजों और उनके मुंह लगे सामंतों का खेल था. आजादी के बाद स्थिति बदली. विकास की ओर अग्रसर देश में मध्यवर्ग का तेजी से विकास हुआ, जो खुद को अंग्रेजियत के करीब रखने में गर्व का अनुभव करता था. इस मामले में बाजी क्रिकेट के हाथ थी, क्योंकि उसकी सारी की सारी शब्दावली, खिलाड़ियों की वेशभूषा, खासतौर पर टोपी अंग्रेजियत को उनके एकदम पास ले आती थी. दूसरे इस खेल में नफासत भी थी. आपको बस खड़े-खड़े बल्ला चलाना है. गेंद फेंकने, उठाकर लाने के लिए दूसरे खिलाड़ी हैं. एकदम सामंती अंदाज. खेल में हालांकि गेंदबाज की भी भूमिका होती है. मगर वह दोयम दर्जे की, जैसे परिवार में स्त्री. दूसरे हाकी खेलने के लिए जो दम-खम चाहिए वह शहरी परिवेश में सर्वसुलभ नहीं था. उसके अधिकांश खिलाड़ी ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते थे. क्रिकेट में शहरीयत के अलावा इतनी सहजता भी थी कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी रनों और ओवरों का हिसाब लगा सकता है. यानी क्रिकेट इस देश के तेजी से उभरते हुए मध्यवर्ग को जो आधुनिकताबोध दे सकता है, वह हाकी नहीं दे सकती. हालांकि क्रिकेट की भांति उसमें भी मास अपील यानी दर्शकों को अपनी ओर खींचने का सामर्थ्य था. मगर कुछ तकनीकी कारण भी रहे, जिनके चलते हाकी विज्ञापन जगत के लिए बहुत उपयोगी नहीं थी.

हाकी और फुटबाल जैसे खेलों की पारियां अपेक्षाकृत कम समय तक चलती हैं. उनके खेल में अत्यधिक तेजी और निरंतरता होती है. दर्शक गेंद का पीछा करते खिलाड़ियों को केवल सांसें थामकर देख सकता है. वह खिलाड़ियों के कौशल से रोमांचित हो सकता है. मगर उस खेल का खुद हिस्सा बन जाने, टीका-टिप्पणी करने अवसर उसके पास नहीं होता. तेजी से चलते मैच के बीच विज्ञापनों की घुसपैठ भी आसान नहीं है. दूसरी ओर क्रिकेट में हर ओवर के बाद खिलाड़ी अपना स्थान बदलते हैं. बल्ला लगते ही गेंद मैदान के बाहर चली जाए तो खिलाड़ी को दौड़ना भी पड़ता है. इस अंतराल में दर्शक को खेल और खिलाड़ी के बारे में सोचने का अवसर मिल जाता है. वह अपने पसंदीदा खिलाड़ी की प्रशंसा या आलोचना कर सकता है. खुद को उस अवस्था में रखकर सोच सकता है. यही क्षण मीडिया और विज्ञापनदाताओं के काम के होते हैं. इस अंतराल का उपयोग वे दर्शक-श्रोता के मानस पर अपने उत्पाद की पकड़ जमाने के लिए करते हैं.

हाकी और फुटबाल जैसे तीव्र गति खेलों में जब तक गेंद और गोल के बीच दूरी हो, रोमांच बना ही रहता है. उसके बीच से दर्शकों को अपने उत्पाद तक खींच कर ले जाना आसान नहीं होता. जबकि क्रिकेट के खेल में रोमांच के अवसर बीच-बीच में आते ही रहते हैं, जिसका फायदा दर्शकों को खेल से जोड़े रखने के लिए बाखूबी किया जा सकता है. क्रिकेट की लोकप्रियता का एक और कारण यह है कि हाकी और फुटबाल जैसे खेलों में जहां खिलाड़ी का अपना दमखम ज्यादा चलता है, वहीं क्रिकेट संयोगों का खेल है. यह खिलाड़ी के कौशल के अतिरिक्त चांस पर भी निर्भर होता है. यहां मंजा हुआ खिलाड़ी पहली ही बा॓ल पर आउट हो सकता है, तो एकदम नया-नया आया खिलाड़ी पहले ही मैच को शतकीय पारी में बदल सकता है. थोड़ी कड़वी भाषा का इस्तेमाल करें तो क्रिकेट भी टेलीविजन पर खेले जा रहे अनेक जुओं में से एक है. संयोग और अवसर हालांकि दूसरे खेलों में भी चलते हैं, मगर क्रिकेट का पूरा खेल इसी पर निर्भर करता है, यही कारण है कि शाहरुख जैसे पेशेवर अभिनेता भी क्रिकेट की ओर आकर्षित होते हैं तथा लीग मैचों में अपनी टीम की पराजय के बावजूद मोटी कमाई कर जाते हैं. वस्तुत: इस देश में क्रिकेट और कुकरमुत्ते की तरह जगह-जगह उगते कथावाचक ऐसे माध्यम हैं, जो आदमी का मन भरमाए रखते हैं. उसे उसकी दुर्दशा के बारे में सोचने और उसके कारणों की तह में जाने नहीं देते. इनकी आड़ में राजनीतिक ढुलमुलापन, नेताओं का झूठ और भ्रष्टाचार, अधिकारियों का नाकारापन और आम आदमी का भाग्यवाद सब खप जाते हैं.

ओमप्रकाश कश्यप