लगता है, हम फिर झांसे में आ गए. वैसे यह नई बात नहीं है. सहस्राब्दियों से यही होता आया है. पहले उन्होंने वर्ण बनाए. चतुराईपूर्वक समाज को बांटा. सावधानी यह रखी की जो वर्ण ऊपर के खाने में हैं, साम-दाम-दंड-भेद यानी जैसे भी हो, सत्ता उन्हीं के हाथों में बनी रहे. उनमें कम से कम लोग हों, इसलिए ऊपर के तीन मालों में गिनी-चुनी जातियों को रखा गया. तदनुसार समाज के प्रबंधन से जुड़ीं जितनी भी जातियां थीं, वे समस्त संसाधनों की स्वामी बनीं. ऊपर के तीन मालों पर कब्जा कर उन्होंने बाकी को निचले खाने में ढकेल दिया. ऊपर सौ में से दस थे तो नीचे नब्बे. वे नब्बे प्रतिशत लोग आपस में मिल न पाएं, इसलिए उनमें जातियों-उपजातियों के हजारों छोटे-छोटे खाने बना दिए गए. उस व्यवस्था से कितनों का हक मारा गया, कितनों का उत्पीड़न हुआ, कितने बेगार करते-करते दम तोड़ गए, किसी का हिसाब नहीं रखा गया. अगर कभी बात चली तो नीचे के माले में कीड़े-मकोड़ों की तरह रेंग रहे लोगों को एक-दूसरे से लड़वा दिया. (हिसाब रखता भी कौन? कसाई कभी सोचता है कि उसने कितने निरीह जानवरों की गर्दन पर छुरा चलाया है. या भेड़िया कभी गिनती करता है कि उसने कितने निरीह मेमनों की बलि ली है! हिसाब रखना है तो मेमने अपना हिसाब रखें? निरीह लोग अपना हिसाब रखें. नहीं तो जो सांसें ‘ऊपर के माले वालों’ की कृपा से बची हैं, उन्हें जैसे-तैसे जिएं. गीता पढ़ें, कर्म करें, फल ऊपर वालों के लिए छोड़ दें.)
उधर गरीब-विपन्न लोग सोचते रहे कि जो पंडित लोग चौंसठ लाख योनियों का हिसाब रखते हैं, आदमी के ‘भाग्य’ का अगला-पिछला सब बांच लेने का दावा करते हैं, वे उनका भी ‘हिसाब’ रखेंगे. यह सोचकर वे अपने अधिकारों की ओर से, समय की ओर से, समस्याओं की ओर से मुंह फेरे रहे. समय के दस्तावेजीकरण के प्रति निचले माले वालों की उदासीनता का लाभ ऊपर वालों ने खूब उठाया. पहले अवसर छीने, फिर मान-सम्मान. अपने से नीचे रह रहे लोगों को बर्बर, असभ्य, गंवार, गलीच, निकम्मा आदि घोषित करके खुद सभ्यता, संस्कृति और इतिहास के सर्वेसर्वा बन गए. उस इतिहास में भेड़ों और मेमनों को जंगल में अव्यवस्था का दोषी बताया जाता रहा. पंडित, देवता, करुणानिधान, अन्नदाता, रक्षक, सेठ, साहूकार जैसे जितने भी सुशोभन विशेषण थे, सब के सब उन्होंने अपने लिए सुरक्षित कर लिए. पिछले ढाई हजार वर्षों का सांस्कृतिक खेल उनकी चालों और समझौता-परस्ती से ही बना है. इसके बावजूद हर व्यवस्था में वे श्रेष्ठ ठहराए गए. जो अच्छा है वह मेरा, जो गंदा है उसे पराया बताकर वे समाज के सर्वोत्तम पर अपना दावा ठोकते रहे. चूंकि ये पुरातन संस्कृति द्वारा अनुमन्य व्यवहार हैं, इसलिए अपने पक्ष के समर्थन के लिए उन्हें आज भी कुछ खास नहीं करना पड़ता. परंपरा की ओर से बने-बनाए तर्क स्वत: हासिल हो जाते हैं. उन्हें शास्त्र-सम्मत बताकर विरोधों और प्रतिवादों को दबाया जाता रहा है. परंपरा से अनुकूलित मस्तिष्क विरोध और लंबे प्रतिवाद की चुनौतियों का सामना करने से कतराते हैं. इसलिए आवश्यक होने पर भी वे परंपरा का संपूर्ण अतिक्रमण करने में नाकाम रहते हैं. मान्य अभिकर्त्ता न होने के कारण समाज भी प्रतिवादी तर्कों प्रति उपेक्षा बरतता है. ऐसे हालात में बहसें या तो इकतरफा सिद्ध होती हैं अथवा निरर्थक रह जाती हैं. इसके बावजूद पीड़ित पक्षों की पहलकदमी पर कुछ विवाद उठें तो उनके समर्थन के लिए आवश्यक तर्क भी संस्कृति और शास्त्र, जिनके वे मुख्य अभिकर्ता माने जाते हैं—की सीमाओं में ही खोजे जाते हैं.
विमर्श की सार्थकता तर्कों की स्वतंत्रता और सकारात्मकता में निहित होती है. मगर कई बार, छिछली राजनीति के प्रभाव में, नकारात्मक बहसें भी उछाल दी जाती हैं. कुछ ऐसा ही साल-भर पहले हुआ. अचानक एक अर्थहीन बहस समाज में गर्माहट पैदा करने लगी. अर्थहीन इस लिहाज से कि प्रतिवाद के लिए आगे आए समूह अपने तर्क उसी परंपरा से ले रहे थे, जो प्रतिवाद की जननी थी. वह बहस आज तक पुराने तर्कों के साथ जारी है. हुआ यह कि कर्नाटक के के. एस. नारायणाचार्य ने अपनी पुस्तक ‘वाल्मीकि यारू’(वाल्मीकि कौन थे?) में लिखा कि वाल्मीकि ब्राह्मण थे. यह कोई नई खोज नहीं थी. लेकिन इससे उस पक्ष की जो वाल्मीकि को अपना पूर्वज और भगवान मानता है—भावनाएं आहत हुईं. देखते ही देखते राजनीति गर्माने लगी. तत्काल प्रतिक्रिया हुई कि वाल्मीकि ‘बेदा’ के घर जन्मे थे. उन्हें ब्राह्मण घोषित करना दलित वर्ग के नायकों के ब्राह्मणीकरण की कोशिश, उनपर कब्जा करने की चाल है. बहरहाल जो परंपरा वाल्मीकि को ब्राह्मण ठहराती है, अन्य संदर्भों में वह, सुस्पष्ट ऐतिहासिक दृष्टि के अभाव के बावजूद—प्रतिवादियों के समर्थन में भी खड़ी नजर आती है. अलग-अलग समय में लिखे गए शास्त्रों में इस तरह के विरोधाभास खूब मिलते है, जिन्हें प्राय: सांस्कृतिक वैविध्य के नाम पर पचा लिया जाता है. अंतत: विवाद कानून के दरवाजे तक पहुंचा. अदालत ने वाल्मीकि की जाति तय करने के लिए चौदह सदस्यीय समिति का गठन कर दिया. फिलहाल मामला विचाराधीन है. कहने को शांति, मगर भीतर ही भीतर सब सुलग रहे हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहाने एक वर्ग प्रतिबंध हटवाना चाहता है. दूसरा विरोध पर अड़ा हुआ है.
सवाल है कि दो-ढाई हजार वर्ष पहले जिस भलेमानस ने अपने बारे में खुद कुछ न बताया हो, जिसके व्यक्तिगत जीवन के बारे में प्रामाणिक जानकारी न हो. ऊपर से कभी समर्थन करतीं तो कभी एक-दूसरे पर सवाल उठातीं अनेक किंवदंतियां हों. जो अपनी ही ’रामायण’ में खुद को कहीं चांडाल तो कहीं प्रचेता-पुत्र(प्रचेतसोऽहं दशम् पुत्रो राघवनंदन) लिखता हो—ऐसे महापुरुष के जन्म और कुल के बारे में ढाई हजार वर्ष बाद भला कौन सही बता सकता है? खासकर ऐसे समाज में जहां इतिहास लेखन की परंपरा ही न रही हो. एक बात और….उन दिनों वर्ण व्यवस्था में मामूली ही सही, जरूरी खुलापन था. नीचे से ऊपर तथा ऊपर से नीचे के मालों के बीच आवाजाही लगी रहती थी. इसलिए अगर कोई सिद्ध भी कर दे कि वाल्मीकि दलित थे, तब भी जो दलित हैं, उनका पक्ष ज्यादा मजबूत नहीं होने वाला. ऐसे अवसर के लिए वे मनमाने तर्कों के साथ सदैव तैयार रहते हैं. उनका तर्क कुछ ऐसा भी हो सकता है—’जन्म से तो पता नहीं, लेकिन कर्म से वे पूरी तरह ब्राह्मण थे….शास्त्रों में यह भी लिखा है कि जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं—जन्मना जायते शूद्रः. संस्कारात् द्विज उच्यते….रामायण लिखने के बाद बाबा वाल्मीकि के समस्त पाप नष्ट हो चुके थे. इसलिए हमने उन्हें ब्राह्मण मान लिया था. जैसे मतंग ऋषि को माना था, जो ब्राह्मण कन्या और शूद्र नाई की संतान तथा तात्कालिक व्यवस्था के अनुसार चांडाल जाति के थे.’
वे पूरी तरह से गलत भी नहीं हैं. दरअसल इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ जब केवल क्षत्रियों ने राजकर्म और ब्राह्मणों ने बौद्धिक नेतृत्व संभाला हो. हर युग, प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे नायक हुए जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था से ऊपर उठकर प्रदर्शन किया. लेकिन ऐसा इस संस्कृति ने कभी नहीं माना. ब्राह्मण को समाज का मस्तिष्क, क्षत्रिय को भुजाएं, वैश्य को उदर तथा शूद्र को पैर दिखाने वाला रूपक उसके दिमाग में बसा रहा. चूंकि समय के दस्तावेजीकरण का काम समाज के खास लोगों की जिम्मेदारी रही, और उन्होंने वही लिखा जो उनके वर्गीय स्वार्थ की सिद्धि करता था, इसलिए दूसरे वर्गों का अवदान प्राय: अलक्षित बना रहा. जहां सीधे ऐसा संभव न हुआ, वहां उपलब्धि को अपने नाम करने के लिए झूठ के महाकाव्य रचे गए. फिर कुछ अंतराल के पश्चात् संबंधित महापुरुष को ही अपने वर्ग में शामिल कर लिया गया, ताकि उनकी वर्गीय श्रेष्ठता का भ्रम लोगों के मन में बना रहे; और बाकी लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी हीनताबोध से ग्रसित रहें. कबीर ने जुलाहे के घर जन्म लेने की बात स्वयं स्वीकारी थी. उन्हें अपना सिद्ध करने के लिए उन्होंने कबीर को विधवा ब्राह्मणी की संतान बताने में भी संकोच नहीं किया. गौतम बुद्ध को विष्णु के अवतारों में सम्मिलित करना भी उनकी इसी नीति का हिस्सा रहा है. इसकी अपेक्षा वैदिक काल में अपेक्षाकृत खुलापन देखने को मिलता है. वेदों में ऐसे अनेक ऋषि हैं जो ब्राह्मण कुलोत्पन्न न होकर भी ब्राह्मण के रूप में पूज्य हैं. प्राचीन भारतीय विद्वानों में इतिहासबोध न होना भी एक समस्या है. यूं उन्हें लंबी गणनाएं करने में प्रवीणता प्राप्त थी. 33 करोड़ देवताओं की कल्पना हालांकि अतिश्योक्ति है, मगर इससे भारतीयों के बड़ी-बड़ी संख्याओं की कल्पना के प्रति जुनून को समझा जा सकता है. लेकिन पर्याप्त ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में वाल्मीकि चाहे जिस जाति में जन्मे हों, उनके लिए ब्राह्मण ही रहेंगे. इस सचाई को भली-भांति जानने के बावजूद वर्ण व्यवस्था से चिपका, सांस्कृतिक पहचान को तरसता, उत्पीड़न का शिकार होता आया समुदाय शांत नहीं बैठता. वह फिर प्रतिवाद करता है—‘नहीं, वे हमारे थे.’ इससे संस्कृति की धूप-ताप खाए वर्गों द्वारा संस्कृति पुरुष की छांह की खोज की छटपटाहट को समझा जा सकता है.
प्रतिवाद करने वाले भूल जाते हैं कि उनके पास नायकों की नहीं, संस्कृति की कमी है. शिक्षा की कमी है, तथा उन सरोकारों की कमी थी, जिनसे वर्गीय चेतना पनपती है. समानांतर संस्कृति होती तो उनके समाजों के नायकों के दस्तावेजीकरण का सिलसिला भी निरंतर बना रहता. उस समय किसी में साहस नहीं होता कि उनके प्रेरणा पुरुष को अपना बताकर उन्हें उनकी संस्कृति से अलग कर सकें. स्वतंत्र संस्कृति के अभाव में उन्हें व्यक्तियों से ही संतोष करना पड़ता है. कुछ समय बाद उन्हें भी हड़प लिया जाता है. दूसरी ओर विरोधी सत्ताधीशों का आदर्श यह संस्कृति है जो बिना कुछ किए, सिर्फ जन्म के आधार पर उन्हें शीर्ष पद प्रदान करती है. उस संस्कृति के नियामक और सर्वेसर्वा वे स्वयं हैं. ये बातें परस्पर विरोधाभासी लग सकती हैं. लोग कह सकते हैं कि जो संस्कृति योग्यतम को योग्यतम जैसा ही सम्मान देने हेतु सदैव तत्पर रहती है, उसे अपना बनाते हुए देर नहीं करती, जिसके पर्याप्त सांस्कृतिक साक्ष्य हैं—उस संस्कृति पर पक्षपात का आरोप भला कैसे लगाया जा सकता है? निस्संदेह, प्रथम दृष्टया तो यह संस्कृति की उदारता को ही दर्शाता है. इसके लिए ’विविधता में एकता’ के विशेषण के साथ संस्कृति का बार-बार महिमामंडन किया जाता है. तथापि यह हकीकत है कि समाज के जातीय आधार पर विभाजन तथा घोर आर्थिक विषमताओं के चलते संस्कृति की यह उदारता हमेशा स्वयं-स्फूर्त्त तथा निर्विवाद नहीं रह पाती. यह व्यक्ति की रुचि और योग्यता का ख्याल किए बिना, वर्ण व्यवस्था का लंघन करने वाले; अथवा किसी कारण उसका अनुसरण न करने वाले व्यक्ति को दंडित कर उसकी स्वतंत्रता के विरोध में तरह-तरह के व्यवधान उत्पन्न करने लगती है. यही कारण है कि यहां जो संपन्न हैं, सत्ता के करीब हैं, वे अतिरिक्त रूप से अधिकार संपन्न भी हैं.
चूंकि उत्पादकता के संसाधनों पर उसका अधिकार होता है, अत: वह आर्थिक रूप से आश्रित वर्गों पर अपनी वर्गीय श्रेष्ठता को मिथ की भांति थोपने में सफल सिद्ध होते हैं. वे बताते हैं कि जो उन्हें अतिरिक्त रूप से प्राप्त है उसके वे दैवीय अधिकारी हैं. तरह-तरह के कष्टों और चुनौतियों को पार करने के बाद कोई कर्मठ और चेतनाशील मनुष्य जब इतर क्षेत्र में अपनी उपयोगिता सिद्ध करता है, तो कुछ काल के लिए संस्कृति के क्षेत्र में उथल-पुथल मचती है. जिसमें विरोधी पराजित होने लगते हैं. लेकिन यथास्थितिवादियों की वह पराजय या हताशा अल्पकालिक होती है. वे हलचलों को दबाने हेतु भरसक प्रयत्न करते है. प्राय: वे कामयाब भी हो जाते हैं. लेकिन कभी-कभी वैकल्पिक धाराओं का उत्स ऐसे महामानवों द्वारा होता है, जो प्रखर मेधावी, चेतनाशील, दूरद्रष्टा और कुशल संयोजक होते हैं. वे जनसाधारण के भीतर विभिन्न सत्ताओं और बेमेलकारी संस्कृति के प्रति दबे आक्रोश को जागते हैं. फलस्वरूप लोग सामाजिक वर्चस्ववाद के विरुद्ध संगठित होने लगते हैं. धीरे-धीरे एक समानांतर संस्कृति विकसित होने लगती है, जो परंपरागत संस्कृति के अनुयायियों को किनारे कर देती है. वैकल्पिक संस्कृति की ये धाराएं जैसे ही समानांतर रूप से सशक्त होकर व्यापक सामाजिक-राजनीतिक समर्थन प्राप्त करती हैं, परंपरागत संस्कृति के अनुयायी तुरंत समझौते पर उतर आते हैं. तदनंतर शीतकाल का दौर आता है. उसमें दोनों वर्ग अपनी-अपनी शक्तियों को बढ़ाने और सहेजे रखने में जुट जाते हैं. वैकल्पिक संस्कृति के अनुयायी कार्यकर्ता, विद्वान् जब विजयोल्लास में डूबे होते हैं, तब परंपरागत संस्कृति के समर्थक शांत, सशंकित मन से अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा में रहते हैं. जैसे ही दूसरा पक्ष कमजोर अथवा अपनी प्रस्थिति के प्रति लापरवाह नजर आता है, वे आक्रामक होकर उसे अपने प्रभाव में ले लेते हैं. पुष्यमित्र की अंतिम बौद्ध सम्राट पर विजय केवल राजनितिक विजय नहीं थी. न ही वह हिंदू धर्म की बौद्ध धर्म-दर्शन पर विजय थी. बौद्ध धर्म-दर्शन के उभार और पतन के बीच हिंदू धर्म-दर्शन में सैद्धांतिक रूप से ऐसा कुछ नहीं हुआ था जो उसे वास्तविक चुनौती दे सके. असल में वह बौद्धिक पराभव तथा तंत्र-मंत्र, जादू-टोने और कर्मकांड में लिप्त बौद्ध धर्म-दर्शन का अपना क्षरण था, जो अनेक विकृतियों के रूप में उसमें प्रवेश कर चुका था. ऐसे धर्म-दर्शन की पराजय स्वाभाविक थी. कुल मिलाकर यह अजगर संस्कृति है, जो महान व्यक्तित्वों को अपना ग्रास बनती है. यह दूसरों की सहमति पर नहीं, समझौते और अतिक्रमण के आधार पर जीवित रहती है. उनके लिए यह इतना महत्त्वपूर्ण है कि व्यक्तियों की कुर्बानी देकर भी संस्कृति रक्षा का ’पुण्य’ संरक्षित रखा जाता है. रावण जैसा विद्वान ब्राह्मण भी संस्कृति-प्रसार की राह में रोड़ा बन जाए तो उसका तिरस्कार करने, यहां तक कि राक्षस घोषित करने में भी उन्हें देर नहीं लगती.
‘रामायण’ इस संस्कृति का आदर्श ग्रंथ है. उसके रचनाकार वाल्मीकि की भूमिका केवल उत्कृष्ट महाकाव्य रच देने तक सीमित नहीं है. इसके साथ-साथ वह राम-संतति के पालक भी हैं. मगर इसी कारण विद्वानों का एक वर्ग उन्हें चांडाल मानने से सकुचाता है. हालांकि जैसे उनका चांडाल होना सिद्ध नहीं होता, वैसे ही उनका ब्राह्मण होना भी तर्क से परे है. तथापि कुछ स्थितियां हैं जिनपर विचार किया जाना चाहिए. पहली यह कि वाल्मीकि का ब्राह्मणीकरण, यदि वैसा हुआ है तो रामायण की रचना के मुकाबले बहुत बाद की घटना है. उसके माध्यम से भारतीय समाज की मनोग्रंथि को समझा जा सकता है. दरअसल जिस व्यवस्था में अस्प्रश्यता शिखर पर हो, छूने-भर से अपवित्र हो जाने का खतरा हो, जो विदेशी आक्रमणों के बाद से अस्मिता के संघर्ष से गुजर रही हो, उसमें संस्कृति के प्रतीक-पुरुष, मर्यादा पुरुषोत्तम की पत्नी और बच्चे ऐसे ऋषि के आश्रम में रहें, जो जन्मना चांडाल है—कैसे स्वीकारा जा सकता है! चांडाल द्वारा क्षत्रीय सम्राट की पत्नी को संरक्षण, उसकी संतति के पालन-पोषण को सच मान लिया जाए तो छुआछूत और जाति-व्यवस्था का आधार ही समाप्त हो जाता है. ऐसा न हो और जाति नामक संस्था बनी रहे, इसलिए अब्राह्मण को ब्राह्मण मानने तथा महापुरुषों, वे चाहे जिस जाति-वर्ग से हों, को वैदिक परंपरा का हिस्सा बनाने की कोशिश हमेशा से रही है. वैसे भी जिस व्यवस्था ने ब्राह्मणों को समाज में शीर्ष स्थान देकर रोज़गार की चिंताओं से मुक्त किया था, उन्हें अकूत मान-सम्मान प्राप्त था, वे उसे एकाएक बदलने वाले न थे. यह उनके वर्गीय आग्रह के अनुरूप था कि वाल्मीकि जन्म से चाहे जो भी हों, उनको ब्राह्मण ठहराया जाए. यही उन्होंने किया भी. उसमें सफल न होते तो कोशिश वाल्मीकि को भुला देने की जाती. जैसा उन्होंने बौद्ध पूर्व विचारकों अजित केशकंबली, मक्खली घोषाल, कौत्स आदि के साथ किया था. लेकिन रामायण की लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि उसकी उपेक्षा सर्वथा असंभव थी. उस समय शायद ही किसी ने कल्पना की थी कि जिस वाल्मीकि का ब्राह्मणीकरण किया गया है(!), कालांतर में हालात ऐसे बदलेंगे कि उसका संबंध पुन: दलितों और शूद्रों से जोड़ना पड़ेगा.
‘वाल्मीकि ब्राह्मण थे’—हाल ही में यह कहकर जिसने माहौल में गर्मी पैदा की है, सवा सौ वर्ष पहले उसी के किसी पुरखे ने लोगों को यह कहकर फुसलाया था कि ऊपर के माले सभी के लिए खुले हैं. कभी डाकू रत्नाकर भी वहां पहुंचा था.’ वह दौर एकदम अलग था. तब निचले माले वालों में हलचल मची हुई थी. सामाजिक विषमता से आहत, उत्पीड़ित जाति-समूह अस्मिता की खोज में दूसरे धर्मों की ओर उत्क्रमण पर उतारू थे. पंजाब के मेहतर ‘बालाशाह’ के उपासक थे. बालाशाह के पीर इमामदीन ने अपनी पुस्तक ‘दीद-हक’ में उसे वाल्मीकि का अवतार बताया था. ‘इमामदीन चूहड़ों के बीच अपना प्रभाव बनाकर उनका इस्लामीकरण करना चाहता था.’(ओमप्रकाश वाल्मीकि, सफाई देवता, पृ. 72). फलस्वरूप गांव-गांव में वाल्मीकि के थान बनने लगे. बालाशाह का कुछ समूहों पर प्रभाव था. आगे चलकर हिंदू मन और बालाशाह के प्रभाव से एक मिली-जुली परंपरा विकसित हुई. मेहतर बस्तियों में पूजा और नमाज साथ-साथ चलने लगीं. उत्पीड़न का शिकार रहीं निचली जातियां सिख और मुस्लिम धर्म की ओर निष्क्रमण करने लगीं. इससे ऊपर के माले वालों को चिंता बढ़ी थी कि निचले माले वाले यदि इसी प्रकार घर छोड़ते रहे तो कौन उनका मैला उठाएगा? कौन उनके लिए बेगार करेगा? कौन उनके लिए खेतों में पसीना बहाएगा? कौन उन्हें ‘अन्नदाता’, ‘हुजूर’, ‘मालिक’ और ‘कृपानिधान’ कहकर घड़ी-घड़ी गुहार लगाएगा? पारंपरिक हिंदुओं में उसे लेकर चिंता अवश्य थी, पर कोई स्थायी समाधान न था. उस समय भी बड़ा हिस्सा ऐसे लोगों का था, जिनकी आस्था हिंदू धर्म में शेष थी. ऐसे लोगों की 1901 में पंजाब के जालंधर में सभा हुई. उस समय तक आर्यसमाजी भी सक्रिय हो चुके थे. उन्होंने कहा—दूसरों के बहकावे में मत आओ. तुम हमारे हो. हमारे ही बने रहो. इसपर कुछ पढ़े-लिखे युवकों ने पूछा था—‘तुम्हारे धर्म में हमारी जगह कहां है?’ जवाब मिला—‘हमने वाल्मीकि को भी तो आदिकवि माना है.’ उनके लिए यह आपद्धर्म था. जिसे उन्होंने वैसे ही स्वीकारा था जैसे अकाल-पीडि़त विश्वामित्र द्वारा कुत्ते के मांस का भक्षण. यह देखते हुए कि उत्पीड़न के शिकार जाति-समूह इतने से संतुष्ट होने वाले नहीं हैं. वाल्मीकि को यदि वे अपना मानते हैं तो उनके इस विश्वास को बनाए रखने को लिए अतिरिक्त रूप से कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा, उन्होंने वाल्मीकि के जीवन चरित को लेकर लिखना शुरू किया. उसके बाद आर्यसमाजी भाई परमानंद ने ‘वाल्मीकि मुनि का जीवनचरित्र(1925)’ की रचना की. उसके कुछ वर्ष पश्चात अमीचंद शर्मा ने ‘वाल्मीकि प्रकाश’(1928−1932) नामक पुस्तक लिखी. कामिल बुल्के ने भी वाल्मीकि के जीवन को शोधात्मक लेख लिखा. दूसरी भाषाओं में भी वाल्मीकि के चरित्र पर प्रकाश डालने वाली दर्जनों पुस्तकें रची गईं.
उन प्रयासों के फलस्वरूप धर्मांतरण की घटनाओं में कमी आई. मेहतर समुदाय के लोगों में वाल्मीकि को अपना पूर्वज, भगवान, आदि गुरु आदि तथा रामायण को पवित्र ग्रंथ माना जाने लगा. कुछ लोगों ने अपने नाम के साथ ‘वाल्मीकि’ लगाना आरंभ कर दिया था. घरों में रामायण के पाठ होने लगे थे. आर्यसमाजी होने के बावजूद भाई परमानंद और अमीचंद शर्मा द्वारा व्यापक हिंदू आस्था का विरोध संभव न था. मेहतर समाज के अधिकांश लोग वाल्मीकि को अपना पूर्वज मानते थे. जबकि भाई परमानंद ने तो स्पष्ट लिखा कि ’आदि वाल्मीकि’ और ‘चांडाल ’वाल्मीकि’ दोनों अलग-अलग थे. दूसरी ओर अमीचंद शर्मा ने अपनी पुस्तक में वाल्मीकि को मेहतरों का गुरु घोषित किया था. दोनों पुस्तकें लगभग साथ-साथ आई थीं. सहस्राब्दियों से उपेक्षा, अशिक्षा और घोर विपन्नता के शिकार तथा पहचान को तरसते लोग इस चालाकी को समझ ही नहीं पाए. उन्हें अपने लिए भारतीय इतिहास और संस्कृति दोनों में जरा-से कोने की तलाश थी. आर्यसमाज के प्रयासों से उनका उत्क्रमण थमने लगा था. वाल्मीकि जयंतियों में राम के साथ-साथ वाल्मीकि के साथ-साथ राम की तस्वीरें भी लगने लगीं. वाल्मीकियों को लगा कि उन्हें विराट हिंदू परंपरा का हिस्सा मान लिया गया है. परिणामस्वरूप जातीय उत्पीड़न के नए-पुराने घावों पर पपड़ी जमने लगी.
भारतीय लोक समाज में सुविधानुसार कहानियां गढ़ने की कला खूब फली-फली है. वाल्मीकि के जीवन को लेकर गढ़ी गई कहानियां भी किसी मिथकीय आख्यान से कम नहीं हैं. एक कथा कहती है की शिशु वाल्मीकि को एक निषाद स्त्री ने चींटियों की बांबी के निकट पाया था. एक किवंदती के अनुसार वे विधवा ब्राह्मणी की संतान थे, जो शिशु वाल्मीकि को चींटियों की बांबी के पास छोड़कर चली गई थी. शायद किसी अपवाद के भय से. अपवाद कैसा? यदि उसका गर्भ किसी गैर ब्राह्मण द्वारा निषेचित था तो ऐसी सन्तान को परंपरानुसार गैर ब्राह्मण ही माना जाएगा. बहरहाल चीटियों की बांबी के पास से मिलने के कारण उनका वाल्मीकि नाम पड़ा. उनके दो नाम बताए जाते हैं—अग्निशर्मा और रत्नाकर. बालक बड़ा हुआ तो डाकू रत्नाकर के रूप में ख्यात हुआ. किंवदंती के अनुसार एक दिन साधुओं का दल रत्नाकर से मिला. उससे रत्नाकर की आंखें खुलीं और वह आश्रम बनाकर साधना (अध्ययन-मनन) में जुट गया. कहानी के अनुसार साधुओं को लगता था कि डाकू रत्नाकर ‘राम-राम’ भी नहीं बोल पाएगा. सो उन्होंने उसे ‘मरा-मरा’ रटने की सलाह दी. ब्राह्मण कुल-दीपक ’राम-राम’ तक नहीं बोल पाए, यह तो कोई मान नहीं पाएगा. ये सारी घटनाएं वाल्मीकि के अब्राह्मण होने की ओर संकेत करती हैं. यह मान सकते हैं कि डाकू का जीवन जी लेने के बावजूद वाल्मीकि में पर्याप्त संवेदनशीलता थी. ‘मरा-मरा’ की युति को ’राम-राम’ में बदलते देख वाल्मीकि को शब्दों से खेलने की कला में दक्षता प्राप्त हुई थी. अयोध्या में चल रही सत्ता की रस्सा-कस्सी से वे अवश्य परिचित रहे होंगे, लेकिन रामाख्यान लिखने की प्रेरणा निष्कासित सीता को संरक्षण देने के बाद ही जगी होगी. इस द्रष्टि से कृति का शीर्षक ‘पुलत्स्य-वध’ रखे जाने का औचित्य भी समझ में आने लगता है.
शात्रों में वाल्मीकि का चरित्र जरूरत के हिसाब से गढ़ा गया है. चाहे वह डाकू रत्नाकर का मिथक हो; अथवा तप-करते-करते चींटियों की बांबी में बदल जाने का. उन्हें दिया गया गुरुमंत्र था, ‘मरा-मरा’ रटते रहना. वाल्मीकि को मूरख भी माना गया और भगवान भी. मूरख ऐसा कि यह सोचकर राम शब्द का उच्चारण भी वह ढंग से न कर सकेगा, इसलिए उसे ‘मरा-मरा’ शब्द रटने को कहा गया. और भगवान ऐसा कि बिना उपस्थित हुए युधिष्ठिर का यज्ञ भी अधूरा रह जाए. कवि-कलाकार जिस प्रकार की ठसक के लिए जाने जाते हैं, कुछ वैसी ही ठसक वाल्मीकि के भीतर भी रही होगी. वह दिखाती हैं कि रामाख्यान लिखने के बावजूद वे राम के प्रभामंडल से बंधे हुए नहीं थे. रामाख्यान रचने के बाद वे उसे लेकर स्वयं लेकर राम को सुनाने अयोध्या नहीं जाते. इस काम के लिए वे सीता के पुत्रों लव और कुश का चयन करते हैं. राम से उनका सामना तब होता है जबी वे सीता को वापस अयोध्या पहुँचाने जाते हैं. उस समय वे स्वयं को प्रचेता का दसवां बेटा ते बताते हैं. इस कथन को संकेतात्मक रूप से लेने की आवश्यकता है. प्रचेता के बारे में बताया जाता है कि वे बहुत उग्र स्वभाव के थे. स्वयं वाल्मीकि भी आरंभिक जीवन में उग्र स्वभाव के थे. संभव है अपने क्रोधित स्वभाव के बारे में उन्होंने सीधे कुछ न कहकर संकेत रूप में कुछ कहा हो. ध्यान यह भी रखना होगा कि उपलब्ध वाल्मीकि रामायण का पहला और सातवां अध्याय प्रक्षेपित माना जाता है. वाल्मीकि को चांडाल ॠषि दर्शाने वाली कहानी महाभारत में आई है. उसके अनुसार युधिष्ठिर ने यज्ञ किया. यज्ञ-स्थल पर एक शंख रखा गया. उसके बारे में कहा गया कि यज्ञ संपन्न होते ही वह स्वयं बज उठेगा. आखिर पंडितों ने यज्ञ पूरा होने की घोषणा की. लेकिन शंख नहीं बजा. इसपर युधिष्ठिर चिंतामग्न हो गए. एक उदासी ने यज्ञ मंडप को घेर लिया. तब कृष्ण ने रहस्योदघाटन किया—’यज्ञ संपूर्ण न होने का विशेष कारण है. यद्यपि सभी ऋषि इस यज्ञ में सम्मिलित हुए हैं, लेकिन वाल्मीकि नाम के चंडाल ऋषि को नहीं बुलाया गया.’ आखिर भूल सुधार होता है और वाल्मीकि को आमंत्रित किया जाता है.
खुद को वाल्मीकि लिखने वाले समुदाय महाभारत की इस कहानी के आधार पर स्वयं को उनसे जोड़ते हैं. लेकिन दूसरा वर्ग वाल्मीकि को अपने हाथ से जाने देने को तैयार नहीं हैं. निचली जातियों के लोग वाल्मीकि को अपना गुरु मान लें तो कोई बात नहीं, लेकिन यदि वे वाल्मीकि को शूद्र मान लेते हैं तो उनके वौद्धिक दंभ का पानी उतरने लगता है. कारण स्पष्ट है. वाल्मीकि केवल रामायण के सर्जक नहीं हैं. वे राम संतति के पालक और सीता के संरक्षक भी हैं. राम जब सीता का निष्कासन करते हैं तो वह वाल्मीकि के आश्रम में शरण लेती है. यहां एक और पेच है जो वाल्मीकि के अब्राह्मण होने की ओर संकेत करता है. सवाल है कि निष्कासित सीता की देखभाल के लिए वाल्मीकि को ही क्यों चुना गया था. रास्ते में और भी आश्रम पड़े होंगे. क्या वह केवल संयोग था? कहीं ऐसा तो नहीं कि सामाजिक अपवाद के कारण राजा द्वारा निष्कासित सीता को शरण देने के लिए ब्राह्मण मुनि तैयार न हुए हों. इससे यह अनुमान भी लगाया जा सकता है कि वे आर्य परंपरा से बंधे हुए न थे. वे भूल जाते हैं कि ब्राह्मण पुत्र होकर भी वाल्मीकि इतने निर्बुद्धि क्यों थे, कि राम-राम रटने में भी अक्षम थे. दाता लोग शायद इससे भी डरते थे कि दलित की जुबान पर आकर राम-नाम भी अपवित्र हो जाएगा. आगे चलकर ‘मरा-मरा’ को गुरुमंत्र की तरह पाठ करने की सीख उन्होंने कबीर को भी दी थी. मगर औघड़ज्ञानी कबीर ने ‘मरा-मरा’ को ‘राम-राम’ बनाने वाली संस्कृति को खूब समझा. इसलिए असमानताकारी संस्कृति के ध्वज-धारकों को वे आजीवन दुत्कारते रहे.
महाभारतकार कृष्ण के मुख से कुछ भी कहलवाएं, हिंदुत्व के महारथी, वाल्मीकि को चांडालों का गुरु मानने से अधिक मोहलत देने को तैयार नहीं है. इसलिए भाई परमानंद को इस झूठे आकलन का सहारा लेना पड़ता है—’ऐसा मालूम होता है कि चांडालों में जो कोई ऋषिपद प्राप्त करता था तो उसे आदि वाल्मीकि मुनि के नाम पर वाल्मीकि की ही उपाधि दे दी जाती थी.’ (वाल्मीकि मुनि का जीवनचरित्र, भाई परमानंद, 1925). सवाल उठता है चांडालों में मुनीत्व प्राप्त करने वाले व्यक्ति को वाल्मीकि की उपाधि ही क्यों मिलती थी? क्या संबंध था दोनों का? वे स्वयं को वशिष्ट, भारद्वाज या मतंग ऋषि से भी जोड़ सकते थे! यदि वाल्मीकि से जोड़ते हैं तो दोनों का कुछ न कुछ अंत:संबंध तो है. यह संबंध भी बहुत पुराना है. बहरहाल, वाल्मीकि जन्मे चाहे जिस वर्ग में जन्मे हों, यह तथ्य निर्विवाद है कि उनका पालन-पोषण और विवाह अब्राह्मण परिवार में हुआ था. इतना भी स्पष्ट है कि प्रतिभाएं सभी वर्ग जातियों में होती थीं, लेकिन स्वतंत्र संस्कृति के अभाव में वे विराट वैदिक संस्कृति का हिस्सा बनकर अपनी पहचान खोती रही हैं. एक बात और. वाल्मीकि पर चर्चा करते समय बात केवल रामायण तक सीमित रह जाती है. जबकि वाल्मीकि के नाम से एक और पुस्तक योगवाशिष्ठ के नाम से भी मिलती है. योगवशिष्ट का पुराना नाम ’मोक्षोपाय’ है. ’मोक्षोपाय’ को तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी की कृति माना गया है. उसमें राम तथा वशिष्ठ के संवाद के माध्यम से उसमें अद्वैत वेदांत पर विशिष्ट विमर्श है. संभव है कि ‘मोक्षोपाय’ का लेखक वाल्मीकि ब्राह्मण कुल का सदस्य रहा हो. बाद में इतिहास दृष्टि के अभाव में आदि वाल्मीकि और मोक्षोपाय के लेखक वाल्मीकि को एक मान लिया गया हो.
‘वाल्मीकि’ ब्राह्मण थे या शूद्र, यह अंतहीन बहस है. हमने पहले भी कहा है की जिस तरह वाल्मीकि को शूद्र सिद्ध करना असंभव है वैसे ही उन्हें ब्राह्मण सिद्ध करना भी संभव नहीं है. इसके बावजूद यदि कोई उन्हें अपना पूर्वज मानता है तो माने. इस दृष्टि से पूजना चाहता है तो पूजे. उनकी जयंतियां मनाना चाहता है तो मनाए, यह उसका अधिकार है. इसे कोई छीन नहीं सकता. लेकिन अपनी खातिर, आने वाली पीढियों की खातिर, संस्कृति और शुभता की खातिर जान लें कि जो रामायण है, उससे उनका भला होने वाला नहीं है. रामायण अभिजन संस्कृति का आख्यान है. फिर भी, आदि वाल्मीकि के प्रति अपने अनुराग के कारण, यदि वे ‘रामायण’ के प्रति अनुरक्त हैं तो जरूरी है कि उसके शुद्धिकरण का आंदोलन भी अपने हाथ में लें. आदि वाल्मीकि की कृति ‘पौलत्स्यबध’ में केवल पांच अध्याय थे. राम को विष्णु का अवतार बताने वाले दो अध्याय और प्रक्षेपित कर ‘रामायण’ बना देने का काम तो बहुत बाद में हुआ. इसलिए जो लोग वाल्मीकि को अपना पूर्वज मानते हैं, उन्हें चाहिए कि वे उनकी असली कृति के पुनरुद्धार का संकल्प भी अपने हाथों में ले लें. उनके पूर्वज के नाम पर बाजार में जो कूड़ा-करकट खपाया जा रहा है, उसे साफ करें.
चलते-चलते एक सवाल और. क्या बगैर सांस्कृतिक आधार के कोई जाति आगे बढ़ सकती है? उत्तर है, नहीं. अकेले मनुष्य का काम तो संस्कृति के बिना चल सकता है, लेकिन मनुष्य यदि सामाजिक प्राणी है तो समाज से विलग होकर वह रह ही नहीं सकता. अब समाज है तो उसकी कोई न कोई संस्कृति होगी ही. इसलिए जो लोग समानता का सपना देखते हैं, उन्हें ऐसी संस्कृति की ओर बढ़ना होगा, जो समानता और स्वतंत्रता को समर्पित होकर उसे अपना ध्येय मानती हो. उसके लिए इस मुश्किल लक्ष्य की साधना आवश्यक है. कार्य कठिन भले ही दिखता हो, असंभव नहीं है. एक बार स्वतंत्र रूप से खोज की शुरुआत कीजिए. वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृति, आरण्यक आदि में जो दर्ज है, उसका विखंडन करने के बाद जो बचे उसकी बहुजन संस्कृति के मापदंडों पर समीक्षा होने दीजिए. संभव है उस मलबे में आपको तत्काल कुछ न दिखाई पड़े. लेकिन वह प्रक्रिया ही समाज के नए और ऊर्जावान नायकों को जन्म देगी. अस्मिता-निर्माण की वास्तविक यात्रा वहीं से आरंभ होगी. जब तक यह नहीं होता तब तक नए-नए के. एस. नारायणाचार्य पैदा होते रहेंगे. वे पहले आपको दल-दल में ढकेलेंगे. फिर शिखर पर खड़े होकर तालियां बजाते हुए कहेंगे—’देखो-देखो, उन्होंने अपने लिए दलदल का चयन किया है.’ आपकी तसल्ली के लिए, ताकि इस संस्कृति से आपका मन उचाट न हो, वे आपकी विवशता को कभी त्याग तो कभी दान जैसे खूबसूरत विशेषणों से नवाजेंगे. आप समझ ही नहीं पाएंगे कि आपका ’कर्मयोग’ आपके लिए वरदान है कि त्रासदी—
‘‘मैं इस बात पर कतई विश्वास नहीं करता कि वे अपने पेशे से केवल जीविकोपार्जन की खातिर जुड़े हैं. यदि यह सच भी होता तो भी मैं यह हरगिज नहीं कि मान सकता कि वे इस पेशे को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनाए रह सकते थे….समय के किसी मोड़ पर उनके (वाल्मीकियों) किसी सदस्य को यह दिव्यानुभूति हुई होगी कि उनका यह कार्य ईश्वर और समस्त मानवता की खुशी के निमित्त है. इसलिए सफाई के इस कार्य को वे स्वेच्छापूर्वक आगे भी शताब्दियों तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी करते रहेंगे. मेरे लिए यह विश्वास करना कठिन है कि उनके पूर्वजों के पास उस पेशे से छुटकारा पाकर दूसरा पेशा चुनने का कोई विकल्प ही नहीं था..’’1
संकेत स्पष्ट हैं, जिन्हें मैला उठने का काम दिव्य लगता है, दिव्यता का एहसास देता है, वे वाल्मीकि को भगवान समझ कर उनकी पूजा करते रह जाएंगे. लेकिन जिन्हें दिव्यता से अधिक मान-सम्मान प्रिय है, वे नए बोध, नए ज्ञान और नई संस्कृति की खोज में आगे बढ़ते जाएंगे.
© ओमप्रकाश कश्यप
- At some point of time, somebody must have got the enlightenment that it is their (Valmiks’) duty to work for the happiness of the entire society and the Gods; that they have to do this job bestowed upon them by Gods; and that this job of cleaning up should continue as an internal spiritual activity for centuries. This should have continued generation after generation. It is impossible to believe that their ancestors did not have the choice of adopting any other work or business.” Karmyog, unpublished book of Sh. Narendre Modi(2007), quoted form Christophe Jaffrelot’s book Religion, Caste, and Politics in India, page 405.