अभिजन समूह अपवाद से बचते हैं. उनकी कोशिश होती है कि उसे कम से कम चुनौतियों का सामना करना पड़े. यथास्थिति बनाए रखने के लिए वे नए–नए तरीके आजमाते हैं. यह कोशिश जैसा कि ऊपर बताया गया है, समाजीकरण के नाम से, बचपन से आरंभ कर दी जाती है. धर्म का उत्तराधिकार के रूप में अंतरण, दुनिया के लगभग सभी देशों–समाजों के बीच बनी मूक सहमति का नतीजा है. धार्मिक विश्वासों को लेकर दुनिया में टकराव होते हैं. आस्था के नाम पर रक्त बहाये जाते हैं. संवेदनशील लोग उससे आहत होते हैं. मनुष्य की आस्था उसके विवेक से संतुलित हो, इसकी कोशिश धर्म केंद्रित समाजों में नहीं की जाती. न व्यक्ति को छूट दी जाती है कि वह अपने धर्म का चयन वयस्क होने के बाद अपने विवेकानुसार कर सके. दरअसल आस्था के कारोबार में लगे लोग भली–भांति जानते हैं कि धर्म का उत्तराधिकार में अंतरण बंद हो जाए तो उसका महत्त्व उस जर्जर खटोले जितना रह जाएगा जिसे कोई परिवार वुजुर्गों की पुरानी यादें सहेजने के लिए संभाले रखता है.
शैश्वावस्था में बुद्धि संश्लेषणात्मक होती है. शिशु अपने परिवेश से सूचना जुटाने में लगा रहता है. उसे सूचनाओं की प्रकृति तथा उनके अंतर्संबंधों की समझ नहीं होती. न ही वह तथ्यों की विवेचना में समर्थ होता है. फिर भी वस्तु–जगत के प्रति उसके अवचेतन में तीव्र आकर्षण होता है. दिमाग की कोरी सलेट पर वह तेजी से सूचनाएं दर्ज करता चला जाता है. परिवेश को जानने की उसकी अव्यक्त इच्छा बड़ों से कई गुना प्रबल होती है. तीन वर्ष तक पहुंचते–पहुंचते बालक का कौतूहल अत्यंत तीव्र हो जाता है. तब तक वह माता–पिता की भाषा सीख चुका होता है. कुछ शब्द उसके ज्ञान–भंडार की शोभा भी बढ़ाने लगते हैं. भाषाबोध उसे परिवेश का मूक–दृष्टा नहीं रहने देता. उसकी मदद से बालक की जिज्ञासा फलीभूत होकर ज्ञान में ढलने लगती है. भाषा न केवल बालक के चिंतन–सामथ्र्य को निखारती है, अपितु प्रतीकों के माध्यम से उसका मार्गदर्शन भी करती है. उसकी मदद से बालक अपने आसपास के लोगों तथा स्वयं से संवाद करने में सक्षम हो जाता है. फलस्वरूप उसमें परिवेश में हस्तक्षेप करने की कला विकसित होने लगती है.
वस्तुओं के बीच संबंध खोजने की शुरुआत उम्र के पहले वर्ष से हो जाती है. बालक चल–अचल में अंतर करने लगता है. उसका प्रभाव संबंधों की प्रकृति पर भी पड़ता है. गाय–भैंस दूध देती हैं तो उनके बच्चों से प्यार करना, बंदर घुड़की देता है तो उसे देखते ही मुक्का तानना या डंडा उठा लेना—ये क्रियाएं बालक देखते–देखते सीख जाता है. ढाई–तीन वर्ष का बालक परिवेश का सजग दृष्टा होता है. एक वैज्ञानिक की भांति जिज्ञासु और तटस्थ. जिज्ञासा–पूर्ति के लिए वह माता–पिता के आगे नित–नए प्रश्न उठाता है. वस्तु सीधी पहुंच में हो तो वह उसके बारे में प्रश्न करने की जहमत नहीं उठाता, बल्कि खुद पड़ताल करने बैठ जाता है. बालक का तीव्र कौतूहल कभी–कभी अभिभावकों की चिंता का रूप ले लेता है. जबकि खिलौने के अंग–प्रत्यंग को हिला–डुलाकर देखना, उसके साथ तोड़–फोड़ करना, गली में चुपचाप बैठे कुत्ते पर कंकड़ उठाकर फेंकना या डंडा उठाकर मारने के प्रयास, हमेषा ध्वंसात्मक वृत्ति का परिचायक नहीं होते. बालक का सहज कौतूहल उसके मूल में होता है. कुत्ते के निकट आने पर माता–पिता समझाते हैं, ‘दूर रहो, काट लेगा.’ माता–पिता बालक के प्रथम गुरु, मित्र और हितैषी हैं, इसलिए वह मान जाता है. मगर पूरी तरह नहीं. जो बताया गया है, उसे वह स्वयं अनुभव करना चाहता है. इसी सहजभाव से बालक के ज्ञानार्जन की प्रक्रिया आगे बढ़ती है.
बालक की शरारतें जिन्हें बड़े प्रायः उसका बचपना कहकर नजरंदाज कर देते हैं, उसकी प्रबोधन प्रक्रिया का स्वाभाविक हिस्सा होती हैं. ऐसी गतिविधियां बालक के भीतर उभरते आत्मविश्वास, परिवेश–चेतना, कौतूहल तथा ज्ञानार्जन की उत्कट इच्छा को दर्शाती हैं. होना तो यह चाहिए कि माता–पिता और परिजन बालक की शोध–वृत्ति का सम्मान करें. मौलिकता की खोज में उसके सहायक बनें. परंतु यहां समाज के अपने विश्वास 8और परंपराएं आड़े आने लगती हैं. समाज अपनी संस्कृति और रीति–रिवाजों में जीता है. उसे सदैव यह भय सताए रहता है कि लीक से हटते ही उसके अस्तित्व पर बन आएगी. अपनी भौतिक आवश्यकताओं के लिए बालक माता–पिता पर निर्भर होता है. इसलिए उनके आग्रहों की उपेक्षा उसके लिए संभव नहीं होती. इसके बावजूद वह अपनी स्वतंत्रता को लेकर बेहद सतर्क रहता है. परिणामस्वरूप समाजीकरण की प्रक्रिया और बालक की चेतना का अघोषित टकराव उसके प्रबोधनकाल से ही आरंभ हो जाता है.
अपने व्यक्तित्व के प्रति पूर्णतः सजग बालक नहीं चाहता कि उसके माता–पिता ज्ञानार्जन तथा अनुभव संचयन की कोशिशों में बिना उसकी इच्छा के हस्तक्षेप करें. इससे उसका व्यक्तित्व आहत होता है. वह चाहता है कि माता–पिता और परिजन उसकी स्वातंत्र्य–चेतना का सम्मान करें. दूसरी ओर माता–पिता और परिजन कामना करते हैं कि बालक जल्दी से जल्दी बिना किसी संदेह और प्रश्नाकुलता के, अपनी सामाजिक परंपराओं, रीति–रिवाजों और मर्यादाओं को समझने लगे. इसके लिए उसे समय–समय पर अनेक संस्कारों, जिन्हें समाज पवित्र मानकर अपनी धार्मिक–सांस्कृतिक पहचान के रूप में सहेजे रखता है—से गुजारा जाता है. इसके कुछ अच्छे परिणाम आते हैं. बालक का आत्मविश्वास बढ़ता है. सामाजिक संबंधों, रीति–रिवाजों के प्रति उसकी समझ में इजाफा होता है. नुकसान यह होता है कि उसकी प्रश्नाकुलता मिटने लगती है. कौतूहल पर थोपे गए पूर्वाग्रह हावी हो जाते हैं. बालक बिना किसी शंका–संदेह के सामाजिक मर्यादाओं को अपनाए, उनका अनुपालन करे, यह माता–पिता के लिए उसके अच्छेपन की कसौटी होती है. इसलिए वे बार–बार परंपरा और संस्कृति की दुहाई देते हैं.
चार–पांच वर्ष का बालक औसतन 450 प्रश्न प्रतिदिन अपने अभिभावकों से करता है. समाज में इतना ताव नहीं होता कि वह बालक की जिज्ञासाओं के आवेग को सह सके. इसलिए उसे अवमंदित करने के प्रयास उसके बचपन से ही शुरू कर दिए जाते हैं. नन्हे शिशु के रूप में अपने भाई या बहन को देखकर बालक मां से पूछता है कि वह कहां से आया है? माता–पिता का रटा–रटाया उत्तर होता है—‘भगवान के घर से.’ यदि बालक पूछे कि भगवान कौन है? तब दीवार पर टंगी तस्वीर या आले में रखी मूर्ति दिखाकर उसकी जिज्ञासा का शमन करने की कोशिश की जाती है. बालक प्रायः मान लेता है. इसलिए कि वह अपने माता–पिता पर भरोसा करता है. दूसरे उस उम्र तक शब्दों की, वाक्यों की एक–दो कड़ी से लंबा सोचने का अभ्यास उसे नहीं होता. जब तक उसमें प्रवीण होता है, तब तक संस्कारीकरण की कोशिश सफल हो चुकी होती है. बालक की मेधा अपनी स्वतंत्र राह छोड़, बंधी–बंधाई लीक का अनुसरण करने लगती है.
दोष माता–पिता का भी नहीं होता. निस्संदेह वे वही कर रहे होते हैं, जो उन्हें उनके बचपन में सिखाया गया था. अज्ञानतावश वे बालक पर उन मान्यताओं और रूढ़ियों को थोपते चले जाते हैं, जिनके आधार पर वे और उनके पूर्वज असमानता और शोषण के शिकार होते आए हैं. परंपरा के प्रति अतिशय लगाव सामाजिक गतिशीलता में ठहराव को जन्म देता है. अप्रासंगिक हो चुकी रूढ़ियों के प्रति माता–पिता के दुराग्रह, जिसे उनकी अज्ञानता भी कहा जा सकता है, बालक के विवेकीकरण की प्रक्रिया पर असमय विराम लगा देते हैं.
माता–पिता सोचते हैं, सुख–शांति, मान–सम्मान और भविष्य के लिए निर्धारित मर्यादाओं का पालन अपरिहार्य है. उसके बिना उनकी पहचान अधूरी होगी. इस कारण वे सन्तान को ऐसे किसी भी आचरण से दूर रखना चाहते हैं, जो सामाजिक अपवाद का कारण बने तथा जिससे परिवार–संस्था के भविष्य पर खतरा उत्पन्न हो. यह प्रवृत्ति बालक के मन में अंतद्र्वंद्वों को जन्म देती है. समाज द्वारा दी गई शिक्षा तथा बालक के अपने अनुभवों का विरोधाभास उसे कदम–कदम पर चौंकाता है. समाज इसे नजरंदाज करता जाता है. बालक जैसे–जैसे बड़ा होता है, स्वाभाविक रूप से भिन्न मान्यताओं वाले समाजों और व्यक्तियों के संपर्क में आता है. उस समय उसके मन में किसी प्रकार का हीनताबोध, संदेह, अविश्वास पैदा न हों, इसके लिए तरह–तरह के इंतजाम किए जाते हैं. अपने धर्म, अपनी जाति तथा अपनी संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ बताना, आस्था और विश्वास के आगे ज्ञान–विज्ञान और तर्क की अवहलेना तथा धार्मिक–सांस्कृतिक रूढ़ियों के प्रति दुराग्रही बने रहने की शिक्षा—जैसे उपाय लगभग सभी समाजों में करीब–करीब एक तरह से किए जाते हैं. हिंदू समाज में तो धर्म के अलावा जाति की फांस भी है, जिसके माध्यम से बालक के दिलो–दिमाग को छुटपन से ही जकड़ लिया जाता है.
सभ्यता के मामले में अगड़ा–पिछड़ा हर समाज अपनी संस्कृति को श्रेष्ठतम मानता है. दावा करता है कि उसकी संस्कृति में उसके सभी सदस्यों की समान सहभागिता है. अधिकारों का न्यायपूर्ण वितरण है. यह अतिरेकी विश्वास संस्कृति को ईश्वरीय वरदान मानने की प्रेरणा जगाता है. इससे धर्म स्वतः संस्कृति के केंद्र में आ जाता है. एक बार केंद्र में आने के बाद वह शिक्षा, उत्पादन पद्धति, सामाजिक संबंध आदि सभी को अपने अनुरूप ढालने लगता है. धर्म खुद को नैतिकता के स्रोत के रूप में पेश करता है. जबकि उसकी उसकी मूल संरचना सामंतवादी लक्षणों से युक्त होती है. समाज में व्याप्त असमानता को वह व्यक्ति की नियति का नाम देता है. तथा उसके समाधान हेतु ईश्वरीय अनुकंपा को जरूरी मान लेता है. उसके प्रभाव में व्यक्ति मिथकों की दुनिया में जीने लगता है. उसके संघर्ष भावना कमजोर पड़ती है. नियति पर अत्यधिक भरोसा बालक को समझौतावादी बना देता है.
शिक्षा का उद्देश्य बालक को उपलब्ध ज्ञान–संपदा से परचाने के साथ उसके प्रबोधन सामर्थ्य को बढ़ाना है. यह काम बालक की प्रश्नाकुलता को बढ़ाए बिना संभव नहीं है. उचित यही है माता–पिता बालक पर अपना धर्म, आस्था और विश्वास थोपने से बाज आए. धर्म के चयन का मामला बड़ा होने तक बालक के विवेक पर छोड़ दिया जाए. लेकिन असमानताग्रस्त समाजों में शिक्षा शीर्षस्थ वर्गों के स्वार्थ को ध्यान में रखकर गढ़ी जाती है. भारतीय समाज इसका उदाहरण है. प्राचीन भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य विद्यार्थियों को दी जाने वाली शिक्षा में अंतर होता था. ब्राह्मण बालक अपनी रुचि और गुरु की आज्ञा के अनुसार कुछ भी सीखने को स्वतंत्र होता था. जबकि वैश्य और क्षत्रिय को उनके कार्य के अनुसार शिक्षा दिए जाने का विधान था. शूद्र का काम चूंकि आज्ञा–पालन तक सीमित था, इसलिए उसके लिए किसी भी प्रकार की शिक्षा निषिद्ध थी. यदि वह अपने अध्यवसाय से कुछ सीखना चाहे तो उसपर भी नियंत्रण था. नतीजा यह हुआ कि समाज का बड़ा हिस्सा अधिकार एवं आत्मसम्मान की लड़ाई में पिछड़ता गया. दूसरी ओर शीर्षस्थ वर्ग खुद को निरंतर मजबूत करने में लगा रहा.
आजादी के समय देश के पुननिर्माण की जिम्मेदारी थी. इसलिए शिक्षा का स्वरूप बहुआयामी था. उसमें प्रौद्योगिकी, चिकित्सा के अलावा ज्ञान–संपदा से जुड़े सभी विषयों के अध्यापन का ध्यान रखा गया था. अस्सी के दशक तक महसूस किया जाने लगा था कि केवल कृषि के भरोसे समाजार्थिक चुनौतियों से निपटना आसान नहीं है. बढ़ती जनसंख्या के कारण बेरोजगारी बढ़ी थी. उसके समाधान हेतु औद्योगिक विकास पर जोर दिया जाने लगा. धीरे–धीरे ज्ञान–केंद्रित शिक्षा के स्थान पर रोजगारमूलक शिक्षा का प्रत्यय लोगों के दिलो–दिमाग पर छाता चला गया. जगह–जगह आईटीआई, पाॅलिटेक्नीक खुलने लगे. उनका लाभ हुआ. उद्योग जगत में रोजगार के अवसर बढ़ने लगे. इकीसवीं शताब्दी तक पूरी दुनिया में डिजीटल क्रांति हो चुकी थी. स्वचालित मशीनों के आविष्कार से उद्योगों की मानव–श्रम पर निर्भरता तेजी से घटी थी. बढ़े उत्पादन को खपाने के लिए बाजार को नए किस्म के प्रबंधकों तथा बिक्री एजेंटों की आवश्यकता थी. उसकी आपूर्ति के लिए निजी संस्थानों के माध्यम से प्रबंधन स्तर की शिक्षा दी जाने लगी. परिणामस्वरूप शिक्षा, जिसका प्रथम ध्येय मनुष्य का विवेकीकरण करना है, प्रबंधन का विषय मान ली गई. देखते ही देखते खर–पतवार की तरह ऐसे शिक्षण संस्थान खुल गए जिनके लिए शिक्षा मात्र उत्पाद थी, विद्यार्थी महज उपभोक्ता. यह सब सोची–समझी नीति के तहत किया जाता है. ऐसी ही कोशिश आज भी जारी है.
अभिजन समूह अपवाद से बचते हैं. उनकी कोशिश होती है कि उसे कम से कम चुनौतियों का सामना करना पड़े. यथास्थिति बनाए रखने के लिए वे नए–नए तरीके आजमाते हैं. यह कोशिश जैसा कि ऊपर बताया गया है, समाजीकरण के नाम से, बचपन से आरंभ कर दी जाती है. धर्म का उत्तराधिकार के रूप में अंतरण, दुनिया के लगभग सभी देशों–समाजों के बीच बनी मूक सहमति का नतीजा है. धार्मिक विश्वासों को लेकर दुनिया में टकराव होते हैं. आस्था के नाम पर रक्त बहाये जाते हैं. संवेदनशील लोग उससे आहत होते हैं. मनुष्य की आस्था उसके विवेक से संतुलित हो, इसकी कोशिश धर्म केंद्रित समाजों में नहीं की जाती. न व्यक्ति को छूट दी जाती है कि वह अपने धर्म का चयन वयस्क होने के बाद अपने विवेकानुसार कर सके. दरअसल आस्था के कारोबार में लगे लोग भली–भांति जानते हैं कि धर्म का उत्तराधिकार में अंतरण बंद हो जाए तो उसका महत्त्व उस जर्जर खटोले जितना रह जाएगा जिसे कोई परिवार वुजुर्गों की पुरानी यादें सहेजने के लिए संभाले रखता है.
ऐसे में जो लोग सामाजिक परिवर्तन की कामना करते हैं, उन्हें बड़ों के साथ–साथ बालक को भी अपनी उम्मीद के केंद्र में लाना होगा. बालक की जिज्ञासा, उसके कौतूहल और शिक्षा की मौलिकता की रक्षा करके सामाजिक परिवर्तन की नई राह तैयार की जा सकती है. उसमें परंपरा, संस्कृति और धर्म के लिए सिर्फ इतनी जगह होगी, जिससे बालक को यह एहसास दिलाया जा सके कि वह जिस समाज का सदस्य है उसका बड़ा हिस्सा उनपर विश्वास करता है. यह काम निरे बुद्धिवाद के भरोसे संभव नहीं है. परंतु बुद्धिवाद को नकारने के भी अपने खतरे हैं. विशेषकर बालक से संदर्भ में. इसलिए वौद्धिकता के साथ हम बचपन को भी सहेज सकें, इसी में हम सबकी जय है.
ओमप्रकाश कश्यप