आंबेडकर और गांधी
‘भारत में भक्ति या नायक–पूजा ने, दुनिया के किसी और हिस्से के बरअक्स, राजनीति में कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका निभाई है. धर्म के हिस्से के रूप में भक्ति आत्मा की मुक्ति की राह भले हो सकती है. परंतु राजनीति में, भक्ति अथवा नायक–पूजा देश में लोकतंत्र के अवसान और तानाशाही की ओर ही ले जाएगी.’—डॉ. भीमराव आंबेडकर, संविधान सभा में दिए गए भाषण का अंश.
बीसवीं शताब्दी भारत के इतिहास में बेहद महत्त्वपूर्ण है. उसमें भारत न केवल आजाद हुआ, बल्कि विश्व–पटल पर स्वतंत्र–स्वयंभू गण–राज्य के रूप में भी उभरा. उस शताब्दी ने भारत को दो महानायक दिए. पहले डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर जिन्हें लोग प्यार और सम्मान से ‘बाबा आंबेडकर’ कहते हैं. उन्होंने सामाजिक उत्पीड़न और वंचना के शिकार लोगों के लिए आजीवन संघर्ष किया. वे अपने समय के सर्वाधिक विद्वान और सुविज्ञ नेताओं में से थे. जीवन में तरह–तरह के अपमान, उपेक्षा और उलाहने सहते हुए वे आगे बढ़े. उन लोगों को आवाज दी जिन्हें दमन सहते–सहते चुप्पी साधने की आदत पड़ चुकी थी. वे सही मायने में ‘मूकनायक’ बने. वंचितों के हित में सतत संघर्ष कर जननायक कहलाए. वे अपने जीवन में ही किंवदंति बन चुके थे. नेहरू उन्हें ‘विद्रोह का प्रतीक’ मानते थे. जबकि उनके समकालीन नेता उन्हें ‘पथ–प्रदर्शक’ का सम्मान देते थे. उन्होंने भारतीय समाज को समानता, सद्भाव एवं बंधुता के रास्ते पर लाने के लिए सतत संघर्ष किया. दूसरे गांधी, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का लंबे समय तक सफल नेतृत्व किया. अहिंसा और सत्याग्रह जिनके बारे में पहले केवल अकादमिक जगत में चर्चा होती थी—को वे राजनीति में लाए तथा सचाई, शुचिता और सेवाभाव के कारण लंबे समय तक भारतीय राजनीति की धुरी बने रहे. कांग्रेस को अभिजात चरित्र से छुटकारा दिलाकर उसे जनसाधारण तक लेकर गए. नतीजा यह हुआ कि आजादी की मांग जो पहले उच्चवर्गीय नेताओं की नरम–गरम राजनीति का हिस्सा थी, जनसाधारण की अस्मिता के संघर्ष में ढलने लगी. अंततः देश आजाद हुआ. गांधी अपने प्रशंसकों के बीच महात्मा कहलाए. आंबेडकर और गांधी, अपने समय में दोनों ही लोकप्रियता की सीमाओं को पार कर देने वाले नेता थे. गांधी यदि ‘राष्ट्र पिता’ थे, तो डॉ. आंबेडकर ‘राष्ट्र निर्माता’, युग–प्रवर्त्तक, ‘आधुनिक भारत का वास्तुकार’ कहलाने के सर्वथा योग्य हैं. यहां आंबेडकर को पहले स्थान पर रखा गया है. उन्हें यह सम्मान देने के पर्याप्त कारण हैं. स्वतंत्रता संग्राम भले ही गांधी के नेतृत्व में लड़ा गया हो, भारत को आधुनिक राष्ट्र–राज्य के रूप में ढालने में आंबेडकर का योगदान गांधी से कहीं ज्यादा है. जैसे–जैसे हम आगे बढ़ेंगे, जान जाएंगे.
डॉ. आंबेडकर उन लोगों के नेता थे जो एक साथ दो गुलामियां झेल रहे थे. राजनीतिक गुलामी के अलावा सामाजिक दासता, जिनके शिकार वे पीढ़ी–दर–पीढ़ी होते आए थे. ऐसे लोगों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता तब तक अर्थहीन थी, जब तक सामाजिक दासता से मुक्ति न हो. ऐसे ही सामाजिक–सांस्कृतिक दलन का शिकार रहे लोगों के मान–सम्मान और आजादी के निमित्त उन्होंने अपना जीवन समर्पित किया. इसके लिए उन्हें दो मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ा. पहला मोर्चा देश की आजादी का था. दूसरा अपने लोगों के सामाजिक मान–सम्मान, सुरक्षा और स्वतंत्रता का. उनके लिए सामाजिक आजादी राजनीतिक स्वतंत्रता से ज्यादा महत्त्वपूर्ण थी. उनका पूरा आंदोलन सामाजिक स्वतंत्रता एवं समानता पर केंद्रित था. कोरी राजनीतिक स्वतंत्रता को वे वास्तविक स्वतंत्रता मानने को तैयार ही नहीं थे. इस मुद्दे पर गांधी सहित समकालीन नेताओं से उनका मतभेद हमेशा बना रहा. अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए उन्होंने तरह–तरह की लांछनाएं सहीं. यहां तक कि अंग्रेजों के पिठ्ठू भी कहलाए. अंततः संविधान के माध्यम से उनके लिए ऐसी राह तैयार की जिससे वे सम्मानजनक जीवन का सपना देख सकें. इतिहास को प्रभावित करने करने वाले नेता से इतिहास बदल देने वाला नेता हमेशा बड़ा होता है. उस समय के पूंजीपति, सामंत और बड़े–बड़े सरमायेदार गांधी के समर्थन में थे. वे उन्हें कई डरों से बचाते थे. मगर गांधी के जाते ही उन्हें बिसरा दिया गया. जैसे टूटी हुई ढाल कबाड़घर में शरण पाती है, गांधी भी संग्रहालयों की शोभा बढ़ाने लगे. इन दिनों केवल उनकी ऐनक बाकी है. उसका उपयोग सफाई अभियान के पोस्टरों को सजाने के लिए किया जाता है.
आंबेडकर इतिहास बदल देने वाले नेता थे. सामंती सोच में ढले हिंदू समाज को उन्होंने आधुनिक मूल्यों से समृद्ध करने की भरपूर कोशिश की. उनीसवीं शताब्दी की बौद्धिक क्रांति में जिन मानवतावादी विचारों ने पूरे यूरोप में उथल–पुथल मचाई थी, उनका जिस शिद्दत, शालीनता और ईमानदारी के साथ डॉ. आंबेडकर ने भारतीय राजनीति में उपयोग किया, वैसा उनके समकालीन किसी नेता ने नहीं किया. स्वतंत्रता संघर्ष में अहिंसा, सत्याग्रह जैसे मौलिक प्रयोगों का श्रेय यदि गांधी को दिया जा सकता है तो लोकतंत्र, समानता, बंधुता, सामाजिक न्याय, व्यक्ति–स्वातंत्र्य जैसे बुनियादी विचारों को आजादी के दौरान और बाद में संविधान के माध्यम से, भारतीय राष्ट्र–राज्य का हिस्सा बनाने का श्रेय डॉ. आंबेडकर को जाता है. अवश्य ही कुछ दूसरे नेता भी थे. देश को स्वतंत्र कराने में उनका योगदान भी कम नहीं रहा. तथापि देश को वास्तविक स्वतंत्रता दिलाने, विशेषकर सामाजिक न्याय के क्षेत्र में आंबेडकर का योगदान उन सबसे अधिक है. भारत में यदि लोकतंत्र है, समानता और बंधुत्व को उच्च जीवन–मूल्यों के रूप में मान्यता प्राप्त है, यदि दमितों और उत्पीड़ितों की आंखों में सुंदर भविष्य का सपना हिलोर मारता है तो इसका एकमात्र श्रेय आंबेडकर को जाता है. वे हमारे सभ्यताकरण के अप्रतिम महानायक हैं. इस कारण उनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. बल्कि बढ़ती ही जा रही है.
गांधी भारतीय होने से पहले ‘हिंदू’ थे—आंबेडकर हिंदू होने से पहले भारतीय. आधुनिक जीवन–मूल्यों के सच्चे पोषक. सभी धर्मों का आदर करने वाले गांधी आजीवन सर्व–धर्म–समभाव को समर्पित रहे. ‘ईश्वर–अल्लाह तेरो नाम’ कहकर देश में सांप्रदायिक एकता की अलख जगाते रहे. परंतु उनका सर्वधर्म समभाव हिंदू धर्म की चौहद्दी तक सीमित था. उनके असली आराध्य ‘रघु(कुल) पति’, ‘राघव’, ‘राजा राम’ थे. ‘ईश्वर–अल्लाह’ उनके लिए ‘राजा राम’ के ही उपनाम थे. जीवन के अंतिम क्षण तक वे ‘राम’ की शरणागत बने रहे. उन्होंने वर्ण–व्यवस्था को आदर्श भले न माना, मगर उसे कभी चुनौती भी नहीं दी. धर्म की आड़ में वे उसे लगातार संरक्षण देते रहे. आंबेडकर के लिए जाति की समस्या सामाजिक थी. मानते थे कि समस्या का निदान केवल समाजार्थिक बराबरी द्वारा संभव है. यह केवल कानून के रास्ते संभव है. गांधी के लिए जाति की समस्या ईश्वरीय विधान थी. समाज को छुआछूत से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने हालांकि कई टोटके किए. निजी स्तर पर और कांग्रेस की मदद से अनेक कार्यक्रम भी चलाए. दिखावे के लिए सवर्णों को दलितों के प्रति अत्याचार के लिए डांटा भी था. परंतु जैसा कि आंबेडकर भली–भांति समझते थे, गांधी के सारे प्रयत्न एक राजनीतिक कार्यक्रम से अधिक कुछ न थे. दलितों को ‘हरिजन’ घोषित करने के पीछे भी परंपरावादी मन ईश्वरीय विधान और अस्पृश्यों के प्रति हेय–भाव से ग्रस्त था.
उपनिषदों में कहा गया है—‘सर्व खाल्विदं ब्रह्म.’ यह सारा जगत ही ब्रह्म है….कण–कण में परमात्मा है….प्रत्येक आत्मा परमात्मा का रूप है. फिर दलितों और अतिशूद्रों के लिए ही ‘हरिजन’ संबोधन क्यों? ब्राह्मणों और क्षत्रियों के लिए क्यों नहीं? क्या यह दलितों और अतिशूद्रों के प्रति उपकार–भाव की परिणति था? जैसे पुराने जमाने के राजा–महाराजा अपने यहां बेगार करने वाले नौकरों और सेवादारों को उनकी हाड़तोड़ मेहनत के बदले कभी–कभार रुपया–अठन्नी देकर बहला दिया करते थे, ऐसा ही कुछ? गांधी ने यह संबोधन केवल उछाल दिया था. जातीय दलन का शिकार लोग हरिजन क्यों हैं? इसका कभी खुलासा नहीं किया. विरोध हुआ तो कह दिया, जो इसे अपनाना चाहते हैं, अपनाएं. दलितों ने कभी इस संबोधन को मन से नहीं लिया. परंतु दिखावे की उदारता के नाम पर कुछ सवर्ण जरूर ‘हरिजन’ प्रेमी हो गए, ताकि उनकी सहानुभूति जीतकर लोकतंत्र का दरिया पार कर सकें. इतना तो सब मानते हैं कि गांधी बिना सोचे–समझे कुछ भी करने वाले न थे. सवाल है कि ‘हरिजन’ की गांधीवादी व्याख्या क्या हो सकती है? और दलित जब इस संबोधन पर आपत्ति कर रहे थे तो गांधी के पास क्या इसका कोई भी विकल्प नहीं था? उत्तर है—बिलकुल था; और बहुत पहले से था. याद कीजिए—‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे…’ गांधी–सभा में नियमित गाया जाने वाला भजन. इसमें एक शब्द आता है, ‘वैष्णव जन’. ‘हरि’ को विष्णु का उपनाम माना जाता है. ‘हरिजन’ और ‘वैष्णव जन’ का भावार्थ भी एक है. दोनों ही नरसी मेहता के पदों से लिए गए हैं. उनमें से एक का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है. फिर गांधी ने जातीय दलन का शिकार रहे लोगों को ‘वैष्णव जन’ संबोधन क्यों नहीं दिया? क्यों वे केवल ‘हरिजन’ पर अड़े रहे? यदि गांधी सचमुच वर्ण एवं जाति के विरोधी होते तो और वही कहना चाहते जो उन्होंने ‘हरिजन’ के बारे में बताया है तो ‘वैष्णव जन’ से बेहतर और सम्मानजनक शब्द दूसरा हो ही नहीं सकता था. किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया. इसके दो कारण हो सकते हैं. पहला गांधी जिद्दी थे. एक बार मुंह से जो निकला उसपर पुनर्विचार करना उनके महात्मापन को स्वीकार न था. उनकी मंशा नहीं थी कि दलितों को ‘वैष्णवजन’ जैसा ‘पवित्र’ नाम या उपाधि दी जाए. ब्राह्मण–ग्रंथों में दलितों के नामकरण को लेकर भी निर्देश हैं. उनके अनुसार दैन्य दलित के नाम से झलकना चाहिए. ‘हरिजन’ में जैसा दैन्य–भाव है, वैसा दैन्य–भाव ‘वैष्णवजन’ में नहीं है. यानी गांधी की सवर्ण–मानसिकता दलितों को ऐसा कोई नाम देना नहीं चाहती थी, जो समाज में सम्मानित हो. जबकि इन्हीं हरिजनों के एक संतपुरुष रैदास ने, ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’—कहकर अपने समय के पुरोहितों और पाखंडियों की बोलती बंद कर दी थी. कह सकते हैं कि गांधी को सामाजिक परिवर्तन वहीं तक स्वीकार्य था, जहां तक वह हिंदू वर्णव्यवस्था को चोट न पहुंचाता हो. एक सीमा के बाद उनकी उदारता जिद में ढल जाती थी. उस समय वे या तो ‘राम–राज्य’ की प्रशंसा करने लगते; या फिर ‘पंचायती राज्य’ के नक्श में भारत का भविष्य तलाशने लगते थे. यह जानते हुए भी कि ‘राम–राज्य’ के माथे ‘शंबूक–हत्या’ तथा स्त्री–विरोधी होने का कलंक लगा है; और पंचायती राज्य का चेहरा जाति–व्यवस्था के कलंक के चलते बेदाग नहीं रह सकता—वे उन्हें आदर्श लगते थे. आंबेडकर गांवों को जाति और सामंती संस्कारों का सबसे सुरक्षित ठिकाना मानते थे. गांधी गांव को आत्मनिर्भर इकाई बनाने का सपना देखते थे. जानते थे कि नई प्रौद्योगिकी नए विचार भी लाएगी, मशीनें प्राचीनतम वर्णव्यवस्था को चुनौती देंगी. इसलिए वे मशीनों को पूरे भारत के लिए खतरा मानते थे. आंबेडकर को नई तकनीक से परहेज नहीं था. वे उन्हें विकास के लिए आवश्यक मानते थे. लेकिन चाहते थे कि बड़े कारखाने सरकार के सीधे नियंत्रण में हों. इस मामले में वे तथाकथित समाजवादियों से भी बड़े समाजवादी थे.
‘हिंद स्वराज’ में गांधी ने वकीलों और जजों के पेशे को निकृष्ट बताया है. वह भी तब जब वे स्वयं विलायत से वकालत करके आए थे. वही क्यों, कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने भी वकालत के रास्ते राजनीति में कदम रखा था. अजीब–सी स्थापना थी उनकी—‘सत्ता की मुख्य कुंजी उनकी अदालतें हैं और अदालतों की कुंजी वकील हैं. अगर वकील वकालत करना छोड़ दें और वह पेशा वेश्या के पेशे जैसा नीच माना जाए तो अंग्रेजी राज एक दिन में टूट जाए’(हिंदुस्तान की दशा—4, हिंद स्वराज). आखिर अदालतों से क्या रोष था उनका? क्यों उन्होंने वकील के पेशे की तुलना वेश्या से की है? आखिर क्यों? कारण जानने के लिए गांधी की मनोरचना को समझना होगा. वे वर्ण–व्यवस्था के समर्थक थे. उनके हिसाब से वह आदर्श व्यवस्था थी. उसके पोषकों की निगाह में ‘मनुस्मृति’ भारत का आदर्श विधिग्रंथ था, जिसके अनुसार ब्राह्मण का बड़े से बड़ा अपराध क्षम्य था. दूसरी ओर शूद्रों को छोटे–से–छोटे अपराध के लिए दंड करने का अधिकार उसके स्वामी को प्राप्त था. उसकी सुनवाई किसी भी अदालत में नहीं थी. इसे देखते हुए 1834 में ईस्ट इंडिया कंपनी के मुलाजिम लार्ड मैकाले ने ‘बेहतर प्रशासन’ के लिए ‘विधि आयोग’ की स्थापना की थी. उसके बाद मैकाले भारतीय लेखकों की निगाहों में खलनायक बन गया. ठीक वैसा ही खलनायक जैसा ‘ब्रिटिश भारत का इतिहास’ के लेखक जेम्स मिल को माना गया था. मिल ने अपनी बृहद् ग्रंथमाला में जहां भी आवश्यक समझा हिंदू धर्म और समाज में व्याप्त रूढ़ियों की जमकर आलोचना की है. 1853 में दूसरा विधि आयोग बनाया गया, जिसने 1861 में आपराधिक मामलों की सुनवाई के लिए कानून बनाए. उसकी 25वीं धारा में लिखा था कि आपराधिक कानून सभी पर समान रूप से लागू होगा. उसने ‘मनुस्मृति’ की विधि–संहिता को किनारे कर दिया. शताब्दियों से चले आ रहे ब्राह्मणों के विशेषाधिकार एक झटके में समाप्त हो गए. अदालतें, वकील और अधिकारी विधि–संहिता के अनुसार काम करने लगे. दलितों और अस्पृश्यों के बीच जो वर्षों से दबा–ढका था, वह एकाएक बाहर आने लगा. सवर्णों के विशेषाधिकारों को चुनौती मिलने लगी. ज्योतिबा फुले, आंबेडकर, रामास्वामी पेरियार जैसे क्रांतिधर्मा नेताओं और विचारकों का जन्म इसी के फलस्वरूप हुआ. यह बदलाव ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोगों के लिए असह् था. गांधी भी अपवाद न थे. इसलिए वे वकीलों के पेशे को वेश्या के पेशे से नीच मानने की सलाह दे जाते हैं. कानून के विद्यार्थी होने के बावजूद गांधी व्यवस्था को धर्म की सहायता से चलाना चाहते थे. पूरी दुनिया जब धर्म को नकार रही थी, गांधी ने अपने लिए उसकी मर्यादा को आदर्श माना तथा आजीवन भारत को धर्मोन्मुखी राज्य बनाने की सलाह देते रहे. उनके लिए हर समस्या का समाधान धर्म में अंतर्निहित था. धर्म और राजनीति को अलग–अलग देखने वाली पश्चिमी सभ्यता उन्हें शैतान–सभ्यता लगती थी. जबकि स्वयं गांधी और उस समय के प्रमुख नेता इंग्लेंड से पढ़–लिखकर आए थे. दक्षिणी अफ्रीका में तथा वहां से लौटने के बाद भारत में, अंग्रेज सरकार को चुनौती देने के लिए बार–बार अंग्रेजी कानून ही उनके मददगार सिद्ध होते थे.
भक्ति–भाव में गांधी इस बात को नजरंदाज कर जाते थे कि धर्म शक्तिशाली के वर्चस्व को औचित्यपूर्ण ठहराने का सुविचारित तंत्र है. विजेता संस्कृतियों की यह सामान्य खूबी होती है कि वे लंबे और स्थायी शासन हेतु, अपने नायकों को ईश्वर या उसके प्रतिनिधि और उनके फैसलों को ईश्वरीय–न्याय के रूप में पेश करती हैं. उनके निरंतर दबाव के बीच जनसामान्य निर्णय–प्रक्रिया से कटने लगता है. परिणामस्वरूप बहुसंख्यक के विवेक का लोकहित में उपयोग हो ही नहीं पाता. यहीं से उसके संकटों की वास्तविक शुरुआत होती है. दूसरों के आसरे अपने फैसले लेने का अभ्यस्त समाज प्रकारांतर में अपनी खुशी, अपनी स्वतंत्रता, यहां तक कि समानता की चाहत को भी उनके आगे गिरवी रख देता है. पीटर ऑल्टजिल्ड के शब्दों में—
‘शक्तिशाली हमेशा सही होता है—इस विचार ने दुनिया को अथाह दुख दिए हैं. यह विचार न केवल कमजोर को कुचलता है, बल्कि ताकतवर को भी नष्ट कर देता है. प्रत्येक झूठ, प्रत्येक छल–कपट और प्रत्येक चूक आगे–पीछे उसके स्वामी को ही नुकसान पहुंचाती है. न्याय समाज के नैतिक स्वास्थ्य को दर्शाता है, खुशियां लाता है, जबकि अन्याय नैतिकता का लोप है, मनुष्य को जीते–जी मार देता है.’
एक दृष्टांत के माध्यम से महाभारत में बताया गया है, ‘जो सबका होता है, वह किसी का नहीं होता.’ गांधी ने सबका बनने की कोशिश की, आजादी के बाद लोगों के मोहभंग की शुरुआत हुई तो सबसे पहले गांधी को किनारे किया गया. उन लोगों ने किनारे किया जिनके लिए वे आजीवन काम करते आए थे. जबकि समय के साथ आंबेडकर की प्रासंगिकता लगातार बढ़ती गई. वे दलितों और वंचितों के मसीहा मान लिए गए. आजादी से पहले देश–भर में गांधी का नाम गूंजता था. धीरे–धीरे उनकी लोकप्रियता का ग्राफ गिरने लगा. गांधी दर्शन हवा में बिला गया. दूसरी ओर आंबेडकर–दर्शन में विश्वास रखने वालां की संख्या बढ़ती ही जा रही है. लोग उनके विचारों के आधार पर संगठित हो रहे हैं. कह सकते हैं कि गांधी नेता बने थे. आंबेडकर को लोगों ने अपना नेता, अपना मार्गदर्शक स्वीकार किया. आजादी के बाद जितनी मूर्तियां आंबेडकर की लगीं, शायद ही किसी और नेता की लगी होंगी. गांधी को प्यार करने वालों के मन में उनके प्रति भावुकता भरा लगाव है. गांधीवाद को बिना भावुकता और अतीतमोह के लागू ही नहीं किया जा सकता. आंबेडकर के अनुयायी उन्हें अधिकार चेतना जगाने तथा ‘अप्पदीपो भव’ की भावना जगाने के लिए याद करते हैं. इसीलिए याद करते हैं क्योंकि उनकी बातों में तार्किकता का समावेश रहता था. गांधी तर्क की कसौटी पर कमजोर पड़ते ही अनशन पर उतर आते थे. उन्हें राष्ट्रपिता की पदवी ओढ़ाई गई थी. आंबेडकर को उनके श्रद्धावनत अनुयायियों ने खुशी–खुशी अपना ‘बाबा’ मान लिया. इन स्थापनाओं पर कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है. परंतु थोड़ी देर के लिए यदि वे अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर सोचें, आधुनिकता का मंतव्य समझ लेने के बाद आंबेडकर के कार्यों की महत्ता का आकलन करना आसान हो जाएगा.
आधुनिकता को सामान्यतः फैशन से लिया जाता है. दूर–दराज के गांवों में धोती–कुर्ता के स्थान पर सूट–बूटेड लड़के को तुरंत ‘मार्डन’ मान लिया जाता है. कोई उसका प्रतिवाद नहीं करता. विद्वान आधुनिकता को प्रौद्योगिकीय विकास से जोड़ते हैं. उनकी निगाह में बुलेट ट्रेन, सुपरसोनिक हवाई जहाज, संचारक्रांति के क्षेत्र में हुए तीव्र बदलाव—सब आधुनिकता की निशानियां हैं. इस आधार पर देखा जाए तो कलम–दवात छोड़कर फाउंटेन पेन पर आना, फिर फाउंटेन पेन छोड़ कंप्यूटर और लेपटाप की शरणागत होता—आधुनिकीकरण की ही मिसाल है. पर क्या यही आधुनिकता है? असल में ये आधुनिकता के आवरण हैं. ज्यादा से ज्यादा उसका समुत्पाद. मगर कई बार वे मानवीय गरिमा के प्रतिकूल आचरण करते दिखाई पड़ते हैं. उदाहरण के लिए ‘स्मार्टफोन’ को लें. उसमें तकनीक के स्तर पर जो स्मार्टनेस है, वह उसके उपभोक्ता में नहीं आ पाती. सुविधा के नाम पर ये फोन मानव–स्मृति और उसकी सामाजिकता पर जैसा हमला करते हैं, उसकी भरपाई किसी अन्य आधुनिक उपकरण द्वारा असंभव है. वे व्यक्ति के अकेलेपन का लाभ उठाते हैं तथा उसे और अधिक बढ़ावा देते हैं. जिससे उसका आत्मविश्वास घटता है. परिणामस्वरूप उनके निर्णय विवेक के बजाय भीड़ की मानसिकता से संचालित होने लगते हैं.
आधुनिकता का अभिप्राय वर्तमान और भूतकाल अथवा निकट–भूतकाल के बीच आए बदलाव से है. वह समाजेतिहासिक घटना है, जिसपर अपने समय के वैचारिक और प्रौद्योगिकीय आंदोलनों का प्रभाव पड़ता है. वह समय–सापेक्ष होने के साथ–साथ व्यक्ति–सापेक्ष भी होती है. यानी आधुनिकता के मायने सभी के लिए अलग–अलग हो सकते हैं. किसी फैशनपरस्त युवक के लिए जिसका वैचारिक आंदोलनों से कोई नजदीकी संबंध नहीं है, आधुनिकता का अभिप्रायः महज फैशन की दुनिया में आए बदलावों और उपभोक्ता वस्तुओं की नवीनतम खेप तक सीमित होगा. लेकिन जिसकी विचारों की दुनिया में रुचि है उसके लिए आधुनिकता के मायने कहीं व्यापक होंगे. वह उपभोक्ता बाजार, सभ्यता और संस्कृति के हालिया बदलावों के साथ–साथ उन कारकों पर भी विचार करेगा, जो उन बदलावों के मूल में हैं. ऐसे व्यक्ति के लिए आधुनिकता आंशिक नहीं हो सकती. वह ऐसी आधुनिकता को नकार देगा जिसमें व्यक्ति अत्याधुनिक डिजायन के कपड़े पहने, आधुनिकतम उपकरणों से लैस रहे, परंतु विचारों में पूरी तरह दकियानूसी हो जाएं. यह आवश्यक नहीं है कि केवल नए और मौलिक विचार ही आधुनिकता की श्रेणी में आएं. पुराने विचारों का नवीकरण अथवा नव–प्रस्तुतीकरण भी आधुनिकता की परिसीमा में आता है. आधुनिकता समग्रता में कैसे फलीभूत होती है. इसे जानने के लिए आधुनिक शब्द की उत्पत्ति पर विचार किया जाना आवश्यक है—
आधुनिक शब्द संस्कृत के अद्यः का विस्तार है. जिसका अर्थ है—आज, आजतक. अद्य से ही अद्यतन, अधुनातन शब्द बने हैं, जो आधुनिकता से ही संबंधित हैं. इस तरह आधुनिकता में वे सभी परिवर्तन, विकास–प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं, जिन्हें कोई समाज अपने अधिकतम सदस्यों की शुभता हेतु अपनाता है. आधुनिकता का अंग्रेजी पर्यायवाची modern प्राचीन लेटिन के शब्द modo से बना है. उसका अर्थ है—आज, आजतक, वर्तमानकालीन या समकालीन आदि. modo से ही उत्तरवर्ती लैटिन के शब्द modernus शब्द की उत्पत्ति हुई. जिससे modern शब्द बना है. इसका भावार्थ है, नएपन का सम्मान. कुछ विद्वान आधुनिकता को अठारहवीं शताब्दी के यूरोपीय पुनर्जागरण से जोड़ते हैं. यह वह समय था पश्चिम में नित–नए विचार आ रहे थे. लोकतंत्र, मानवाधिकार, व्यक्ति–स्वातंत्र्य, बराबरी, सामाजिक न्याय जैसे विचारों ने सामंतवाद, पौरोहित्यवाद आदि को अप्रासंगिक बना दिया था. नए विचारों ने मानव–मेधा को समृद्ध किया, वहीं लोगों में यह विश्वास पैदा किया कि दूसरों की आस्था का सम्मान करके ही अपने विश्वासों की रक्षा संभव है. कुल मिलाकर समानता और सहिष्णुता आधुनिकता की मान्य कसौटियां हैं. सभी के लिए न्याय और सामाजिक–आर्थिक राजनीतिक बराबरी. यदि समाज इन्हें मानने से इन्कार करता है, तो राज्य का कर्तव्य है कि इन मूल्यों की स्थापना के लिए आवश्यक विधान बनाए, ताकि असमानता और वर्ग भेद को मिटाया जा सके.
आधुनिकता की कसौटी पर आंबेडकर गांधी से आगे हैं. हालांकि थोरो, ऑस्कर वाइल्ड, एडबर्ड कारपेंटर के विचारों के प्रभाव में गांधी ने भारतीय राजनीति में अनेक प्रयोग किए. परंतु उनका परंपरावादी मन बार–बार उन्हें पीछे लौटने को बाध्य करता रहा. विशेषकर जाति और धर्म के सवालों को लेकर. उनके सापेक्ष आंबेडकर लोकतंत्र, समानता मानवाधिकार आदि का समर्थन करते हुए आधुनिकता की दौड़ में गांधी से आगे निकल जाते हैं. दोनों की चुनौतियां भी अलग–अलग थीं. गांधी को बस एक मोर्चे पर जूझना था. वह मोर्चा था, आजादी का. उनके लिए सुधारवादी आंदोलन राजनीतिक गतिविधियों हेतु समर्थन जुटाने के औजार थे. अंबेडकर के लिए सामाजिक आजादी का लक्ष्य स्वाधीनता के लक्ष्य से बड़ा था. गांधी भारतीय राजनीति दृढ़ता और शालीनता के प्रतीक थे. अंबेडकर जिस वर्ग से आते थे, वह भारत में सहस्राब्दियों से उत्पीड़न का शिकार होता आया था. इस कारण उनके विचारों में स्वाभाविक उग्रता थी. लेकिन उसका स्तर कहीं पर भी अशालीन नहीं था. भारतीय राजनीति में डॉ. भीमराव आंबेडकर का उदय एक युगांतरकारी घटना है. इसलिए उस युग को हम भारतीय राजनीति का प्रबोधनकाल भी कह सकते हैं. उस समय के जितने भी बड़े नेता थे, उनमें कदाचित आंबेडकर ही ऐसे थे, जो नए राजनीतिक दर्शनों से इत्तफाक रखते थे और बिना किसी हिचक के उन्हें स्वतंत्र भारत में अपनाना चाहते थे. उनका अध्ययन विशद् था. हालांकि उन्हें आरंभिक प्रसिद्धि सामाजिक न्याय के हित में किए गए आंदोलनों के कारण मिली. उन कार्यक्रमों की वजह से मिली, जो उन्होंने दलितों और अस्पृश्यों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए चलाए थे. वही उनकी प्राथमिकता भी थी. उसके पीछे उनके जीवन के कटु अनुभव भी थे. उच्च–शिक्षित होने के बावजूद उन्हें जाति के कारण अनेक दुर्व्यवहारों का सामना करना पड़ा था. वे समझ चुके थे कि यदि उन जैसे पढ़े–लिखे व्यक्ति को जातिवाद का कलंक इतना त्रास दे सकता है तो गरीब, विपन्न दलितों के साथ सवर्णों के दुर्व्यवहार की तो केवल कल्पना ही की जा सकती है. इसलिए पढ़ाई पूरी कर, भारत लौटते ही उन्होंने दलितों में सामाजिक चेतना जगाने को अपना लक्ष्य मान लिया था.
आंबेडकर पर विदेशी विचारकों के साथ–साथ भारतीय चिंतकों का भी प्रभाव था. कबीर, रैदास, ज्योतिबा फुले की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने धर्म की पुनरीक्षा के काम को संभाला और हिंदू धर्म की दुर्बलताओं को तरह–तरह से सामने लाए. इस तरह उन्होंने वह काम किया जो फ्रांस में वाल्तेयर ने किया था. उन्होंने लोगों को समझाया कि हिंदू धर्म और जातिवाद का नाभिनाल का संबंध है. दोनों एक–दूसरे को पूजते–पोषते हैं. इसलिए जातिवाद की समस्या से मुक्ति प्राप्त करनी है तो हिंदूधर्म से मुक्ति अत्यावश्यक है. राजनीतिज्ञ धर्म और जाति दोनों को पोषते हैं. ताकि वे अपनी नीयत और शासन की असफलताओं को ईश्वरीय विधान की आड़ में छिपा सकें. धर्म और जाति के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण के कारण वे सवर्णों के निशाने पर भी रहे. परंतु आंबेडकर के पांडित्य को देखते हुए किसी की हिम्मत उनपर सीधा प्रहार करने की न थी. वे जान चुके थे कि आंबेडकर को केवल समझौते से ही रोका जा सकता है. ब्राह्मणों–पुरोहितों के लिए यह कोई नया काम न था. वे अवसरानुकूल अपनी नीतियों में फेरबदल करने के माहिर रहे हैं. स्थितियां प्रतिकूल हों तो अपने अंग–प्रत्यंगों को कछुए की भांति समेटकर शांत पड़े रहना फिर अनुकूल हालात देखते ही भेड़िये की भांति आक्रामक दिखना उनकी पुरानी चाल रही है. लेकिन जिस समय वे शांत दिखते हैं, उस समय भी पूरी तरह शांत नहीं होते. बल्कि शांत रहकर हालात को अपनी ओर मोड़ने की कोशिश कर रहे होते हैं. आंबेडकर की प्रतिष्ठा और सम्मान को देखते हुए उन्होंने समझौते के प्रयास शुरू कर दिए थे. ‘जाति–पांत तोड़क मंडल की सभा की अध्यक्षता के लिए डॉ. आंबेडकर को आमंत्रित करने के पीछे उनकी यही चाल थी. वह सम्मेलन कभी हो न सका. आयोजकों ने उसे हमेशा के लिए स्थगित कर दिया था. वे चाहते थे कि आंबेडकर अध्यक्ष पद से जाति प्रथा पर भले ही सवाल उठाएं परंतु वेदों के आगे कोई प्रश्न–चिह्न न लगाएं. आंबेडकर का मानना था कि यदि ऋग्वेद को वर्ण–व्यवस्था का प्राचीनतम स्रोत माना जाता है, तो उसपर सवाल उठाए जाने लाजिमी हैं. उस अवसर पर आंबेडकर ने जो भाषण तैयार किया था, वह संशोधित रूप में प्रकाशित हुआ. अपने लेख में डॉ. आंबेडकर में जातिप्रथा के संपूर्ण उन्मूलन का समर्थन किया था. वह लेख ‘जातिप्रथा का उच्छेद’ नाम से ख्यात है. जाति–व्यवस्था की विकृति को समझाने वाली कदाचित सबसे प्रामाणिक कृति मानी जाती है.
पुस्तक में उन्होंने माना है कि जाति–व्यवस्था का मूल हिंदू धर्म में पसरा हुआ है. इसलिए यदि जाति–व्यवस्था का उच्छेद करना है तो धर्म का उच्छेद भी लाजिमी है. आंबेडकर चाहते थे कि दलित राजनीति में अधिक से अधिक हिस्सा लें, ताकि उनमें अधिकार चेतना और संघर्ष की भावना उत्पन्न हो सके. गांधी और समकालीन नेताओं तथा आंबेडकर के कार्यार्ं में मूलभूत अंतर भी यही है. गांधी, नेहरू, पटेल सहित उस समय के सभी प्रमुख नेताओं के लिए राजनीति प्रमुख थी. वे शासक जातियों से आए थे. और अंग्रेजों द्वारा सत्ता हस्तांतरण की स्थिति में स्वयं को उसका स्वाभाविक दावेदार मानते थे. गांधी अवश्य सामाजिक सरोकारों की बात करते थे. इसलिए उन्होंने कांग्रेसी नेताओं को चुनाव के उपरांत कांग्रेस को भंग करने की सलाह दी थी. उस समय गांधी या तो खुद भुलावे में था, अथवा दूसरों को भुलावे में रखना चाहते थे. जबकि आंबेडकर ने 1936 में ही कह दिया था—
‘भारत में समाज सुधार का मार्ग स्वर्ग के समान दुरूह है. इस कार्य में अनेक कठिनाइयां हैं. भारत में समाज सुधार के कार्य में सहायक मित्र कम और आलोचक अधिक हैं. आलोचकों के दो स्पष्ट वर्ग हैं. एक वर्ग राजनीतिक सुधारकों का है. दूसरे में समाज सुधारक शामिल हैं.’
आंबेडकर ने विपुल साहित्य लेखन किया. उनकी पुस्तकें ‘जाति का उन्मूलन’ तथा ‘शूद्र कौन थे’ भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर सवाल खड़े करती हैं. इन पुस्तकों के माध्यम से वे हिंदू समाज की विकृतियों को सामने लाते हैं. दर्शाते हैं कि वर्ण–श्रेष्ठता का दावा करते हुए शिखर पर मौजूद आठ–दस प्रतिशत लोग किस प्रकार बाकी लोगों के मूल–भूत अधिकारों का हनन करते आए हैं. कैसे शोषण को शौर्य की संज्ञा देकर उन्होंने बाकी जनसमाज का लगातार उत्पीड़न किया है. इसके पीछे हिंदू समाज का अलोकतांत्रिक रवैया है. उसकी बुराइयों से सामाजिक–राजनीतिक और आर्थिक लोकतंत्र के माध्यम से निपटा जा सकता है. आंबेडकर उन लोगों में से थे जो गणतंत्र की तमाम कमजोरियों के बावजूद उसे दुनिया–भर की ज्ञात राजनीतिक प्रणालियों में सर्वोत्तम मानते आए हैं. इसलिए संविधान बनाते समय उन्होंने गणतंत्र को ही स्वतंत्र भारत के राजदर्शन के रूप में चुना. गांधी तथा गांधीवाद के प्रमुख सिद्धांतकारों को बहुमत का विचार ही अटपटा लगता था. विनोबा को यह जानकर विचित्र लगता था कि संविधान में नेहरू और उनके खानसामा दोनों के लिए एक ही वोट का प्रावधान है. ‘हिंद स्वराज’ जिसे प्रभाष जोशी पूर्वाग्रहवश रूसो के ‘सोशल कांट्रेक्ट’ तथा मार्क्स के ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ जैसी क्रांतिकारी पुस्तक बताते थे, असल में प्रतिगामी दर्शन का दस्तावेज है, जिसे गांधी के समकालीनों ने ही नकार दिया था. इस पुस्तक में गांधी इंग्लेंड की संसद को ‘बांझ और बेसवा’ कहकर संसदीय लोकतंत्र पर सवाल उठाते हैं. बहुमत का निर्णय उन्हें ‘अनीश्वरी बात’ लगता है—‘ज्यादा लोग जो कहें उसे थोड़े लोगों को मान लेना चाहिए यह तो अनीश्वरी बात है. एक वहम है.’ ‘हिंद स्वराज’ को पढ़कर कोई भी यह समझ सकता है कि गांधी के लिए ‘न्याय’ और ‘समानता’ कोई मूल्य न थे. वे बीसवीं शताब्दी में भारत का नेतृत्व कर रहे थे, परंत उनका सोच अठारवीं शताब्दी के सुधारवादियों से अलग न था. वे समाज को शासक और शासित के रूप में बांटकर देखने के अभ्यस्त थे. इसलिए उन्हें सदैव किसी उद्धारक की तलाश रहती थी—‘जितना समय और पैसा पार्लियामेंट खर्च करती है, उतना समय और पैसा अच्छे लोगों को मिले तो प्रजा का उद्धार हो जाए.’ गांधी के अनुसार निगाह में ‘अच्छे लोग’ वही हैं, जिनका पीढ़ी–दर–पीढ़ी सत्ता और संसाधनों पर कब्जा रहा है. जो कभी धर्म तो कभी जाति के नाम पर जनसाधारण को बरगलाते आए हैं. यह एक प्रकार का कुलीनतावाद है जो कुछ लोगों को जन्म के आधार पर, धर्म के आधार पर विशेषाधिकार संपन्न बनाता है. आंबेडकर इसी से दलितों और पिछड़ों की मुक्ति चाहते थे, जबकि गांधी वर्ग–भेद और वर्ण–भेद दोनों के समर्थक थे. उन्हें ईश्वरीय मानकर किसी न किसी रूप में बचाए रखना थे. आंबेडकर का लोकतंत्र में विश्वास था. वे मानते थे कि समाज में जैसे–जैसे लोकतांत्रिक चेतना का विकास होगा, शताब्दियों से धर्म और सामंती संस्कारों में बंधे लोग उसके चंगुल से बाहर आने लगेंगे. उन्होंने जोर देकर कहा था—
‘लोकतंत्र ऐसी शासन पद्धति है, जिसमें लोगों के सामाजिक–आर्थिक जीवन में खून की एक बूंद बहाए बिना भी क्रांतिकारी परिवर्तन लाया जा सकता है.’
लोकतंत्र की खूबी उसके बहुआयामी होने में है. राजनीति के क्षेत्र में वह तभी कामयाब हो सकता है, जब उनकी समान उपस्थिति आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में भी हो. इस बारे में आंबेडकर हेराल्ड लॉस्की के प्रशंसक थे. उसका कहना था कि बिना नैतिकता के आश्रय के लोकतंत्र अधूरा है. लॉस्की न्याय और नैतिकता को परस्पर पर्यायवाची मानता था. उसके अनुसार सत्ता से दूर रहने वाले या उसके महत्त्व को किसी भी रूप में नजरंदाज करने वाले लोग, स्वभावतः दूसरों के अनुगामी बन जाते हैं. इससे निर्णय लेने की उनकी योग्यता का हृस होता है. नतीजन वे दूसरों के अनुसरण को ही अपना कर्तव्य मान बैठते हैं. आगे चलकर वे न केवल अपनी क्षमताओं का आकलन करने में गलती करने लगते हैं, बल्कि उन्हें अपनी शक्ति और अच्छाइयों को लेकर भी संदेह होने लगता है. जनसाधारण की सत्ता–विमुखता का परिणाम यह होता है कि शिखर पर विराजमान लोग सत्ता–भोग को अपना अधिकार मान, वहीं बने रहने के लिए ऊल–जुलूल तर्कों का सहारा लेने लगते हैं. समाज में न्याय की उपस्थिति के लिए आवश्यक है कि सरकार उन लोगों को जो समाज में किसी भी प्रकार की उपेक्षा या वंचना का शिकार हैं, विशेष प्रोत्साहन देकर आगे लाए. ऐसा वातावरण उत्पन्न करे जिसमें उनकी अधिकतम उत्पादकता और मान–रक्षा संभव हो सके. राज्य की स्थापना का उद्देश्य भी यही है—
‘साधारण मनुष्य के व्यक्तित्व को रचनात्मक बनाने के लिए आवश्यक है कि ऐसी परिस्थितियां पैदा की जाएं जिनमें नागरिकों की रचनात्मकता का अधिकतम उपयोग हो सके. यह तभी संभव है जब साधारण से साधारण व्यक्ति यह अनुभव करे कि समाज में उसकी कुछ सार्थकता है. इसे स्वतंत्रता और समानता की अनुपस्थिति में प्राप्त करने की आशा हम नहीं कर सकते.’ (राजनीति के मूल तत्व—हेरॉल्ड लॉस्की)
सामाजिक न्याय एवं समानता के लक्ष्य की सिद्धि केवल सहभागी लोकतंत्र द्वारा संभव है. आंबेडकर के अनुसार लोकतंत्र कोरी राजनीतिक प्रणाली नहीं है. वह जीवन–पद्धति है. वह तभी सफल हो सकता है, जब लोग उसे अपने आचरण का हिस्सा बना लें. तभी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक शुचिता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है. आंबेडकर का मानवतावादी सोच उन्हें बेहतर इंसान और बड़ा नेता बनाता है. वे मुख्यतः जिन लोगों के नेता थे, उनमें लगभग सभी अशिक्षित थे. गरीबी और बदहाली के शिकार. इतने बदहाल कि उनके लिए अवसरों की समानता का विचार भी महत्त्वहीन था. आंबेडकर जानते थे कि चमत्कारवश यदि भारत में सभी को बराबर मान लिया गया तो भी समाजार्थिक आधार पर पिछड़ चुके लोग, पिछड़े ही रहेंगे. इसलिए सामाजिक न्याय की भावना के अनुसार उन्होंने दलितों और पिछड़ों के लिए विशेष अवसरों की मांग रखी. सदियों से दमन का शिकार लोगों को उन्होंने समझाया—‘शिक्षा शेरनी का दूध है. जो भी पीता है, दहाड़ने लगता है’—इसलिए शिक्षित बनो. लोकतंत्र में संख्याबल महत्त्वपूर्ण होता है. सरकारें जनता की इच्छानुसार बनती–बिगड़ती हैं. उसके लिए लोगों का संगठित रहना आवश्यक है. शताब्दियों से दूसरों के अधिकारों पर कुंडली मारे शीर्षस्थ अभिजन, संसाधनों में हिस्सेदारी के लिए आसानी से तैयार नहीं होंगे. अपना दैन्य दूसरों के टाले नहीं टलता. मुक्ति के लिए खुद प्रयत्न करना पड़ता है. अतएव अपने अधिकारों के लिए, मान–सम्मान और अस्मिता के लिए, अपनी और आने वाली पीढ़ियों की खुशहाली के लिए—संघर्ष करो. उनके अनुयायियों ने भी ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो.’ को अपना जीवन–मंत्र मान लिया. गांधी–दर्शन में व्यक्ति–स्वातंत्रय और समानता के लिए कोई स्थान नहीं है. समाज को ऊंच–नीच में बांटने वाला वर्ण–विधान ही उनके लिए सर्वोच्च है. असमानता से गांधी को तब तक कोई शिकायत न थी, जब तक शिखर पर बैठे लोग अनुदार न हों. इसलिए वे सवर्णों से कथित ‘हरिजनों’ के प्रति सदय होने की अपेक्षा रखते हैं. प्रकारांतर में वे दीन को भी बनाए रखना चाहते थे और दीनानाथ को भी. उससे अल्पावधि सुधार के अलावा हालात में बहुत अंतर पड़ने वाला नहीं था. कदाचित इसीलिए 26 जनवरी 1929 को ‘संघ और स्वाधीनता’ विषय पर दिए गए भाषण में आंबेडकर ने गांधी युग को भारतीय इतिहास का ‘काला अध्याय’ घोषित किया था—
‘मुझे इस बात में कतई संदेह नहीं है कि गांधीयुग भारत के इतिहास का काला अध्याय है. यह वह समय है जब भारत की जनता अपने आदर्श, अपने भविष्य की ओर देखने के बजाए बार–बार पीछे मुड़कर अतीत में झांकने लगती है.’
आंबेडकर का कहा आज सच दिख रहा है. गांधी के नेतृत्व और परिस्थितियों के चलते देश को राजनीतिक स्वतंत्रता मिली. किंतु जिस सामाजिक स्वतंत्रता की मांग आंबेडकर आजीवन करते रहे, वह आज भी स्वप्न है. भारतीय समाज का वह हिस्सा जो वर्ण–व्यवस्था से लाभान्वित होता आया है, येन–केन–प्रकारेण उसे बनाए रखना चाहता है. यूं तो गांधी ने भी सामाजिक एकता और समरसता के लिए कार्यक्रम चलाए. सांप्रदायिक एकता के क्षेत्र में तो उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली. लेकिन आंबेडकर की प्राथमिकताएं और सोचने का ढंग उनसे अलग था. इस अंतर को धर्म की कसौटी पर भी परखा जा सकता है. गांधी के लिए धर्म पहले था. मनुष्य बाद में. उनके लिए इंसानियत धर्म से परे कुछ न थी. व्यक्त तौर पर वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे. लेकिन कुछ भी होने से पहले वे एक हिंदू थे. हिंदू धर्म और जाति–व्यवस्था दोनों अस्थि–मज्जा की तरह एक–दूसरे पर निर्भर है, संकट के समय दोनों एक–दूसरे को साधते हैं—इस तथ्य को जानकर भी वे अनजान बने रहते थे. जबकि जाति आंबेडकर के लिए हिंदू धर्म की विकृति थी. ऐसी विकृति जो उसके उद्भव से ही उससे चिपकी हुई है. इस कारण वे उसकी खुली आलोचना करते थे. उनके लिए मनुष्य पहले था. धर्म का नंबर इंसानियत के बाद आता था. धर्म का ध्येय इंसानियत का पोषण करना है. इसलिए जो धर्म समानता, स्वतंत्रता और सौहार्द का समर्थन न करे, उसे वे मानने से इन्कार करते थे. वे चाहते थे कि दमित वर्ग किसी भी प्रकार के अंधानुकरण से बचे. धर्म और सांस्कृतिक प्रतिमानों के प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाए. चालबाज पंडितों के बहकावे में आने के बजाय अपने निर्णय स्वयं लेना सीखे. धर्म और आडंबर में फर्क को समझे. दलितों का आवाह्न करते हुए उन्होंने कहा था—
‘तुम्हारी मुक्ति का मार्ग न तो धर्मशास्त्र हैं, न ही मंदिर. तुम्हारा वास्तविक उद्धार उच्च शिक्षा, ऐसे रोजगार जो तुम्हें उद्यमशील बनाएं, श्रेष्ठ आचरण एवं नैतिकता में निहित है. इसलिए तीर्थयात्रा, व्रत–पूजा, ध्यान–आराधन, आडंबरों और कर्मकांडों में अपना बहुमूल्य समय व्यर्थ मत जाने दो. धर्मग्रंथों का अखंड पाठ करने, यज्ञाहुति देने तथा मंदिरों में माथा टेकने से तुम्हारी दासता दूर नही होगी. न गले में पड़ी तुलसी–माल तुम्हारे लिए विपन्नता से मुक्ति का सुख–संदेश लेकर आएगी. और काल्पनिक देवी–देवताओं की मूर्तियों के आगे नाक रगड़ने से भुखमरी, दुख–दैन्य एवं दासता से भी तुम्हारा पीछा छूटने वाला नहीं है. इसलिए अपने पुरखों की देखा–देखी चिथड़े मत लपेटो. दड़बे जैसे घरों में मत रहो. मत इलाज के अभाव में तड़फ–तड़फ कर जान गंवाओ. भाग्य और दैव–भरोसे रहने की आदत से बाज आओ. तुम्हारे अलावा कोई तुम्हारा उद्धारक नहीं है. खुद तुम्हें अपना उद्धारक बनना है. धर्म मनुष्य के लिए है. मनुष्य धर्म के लिए नही है. जो धर्म तुम्हें मनुष्य मानने से इन्कार करता है, वह अधर्म है. धर्म के नाम पर कलंक है. जो ऊंच–नीच की व्यवस्था का समर्थन करे, आदमी–आदमी के बीच भेदभाव को बढ़ावा दे, वह धर्म हो ही नहीं सकता. असल में वह तुम्हें गुलाम बनाए रखने का षड्यंत्र है.’
हिंदू धर्म से पूरी तरह निराश आंबेडकर ने बौद्ध धर्म को विकल्प के रूप में चुना था. कदाचित यह उनकी मजबूरी थी. रूसो, वाल्तेयर, बैंथम, थामस पेन, जॉन स्टुअर्ट मिल, लॉस्की आदि जिन विचारकों से वे प्रभावित थे, वे या तो धर्म को अनावश्यक मानते थे, अथवा धर्म उनके लिए केवल व्यक्तिगत आस्था का विषय था! आंबेडकर के लिए धर्म किसी आध्यात्मिक जिज्ञासा की पूर्ति तक सीमित नहीं था. वे धर्म के संगठन–सामर्थ्य को समझते थे तथा उसे नागरिक समाज की नींव मानते थे. बर्क को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा था—‘सच्चा धर्म समाज की नींव है, जिसपर सब नागरिक सरकारें टिकी हुई हैं’(जाति का उन्मूलन, डॉ. भीमराव आंबेडकर). वस्तुतः जिन लोगों का वे नेतृत्व करते थे उनके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म का किसी न किसी प्रकार का हस्तक्षेप था. धर्म–विहीन जीवन की कल्पना भी उनके लिए असंभव थी. आंबेडकर के सामने बड़ा सवाल था कि हिंदू धर्म नहीं तो क्या? बौद्ध धर्म को अपनाने से पहले उन्होंने लगभग सभी लोकप्रिय धर्मों पर विचार किया था. वे समझते थे कि कोई भी धर्म विकृतियों से अछूता नहीं है. प्रत्येक की शुरुआत सामान्य शुभता से होती है. समाज की भलाई के लिए कुछ नियम बनाए जाते हैं. यह मानते हुए कि उन नियमों के अनुपालन में ही सबका कल्याण है, सदस्यों की सामान्य सहमति के बाद उन्हें सामाजिक आचार–संहिता का हिस्सा बना दिया जाता है. लोकभाषा में वही धर्म कहलाता है. कालांतर में उसके साथ दूसरे मिथ, प्रतीकादि जुड़ते चले जाते हैं. सामाजिक आचार–संहिता का पालन सभी लोग समान निष्ठा के साथ करें, यह आवश्यक होने पर भी संभव नहीं हो पाता. इसलिए समय के साथ प्रत्येक धर्म में क्षरण का दौर आता है. उसके लिए सामाजिक असमानता का तरह–तरह से पोषण करने वाले शीर्षस्थ प्रवर्त्तक ज्यादा जिम्मेदार होते हैं. वे धर्म के नाम पर अपने लिए विशेषाधिकारों की मांग रखते हैं. परिणामस्वरूप जिन समतावादी मूल्यों के निमित्त धर्म का जन्म होता है, वह धूमिल पड़ने लगता है. प्रकारांतर में वह दिखावे की वस्तु बनकर रह जाता है.
क्रमश:……..
© ओमप्रकाश कश्यप
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