[बेहद साधारण परिवार में जन्मे विलियम किंग की ईसाई धर्म में पूरी आस्था थी. वह अत्यंत उदार, संवेदनशील और दूसरों की मदद करने वाला इंसान था. परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए उसने डा॑क्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण की. उस समय यदि वह चाहता तो किसी विकसित शहर में क्लीनिक खोलकर खूब कमाई कर सकता था, वे समस्त सुविधाएं जुटा सकता था, जिन्हें उन दिनों ब्रिटेन के उच्च-मध्यम वर्ग की शान समझा जाता था. किंतु यह सब करने के बजाय उसने लोककल्याण का रास्ता चुना, और अपना पूरा जीवन उसी को समर्पित कर दिया. उसने ब्रिझटन नामक कस्बे को अपना कार्यक्षेत्र बनाया, जो उन दिनों तेजी से औद्योगिक शहर के रूप में ढलता जा रहा था, वहां बड़ी संख्या गरीब मजदूर और कारीगर निवास करते थे. किंग ने उनके जीवन को करीब से देखा था. उसने अपने पेशे को सेवा का माध्यम बनाया. जिन मजदूरों के तन पर कपड़ा, पेट को रोटी नहीं होती थी, ऐसे मजदूरों का वह न केवल निःशुल्क उपचार करता, बल्कि उन लोगों को आत्मकल्याण हेतु संगठित होने की प्रेरणा भी देता था. गरीब मजदूरों के कल्याण के लिए उसने समितियां बनाईं, समाचारपत्र निकाला. और श्रमपूर्वक कमाई गई अपनी समस्त पूंजी मजदूरों के कल्याण में लगा दी. उसका सूत्रवाक्य था—‘एकता बिना संगठन नि:शक्त : विवेक बगैर एकता व्यर्थ.’* अपने समकालीन प्रूधों, फ्यूरियर की तरह मौलिक विचारक न होते हुए भी सहकारिता और समाजवादी विचारधारा को जनमानस में लोकप्रिय बनाने वाले विद्वान मनीषियों में विलियम किंग का योगदान अविस्मरणीय है. {*Numbers without union are powerless. And union without knowledge is useless.—ओमप्रकाश कश्यप}]
किंग ग्यारहवीं शताब्दी के प्रखर विचारक पीटर अबेला॓र्ड ने लिखा है—
‘संदेह के द्वारा हम जांच-पड़ताल तक पहुंचते हैं, और जांच-पड़ताल हमें सचाई की तह तक ले जाती है.’
आदिकाल में भी संदेह की प्रवृत्ति ही थी, जिसने मनुष्य के लिए ज्ञान के अनगिनत दरवाजे खोले, उसके लिए विकास के नए अवसर उपलब्ध कराए, जिससे वह एक के बाद प्रकृति के रहस्यों से पर्दा हटाता गया. उसी के आधार पर सभ्यता की नींव रखी गई, देवी-देवताओं, पीर-पैगंबरों को गढ़ा गया. ज्ञान-विज्ञान फलस्वरूप धर्म एवं राजनीति पर केंद्रित सत्ताओं का जन्म हुआ. नई व्यवस्थाएं और नियम बनाए गए. संदेह की प्रवृत्ति जैसी हो, जैसा कौतूहल हो वैसा ही ज्ञान का उद्भव होता है. सभ्यता के आरंभ में मनुष्य के मन में प्रकृति और जीवन-जगत के रहस्यों से पर्दा हटाने की आकुलता थी, इसलिए वह प्रकृति की प्रत्येक घटना को कौतूहल और संदेह की दृष्टि से देखता था. संयोगों के बीच तालमेल बिठाकर वह नई-नई परिकल्पनाएं करता, फिर उनके बीच तादात्म्य के आधार पर नई स्थापनाएं भी गढ़ लेता था.
सभ्यता के क्रम में जब उसने छोटे-बड़े का भेद, ऊंच-नीच का अंतर, मान-मयार्दाओं में असमानता और धार्मिक-आर्थिक आधार पर मनुष्य को अनेक खानों में बंटे हुए पाया, तो मानव-मस्तिष्क में उनके कारणों को जानने की आकुलता बढ़ी. जब उसने पाया कि सभ्यता को सुचारू रूप से चलाने के लिए उसने जो नियम बनाए थे, जिन सामाजिक संबंधों के द्वारा वह सभ्यता को स्थायित्व प्रदान का सपना पाले हुए था, जिन व्यवस्थाओं को उसने अपनी सुख और शांति की खातिर गढ़ा था, उन्हीं का सहारा लेकर समाज का एक वर्ग शिखर पर जा बैठा है; और अब अपनी स्थिति का अनुचित लाभ उठाते हुए वह वर्ग मनमानी पर उतारू है, कहीं वह दूसरों के अधिकारों का हनन कर रहा है, कहीं लूट-खसोट में लगा हुआ है. दूसरा वर्ग पहले के अन्याय-उत्पीड़न से दबा मुक्ति के लिए छटपटा रहा है, उसकी स्थिति दयनीय है. रात-दिन खटने के बावजूद वह अपने परिवार के लिए भरपेट भोजन का इंतजाम करने में असमर्थ है. अपने कल्याण के लिए कभी वह किसी महापुरुष की ओर देखता है तो कभी किसी देवता के अवतरण की प्रतीक्षा करने लगता है, इस बोध के साथ ही व्यवस्थाओं में संशोधन की जरूरत महसूस की जाने लगी. व्यवस्थाओं में संशोधन किसी एक क्षेत्र अथवा कालखंड विशेष की घटना नहीं है. बल्कि सभ्यता के प्रारंभ में ही, शायद व्यवस्थाओं की स्थापना के साथ ही उनमें सतत संशोधन भी होता रहा है. हालांकि संशोधन की डगर कभी आसान नहीं रही. हर संशोधन को अपने समय में व्यवस्था का सिरमौर बनी शक्तियों से टकराना ही पड़ता है हर युग, हर समय और हर देशकाल में यह होता रहा है. पंद्रहवीं शताब्दी में जब विज्ञान का प्रस्फुटन हुआ तो धर्म को अपनी सत्ता खतरे में नजर आने लगी इसलिए धर्मसत्ता के शिखर पर सर्वेसर्वा बनकर बैठी शक्तियों ने स्वयं को और अधिक सिकोड़ना प्रारंभ कर दिया. यह घटना किसी न किसी रूप पूरी दुनिया में हुई, लेकिन उसका प्रभाव प्रत्येक देश की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न रहा यूरोपीय देशों में मार्टिन लूथर की चुनौती के साथ वर्चस्ववाद से मुक्ति का संघर्ष सामने आया जिसे बाद में उसके अनुयायियों ने नई दिशा दी.
सतरहवीं शताब्दी में मशीनीकरण ने एक बार पुनः उत्पादन व्यवस्था में बदलाव कर क्रांति का सूत्रपात किया. जिससे पूंजी का केंद्रीयकरण होने लगा उत्पादन बड़े-बड़े कारखानों तक सिमटकर रहने लगा, जिन्हें लगाने के लिए बहुत अधिक पूंजी की आवश्यकता थी. इसलिए किसी न किसी बहाने सत्तासुख भोगते आए लोग अपने संसाधनों के दम पर आर्थिक सत्ता के शिखर पर छाने लगे. आमजन एक बार फिर तबाही की कगार पर पहुंचने लगा. पूंजी के साम्राज्य में आम आदमी की अस्मिता को बचाए रखने के लिए बड़े-बड़े विद्वान सिर खपाने लगे. चूंकि उत्पादन व्यवस्था के लिए बहुत अधिक पूंजी की आवश्यकता थी, अतः सहकार का विचार दिमाग में आया और उसके प्रयोग को आगे बढ़ाने के लिए उद्योगपतियों के बीच से ही एक व्यक्ति आगे निकला वह था—राबर्ट ओवेन. ओवेन ने सहकारी आंदोलन का सूत्रपात किया, किंतु आजीवन कोशिश तथा तमाम संसाधनों को झोंक देने के बाद भी उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई थी. कारण संभवतः यह रहा कि समाज के बाकी लोगों, जिनसे वह सहकार की अपेक्षा रखता था, जिनके माध्यम से आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहता था और कदाचित जिन्हें उसकी सर्वाधिक आवश्यकता भी थी, उनका विश्वास जीत पाने में वह असमर्थ रहा था. उसकी मिल में काम करने वाले मजदूरों तथा सामान्यजन के मन में भी उसको लेकर किंचित संदेह की स्थिति बनी रही. दूसरी ओर मार्क्सवादी विद्वानों ने ओवेन, ब्लैंक, विलियम किंग आदि साहचर्य समाजवदियों की आलोचना करते हुए आरोप लगाया था कि उनके द्वारा दिखाया गया समाजवाद का सपना सिर्फ एक कल्पनालोक था. एक और बात जो ओवेन की सफलता के आड़े आई वह यह थी कि वह स्वयं एक उद्योगपति पहले था अपने कारखानों में कार्यरत मजदूरों की स्थिति में सुधार के लिए उसने जितने भी कदम उठाए, उनसे उसके मुनाफे में कल्पनातीत वृद्धि हुई थी. इससे यह संकेत भी गया कि उसके द्वारा चलाया जाने सुधारवादी आंदोलन महज उसकी उत्पादन नीति का हिस्सा था. ओवेन के कारखानों में अपेक्षाकृत पुरानी तकनीक पर आधारित मशीनें लगी थीं, उन्हें चलाने के लिए अधिक श्रम की आवश्यकता पड़ती थी इसके बावजूद वही कारखाने मुनाफा उगल रहे थे अतएव ओवेन के आलोचकों को यह कहने का अवसर भी मिल गया कि ओवेन द्वारा मजदूर-कल्याण के नाम पर उठाए जा रहे सभी कदम, उसके कारखानों में स्थापित पुरानी तकनीक से युक्त मशीनों से ध्यान हटाने की कोशिश हैं, जो अधिक मेहनत की मांग करने के कारण श्रम-विरोधी है.
ओवेन के सुधारवादी प्रयासों का सर्वाधिक प्रभाव उन्हीं के समकालीन समाज सुधारक डा॓क्टर विलियम किंग (अप्रैल 17, 1786 – अक्टूबर 19, 1865) पर पड़ा किंग हालांकि कई मामलों में ओवेन से भिन्न विचार रखते थे; जैसे कि ओवेन की धर्म में जरा भी आस्था नहीं थी. वह नैतिकता तथा सदाचरण को धर्म से अधिक महत्त्व देता था. हालांकि जीवन के अतिंम वर्षों में ओवेन के सोच में बदलाव आया था, मगर उसका लंबा सफर उसने बिना किसी धार्मिक आस्था के तय किया था दूसरी ओर किंग समाज में नैतिकता की स्थापना के लिए धर्म को अनिवार्य मानता था आस्थावादी सोच और पृथक राजनीतिक चेतना के बावजूद वह सहकारिता को सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम मानता था. ओवेन से प्रेरणा लेते हुए किंग ने सहकारी संस्थाएं बनाईं, सहकारिता के प्रचार-प्रसार के लिए ‘दि को-आ॓परेटर’ नामक समाचारपत्र का प्रकाशन किया, जिसने सहकारिता के विचार को आमजन तक पहुंचाने का काम किया. पेशे से एक उदारवादी फिजीशियन डा॓क्टर विलियम किंग का जन्म अप्रैल 17, 1786 को इंग्लैंड के उत्तर-पूर्व में स्थित इप्सविच(Ipswich) नामक कस्बे में हुआ था. पिता का नाम था, जा॓न किंग(Rev. John King). उनका परिवार यार्कशायर का रहने वाला था. ईस्विच आने के पश्चात उसके पिता ने वहां व्याकरण की पाठशाला खोल ली थी. किंग की प्रारंभिक शिक्षा उसी पाठशाला में हुई आगे के अध्ययन के लिए उसने 1809 आ॓क्सफोर्ड विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया स्नातक की परीक्षा उसने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से 1812 उत्तीर्ण की बचपन से ही विलियम किंग की अध्यात्म में रुचि थी. प्रारंभ में चर्च के लिए कार्य करना चाहता था, किंतु वहां अपनी कुछ असहमतियों के कारण उसने इरादा बदल दिया और आगे के अध्ययन के लिए पेरिस चला गया. जहां से उसने 1819 में चिकित्सा की डिग्री प्राप्त की. का॓लिज के समय से ही उसने अपनी अध्ययनशीलता से लोगों को प्रभावित करना प्रारंभ कर दिया था. सन 1820 में कैंब्रिज से चिकित्सा के क्षेत्र में परास्नातक की परीक्षा पास करने के साथ ही उसको रा॓यल का॓लिज आ॓फ फिजिशियनस की फैलोशिप मिल गई. उससे अगले ही वर्ष उसने डा॓. हूकर की बेटी से विवाह किया उसके पश्चात वह ब्रिझटन(Brighton) चला आया. वहां उसने 1823 में एक क्लीनिक की स्थापना की स्थानीय लोगों को अपनी सेवाएं प्रदान करने लगा. भौगोलिक स्थिति अनुकूल होने के कारण ब्रिझटन पर प्रकृति पूरी तरह मेहरबान थी. वह पर्यटनस्थल के रूप में तेजी से विकसित होता जा रहा था. प्राकृतिक वातावरण अनुकूल होने के कारण वहां दूर-दूर से सैलानी आते थे, जिनमें से बड़ी संख्या उन धनवान व्यक्तियों की होती थी, जो स्वास्थ्य लाभ के कामना से वहां पहुंचते थे. हालांकि ब्रिझटन के मूल निवासी भले और गरीब थे, मगर सैलानियों के कारण वह कस्बा तेजी से विकास करता जा रहा था.
कुछ ही समय में डा॓. किंग का क्लीनिक चलने लगा उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ने लगी. बावजूद इसके वह असंतुष्ट रहता था, अपने आप से, समाज से और व्यवस्था से भी समाज के भले के लिए कुछ नया करने की चाह उसके मन में हमेशा बलवती रहती थी. धीरे-धीरे उसने समाज सुधार की गतिविधियों में हिस्सा लेना प्रारंभ कर दिया ब्रिझटन के गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए उसने एक पाठशाला की स्थापना में मदद की. उसके कुछ ही दिन पश्चात एलीजाबेथ फ्रे के साथ मिलकर ‘ब्रिझटन प्राविडेंट एंड डिस्ट्रिक्ट सोसाइटी’ की नींव रखी, जो अपने क्षेत्र की पहली संस्था थी. 1825 में वह एक और समाजसेवी डा॓. ब्रिकबेक(1776-1841) के संपर्क में आया, दोनों ने मिलकर ‘ब्रिझटन मैकेनिक्स इंस्टीट्यूट’ की आधारशिला रखी इस इंस्टीट्यूट का लक्ष्य गरीब बच्चों को शिक्षा, विशेषकर तकनीक ज्ञान उपलब्ध कराना था ब्रिझटन के लगभग दो तिहाई कामगार इस संस्थान के प्रबंधन से जुड़े थे. स्वयं किंग उसकी प्रबंधक समिति का सदस्य था. उस पद पर रहते हुए उसने विद्यार्थियों को संबोधित भी किया. वहीं पर गणित और प्राकृतिक दर्शन की एक अनौपचारिक कक्षा के दौरान विलियम किंग का संपर्क राबर्ट ओवेन के समर्थकों से हुआ. विलियम किंग को जैसे अपने जीवन का मकसद मिल गया. ओवेन के विचारों ने उसके चिंतन और सामाजिक कार्यों को नया विस्तार दिया.
विलियम किंग स्वभाव से दयालु था अभावग्रस्त और गरीबों के प्रति उसे सहानुभूति थी उसके क्लीनिक में गरीबों के लिए निःशुल्क अथवा नाममात्र के शुल्क पर चिकित्सा सुविधाएं प्रदान की जाती थीं. कुछ ही समय में ब्रिझटन में वह ‘निर्धनों का चिकित्सक’ के नाम से विख्यात हो गया आगे चलकर सहकारी विचारों में अपनी आस्था के पश्चात विलियम किंग ने 1837 में ब्रिझटन में ही एक चिकित्सालय की स्थापना की, जिसका खर्च स्थानीय निवासियों द्वारा स्वयं उठाया जाता था. अपने चिकित्सालय के माध्यम से वह वर्षों तक लोगों की सेवा करता रहा. चिकित्सा के क्षेत्र में, विशेषकर गरीबों को कम मूल्य पर चिकित्सा सुविधाएं प्रदान करने के कार्य के लिए किंग की सर्वत्र सराहना होने लगी. उसकी ख्याति सरकार तक भी पहुंची सन 1842 में उसको ‘(रा॓यल) सुसेक्स काउंटी हा॓स्पीटल का परामर्शक चिकित्सक नियुक्त किया गया उस हा॓स्पीटल की स्थापना ईसाई धर्म की भावनाओं के अनुरूप की गई थी, और उसका उद्देश्य विश्व-भर असहाय-निर्धनों, बीमारों को चिकित्सा-सुविधाएं उपलब्ध कराना था विलियम किंग का विश्वास था. गरीबी का निदान वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के बिना संभव नहीं है. हालांकि वह कोई ख्यात अर्थशास्त्री नहीं था, न उसका अर्थशास्त्र के क्षेत्र में किसी प्रकार का दखल था, मगर समाज के आर्थिक कल्याण के लिए कुछ करने की साध उसके मन में थी. इसके लिए वह उपयुक्त अवसर की तलाश में था सन 1827 में वह समय भी आया, जब राबर्ट ओवेन ने अमेरिका में सहकारी आंदोलन की आधारशिला रखी न्यू हा॓रमनी में ओवेन का स्वागत करने वालों में सबसे पहला आदमी विलियम किंग ही था. सहजीवन पर आधारित बस्तियों की स्थापना के समय अधिकांश लोगों ने ओवेन का मजाक उड़ाया था. उस समय किंग ने ओवेन के प्रयासों का समर्थन करते हुए उसके आलोचकों को करारा जवाब दिया. कहा जाता है कि ओवेन के सहकार के विचार को आगे बढ़ाने वालों में विलियम किंग सबसे आगे था. ओवेन की प्रेरणा पर विलियम किंग ने दो सहकारी समितियों की स्थापना में सहयोग दिया जिनमें से पहली थी—‘ब्रिझटन को-आ॓परेटिव कल्याणकारी फंड ऐसोशिएसन. दूसरी समिति का नाम ‘ब्रिझटन को-आ॓परेटिव ट्रेडिंग ऐसोशिएसन था. मगर सहकारिता के क्षेत्र में डा. किंग का इससे भी बड़ा योगदान ‘दि को-आ॓परेटिव’ नामक पत्रिका के प्रकाशन के रूप में था, जिसके लिए कुछ लोग उसको ‘सहकारिता का जन्मदाता’ कहकर सम्मानित भी करते हैं. ऐसा मानने वाले विद्वानों का यह भी विचार है कि सहकारिता के क्षेत्र में उसका योगदान अपने समकालीन एवं पूर्ववर्ती किसी भी विद्वान से अधिक था, किंतु उसका सही मूल्यांकन नहीं हो पाया.
ओवेन की भांति विलियम किंग का भी विश्वास था कि जनहितैषी आश्रमों की स्थापना से गरीब मजदूरों का उद्धार संभव है. सबको प्यार करो, सबके उद्धार के लिए कार्य करो, ईश्वर प्रत्येक प्राणी में बसा है. अतः जनसेवा ही सच्ची ईश्वर सेवा है—जनहितैषी आश्रम(Philanthropy) व्यवस्था का यह आधार सिद्धांत था. यहां उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा कि—
‘एक फिलांथ्रांपिस्ट जनहितैषी व्यवस्था का समर्थक वह मनुष्य है जो अपने समय, धन तथा अन्य प्रयासों द्वारा समाज की मदद करता है. सामान्य अवस्था में यह संज्ञा उस व्यक्ति को दी जाती है, जो कल्याणकारी कार्यक्रमों के संचालन के लिए भारी मात्रा में संपत्ति दान करता है. परिस्थितियों के चलते तथा समाज की बेहतरी के लिए, कल्याण कार्यक्रमों के संचालन का दायित्व वह किसी ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों को भी सौंप सकता है जो अपनी प्रतिभा, श्रम अथवा धन से लक्षित समूह को अधिकतम कल्याण की स्थिति तक पहुंचा सकें.’
वह आजीवन जनकल्याण के कार्यक्रमों को अपना समर्थन देता रहा इसके लिए उसको समाज का भरपूर प्यार एवं सम्मान भी मिला अंततः 18 अक्टूबर 1865 को लगभग अस्सी वर्ष की अवस्था में उसका निधन हुआ उसकी मृत्यु के कई वर्ष पश्चात डाॅ. हैंस मूलर द्वारा सहकारिता के क्षेत्र में किए गए उसके कार्य को रेखांकित किया गया, जिसको 1913 में अंतरराष्ट्रीय को-आ॓परेटिव एलाइंस की वार्षिक पुस्तिका में ससम्मान स्थान दिया गया किंग का दूसरा महत्त्वपूर्ण मूल्यांकन टी. डब्ल्यू मर्सर द्वारा ‘डा॓. विलियम किंग एंड दि को-आ॓परेटर—1828-1830’ शीर्षक के अंतर्गत किया गया, जिसमें किंग के समाचारपत्र ‘दि को-आ॓परेटर’ के सभी अठाइस अंकों के साथ उसका संक्षिप्त जीवन परिचय भी छापा गया है.
वैचारिकी