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राष्ट्रवाद महज धारणा है. उससे हम यह मान लेते हैं कि कोई एक देश दुनिया के बाकी देशों से मात्र इस कारण श्रेष्ठतर है, क्योंकि हमारा जन्म उसमें हुआ है. —जार्ज बनार्ड शा.
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कल्पना कीजिए कि (आपका)कोई देश नहीं है, जिसके लिए मारा या मरा जाए. यह सोच पाना बहुत कठिन भी नहीं है. सोचिए कि कोई धर्म भी नहीं है. सब शांतिपूर्वक जीवनयापन कर रहे हैं. आप कह सकते हैं कि मैं कोरा स्वप्नजीवी हूं. लेकिन ऐसा केवल मैं ही नहीं हूं. मुझे उम्मीद है कि एक दिन तुम भी मेरे साथ खड़े नजर आओगे. उस दिन यह दुनिया एक हो जाएगी. —जॉन लिनन.
पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय ने सिनेमाघरों में राष्ट्रीय गान को अनिवार्य कर दिया. पता चला कि मामला 13 वर्षों से लटकता आ रहा था. न्यायालय को लगा कि अब और टालना अनुचित होगा. क्यों लगा? क्या इसलिए कि केंद्र में भाजपा की सरकार है? किसी और दल की सरकार होती तो फैसला कुछ और आता! या फिर कुछ वर्ष और लटका रहता! संभवतः कोर्ट ने सोचा हो कि राष्ट्रप्रेम का पाठ स्वयंभू राष्ट्रवादियों की सरकार के अनुशासन में आसानी से पढ़ाया जा सकता है. सचाई चाहे जो हो, महत्त्वपूर्ण यह जानना है कि अदालत को अचानक क्यों लगा कि लोगों में राष्ट्रीयता की भावना घट रही है. वह भी स्वयंभू राष्ट्रवादियों की सरकार तथा वाग्वीर प्रधानमंत्री के रहते. बात-बात पर भारत-माता का जयकारा लगाने वाले ‘आर्यपुत्र’ लोगों में राष्ट्रप्रेम की प्रेरणा जगाने में असमर्थ क्यों हुए, जो न्यायालय को हस्तक्षेप के लिए आगे आना पड़ा?
फैसला देश की सबसे बड़ी अदालत का है तब कुछ हकीकत तो होगी. पेंच यह है कि राष्ट्रप्रेम की क्लास लगाने के लिए सिनेमाघरों को चुना गया है, जहां जाने वाले दर्शकों में बड़ी संख्या बेरोजगारों, रिक्शाचालकों और प्रवासी मजदूरों की होती है. घर-परिवार से दूर, कभी मनोरंजन की चाहत में तो कभी यूं ही, परिजनों की याद से छुटकारा पाने के लिए अधिकांश वही सिनेमाघर जाते हैं. कुछ इसलिए भी जाते हैं क्योंकि उनके पास रात बिताने का ठिकाना नहीं होता. देर रात का शो देखकर लौटने तक सड़कें सुनसान होने लगती हैं. आवारा कुत्ते थककर सड़कों के किनारे, दुकान के थड़ों के आसपास ठिकाना तलाशने लगते हैं. मौका देखकर वे भी जहां सिर समाए, अगली सुबह जिंदगी से जूझने का संकल्प लेकर लुढ़क जाते हैं. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बड़े लोग सिनेमाघर जाते नहीं, सिनेमा खुद उनके बीच चला जाता है. जब भी मन करता है, वे सिने कलाकारों को जन्मदिवस या किसी और बहाने आंगन में नंचवा लेते हैं. जो और बड़े हैं उनके घर ही में सिनेमाघर बने हैं. फैसले से यह साफ नहीं हुआ कि यह कानून क्या ‘एंटीला’ और उस जैसे प्रासादों में बने सिनेमाघरों पर भी लागू होगा? शायद नहीं. इसलिए कि हमारे यहां खुद को राष्ट्रभक्त सिद्ध करने की जिम्मेदारी प्रायः जनसाधारण की होती है. अमीर और वीवीआईपी की नहीं. उनकी राष्ट्रभक्ति तो स्वयंसिद्ध होती है. एहसान तले दबा मीडिया दिन-रात उनके महिमा-मंडन में जुटा रहता है. राष्ट्रप्रेम बलिदान मांगता है. सो बेघर, अकेलेपन के शिकार, बेरोजगार लोगों को राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाते रहना जरूरी है. कदाचित इसीलिए अदालत ने दखल दिया है.
आप कह सकते हैं कि अदालत का फैसला सभी के लिए है. मैं कहूंगा गलत. यदि सभी के लिए होता तो शुरुआत संसद और विधान-सभाओं से होती. हर उस कल-कारखाने से होती जिसे राष्ट्र-निर्माण का मंदिर बताया जाता है. साथ ही स्कूल, कॉलेज, क्रिकेट और खेल के मैदानों तथा हर उस सभा से भी होती, जहां सार्वजनिक उपस्थिति हो. सिनेमाघर तो व्यक्ति हल्के-फुलके मूड के साथ जाता है. कभी खुद को भुलाने, तो कभी भूले हुए को याद करने के लिए. अगंभीर मनस्थिति में राष्ट्रगान में हिस्सा लेने का औचित्य? क्या इससे राष्ट्रप्रेम जगाने में सचमुच सफलता मिलेगी? कल्पना कीजिए पर्दे पर राष्ट्रगान के तुरंत बाद हेलन के डांस या सनी लियोनी के रोमांस का सीन आएगा तो उनमें से कौन-सा दिमाग पर देर तक प्रभावी रहेगा. या फिर राष्ट्रगान समाप्त होते ही पर्दे पर सोडे के बहाने शराब का विज्ञापन आया तो राष्ट्रगान का असर कितनी देर टिक पाएगा? कुल मिलाकर हाल का निर्णय राष्ट्रीय भावनाओं को धर्म में ढाल देने जैसा है, जिसमें पुजारी दुनिया के सभी कारोबार आरती, पूजा-अर्चन के बीच तथा आगे-पीछे चतुर सौदागर की तरह निपटाता है. राष्ट्रप्रेम धर्म न होकर, नागरिक मात्र का अपने राष्ट्र के प्रति नैतिक एवं संवैधानिक कर्तव्य है. इसमें राज्य की भूमिका उत्प्रेरक की होनी चाहिए. कहने की आवश्यकता नहीं कि राज्य के स्वनामधन्य कर्ता-धर्ता अपने स्वार्थपूर्ण आचरण द्वारा इस काम में चूकते रहे हैं. ऐसे में केवल सिनेमाघरों में राष्ट्रीयगान की अनिवार्यता राष्ट्रप्रेम के वास्ते निर्धारित कानूनी कर्मकांड जैसी ही है. राष्ट्रगान की गरिमा तभी है जब परिवेश अनुकूल हो. व्यक्ति उदात्त मन से उसके साथ जुड़ा हो. साथ ही राज्य अपने प्रत्येक नागरिक के साथ ईमानदार एवं निष्पक्ष अभिभावक जैसा व्यवहार करता हो. हमारी संस्कृति कर्मकांड प्रधान सही, परंतु कोरे कर्मकांडों से राष्ट्रप्रेम नहीं जगाया जा सकता. राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान आवश्यक है. प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य कि अपने देश और देशवासियों पर गर्व करे. मगर इसके लिए सिनेमाघर उपयुक्त स्थान नहीं हैं. यदि न्यायालय उन्हें उपयुक्त मानता है, तो क्रिकेट मैच की शुरुआत भी राष्ट्रगान से होनी चाहिए. क्योंकि दोनों ही मनोरंजन का माध्यम हैं; तथा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में दोनों ही बाजारवादी अर्थव्यवस्था का हित साधते हैं.
सिनेमा हाल में राष्ट्रगान को जरूरी बताकर उच्चतम न्यायालय में अप्रत्यक्ष रूप से यह मान लिया है कि जो लोग सिनेमाघर जाते हैं, वे राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति उदासीन होते हैं. जबकि ऐसा कोई उदाहरण नहीं है जब किसी गरीब ने लालच में पड़कर देशद्रोह जैसा धत्तकर्म किया हो. सच तो यह है कि जो लोग घर ही में सिनेमाघर बनवाने का सामर्थ्य रखते हैं, वे प्रतीक की बात दो दूर, खुद को राष्ट्र का पर्याय माने रहते हैं. सीना तान कर प्रधानमंत्री के फोटो का उपयोग अपने प्रॉडक्ट के विज्ञापन के लिए करते हैं. एहसानमंद मीडिया उसे बार-बार दिखाता है. यहां सिनेमा की उपयोगिता से इंकार नहीं है. वह सशक्त माध्यम है. उसका उपयोग राष्ट्रप्रेम जगाने के लिए किया जा सकता है. अच्छा सिनेमा अनेक राष्ट्रहित साध सकता है. उसके लिए सिनेमाघर में राष्ट्रगान आवश्यक नहीं है. विशेषकर भारत में जहां अधिकांश फिल्में फार्मूलाबद्ध होती हैं. सस्ते मनोरंजन के अतिरिक्त उनकी कोई सार्थकता नहीं होती, गाहे-बगाहे जो सामाजिक असमानता तथा उसकी बाजारवादी प्रवृत्तियों का समर्थन करती हैं—वहां थर्ड ग्रेड सिनेमा राष्ट्रीयताबोध जगाने के किसी भी प्रयास को मजाक में बदल सकता है. समस्या यह है कि सरकार हो या अदालत, ऐसे मामलों में पूर्वाग्रहों से सर्वथा मुक्ति असंभव होती है. यह मान लिया गया है कि राष्ट्रधर्म और राष्ट्रीयताबोध, दोनों की रक्षा करना केवल जनसाधारण की जिम्मेदारी है. इन परिस्थितियों में राज्य की भूमिका पेशेवर प्रबंधक जैसी होती है, जो कराधान के बदले नागरिकों को सुरक्षा और सुविधा उपलब्ध कराता है.
जनसाधारण काम की बातें प्रायः बड़े लोगों के आचरण से सीखता आया है. ‘महाजने येन गतः सः पंथा.’—जिस रास्ते पर महान लोग जाएं उसी का अनुसरण उत्तम है. यही उसे सिखाया जाता है. यही सीख उसके गीत-संगीत, किस्से-कहानियों, कहावतों और बड़े-बूढ़ों के अनुभवों के रूप में सामने आती है. उसे राष्ट्रगान का महत्त्व समझाने के लिए सिनेमाघर में पर्दे के सामने खड़ा करने की आवश्यकता नहीं है. शिखर पर मौजूद नेतागण, बड़े अधिकारी, पूंजीपति, व्यवसायी यदि अपने आचरण को राष्ट्रीयता की भावनाओं के अनुकूल ढाल लें तो जनसाधारण को अलग से राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. वर्षों पहले इसी देश के एक नेता ने सिर पर टोपी और लंगोटी पहननी शुरू की थी, तब अच्छे-खासे घरों के उच्च शिक्षा प्राप्त युवा सूट-बूट छोड़ टोपी और लंगोटी में आ गए थे. और उस समय तक न तो देश स्वतंत्र हुआ था, न ही राष्ट्रगान बना था. लेकिन राष्ट्रीय भावनाओं से पूरा देश ओतप्रोत था. पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण गूंजते नारे स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े सभी में यह एहसास जगा देते थे कि हम सब एक हैं. आजादी के बाद संकट की घड़ी में एक ठिगने कद के प्रधानमंत्री ने देशवासियों से सप्ताह में एक दिन व्रत रखने आवाह्न किया. उस समय न तो टेलीविजन था, न इंटरनेट, न ही बड़े-बड़े सुरसामुखी मीडिया घराने. साउंड ट्रैक का जमाना भी नहीं था. फिर भी उस नेता के कंठ से निकली आवाज को देश के नागरिकों ने दूर-दराज तक सुना था. फिर जैसे-जैसे जहां तक भी संदेश पहुंचा, लोगों ने सप्ताह में एक दिन व्रत रखने का नियम बना लिया था. आखिर क्यों? इसलिए कि वह जैसा था, वैसा ही दिखता था. किसी को उसकी ईमानदारी पर संदेह नहीं था. उसके पास केवल तीन-चार जोड़ी वस्त्र होते थे. पूरे वर्ष वह उन्हीं से काम चलाता था. रोज पांच-पांच बार वस्त्र बदलकर ‘फकीरी’ का दावा नहीं करता था. आज के नेता आत्ममोह को आत्मविश्वास मानते हैं. बड़बोले भाषणों से जनता के दिलों पर छाने का भ्रम पाले रहते हैं. पूंजी, प्रचार और पाखंड के भरोसे राजनीति करते हैं. ऐसे नेता जनता पर भरोसा करने का साहस नहीं जुटा पाते. न ही जनता उनपर विश्वास करती है. इसलिए राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाने के लिए न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा है.
क्या किसी को राष्ट्रभक्ति का पाठ सचमुच पढ़ाया जा सकता है? कुछ भाव मन में स्वतः उमड़ते हैं. लोगों को सिखाए नहीं जा सकते. जैसे कि प्रेम करना. हम किसी को इस बात के लिए विवश नहीं कर सकते कि वह हमारी बताई वस्तु या प्राणी से प्रेम करे. प्रेम करने के लिए जरूरी है कि व्यक्ति जिससे प्रेम करे, वह उसके किसी अभाव की पूर्णता का एहसास कराती हो. जमीन किसान का पेट भरती है. इसलिए किसान उससे प्रेम करता है. मां का दर्जा देता है. 1857 में राष्ट्रीय भावनाओं के प्रस्फुटन के मूल में कोई नेता नहीं था. उस समय तो देश में एक-राष्ट्र की भावना का उदय भी नहीं हुआ था. केवल सामूहिक अस्मिताबोध था. जिसमें प्रत्येक सैनिक खुद को नेता मान बैठा था. अपने उत्साह के बूते उन्होंने पूरे उत्तर भारत को अंग्रेजों के विरुद्ध जंग के लिए खड़ा कर दिया था. वह संघर्ष नाकाम हुआ, इसलिए कि इतने बड़े आंदोलन को संभालने के लिए जैसी मानसिक तैयारी चाहिए, वह उनके पास नहीं थी. लेकिन वह नाकाम संघर्ष भी देश में राष्ट्रीयताबोध जगाने में सफल सिद्ध हुआ.
ऐसा नहीं कि न्यायालय का निर्णय एकदम हवा से पैदा हुआ है. आजादी के बाद से ही यह देश भीतरी और बाहरी चुनौतियों से जूझ रहा है. पिछले कुछ दशकों से चुनौतियां तेजी से बढ़ी हैं. इस फैसले के मूल में ऐसी कई बातें हैं जो देश की आंतरिक उथल-पुथल को सामने लाती हैं. उत्तर में कश्मीर, पूर्वोत्तर के आतंकवाद पीड़ित राज्यों को छोड़ दें तो भी बिहार, झारखंड, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, पश्चिमी बंगाल, मध्य प्रदेश जैसे राज्य हैं, जहां भारत नामक राज्य के विरुद्ध आवाजें उठ रही हैं. आप उन्हें ‘नक्सलाइट’ कहें, ‘चरमपंथी’ कहें या कुछ और—वे निर्विवाद रूप से भारतीय गणराज्य के लिए चुनौती बने हैं. इसका प्रमुख कारण लोकतांत्रिक समाधान के प्रति अविश्वास को जन्म लेना है. विडंबना यह है कि समस्या के कारणों को समझे बिना मीडिया उन्हें केंद्र के विरुद्ध चुनौती के रूप में पेश करता आया है. जबकि राज्य के विरुद्ध हथियार उठाने का अभिप्राय हमेशा यह नहीं होता कि विद्रोहियों को अपनी राष्ट्रीय पहचान से शिकायत है. प्रायः वह राज्य और नागरिक समूहों के बीच बढ़ते अविश्वास को दर्शाता है. इसलिए इस प्रकार की समस्याओं का समाधान राष्ट्रीयता की सीमा में, लोकतांत्रिक सूझबूझ के साथ किया जाना चाहिए. विडंबना है कि भारतीय राज्य की ओर से ऐसी कोई रचनात्मक कोशिश नजर नहीं आती. विकास का मतलब अर्थव्यवस्था को पूंजीपतियों, जिनकी गिद्ध-दृष्टि देश के संसाधनों पर है—के हवाले कर देने तक सीमित रह गया है. मुनाफे की बंदरबांट, लूट और उसके कारण बढ़ती आर्थिक विषमता सामाजिक असंतोष का मूल कारण है. 1857 के संग्राम में जितने लोग अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार लेकर निकले थे, उनसे कहीं बड़ी संख्या आज उन लोगों की है जो ‘नक्सलाइट’ या ‘चरमपंथी’ के रूप में राज्य के विरुद्ध संघर्ष छेड़े हुए हैं. अपनी असफलता को राज्य कई बार राष्ट्रभक्ति के नाम पर दबाने की कोशिश करता है. उस समय वह खुद को राष्ट्र के पर्याय के रूप में पेश करता है. परिणामस्वरूप राजतंत्र के विरुद्ध उठी आवाजें, राष्ट्र-राज्य के विरुद्ध जंग मान ली जाती हैं. जेएनयू मामले में कन्हैया कुमार के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ था.
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की एक बेहतरीन कविता, ‘देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता.’ बहुत कुछ कह देती है—‘इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा/कुछ भी नहीं है/न ईश्वर/न ज्ञान/न चुनाव….जो विवेक/खड़ा हो लाशों को टेक/वह अंधा है/जो शासन/चल रहा हो बंदूक की नली से/हत्यारों का धंधा है.’ राष्ट्रभक्ति के नाम पर नारेबाजी करने वाले लोगों को भी समझना चाहिए कि राष्ट्र का अभिप्राय नदी-नाले, सागर, पहाड़, विशाल भूक्षेत्र या कल-कारखाने तक सीमित नहीं है. न ही वह केवल इतिहास, संस्कृति और सीमाओं के बोध का नाम है. यह बोध तो हम भारतवासियों को हजारों वर्षों से रहा है—‘उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रेः चैव दक्षिणम्/वर्षम् तद् भारतम् नाम भारती यत्र संततिः‘(विष्णुपुराण). धर्मशास्त्रों की दृष्टि से हम अलबेले हैं. यदि इन्हीं से सच्ची राष्ट्रभक्ति उत्पन्न होती तो हम संभवतः कभी गुलाम न होते. कोई भी देश अपने नागरिकों से बनता है. उनके सामूहिक सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक बोध से बनता है. देश से प्रेम करने के लिए एक-दूसरे से प्रेम और परस्पर भरोसा करना आवश्यक है. सच्ची देशभक्ति सामाजिक एकता और विश्वास में बसती है. उसके लिए आवश्यक है कि लोगों के मन एक हों. सब एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हों; तथा सुख-दुख में साझा करने को सदैव तत्पर रहते हों.बावजूद इसके राष्ट्रीयबोध की मूल-भूत अनिवार्यता के रूप में जिस चीज को हम आरंभ से ही उपेक्षित करते आए हैं, वह है सामाजिक एकता और समानता. सत्ता-शिखर पर बैठे मुट्ठी-भर लोग अपने ही समाज के बहुसंख्यक लोगों का, उन्हें उनके न्यूनतम मानवीय अधिकारों से भी वंचित कर, कभी धर्म तो कभी जाति के नाम पर, शोषण करते आए हैं. नतीजा यह हुआ कि भारतीय समाज आरंभ से ही छोटे-छोटे वर्गां में बंटा रहा. जिनके पास शक्ति थी, साधन थे, उनके अपने स्वार्थ प्रबल थे. उसके लिए वे हर आक्रमणकारी से समझौता करते रहे. और जो समाज के लिए कुछ कर सकते थे, जिनके पास संख्याबल था. जो ईमानदार और मेहनती थे, उन्हें लगातार दुत्कार कर, उनके मनोबल को खंडित किया जाता रहा. परिणामस्वरूप इतना बड़ा देश इतिहास के कुछ हिस्सों को छोड़कर शायद ही कभी बड़ी राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा हो. छोटे-छोटे राज्यों के बीच वर्चस्व का संघर्ष हमेशा रहा है. बाहर के मुल्कों में देश की छवि यदि बनी तो बौद्ध धर्म के कारण, जो विभिन्न समुदायों के बीच एकता और समानता का संदेश लेकर दुनिया-जहान तक पहुंचा था. उसका संदेश था कि व्यक्ति का चरित्र और सदाचरण उसे लोक-प्रतिष्ठित बनाता है.
कोरा राष्ट्रवाद वर्चस्वकारी सत्ताओं का सबसे बड़ा पाखंड है. नागरिकों को भुलावे में रखने के लिए स्वार्थी सत्ताएं सदैव यह चाहती हैं कि लोग राज्य को, जो महज राजनीतिक संस्था है, राष्ट्र का पूरक और पर्याय माने रहें. ताकि वे अपने प्रत्येक फैसले को राष्ट्र का निर्णय बताकर, उसे बहस और आलोचना के दायरे से बाहर रख सकें. वे हमेशा यह समझाने में लगी रहती हैं कि लोगों के हित केवल और केवल उन्हीं के मार्गदर्शन में सुरक्षित हैं. उनकी कोशिश राष्ट्रभक्ति को धर्म बना देने की होती है. कदाचित इसीलिए सैमुअल जानसन ने देशभक्ति को ‘बदमाशों का अंतिम आश्रय’(Patriotism is the last refuge of a scoundrel) माना है. थोड़े परिवर्तन के साथ ऑस्कर वाइल्ड ने भी दुहराया था, ‘देशभक्ति शातिरों का गुण है’(Patriotism is the virtue of the vicious). राष्ट्रीयताबोध स्वतंत्र नागरिक चेतना में बसता है. परिपक्व राष्ट्रीयताबोध के लिए आवश्यक है कि लोग अपने अधिकारों तथा दूसरे के अधिकारां का भी सम्मान करें. इसके लिए राज्य का स्वयंप्रभुता संपन्न होना आवश्यक नहीं है. परतंत्र राज्य में भी मुखर राष्ट्रीयताएं पनपती रही हैं. भारतीय स्वाधीनता आंदोलन इसका श्रेष्ठ उदाहरण है. सोवियत संघ में अनेक राज्य प्रभुतासंपन्न राज्य नहीं थे. परंतु उनके नागरिकों के हृदय मैं तीव्र राष्ट्रीयताबोध हिलोर मारता था. सोवियत राज्य ने उसे उपेक्षित रखा, जिसका दुष्परिणाम उसके विघटन के रूप में सामने आया. राष्ट्रीयताबोध के मूल में सांस्कृतिक चेतना और एैक्य-भाव अनिवार्य है. क्या भारतीय समाज के बारे में ऐसा कहा जा सकता है?
विद्वान भारत की सांस्कृतिक-सामाजिक एकता की निरंतर दुहाई देते रहे हैं. इसके लिए वे महाकाव्यों और होली, दीपावली जैसे त्योहारों का नाम लेते हैं. तर्क देते हैं कि महाकाव्य देश के सभी भागों में पढ़े-पढ़ाए जाते हैं, होली, दीपावली जैसे त्योहार सभी जगह प्रचलित हैं, इसलिए यह देश भू-सांस्कृतिक इकाई यानी एकराष्ट्र है. जबकि महाकाव्यों में, होली, दिवाली जैसे त्योहारों के मूल में जो विश्वास है, वह स्वयं विरोधाभासी है. लोकतंत्र की कसौटी पर न तो महाकाव्य खरे हैं, न ही इन त्योहारों की अंतर्कथाएं. किसी न किसी रूप में वे सभी धर्म-केंद्रित राजतंत्र का समर्थन करते हैं. जिसमें निर्णय ऊपर से थोपे जाते हैं. लोकतांत्रिक विमर्श के लिए वहां कोई गुंजाइश नहीं होती. इसलिए उसके सहारे विकसित संस्कृति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में सामाजिक-सांस्कृतिक असमानता का समर्थन करने लगती है. धर्म और राष्ट्रवाद की कई विशेषताएं एक-दूसरे से मेल खाती हैं. दोनों में एक अपेक्षाकृत आधुनिक अवधारणा है. दूसरी लगभग तीन सहस्राब्दी पुरानी. दोनों की ही खूबी है कि वे व्यक्ति-स्वातंत्र्य की दुश्मन हैं. उनके चयन में मनुष्य का अपना कोई योगदान नहीं होता. अधिसंख्यक मामलों में दोनों जन्म के साथ थोप दी जाती हैं.
राष्ट्रवाद का नकार राष्ट्रप्रेम का नकार नही है. वह राष्ट्रभक्ति के नाम पर मनमानी, उग्रता, पक्षपात तथा एकाधिकार की भावना का नकार है. राज्य की असफलता है कि वह अपने नागरिकों को यह विश्वास दिलाने में नाकाम रहा है कि वह संकट में उसके साथ है. इससे सामाजिक अंतर्द्वंद्वों में वृद्धि हुई. हताश राज्य शांति-व्यवस्था के नाम पर कानून की ताकत का तरह-तरह से इस्तेमाल करता है. हाल का अदालती निर्णय भी इसी दिशा में जाता है. इन दिनों भारत में झंडा उठाऊ राष्ट्रवाद का बोलबाला है. उसके नाम पर शोर-शराबा वे लोग कर रहे हैं जिनके पास ताकत है. साथ में सत्ता का समर्थन. सांस्कृतिक श्रेष्ठता का दावा करते हुए जो समाज को अर्से से अपनी तरह हांकते आए हैं. ऐसे लोगों का ‘राष्ट्रवाद’ आवश्यक नहीं कि लोकतंत्र और नागरिकता के मानकों के अनुरूप हो. छदम् राष्ट्रवाद का झंडा उठाए वे दिखाना चाहते हैं कि वे बाकी लोगों से बेहतर हैं. उसमें समानता और स्वतंत्रता से अधिक बल और आक्रामकता प्रभावी होते हैं. यदि राज्य ऐसे ही राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित करता है तो स्थिति उन लोगों के प्रति अन्यायकारी हो जाती है, जिनका राष्ट्रीयताबोध समानता, नैतिकता, स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र जैसे मूल्यों से बना है. यही कसौटी देशप्रेम पर भी लागू होती है. देशभक्ति का अभ्रिप्राय राज्य की प्रत्येक गतिविधि को गर्व की निगाह से देखना नहीं है. इसके लिए आलोचनात्मक विवेक अनिवार्य है. राष्ट्र के प्रति अनुराग तभी तक उचित है, जब तक नागरिकों को यह भरोसा हो कि उनका राष्ट्र समानता, स्वतंत्रता और मानवीय आदर्शों का सम्मान करते हुए उन्हें पाने के लिए सतत प्रयत्नशील है. यदि उन्हें लगता है कि उनका राष्ट्र मानवीय आदर्शां को भुला चुका है, तो नागरिकों को ऐसे राष्ट्र से शिकायत करने, यहां तक कि उससे घृणा करने अधिकार भी प्राप्त होता है. यह जिम्मेदारी राज्य की है कि वह ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न न होने दे, जिससे नागरिकों को अपने ही राष्ट्र-राज्य के विरोध हेतु मुखर होना पड़े.
—ओमप्रकाश कश्यप
- Imagine there’s no countries/It isn’t hard to do/Nothing to kill or die /And no religion too/Imagine all the people/Living life in peace You may say that I’m a dreamer/But I’m not the only one/I hope someday you’ll join us/And the world will be as one.―John Lennon, Imagine.
- उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रेः चैव दक्षिणम्।
वर्षम् तद् भारतम् नाम भारती यत्र संततिः।।
गायंति देवाः किल गीतिकानि, धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पद—मार्गभूते, भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।।
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्वमे।।
(वह देश जो महासागर के उत्तर में बसा है, जिसके दक्षिण में हिमगिरि विद्यमान है. उसी का नाम भारतवर्ष है, वहां बसनेवाले भरत के वंशज हैं/देवता गीत गाते हैं कि स्वर्ग और अपवर्ग की मार्गभूत भारत भूमि के भाग में जन्मे लोग देवताओं की अपेक्षा भी अधिक धन्य हैं।/हे देवी पृथ्वी! आप समुद्र रूपी वस्त्रों को धारण करने वाली हैं, पर्वतरूपी स्तनों से सुशोभित हैं तथा भगवान विष्णु कि आप पत्नी हैं, आपको पैरों से स्पर्श करने के लिए मैं क्षमा चाहता हूं. —विष्णुपुराण.)