इतिहास केवल शिखर की हलचलों को रेखांकित करता है. जनसमाज के स्तर पर जो हलचलें होती हैं, उनके दस्तावेजीकरण में वह उस समय तक उपेक्षा बरतता है, जब तक उनका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कोई बड़ा सामाजिक–राजनीतिक सरोकार न हो. उसमें भी वह केवल शीर्ष व्यक्तित्वों के नाम रेखांकित करता है. इसके अनगिनत उदाहरण अतीत से आज तक खोजे जा सकते हैं. राम–रावण के युद्ध के बारे में हम सुनते आए हैं, कौरव–पांडवों का संग्राम अलग से महाकाव्यीन गाथा है. अकबर और राणा प्रताप का इतिहास भी पिछली पांच–छह शताब्दियों पुराने इतिहास का हिस्सा है. हम अपनी रुचि और विश्वास के अनुसार इनमें से किसी को बड़ा या छोटा मान सकते हैं. कम–ज्यादा पसंद–नापसंद कर सकते हैं. उस समय हमारी चर्चा और चिंता का मूल केंद्र–बिंदू शिखरस्थ व्यक्तित्व ही होंगे. सदियों से हमें यही अभ्यास कराया जाता रहा है. राम और रावण की प्रजा अपने–अपने सम्राट के बारे में क्या सोचती थी? जनसाधारण धर्मराज कहे जाने वाले युधिष्ठिर के राज्य में अधिक सुखी, समृद्ध और सम्मानित जीवन जीता था कि दुर्योधन के राज्य में? अकबर और महाराणा प्रताप की प्रजाओं के हालात में क्या अंतर था? ऐसे प्रश्नों को लेकर इतिहास प्रायः मौन बना रहता है. कारण किसी से छिपा नहीं है. वस्तुतः इतिहास को वे लोग सहेजते हैं, जिनके हित सत्ता से जुड़े होते हैं. सत्ता–शिखरों की कृपा बनी रहे, वे इस दृष्टि से तथ्यों के साथ मनमाना वर्ताब करते हुए इतिहास–लेखन करते हैं. सत्ता की चरण–वंदना में सत्य अपनी अर्थवत्ता खोता रहता है.
प्रकारांतर में इतिहास ‘अर्थशास्त्र’ भले न हो, एक वर्ग के लिए वह ‘अर्थ का शास्त्र’ अवश्य बन जाता है. ये परिस्थितियां सामाजिक विक्षोभों को जन्म देती हैं, जिन्हें विशेषज्ञ लोग ‘संस्कृतियों का द्वंद्व’ की संज्ञा देते हैं. निहित राजनीतिक स्वार्थ की खातिर शीर्षस्थ वर्ग संस्कृतियों के द्वंद्व को बढ़ा–चढ़ाकर पेश करते हैं. परिणामस्वरूप सामाजिक अविश्वास की खाई उत्तरोत्तर चैड़ी होती जाती है. ‘सांस्कृतिक द्वंद्व’ तथा ‘राजनीतिक द्वंद्व’ में अंतर होता है. सांस्कृतिक द्वंद्व की प्रक्रिया धीमी और अप्रत्यक्ष होती है. जबकि राजनीतिक द्वंद्व सामान्यतः प्रत्यक्ष होता है. अतएव उसके निष्कर्ष अपेक्षाकृत शीघ्र आने की संभावना रहती है. राजनीतिक द्वंद्व में प्रतिपक्ष को यह अवसर मिलता है कि वह खुद को अपने प्रतिद्विंद्वी की टक्कर का सिद्ध कर सके. रावण नफरत का पात्र होकर भी राम के समान बलशाली है. रावण के प्रति नफरत, राम के प्रति उसके अनुयायियों की आदर–भावना के समतुल्य होती है. यही हालत महाभारत के दुर्योधन की है. वह न केवल स्वयं बलशाली है, बल्कि एक से बढ़कर एक योद्धा उसके पक्ष में है. ‘कुरुक्षेत्र’ दुर्योधन के लिए महज राजनीतिक युद्ध है. जबकि उसके प्रतिद्विंद्वी पांडवों का सलाहकार कृष्ण उसे शुरुआत से ही सांस्कृतिक युद्ध बना देता है. कृष्ण का बौद्धिक चातुर्य और कूटनीति उस समय के युद्ध–नियमों पर भारी पड़ती है.
राजनीति से प्रेरित होने के बावजूद संस्कृतियों के द्वंद्व पर उसके नियम पूरी तरह लागू नहीं होते. वहां पराजित संस्कृति विजेता संस्कृति द्वारा या तो हड़प ली जाती है, अथवा उसका इतना विरूपण कर दिया जाता है कि वह रूढि़ में ढलकर अपनी उपयोगिता खो देती है. राजनीतिक विजेता सामान्यतः दो युद्धों से गुजरता है. पहला युद्धभूमि पर लड़ा जाता है. उस युद्ध में दो प्रतिद्विंद्वी अपने–अपने सैन्यबल के साथ आमने–सामने होते हैं. दूसरा युद्ध समरांगण में दुश्मन को परास्त, उसके भू–क्षेत्र पर कब्जा कर लेने के बाद आरंभ होता है. राजनीतिक विजेता जानता है कि जब तक जनसमाज उसकी जीत को स्वीकार न कर ले, तब तक उसकी विजय भी डांवाडोल रहेगी. अपनी जीत को स्थायी बनाने के लिए वह सांस्कृतिक मोर्चे पर भी निरंतर फतह की कामना करता है. दूसरा युद्ध अप्रत्यक्ष, जिस जनसमाज की संस्कृति पर जीत हासिल करनी है, उसके मौन समर्थन के आधार पर लड़ा जाता है. इसलिए उसमें आभासी प्रतिद्विंद्वता के लिए बहुत कम स्पेस होता है. विजेता संस्कृति के चारण–वृंद पराजित संस्कृति की स्मृतियों और परंपराओं की ओर से जनता का ध्यान मोड़ने के लिए नित नया बानक रचते रहते हैं. अंततोगत्वा, पराजित संस्कृति इतिहास की पर्तों में लुप्त होकर रह जाती है. चूंकि सांस्कृतिकरण की प्रक्रिया धीमी और व्यापक जनसमुदाय की मौन सहमति के आधार पर चलाई जाती है, अतएव सांस्कृतिक प्रतिरोध के वास्तविक कारकों की खोज अपेक्षाकृत जटिल होती है. चूंकि थोपे गए इतिहास की अधिकांश बातें सामाजिक यथार्थ से परे होती हैं, इसलिए उसे झूठ का पुलिंदा भी कहा जाता है.
सांस्कृतिक द्वंद्वों का चरित्र उत्पादकता के साधनों द्वारा निर्धारित होता है. हजारों वर्ष पहले प्रकृति का खुला अंचल मनुष्य के सामने था. अपार संसाधनों के आगे भोक्ता मनुष्यों की संख्या अत्यंत सीमित थी. अतः उस कालखंड में व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा के लिए भी कोई स्थान न था. कालांतर में कृषि व्यवस्था में सुधार हुआ. मनुष्य एक स्थान पर ठहरकर खेती करने लगा. इसी के साथ उसके मन में लालच भी उमड़ने लगा. उन दिनों खेती सामूहिक थी. उपज पर समूह का साझा अधिकार माना जाता था. धीरे–धीरे समाज में अविश्वास स्थायी रूप लेने लगा. उत्पाद के बंटवारे को लेकर झगड़े शुरू हुए तो ‘राजा’ नामक संस्था की अवधारणा विकसित हुई. आरंभ में राजा का काम शिकार के समय कबीले का नेतृत्व करना तथा उत्पाद का सदस्यों के बीच सर्वसम्मत बंटवारा था. उससे समूह की आंतरिक व्यवस्था में सुधार हुआ. लेकिन विपल्वी कबीलों का डर अब भी बना रहता था. अनाज और पशुधन को हड़पने के लिए कबीले एक–दूसरे से उलझते ही रहते थे. अतः प्रतिद्विंद्वी समूहों से अपने पशुधन, अनाज और फसलों की सुरक्षा के लिए ‘राजा’ को सैनिक रखने का अधिकार मिल गया. उस समय तक राजनीति परस्पर सहमति पर आधारित थी. सच में तो वह राजनीति थी ही नहीं. लोग सामान्य विवेक के आधार पर मिल–जुलकर निर्णय लेते थे. निष्पक्ष और सर्वमान्य होना ‘राजा’ की मूलभूत योग्यता थी. सैनिक रखने का अधिकार मिला तो ‘वीरता’ और ‘नेतृत्व’ जैसे गुण राजा के लिए आवश्यक माने जाने लगे. शक्ति और संसाधन मिले तो उसकी महत्त्वाकांक्षाएं सिर उठाने लगीं. धीरे–धीरे उसके आसपास ऐसे लोगों का समूह पनपने लगा, जो अपने स्वार्थ के लिए उसकी हर मनमानी को ‘नियम’ बना देने में माहिर थे. जहां नियम बनाना संभव न हो वहां ‘राजा की इच्छा’ बताकर स्वार्थपूर्ण निर्णय थोप दिए जाते थे. इससे आमजन और राजा के बीच की दूरी बढ़ती गई. चूंकि राजा को बिना किसी तनाव के सभी सुखोभोग उपलब्ध थे, इसलिए वह अपने मुंह–लगे दरबारियों को अतिरिक्त लाभ देकर खुश रखने लगा. धीरे–धीरे व्यक्तिगत संपत्ति की भावना, जिसका अभी पूरी तरह विकास भी नहीं हुआ था, राजा के एकाधिकार में ढलने लगी. इसका प्रभाव संस्कृति पर भी पड़ा. सभ्यता के आरंभिक दिनों में मनुष्य अपने निर्णय परस्पर सहमति से लेता था. अब वे राजा और उसके मुंह लगे दरबारियों की मनमर्जी से लिए जाने लगे. इसका प्रभाव सामाजिक–सांस्कृतिक संबंधों पर पड़ना ही था. सबकुछ शिखरस्थ वर्गों की मर्जी से चलता था, इसलिए जनसाधारण संस्कृति और उत्पादकता के सहसंबंधों की ओर से उदासीन रहने लगा. यही उदासीनता धीरे–धीरे उसके स्वभाव का अभिन्न हिस्सा बन गई.
उपर्युक्त चर्चा से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं. पहली यह कि संसाधनों पर एकाधिकार कायम करने का इच्छुक समूह पहले लोगों के दिलो–दिमाग पर कब्जा करता है. इसके लिए वह परंपराओं और विचारधाराओं की मनमानी व्याख्या करता है. दूसरे शब्दों में विचारों का इतिहास, अपने समय के राजनीतिक–आर्थिक और सामाजिक इतिहास से अलग नहीं होता. दूसरे, संसाधनों पर कब्जा करने के पश्चात अपनी स्थिति को बनाए रखने के लिए वह ऐसी संस्थाएं खड़ी करता है, जिनमें जनसाधारण के लिए प्रवेश के अवसर न्यूनतम हों. यदि लोकतांत्रिक छूट के अंतर्गत यह अधिकार देना भी पड़े तो प्रक्रिया इतनी जटिल बना दी जाती है कि उनमें आम आदमी का हस्तक्षेप न्यूनतम हो जाता है. इस बीच वह निम्नस्थ वर्गों को निरंतर यह विश्वास दिलाता रहता है कि उनकी समाजार्थिक हैसियत सामाजिक–सांस्कृतिक एवं वैधानिक मूल्यों द्वारा समर्थित है. और यदि कहीं अभाव या दुरवस्था है तो उसके जिम्मेदार सिर्फ उन परिस्थितियों में जी रहे लोग हैं.
जैसा कि हमने पहले भी कहा, यह स्थिति हमेशा से नहीं थी. जिन दिनों विपुल संसाधन थे, उन दिनों समाज में स्पर्धा के लिए भी कोई जगह न थी. पूरी तरह से वर्गहीन समाज था. फिर ऐसा समय आया जब निर्णय ऊपर से थोपे जाने लगे. विचारों की दुनिया में आपसी संवाद और सहमति के लिए कोई स्थान न रहा. पराजित सम्राट की भांति पराजित विचार को भी झुकने या फिर मिटने के लिए तैयार रहना पड़ता था. महाभारत में यक्ष के प्रश्नों का उत्तर न दे पाने पर युधिष्ठिर के भाइयों को मृत्यु प्राप्त होती है. लोकसाहित्य में ऐसी अनेक कहानियां सुनने को मिल जाएंगी, जिनमें नायक राजकुमारी के चंद प्रश्नों का उत्तर देकर न केवल उससे विवाह, बल्कि उसके पैत्रिक राज्य का उत्तराधिकारी भी मान लिया जाता था. जबकि उत्तर देने में असमर्थ अनेक राजकुमारों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता था. इतिहास में वैचारिक असहिष्णुता के और भी कई उदाहरण हैं. सातवीं शताब्दी के दार्शनिक, प्रकांड विद्वान मीमांसक कुमारिल भट्ट को मात्र इसलिए आत्महत्या का वरण करना पड़ता है, क्योंकि उन्होंने गुरु की इच्छा के विपरीत, बौद्ध विद्वानों को शास्त्रार्थ में पछाड़ने के लिए उनके दर्शन का अध्ययन किया था. यही नहीं, कुमारिल के प्रतिभाशाली शिष्य मंडन मिश्र को भी शंकराचार्य से शास्त्रार्थ में पराजित होने के पश्चात ‘मरना’ पड़ता है. जीवित बचता है उनका वेदांती अवतार—सुरेश्वराचार्य. कह सकते हैं कि राजनीतिक असहिष्णुता वैचारिक असहिष्णुता को बढ़ावा देती है. इसका उल्टा भी उतना ही सच है. उदार विचार उदार राजनीति की ओर ले जाते हैं. उदार और जवाबदेह लोकतंत्र वर्गहीन समाज के भीतर ही संभव है.
जिन दिनों व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा अविकसित थी, संस्कृति का नेतृत्व श्रमण परंपरा के ऋषि–महर्षियों की जिम्मेदारी थी. उनके बीच अनेक मतांतर और परंपरा–वैषम्य था. बावजूद इसके उनमें परस्पर सहअस्तित्व का भाव था. वेद, उपनिषद आदि आरण्यक उन्हीं यायावर महापुरुषों की देन हैं, हालांकि उनमें से अनेक के नाम हमारे लिए अपरिचित हैं. कह नहीं सकते कि वर्तमान में ये ग्रंथ जिनके नाम से जाने जाते हैं, सचमुच उन्हीं की रचना थे. या तत्कालीन पुरोहित वर्ग ने किसी ओर की रचनाओं को अपने नाम कर लिया. लोगों ने उसे सहज भाव से अपना भी लिया, क्योंकि सहस्राब्दियों से किसी भी व्यवस्था पर सवाल न उठाने और मूक अनुसरण करते रहने का प्रशिक्षण उन्हें प्राप्त होता है. कृषि के विकास के साथ जीवन में ठहराव आना शुरू हुआ तो श्रमणों का एक वर्ग, जो जंगलों के कष्टमय जीवन को छोड़कर आराम का जीवन जीना चाहता था—मानव–बस्तियों में या उनके आसपास आश्रम बनाकर रहने लगा. समाज में ज्ञान–पिपासुओं के प्रति आरंभ से ही आकर्षण एवं सम्मान का भाव था. वे उन्हें पुरुखों के यायावर जीवन की याद दिलाते थे. कहीं यह अफसोस तथा उससे पैदा कुंठा भी रही होगी कि पारिवारिक सुख–सुविधा और सुरक्षा की चिंता के कारण वे स्वयं यायावर मुनियों जैसा जीवन जीने में असमर्थ हैं. पुरोहित स्वयं को ईश्वर और आमजन के बीच प्रतिनिधि के रूप में पेश करता था. दिखाता था कि वह यायावर मनस्वियों के अधिक करीब है, इन सबके चलते जनसाधारण ने सहज ही पुरोहित वर्ग के श्रेष्ठत्व को स्वीकार कर लिया. उस श्रेष्ठत्व तथा प्राप्त सुख–सुविधाओं को अपनी पीढि़यों तक अंतरित कर, स्थायी बनाने की कोशिश कालांतर में कार्य–विभाजन की वजह बनी, जिसने आगे चलकर निकृष्ट जाति–प्रथा का रूप ले लिया. जिसे विद्वान हिंदू समाज का कलंक मानते हैं.
जाति व्यवस्था की कमजोरी है कि वह सबकुछ नियतिबद्ध मान लेती है. व्यक्ति के जन्म के साथ उसकी पसंद, नापसंद, रुचि, योग्यता, सम्मान–पात्रता आदि का एकमुश्त निर्धारण कर लिया जाता है. परिणाम यह होता है कि एक वर्ग को, जिसमें समाज के मुट्ठी–भर लोग सम्मिलित होते हैं, विशेषाधिकार संपन्न मान लिया जाता है. जबकि दूसरे वर्ग जो संख्या में पहले वर्ग की अपेक्षा चार गुना अधिक है, की प्रतिभा का उसकी पसंद के क्षेत्रों में सदुयोग तो दूर, उसके प्रदर्शन का अधिकार तक छीन लिया जाता है. इसके उदाहरण कभी भी, कहीं भी खोजे जा सकते हैं. महाभारत में द्रोण जिस समय एकलव्य का अंगूठा मांग रहा होता है, उस समय वह किसी युद्ध अभियान पर नहीं होता, बल्कि अपने गुरु को आकस्मिक रूप से सामने देख, हर्षित मन से तीरंदाजी के क्षेत्र में अपनी साधना के प्रदर्शन पर उतर आता है. द्रोण से एकलव्य की वह खुशी भी सहन नहीं होती. एकलव्य की प्रतिभा, तीरंदाजी का कौशल उसे डरा देता है. एकलव्य को लेकर जो डर द्रोण को है, वही कृष्ण को भी है. महाभारत के युद्ध में अर्जुन और द्रोण दोनों अलग–अलग खेमे में होते हैं. लेकिन अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी सिद्ध करने के लिए द्रोण जहां गुरु–दक्षिणा में उसका अंगूठा मांग लेता है, वहीं कृष्ण अपनी नारायणी सेना के साथ एकलव्य पर पीछे से प्रहार कर, युद्ध–भूमि में छलपूर्वक उसकी हत्या कर देता है. जाति–आधारित सामाजिक विभाजन में मनुष्य की इच्छा, चयन के अधिकार, विवेक, सहमति आदि का उसके कोई स्थान नहीं होता. इसका सर्वाधिक पतन शिखरस्थ श्रेणियों में दिखाई पड़ता है. वहां मौजूद लोग अपने स्वार्थ और वर्गीय श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए निम्नस्थ वर्गों का शोषण करते रहते हैं.
वर्णाश्रम व्यवस्था के बीज ऋग्वेद के संकलन–काल से ही अंकुराने लगे थे. पुरुष सूक्त इसका प्रमाण है. हालांकि उस समय तक जातीय विभाजन उतना नहीं गहराया था, जितना आज. कालांतर में उसके सहारे ऐसा वर्ग पनपने लगा जिसकी रुचि केवल पद–प्रतिष्ठा तक सीमित थी. जिसमें मौलिक सोच का अभाव था. जिसके लिए ज्ञान और आस्था में कोई अंतर न था. या यूं कहो कि अपनी रूढ़ आस्था और जड़ विश्वासों के आधार पर वह खुद के ज्ञानी होने का दावा करता था. इस प्रवृत्ति के चलते विश्व की प्रथम संहिता ऋग्वेद जिसे मानवीय जिज्ञासा एवं कौतूहल का उत्पे्ररक बनना चाहिए था—पोंगापंथी ब्राह्मणों के लिए ‘पवित्र पुस्तक’ में ढलने लगा. उसमें अंतर्निहित ज्ञान और इतिहास तत्व को सभ्यता संस्कृति के विकास की कसौटी बनाने के बजाए, उसके प्रति अंध–आस्था को ही मानवीय प्रज्ञा की कसौटी बताया जाने लगा. ध्यातव्य है कि पवित्रता का प्रत्यय संस्कृति के लिए भले ही कुछ काम का हो, साहित्य और ज्ञान की दूसरी विधाओं की मौलिकता के विकास में हमेशा बाधक रहा है. वह बदलाव विरोधी भी होती है. पांेगापंथी पुरोहितों के मन में ऋचाओं के मूल स्वरूप को सुरक्षित रखने की चिंता भी रही होगी. यहां मूल स्वरूप से आशय ऋचाओं के उस ‘संस्करण’ से है, जिन्हें ऋग्वेद के संकलनकर्ता ने अपनाया था. उस समय की परंपरा और स्थानीयता के अनुसार ऋचाओं के भिन्न–भिन्न संस्करण भी रहे होंगे. उनके बीच संहिताबद्ध कृति को महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा. फिर स्वाभाविक रूप से उसी को असली बताने की चिंता सताने लगी. उन दिनों उपलब्ध ज्ञान–समिधा का संहिताकरण बहुत श्रम–साध्य का कार्य था. इस कारण ऋचाओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए श्रुति की महत्ता कम नहीं हुई थी. अभ्यास से पता चला कि ऋचाओं को रटने के बजाय गाकर आसानी से याद रखा जा सकता है. गायन–वादन के मानकीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप ‘सामवेद’ की रचना हुई. इससे कर्मकांडीकरण को स्थायित्व मिलने लगा. बावजूद इसके समाज में वेदों की प्रतिष्ठा बढ़ रही थी. इसलिए नहीं कि वेदों में कुछ अनमोल–अनूठा था. बल्कि इसलिए कि उनके पठन–पाठन और गायन–वादन से जो वर्ग जुड़ा था, वह सत्ताकेंद्र के करीब और प्रायः उसका संरक्षक भी था.
उस समय तक ज्ञान के संप्रेषण का मुख्य आधार गुरु–शिष्य परंपरा थी, जिसमें दोनों आमने–सामने बैठकर शिक्षार्जन करते थे. भोजन, सुरक्षा, शीत आदि से बचने के लिए बीच में अलाव जलाए रखने की पृथा यज्ञ–संस्कृति का रूप लेने लगी. कालांतर में अग्नि कुंड को प्रज्जवलित रखना, उसकी वेदी बनाना भी पौरोहित्य के विशिष्ट कार्यों में शुमार होने लगा. कालांतर में उसी को लेकर ‘यजुर्वेद’ की रचना हुई. उस समय तक ‘लिखित’ शब्द की प्रतिष्ठा फैल चुकी थी. जिन ब्राह्मणों को वैदिक ऋचाएं कंठस्थ हों तथा जो उनका सस्वर पाठ कर सकें, वे अतिरिक्त सम्मान के पात्र माने जाते होंगे. उससे वैदिक ऋचाओं को याद कर, उनका पाठ करने के प्रति आकर्षण बढ़ा होगा. वेदी बनाकर ऋचाओं का सस्वर पाठ करना भी वैदिक कर्म मान लिया गया. उस परंपरा का संहिताकरण ‘यजुर्वेद’ के रूप में सामने आया. संकेत साफ हैं, ऋग्वेद के संकलन तक चाहे सब कुछ ठीक–ठाक रहा हो, ‘सामवेद’ और ‘यजुर्वेद’ की रचना के समय तो हिंदू वाङ्मय पूरी तरह कर्मकांड में ढल चुका था. दोनों ही कृतियां ज्ञान को परंपरा में ढाल देने की सामान्य प्रविधियां थीं इस परंपरा को आगे चलकर उपनिषदों में विस्तार मिला.
आवश्यक नहीं वैदिक काल में भी सभी लोग वेदों को मानते हों. उसी दौर में एक वर्ग ऐसा भी रहा होगा, जिसके लिए ऋग्वेद से आगे की ज्ञानयात्रा मानवीय मेधा का मौलिक उठान न होकर, जो है उसी को सहेजे रखने और उसपर दर्प करने की कोशिशें थीं. वह वर्ग वैदिक ऋषियों के आलोचकों का था. जो वर्ष–भर में तीन या चार महीने किसी एक स्थान पर ठहरता था और अपना बाकी समय प्रकृति के सान्निध्य में, जीवनसत्य की खोज में यहां से वहां विचरते हुए बिताता था. चूंकि वे लोग एक स्थान पर लंबे समय तक नहीं ठहरते थे, इसलिए लोगों पर उनका प्रभाव अपेक्षाकृत कम था. उसी से धीरे–धीरे दो परंपराओं का विकास हुआ. वैदिक ऋषियों की परंपरा और दूसरी श्रमण परंपरा. वैदिक परंपरा की तरह श्रमण परंपरा में भी अनेक मेधावी चिंतक जन्मे. याज्ञवल्क्य के समय में श्रमण परंपरा काफी विस्तृत हो चुकी थी. वैदिक ऋषि सामान्यतः एक ही स्थान या बस्ती में रहने लगे थे. जबकि श्रमणों को स्थान से दूसरे स्थान तक भ्रमण करते रहने के कारण तीर्थंकर कहा जाने लगा था. धीरे–धीरे उनमें मतभेद भी पनपने लगे.
यह ठीक है कि ऋग्वेद के माध्यम से वैदिक आचार्यों ने धर्म–दर्शन के क्षेत्र में ऊंची छलांग लगाई थी. वह संकलनकर्ता व्यास की मौलिक कृति नहीं थी. व्यास ने तो अपने समय में मौजूद ऋचाओं, कहानियों और परंपराओं का संकलन मात्र किया था. लेकिन बिखरी हुई, श्रुति के आधार पर लंबे समय से चली आ रहीं ऋचाओं को एक सूत्र में बांध देने का काम भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं था. उसकी ऋचाओं के अध्ययन द्वारा आसानी से समझा जा सकता है कि वे अलग–अलग मनीषियों द्वारा रची गई हैं. गौतम बुद्ध ने ऋग्वेद के रचियताओं को ‘ऋषि’ तथा ‘पुरोहित’ के रूप में वर्गीकृत किया है. भारत की दार्शनिक उड़ान तथा उसकी विसंगतियों को समझने के लिए इसे समझना बेहद आवश्यक है. गौतम बुद्ध के अनुसार ऋग्वेद के आरंभिक रचियता आरंभिक दस मुनिगण हैं. उनके नाम भी उन्होंने गिनाए हैं—‘आस्तक’, ‘वामक, ‘वामदेव, विश्वामित्र, भरद्वाज, वशिष्ट, कश्यप, भृगु, अंगिरस और जमदग्नि. बुद्ध की राय की तस्दीक मनुस्मृति में भी है. लेकिन वहां ऋषियों के नाम भिन्न हैं और हैं दार्शनिक न होकर पौरोहित्य के कारण जाने जाते हैं. मनु–स्मृति के अनुसार वेदों के आदि रचियता—अत्रि, याज्ञवल्क्य, अंगीरस, पुलत्स्य, वशिष्ट आदि हैं. ऋग्वेत्तर विकास की धारा को समझने के लिए इस वर्गीकरण को एक समझना अत्यावश्यक है. उपनिषदों के आदि व्याख्याता दार्शनिक और विचारक की कोटि के थे. जबकि दूसरा वर्ग जिन्हें वेदों में लंबे प्रक्षेपण के लिए जिम्मेदार माना जाना चाहिए, पुरोहित किस्म के थे. देवताओं को दी जाने वाली आहूतियां इसी वर्ग की रचनाएं हैं.
क्रमशः….