यह बात 1974 के आसपास की है. उन दिनों हाई स्कूल में पढ़ता था और दूसरे किशोरों की तरह सुंदर भविष्य का सपना देखता था. सरकारी नौकरी अच्छे, सुरक्षित भविष्य की द्योतक थी. गांव के कई और व्यक्ति भी नौकरी पर थे. जिनकी प्रतिष्ठा का आधार थी, अच्छी नौकरी तथा उससे जुड़ी आमदनी. उससे वे गांव में खेती की जमीन खरीदकर अपनी हैसियत बढ़ाते रहते थे. सही मायने में उन दिनों आदमी की हैसियत उसके अधिकार में मौजूद भू–संपदा से आंकी जाती है. नौकरीपेशा लोगों द्वारा अपनी बचत का निवेश कृषि भूमि की खरीद में करना आम था. गांव छोड़ शहर बसने का ख्याल तक नहीं आता था. गांव बड़ा था. ऐसे लोगों की संख्या काफी थी, जो सेवामुक्त होने के बाद गांव में जमे हुए थे. उन लोगों में सेना से सेवामुक्त मेजर, सूबेदार से लेकर थानेदार, सिपाही, अध्यापक, पटवारी आदि शामिल थे. रिटायरमेंट के बाद खेती की देखभाल करनी है, अभ्यास कहीं छूट न जाए, इस डर से ऐसे भी नौकरीपेशा लोग थे, जो छुट्टियों में गांव आते ही हल–बैल लेकर शान से खेतों में चले जाते तथा तपती धूप में, नंगे पांव खेतों की जुताई–बुवाई करते थे. जैसे–जैसे सेवाकाल करीब आता, घर–घेर की मरम्मत आरंभ हो जाती, जिस सामंती सोच के लिए गांव आज बदनाम हैं, उन दिनों अशिक्षित जनसमाज में वह और भी प्रबल हुआ करता था. इसके बावजूद नौकरीपेशा लोगों का अगला सपना रिटारयमेंट के बाद गांव में चैन की जिंदगी जीना होता. गांव छोड़ने की बात कम ही लोगों के दिमाग में आती थी.
इसी को संदर्भ देती कुछ घटनाएं बचपन की याद आती हैं. गांव से चौदह–पंद्रह किलोमीटर दूर बुआजी का गांव था. साल में दो–तीन बार जाना होता. वहां हमउम्र लड़कों के संग खेलते–बतियाते हम एक मुहल्ले से दूसरे तक निकल जाते. वहीं कच्ची मिट्टी का बड़ा घर था. चौड़ा आंगन, बीच में नीम का पेड़. चारों दिशाओं में कच्ची मिट्टी के बने छप्परदार कमरे. तीन कोठरियों में एक–एक परिवार. हर समय चहल–पहल रहती. बस एक कोठरी का छोटा–सा खिड़कीनुमा दरवाजा हमेशा बंद मिलता. एक दिन पता चला कि चारों भाइयों में सबसे बड़े, जिनके हिस्से में वह कोठरी आई है, शहर जा बसे हैं. साल–छह महीने में जब आते हैं, तभी दरवाजा खुलता है. यह कोई नई बात न थी. गांव में ऐसे और भी घर, मकान थे जिनके दरवाजे पर ताला पड़ा रहता. घर की संपत्ति को बेचा जा सकता है, ऐसा विचार कभी दिमाग में भी नहीं आता था. कभी–कभी उदारमना लोग अपनी संपत्ति को भाइयों–रिश्तेदारों के सुपुर्द कर आते. उस संपत्ति पर उनका नैतिक कब्जा सदा बना रहता. हालात चाहे जैसे हों, पुरखों की जमीन को बेचना पाप समझा जाता था. ऐसे लोग जिन्होंने शहरों में कामयाबी के झंडे गाड़कर वहां पर बड़े, आलीशान मकान बना लिए थे, जो शायद ही कभी गांव लौटने वाले थे, वे भी गांव की कच्ची–पक्की पैत्रिक संपत्ति के बहाने उससे जुड़ा रहना चाहते थे. यह बात गांव से निकले लोगों में आज भी कमोबेश वैसी ही है. घरों से आदमी का अपनापा होता है. घर उनकी मान–मर्यादा–इज्जत–शोहरत–जात–बिरादरी से जुड़ा होता है.
1990 तक आते–आते हालात बदलने लगे थे. आबादी बढ़ने से जोतें सिकुड़ने लगी थीं. खेती अब लाभ का धंधा नहीं रह गई थी. गांव में खेती के सहारे सम्मानजनक जीवन जी पाना सभी के लिए संभव नहीं रह गया था. इस कारण सोच में भी बदलाव आया था. इस दौर में जमीन की किल्लत बढ़ी थी. इसके साथ ही सुविधाएं और शहर में रहने की ललक भी. रंगीन टेलीविजन के साथ उपभोक्तावाद दस्तक दे चुका था. नौकरी के चलते गांव छोड़कर शहर आने वाले लोग सुविधाओं के मोह में वहीं बसने का ख्वाब पालने लगे थे. गांव में कई–कई बीघा, एकड़ जमीन रखने वालों का नया सपना था, शहर या उसके आसपास एक टुकड़ा जमीन, जहां वे अपने लिए हैसियत के अनुसार घर बना सकें. शहर की अवैध कालोनी में बने घर की हैसियत गांव की उपजाऊ जमीन से अधिक हो चुकी थी. शहर में रहने का ठिकाना हो तो बेरोजगार न चिंता न कर लोग लड़के से अपनी बेटी ब्याह दिया करते थे. शहर में रहेगा तो खा–कमा लेगा, लड़की और उसके गरीब माता–पिता के लिए इतना भरोसा पर्याप्त था. कृषि अब घाटे का धंधा थी. जीविका के लिए नौकरी और व्यवसाय जैसे विकल्पों को महत्त्व दिया जाने लगा था. घाघ की कहावत, ‘उत्तम खेती, मध्यम बान’ झूठी पड़ने लगी थी. शिक्षा के प्रति आकर्षण बढ़ रहा था. इसके बावजूद किसी न किसी रूप में मिट्टी से लगाव अब भी शेष था. शहरों में फ्लैट संस्कृति जोर मारने लगी थी. जमीन की बढ़ती किल्लत को देखते हुए बहुमंजिला इमारतें सिर उठा रही थीं. पर ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए लोगों का सपना अब भी अपनी जमीन पर घर बनाना या बना–बनाया एक मंजिला घर खरीदना होता, ताकि जमीन से नाता बना रहे तथा आसमान आने वाली संततियों के लिए सुरक्षित रहे. इन दो–तीन दशकों में जो बदलाव आया था, वह यह कि पहले गांव में खेती–योग्य भूमि प्रतिष्ठा का मापदंड थी. बदले सोच के साथ शहर में मकान होना सुख–समृद्धि का प्रतीक माना जाने लगा था. इसके बावजूद मकान अब भी सिर पर छत की व्यवस्था के रूप में देखा जाता था. वह निवेश का द्योतक नहीं बन पाया था.
देश में उदारवाद की हवा चली. सरकार ने निजीकरण के बहाने अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ना शुरू कर दिया था. बाजार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खोल दिए गए. अब सबकुछ निजी पूंजी के भरोसे था. अनियोजित आयात के चलते छोटे उद्योग–धंधे तबाह होने लगे तो उनमें से बहुतों ने समय रहते हथियार डालने में भलाई समझी. वे उन सुरक्षित रास्तों की ओर पलायन करने लगे जो अभी तक स्पर्धा से बचे थे. उनमें विपणन, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास क्षेत्र प्रमुख थे. कारपोरेट जगत के लिए ये चारों बड़े काम के थे. इनमें सबसे अधिक संभावनाओं वाला क्षेत्र था—आवास निर्माण. माल की बिक्री के लिए उन्हें बाजार की जरूरत थी. ऐसे पढे़–लिखे युवकों की जरूरत थी जो संस्कृति के मोहपाश से मुक्त, उपभोक्ता वस्तुओं को ललचाई नजरों से देखते हों. ऐसे ही युवक उपभोक्ता वस्तुओं को प्रतिष्ठा की वस्तु बताकर बेच सकते थे. बाजार उनकी ख्वाबगाह था. वे कहीं सेल्समेन थे, कहीं पर उपभोक्ता. बाजार संस्कृति के चौतरफा विस्तार के लिए उपभोक्ता के मन को बदलना अनिवार्य था. वह तभी संभव था, जब मनुष्य अपनी परंपरा से बंधा दबा हुआ न हो. नौकरी की मजबूरी के चलते आम भारतीय का शहर में बसना विवशता थी. परंतु संस्कार एकाएक पीछा नहीं छोड़ते. रोजगार की तलाश में शहर आए आम भारतीय का मन अब भी गंवई मानसिकता में डूबा रहता. न्यूनतम खर्च में काम चलाकर वह भविष्य के लिए बचत का इंतजाम करता. सुरक्षित भविष्य के बहाने कुछ न कुछ बचाकर रखना चाहता—बाजार के पंडितों की दृष्टि में यह मानसिकता बड़ी बाधा थी.
पूंजीपति कारपोरेट कंपनियों का लक्ष्य था उपभोक्ताओं के उपनिवेश बनाना. देश के भीतर छोटे–छोटे उपदेश ‘क्रिएट’ करना. शहरीकरण के बहाने उपभोक्ता–संस्कृति के नए टापू बसाना. सभ्यता और संस्कृति के कमजोर पहलुओं की पहचान कर वहां सूराख करना; तथा उन छेदों से अपने लिए प्राणवायु खींचना. ऐसी बस्तियां खड़ी करना जहां थोक के भाव उपभोक्ता उपलब्ध हों. जिनका अपना न कोई दिल हो न दिमाग. जो पूंजीवाद के आकाओं के अनुसार सोचें, उनका बताया हुआ खाएं, उनका दिखाया हुआ पहने. उनकी समय–सारणी के अनुसार जिनकी जीवनचर्या हो. यह संभव कैसे हो? इलाज सोचा–समझा और आजमाया हुआ था, औपनिवेशीकरण. बाधा थी तो एक, बचत–संस्कृति. अतीत से प्रेरणा लेना. भविष्य पर नजर रखना और वर्तमान को सबके साथ मिल–जुलकर, सुख–दुख बांटते हुए जी लेना. उसी के चलते तो हर आदमी अपने बुरे दिनों के लिए, आड़े वक्त में मित्रों, रिश्तेदारों की मदद के नाम पर, कुछ न कुछ बचाकर रखना चाहता था. आदमी की बचत पर कब्जा किया जाए! यह सोच तो कभी का पुराना पड़ चुका था. नया कारपोरेटी चिंतन था आदमी की पूरी की पूरी कमाई को अपनी जेब के हवाले कर लेना. उसके हिस्से बस इतना छोड़ना कि वह लकदक रहे. अगले दिन काम पर जाए और उनके लिए कमाकर लाए, ताकि किश्तें समय पर चुकाए. रास्ता तय था. आदमी को उसकी पूरी संस्कृति, परंपरा, कुल, मर्यादा, देश, समाज से अलग–थलग कर देना. उसके लिए इतनी सुविधाएं जुटा देना कि उनसे बाहर वह कुछ देख–सोच न सके. उपभोग में इतना डुबा देना कि उसकी अपनी ही सांसें एक–दूसरे के साथ स्पर्धा करने लगें. अधिक से अधिक सुविधाएं कैसे जुटाई जाएं—इसके अलावा आदमी यदि कुछ सोच पाए तो बस इतना कि पड़ोसी उससे ईर्ष्या करते हैं. रिश्तेदार उससे खार खाते हैं. दोस्त उससे जलते हैं. उन सबके कारण उसका भविष्य असुरक्षित है. उसका न स्वयं पर विश्वास हो, न किसी और पर. अपने मित्रों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों के प्रति संदेह और डर उसके दिलो–दिमाग में समाया हुआ हो. डरा हुआ आदमी भविष्य से भागेगा. वह केवल वर्तमान में जिएगा. कल की चिंता से मुक्त होगा तभी वह आज में डूब पाएगा.
यह भूमिका थी, नए विशुद्ध बाजारवादी संस्कृति पर आधारित उपनिवेश बसाए जाने की. देश के आंतरिक औपनिवेशीकरण की. निरंकुश विस्तार के इस शातिराना तरीके को पूंजीपति उन स्थानों पर आजमाता है जहां सरकारें ढुलमुल हों. जहां सरकार कमजोर न हो, वहां उसकी विश्वसीनयता पर सवाल उठाकर उसको कमजोर करने का भरसक प्रयास किया जाता है. संस्कृति के कृत्रिम संकट खड़े कर आदमी को भरमाया जाता है. इसका उल्लेख मार्क्स ने किया था. अंतोनियो ग्राम्शी ने भी इस खतरे को पहचान लिया था. पर वे बीती बातें हो चली थीं. खुद लोगों ने ही उन्हें भुला दिया. नई संचार प्रौद्योगिकी के कंधों पर सवार पूंजीवाद विकास के नाम पर दबे पांव दफ्तर से बेडरूम तक पसर गया. दिलो–दिमाग पर बाजार ने कब्जा कर लिया. समाजवाद को दकियानूसी कहा गया. साम्यवाद को दिमागी फितूर. कल की चिंता करना दिमागी पिछड़ापन मान लिया गया. आदमी बाहर का कुछ सोच न पाए इसके लिए फ्लैट संस्कृति का अंधाधुंध विस्तार किया गया. आवास समस्या के समाधान के नाम पर कंक्रीट के जंगल उगाए जाने लगे. हर किसी के लिए महंगा घर खरीद पाना संभव न था. स्पर्धा में पिटे हुए उद्योगपति पैसा, जमीन, दलाली और माफियागर्दी के नए सिंडीकेट का सदस्य बन गए. कंक्रीट के जंगल बसे. परंतु जनसाधारण अब भी किराये के मकानों में जैसे–तैसे गुजारा कर रहा था. कीमत से चार गुना महंगा घर खरीद पाना उसके लिए संभव न थ. वह उन्हीं के लिए संभव था, जिनके पास अतिरिक्त आमदनी की अफरात हो. ऐसे लोगों को न्योंता जाने लगा. उन्हें बताया गया कि दूसरा मकान खरीदना सुरक्षित निवेश है. यानी निश्चित भविष्य की गारंटी और समझदारी का सौदा. एक रहने को दूसरा मुनाफा कमाने के लिए. और इस तरह अतिरिक्त घर का सपना उनकी आंखों में पिरो दिया गया. बैंकों के लुभावने आ॓फर आने लगे. मानो घर खरीदना चुटकी बजाने जैसा काम हो. लोग उस प्रलोभन का शिकार होने लगे. उसके बाद जो हुआ सामने है. घर जो माता–पिता के आशीर्वाद की छांव, विरासत में मिली अनमोल थाती, वुजुर्गों की मीठी–सुहानी याद था, उसको निवेश का माध्यम बन गया. जिस आंगन से मिट्टी की गंध उभरती थी, वहां इटालियन पेंट की गैसें सिर घुमाने लगीं. फुर्सत के जो क्षण परिवार के साथ बतियाने, हंसने–बोलने के थे, उसपर टेलीविजन और इंटरनेट सवार हो गए. आदमी गिनीपिग बन गया.
घर की संकल्पना तो करीब 12000 वर्ष पहले ही इंसान से जुड़ चुकी थी जब आदमी ने एक स्थान पर टिककर रहना शुरू किया. तब उसे पता चला कि एक जगह टिके रहने से वह तेजी से विकास कर सकता है. घर से रिश्तों में ठहराव आया. रिश्तों से समाज बना, समाज से सभ्यता की शुरुआत हुई. घर से मनुष्य का भावनात्मक रिश्ता दिनोंदिन गहरा होता गया. पर बारह हजार वर्ष पुराना यह सपना अब और अधिक नहीं टिकने वाला. कारपोरेटी कल्चर में घर सिर पर छत से अधिक कुछ नहीं. अब वह सीमेंट, बिजली, टेलीफोन, मोबाइल, परिवहन, टेलीविजन, रेफ्रीजरेटर, एयरकंडीशनर, जेनरेटर, लोहा, हार्डवेयर, सेनेटरी, वित्त कंपनियों की इजारेदारी है. घर बनाने से लेकर फिनिशिंग तक सैकड़ों कारपोरेट कंपनियों को काम मिलता है. बाकी जो बच जाती हैं वे ‘गृह प्रवेश’ के बाद मोर्चा संभाल लेती हैं. आवास ऋण की किस्तों के अलावा बिजली, पानी, टेलीफोन, सीवर, मेंटेनेंस, लिफ्ट, जेनरेटर, सेटेलाइट टीवी, कार–ऋण, बीमा जैसे दर्जनों खर्च जुड़ जाते हैं, जिनका किश्तवार भुगतान करना ही पड़ता है. यहां रहते हुए बचत की आदत छूट जाती है. आदमी उपनिवेश बसाने वालों की मर्जी का शिकार बन जाता है. उनके सुख–समृद्धि के लिए जीने की आदत डाल लेता है.
बहुमंजिला इमारतों में रहने वाले प्रायः सोचते हैं कि वे अपने मकान में रह रहे हैं. परंतु यह केवल आभासी सच होता है. वे शायद ही कभी समझ पाते हैं कि अपने ही देश में वे ऐसे उपनिवेश में रह रहे हैं, जिन्हें बड़ी पूंजीपति कंपनियों जिनमें वित्त, संचार, मनोरंजन, परिवहन, यातायात, बीमा, सीमेंट, लोहा, रंग–रोगन, शराब, शरबत आदि सम्मिलित हैं, ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए खड़ा किया है. घर खरीदने के लिए आदमी दस से तीस वर्ष की किश्तों पर कर्ज उधार लेता है. एक–तिहाई से ज्यादा आमदनी घर की किश्त चुकाने में निकल जाती है. एक–तिहाई बिजली, पानी, जेनरेटर, मेनटेनेंस, बीमा के भुगतान पर. खाने–पीने, बच्चों की लिखाई–पढ़ाई के बाकी काम कतर–ब्योंत से चलते हैं. बीस–तीस साल बाद जब मकान की किश्तें पूरी होने का समय आता है, तब तक उन मकानों की उम्र भी पूरी होने लगती है. दीवारें पलस्तर झड़ने से बेआब हो चुकी होती हैं. सड़कें मेंटेनेंस को तरसने लगती हैं. बुढ़ापा घर और गृहस्वामी दोनों को साथ–साथ आता है. जिस बस्ती को उसने स्वर्णनगरी समझाकर घर लिया था, वह मलिन बस्ती बन जाती है. तब जाकर आदमी जान पाता है कि जिसको वह अपना घर समझा था, वह उसका था ही नहीं. उसके हिस्से रह जाता है केवल बुढ़ापा, बदरंग झुर्रियां, तनाव तथा अनगिनत बीमारियों से भरा ढला शरीर.
सरकार केंद्र की हो या राज्य की. अपने–अपने प्राधिकरणों के जरिये भू–अधिग्रहण में जुड़ी हैं. केंद्र सरकार को जमीन चाहिए ताकि हाई–वे निकालने के बहाने आटोमोबाइल, सीमेंट, लोहा, कंस्ट्रक्शन, हार्डवेयर, संचार जैसे क्षेत्रों में काम कर रही कंपनियों से दलाली खा सके. राज्य सरकारों को भी जमीन चाहिए, ताकि वे हाई–वे के किनारे–किनारे नई बस्तियां बना सकें. एक के बाद एक राज्य सरकारें नए शहर बनाने की घोषणा कर रही हैं. ’अपना घर’ आज सबसे बिकाऊ सपना है. बड़े–बड़े पूंजीपति घर बनाने में लगे हैं. जिसे घर बनाने में रुचि नहीं वह बने–बनाए शहरों को बिजली, पानी, सड़क, संचार आदि उपलब्ध कराने में जुटा है. नए शहर बसाने के नाम पर किसानों को उजाड़ा जा रहा है. बहुमूल्य कृषि भूमि कौड़ियों के दाम कब्जाने का खेल जारी है. पहले औद्योगिक क्षेत्र और आवास बस्तियां बंजर और अनुपजाऊ भू–क्षेत्रों पर बसाई जाती थीं. अब बस्तियां उपजाऊ जमीनों पर है. जमीन हथियाने के लिए किसानों को तरह–तरह के प्रलोभन दिए जाते हैं. सवाल है कि ये घर किसके लिए हैं. बेघर लोगों के लिए? जिस देश की औसत आमदनी पांच हजार रुपये महीना है, वहां बीस–बाइस हजार रुपये की औसत मासिक किश्त वाले मकान भला कौन खरीद सकता है? मतलब इन घरों–उपनिवेशों में उनको बसाया जाए जिनकी परचेज पावर अधिक है. जो आगे चलकर कमाई का जरिया बन सके. यही कारण है जो अंबानी और टाटा जैसे पूंजीपतियों को आम आदमी के सिर पर छत न होने की चिंता सताने लगी है? इन सभी को स्थायी उपभोक्ताओं की तलाश है. इसलिए आंतरिक औपनिवेशीकरण का खेल बड़े पैमाने पर जारी है. आपको भरोसा न हो तो किसी पंद्रह–बीस मंजिला टावर को बिजली भाग जाने के कारण अंधेरे में डूबी बस्ती बीच खड़े होकर गौर से देखिए. इधर आपको पसीने से लथपथ बिजली कंपनी को कोसते हुए लोग नजर आएंगे, उधर जेनरेटर की रोशनी से लकदक अपार्टमेंट में मजे की बेफिक्र नींद लेते संभ्रांत. शहर के भीतर बसे उपनिवेशों की हकीकत आप झट से समझ जाएंगे. परंतु क्या वे लोग भी समझ पाएंगे कि वे जो देख रहे हैं, वह खुली आंखों का सपना है. उनके सिर पर छत, कमरे की ठंडी हवा है तो इसलिए कि अगले दिन तरोताजा होकर वह नए सिरे से जुट सकें….इन उपनिवेशों की प्रगति और उनकी समृद्धि के लिए. रियल्टी सेक्टर की यही ‘रीयल्टी’ है.
तो क्या देश के सामने आवास जैसी कोई समस्या नहीं है? जो लोग किराये के मकानों में रहते हैं, जिनके आवास शहर की पुरानी सघन बस्तियों में हैं, क्या उन्हें उन्हीं के हाल पर छोड़ देना चाहिए? हरगिज नहीं. बेघरों को घर उपलब्ध कराना सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है. पर यह लाजिम है कि घर लोगों की जरूरत को देखकर वनाए जाएं. न कि बेघरों को बिल्डरों, भू–माफिया और फाइनेंस कंपनियों के स्वार्थ के हवाले कर दिया जाए, समाज यदि एक शरीर है तो उसका विकास ऐसे होना चाहिए कि शरीर का प्रत्येक अंग समानरूप से लाभान्वित हो. शरीर का यदि कोई एक हिस्सा फूलने लगेगा तो वह गूमड़े के समान अलग दिखाई देगा. यदि कोई हिस्सा काम करना बंद कर देगा तो वह पक्षाघात से पीड़ित नजर आएगा. विकृति हर हाल में होगी. अशोभन हालात से बचने के लिए जरूरी है कि विकास का समांगीकरण हो. वह सबके हिस्से बराबर आए. तब शहरों की आवास समस्या का हल क्य़ा है? एक निदान तो यह हो सकता है कि आसपास के गावों को उजाड़ने के बजाय उनका नागरीकरण किया जाए. नीति गांव के सर्वांगीण विकास को लेकर बने और ध्येय आवास समस्या के निदान को बनाया जाए. पर यह तभी हो सकता है जब विवेकपूर्ण तरीके से चुनी गई सरकारें अपने ही विवेक से चलें, कार्पोरेट घरानों के स्वार्थ से हांकी न जाएं.
© ओमप्रकाश कश्यप