भारत में जितनी चर्चा क्रिकेट की लोकप्रियता की होती है, उसका सहस्रांश भी उसके कारणों की समीक्षा पर खर्च नहीं होता. जैसे मान लिया गया है कि क्रिकेट हमारे खून में है. एक नामी-गिरामी संपादक जो सती प्रथा और क्रिकेट का एकसमान गुणगान करते थे, हाल ही में ‘क्रिकेट-क्रिकेट’ भजते दिवंगत हुए. लोग उनके क्रिकेट-बोध पर फिदा थे, वे खुद देश की सती प्रथा पर. भगवान यदि लापता नहीं है तो उनकी आत्मा को शांति बख्शे. श्रीमान जाते-जाते भी बता गए कि लोग सचिन तेंदुलकर की कामयाबी का राज नाहक उनकी मेहनत और कलाइयों की उस करामात में ढूंढते हैं, जो बल्ले को ऐसे घुमाती हैं कि गेंद सीधी मैदान बाहर सांस लेती है. उनकी माने तो यह सब सचिन के ब्राह्मण होने का प्रताप है. गोया दुनिया के जितने भी बल्लेबाज हैं, गैरी सोबर्स से लेकर डेनिस लिली तक, सबके सब ब्राह्मण की औरस-जात हों.
‘उनने’ भी जितने ‘कागद’ सचिन की महानता का गुणगान करने के लिए ‘कारे’ किए, उसका शतांश भी क्रिकेट की लोकप्रियता के कारणों की पड़ताल पर जाया नहीं किया. क्या वे नहीं जानते थे कि क्रिकेट कोरा खेल न होकर समाज पर पूंजीवादी बाजार का शिकंजा है! सस्ता मनोरंजन है, जिसे नकली देशभक्ति की थाली में सजाकर परोसा जाता है. एक मोहपाश है जो देश के करोड़ों लोगों को भरमाए रखता है! ऎसा खेल जो सीधे-सादे लोगों को इलीट होने का झूठा एहसास देता है. क्या वे नहीं जानते थे कि फिल्मों की भांति क्रिकेट ने भी देश को नकली नायक ही दिए हैं, जो खेलने के अलावा बाजार की मांग पर नाच-गा सकते हैं. बल्कि वे क्रिकेट में जाते ही इसलिए हैं कि बाजार की आंखों के चांद-तारे बन सकें. देशभक्ति उनके लिए, बाजार और विज्ञापन-जगत के लिए महज एक धंधा है.
यह बाजार और उसका स्वार्थ ही है जो अभिताभ बच्चन को सदी का महानायक और सचिन तेंदुलकर को महान बल्लेबाज लिखता है. ‘महान’ शब्द को कितना छोटा बना दिया है इन्होंने. अगर अभिताभ सदी के महानायक हैं, तब भगत सिंह क्या थे! महात्मा गांधी से उनका दर्जा क्यों नहीं छीन लेना चाहिए? यदि इन्हें महान मान जाए तो वैशाली की नगरवधु आम्रपाली को केवल ‘कुशल’ नृत्यांगना कहकर कैसे निपटा सकते हैं! उसे तो भारतीय इतिहास की महादेवी की पदवी मिल ही जानी चाहिए. नचनियों को नायक बनाकर पेश करना लुटेरी बाजारवादी सभ्यता में ही संभव है. इसलिए बाजार में सवाल नहीं उठाए जाते. बाजार चाहता भी यही है कि लोग विज्ञापन के तानपुरे पर केवल गर्दन हिलाएं. अर्थों की खोज की हिमाकत न करें. बात पर कान दें, ध्यान हरगिज न दें.
पिछले दिनों क्रिकेट टीम में छोटे शहरों के कई खिलाड़ी लिए गए. इस बात का बहुत शोर मचाया गया कि छोटे शहरों से भी क्रिकेट की प्रतिभाएं उभर रही हैं. इस सबके पीछे विज्ञापनदाता कंपनियों की सोची-समझी रणनीति थी. सब जानते हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां शहरों को निचोड़ चुकी हैं. रीयल ऐस्टेट और दूर संचार कंपनियां जो ऐसे मैचों के प्रमुख प्रायोजक की भूमिका निभाती हैं, सहस्राब्दि की शुरुआत से ही भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बाजार की संभावनाएं तलाश की रही थीं. उनके निशाने पर छोटे शहर और गांव थे. उनके सुरसामुखी विस्तार के लिए अकेले सचिन का शहरी और उम्रदराज चेहरा काफी नहीं था. इसलिए धोनी को लाया गया. रैना जैसे नए चेहरे लिए गए. टीम का कप्तान बनने के बाद धोनी के खेल में गिरावट आई थी. फिर भी बाजार ने संभाले रखा. किसी न किसी तरह उनके नायकत्व को बनाए रखा गया. इसलिए कि उसकी जितनी धोनी को थी, उतनी ही मीडिया को भी थी. उन कंपनियों को भी थी जो धोनी के ऊपर करोड़ों का दाव लगा चुकी थीं.
इस बात का दावा खूब बढ़-चढ़कर किया जाता है कि भारतीय क्रिकेट बोर्ड क्रिकेट की दुनिया की सबसे धनी संस्था है. मगर यह सवाल कोई नहीं उठाता कि एक गरीब देश का क्रिकेट बोर्ड दुनिया का सबसे मालदार क्रिकेट बोर्ड कैसे बना. हमारा आधुनिकताबोध, समकालीनताबोध क्रिकेटबोध से ऐसा जुड़ा है, कि कोई अलग नहीं होना चाहता. यहां तक कि हम इससे बाहर झांकना तक नहीं चाहते. कितने लोग जानते हैं कि क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड एक प्राइवेट संस्था है; और जिसे हम भारतीय क्रिकेट टीम कहते हैं, वह दरअसल भारतीयों की टीम है! असल में वे ऎसे चेहरें हैं जिनकी विज्ञापन जगत को आवश्यकता है. फिर भी भारत-पाकिस्तान का मैच हो तो नकली देशभक्ति जुनून ऐसा उमड़ता है कि दंगों जैसे हालात पैदा हो जाते हैं. दर्शकों की भावुकता और उनके जुनून को भुनाने वाला मीडिया हमें यह कभी नहीं बताता कि क्यों अमेरिका में क्रिकेट नहीं खेला जाता. ओलंपिक में सबसे अधिक मेडल जीतने वाले चीन और जापान को क्रिकेट के नाम पर इतना परहेज क्यों है? आस्ट्रेलिया को छोड़कर वही देश इस खेल में आगे क्यों हैं, जिनकी अपनी समस्याएं बेशुमार हैं? क्या कारण है कि क्रिकेट का खेल पश्चिमी देशों में जहां यह जन्मा, वहां निरंतर कम होता जा रहा है. आस्ट्रेलिया, इंग्लेंड जैसे देशों में भी हमारे यहां से कम क्रिकेट खेली जाती है. जबकि एशिया महाद्वीप में बिना क्रिकेट के आप कल्पना भी नहीं कर सकते.
कारणों की पड़ताल के लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा. सत्तर का दशक भारतीय अर्थव्यवस्था में परिवर्तन और नए औद्योगिक घरानों और कारखानों के उभार का भी दशक था. राजनीतिक उथल-पुथल के उस दौर में पूंजीवाद समाज और शासन पर अपनी पकड़ बनाता जा रहा था. तेजी से बढ़ते कारखानों को अपने नए उत्पादों के लिए आकर्षक चेहरे-मोहरे वाले मा॓डल्स की तलाश हमेशा रहती है. उससे पहले वे नायक फिल्मों और टेलीविजन से आते थे. किंतु शिक्षा के प्रसार के साथ देश का आम दर्शक-श्रोता भी जानने लगा था कि फिल्मी अभिनेताओं का नायकत्व झूठा है. सेलुलाइड की चमक-दमक नकली और अस्थायी है. सिवाय शारीरिक सौष्ठव के फिल्मी नायक-नायिकाओं की बहादुरी, उनकी कला-प्रवीणता, यहां तक कि उनकी आवाज भी उनकी अपनी नहीं है. बहादुरी के लिए उनके डुप्लीकेट्स हैं, जिनके नाम तक नहीं लिए जाते. गीतों के सुरीले बोल पार्श्व गायकों के गले से आते हैं. इसलिए उत्पादों की बढ़ती संख्या को बाजार में लोकप्रिय बनाने, उनके लिए बड़ा उपभोक्तावर्ग पैदा करने के लिए उन्हें ऐसे नायकों की जरूरत थी, जिनका नायकत्व असली-सा जान पड़े. जिनके माध्यम से वे दर्शकों के हुजूम को अपने विज्ञापन परोस सकें. ऐसे चेहरों की तलाश के लिए विज्ञापन जगत का ध्यान खेलों की ओर गया, जहां सारा का सारा दारोमदार खिलाड़ियों के कौशल पर निर्भर करता है. खेलों में भी क्रिकेट उन्हें सर्वाधिक अनुकूल लगा.
सवाल है कि क्रिकेट का कौन-सा गुण उसको लोकप्रिय बनाता है. जिससे दूसरे खेलों के दर्शक उसकी ओर खिंचे चले आते हैं? चार-पांच दशक पहले तक इस देश का सर्वाधिक लोकप्रिय खेल हाकी था. वही देशभक्ति और राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान था. उसके बरक्स क्रिकेट अंग्रेजों और उनके मुंह लगे सामंतों का खेल था. आजादी के बाद स्थिति बदली. विकास की ओर अग्रसर देश में मध्यवर्ग का तेजी से विकास हुआ, जो खुद को अंग्रेजियत के करीब रखने में गर्व का अनुभव करता था. इस मामले में बाजी क्रिकेट के हाथ थी, क्योंकि उसकी सारी की सारी शब्दावली, खिलाड़ियों की वेशभूषा, खासतौर पर टोपी अंग्रेजियत को उनके एकदम पास ले आती थी. दूसरे इस खेल में नफासत भी थी. आपको बस खड़े-खड़े बल्ला चलाना है. गेंद फेंकने, उठाकर लाने के लिए दूसरे खिलाड़ी हैं. एकदम सामंती अंदाज. खेल में हालांकि गेंदबाज की भी भूमिका होती है. मगर वह दोयम दर्जे की, जैसे परिवार में स्त्री. दूसरे हाकी खेलने के लिए जो दम-खम चाहिए वह शहरी परिवेश में सर्वसुलभ नहीं था. उसके अधिकांश खिलाड़ी ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते थे. क्रिकेट में शहरीयत के अलावा इतनी सहजता भी थी कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी रनों और ओवरों का हिसाब लगा सकता है. यानी क्रिकेट इस देश के तेजी से उभरते हुए मध्यवर्ग को जो आधुनिकताबोध दे सकता है, वह हाकी नहीं दे सकती. हालांकि क्रिकेट की भांति उसमें भी मास अपील यानी दर्शकों को अपनी ओर खींचने का सामर्थ्य था. मगर कुछ तकनीकी कारण भी रहे, जिनके चलते हाकी विज्ञापन जगत के लिए बहुत उपयोगी नहीं थी.
हाकी और फुटबाल जैसे खेलों की पारियां अपेक्षाकृत कम समय तक चलती हैं. उनके खेल में अत्यधिक तेजी और निरंतरता होती है. दर्शक गेंद का पीछा करते खिलाड़ियों को केवल सांसें थामकर देख सकता है. वह खिलाड़ियों के कौशल से रोमांचित हो सकता है. मगर उस खेल का खुद हिस्सा बन जाने, टीका-टिप्पणी करने अवसर उसके पास नहीं होता. तेजी से चलते मैच के बीच विज्ञापनों की घुसपैठ भी आसान नहीं है. दूसरी ओर क्रिकेट में हर ओवर के बाद खिलाड़ी अपना स्थान बदलते हैं. बल्ला लगते ही गेंद मैदान के बाहर चली जाए तो खिलाड़ी को दौड़ना भी पड़ता है. इस अंतराल में दर्शक को खेल और खिलाड़ी के बारे में सोचने का अवसर मिल जाता है. वह अपने पसंदीदा खिलाड़ी की प्रशंसा या आलोचना कर सकता है. खुद को उस अवस्था में रखकर सोच सकता है. यही क्षण मीडिया और विज्ञापनदाताओं के काम के होते हैं. इस अंतराल का उपयोग वे दर्शक-श्रोता के मानस पर अपने उत्पाद की पकड़ जमाने के लिए करते हैं.
हाकी और फुटबाल जैसे तीव्र गति खेलों में जब तक गेंद और गोल के बीच दूरी हो, रोमांच बना ही रहता है. उसके बीच से दर्शकों को अपने उत्पाद तक खींच कर ले जाना आसान नहीं होता. जबकि क्रिकेट के खेल में रोमांच के अवसर बीच-बीच में आते ही रहते हैं, जिसका फायदा दर्शकों को खेल से जोड़े रखने के लिए बाखूबी किया जा सकता है. क्रिकेट की लोकप्रियता का एक और कारण यह है कि हाकी और फुटबाल जैसे खेलों में जहां खिलाड़ी का अपना दमखम ज्यादा चलता है, वहीं क्रिकेट संयोगों का खेल है. यह खिलाड़ी के कौशल के अतिरिक्त चांस पर भी निर्भर होता है. यहां मंजा हुआ खिलाड़ी पहली ही बा॓ल पर आउट हो सकता है, तो एकदम नया-नया आया खिलाड़ी पहले ही मैच को शतकीय पारी में बदल सकता है. थोड़ी कड़वी भाषा का इस्तेमाल करें तो क्रिकेट भी टेलीविजन पर खेले जा रहे अनेक जुओं में से एक है. संयोग और अवसर हालांकि दूसरे खेलों में भी चलते हैं, मगर क्रिकेट का पूरा खेल इसी पर निर्भर करता है, यही कारण है कि शाहरुख जैसे पेशेवर अभिनेता भी क्रिकेट की ओर आकर्षित होते हैं तथा लीग मैचों में अपनी टीम की पराजय के बावजूद मोटी कमाई कर जाते हैं. वस्तुत: इस देश में क्रिकेट और कुकरमुत्ते की तरह जगह-जगह उगते कथावाचक ऐसे माध्यम हैं, जो आदमी का मन भरमाए रखते हैं. उसे उसकी दुर्दशा के बारे में सोचने और उसके कारणों की तह में जाने नहीं देते. इनकी आड़ में राजनीतिक ढुलमुलापन, नेताओं का झूठ और भ्रष्टाचार, अधिकारियों का नाकारापन और आम आदमी का भाग्यवाद सब खप जाते हैं.
ओमप्रकाश कश्यप
यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।
हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.
मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.
नववर्ष में संकल्प लें कि आप नए लोगों को जोड़ेंगे एवं पुरानों को प्रोत्साहित करेंगे – यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें – यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।
आपका साधुवाद!!
नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ!
समीर लाल
उड़न तश्तरी
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