[दुनिया का पहला समाजवादी था संत साइमन. सिर्फ पूंजी के दम पर, बिना कोई श्रम किए व्यवसाय में मुनाफे का अधिकतम हिस्सा हड़प जाने वाले पूंजीपतियों को उसने परजीवी वर्ग माना. इसी वर्ग को वह समाज में गरीबी का मूल कारण मानता था. 1802 में जिनेवा में हुए एक सम्मेलन के दौरान उसने जोर देकर कहा था कि ‘हर व्यक्ति को काम करना चाहिए’(all men ought to work). उसने कहा कि क्या हो अगर फ्रांस में केवल कामरेड ही रहने लग जाएं? फिर खुद ही उत्तर देते हुए उसने आगे कहा था कि तब फ्रांस में अकाल का साम्राज्य होगा.
फ्रांसिसी क्रांति के दौरान क्रांतिकारियों का साथ देते हुए साइमन ने कहा कि श्रमिक वर्ग का संघर्ष केवल संभ्रांत वर्ग और पूंजीपतियों के पिट्ठु बुर्जुआ वर्ग से नहीं है, बल्कि उनकी लड़ाई उस परजीवी वर्ग के भी विरुद्ध थी] जो बैठे-ठाले दूसरों के श्रम पर मजे उड़ाता है. साइमन राजनीतिशास्त्र को उत्पादकता का विज्ञान मानता था. संत साइमन की यही समानतावादी विचारधारा उन्हें पहला समाजवादी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है.— ओमप्रकाश कश्यप]
संत साइमन (अक्टूबर 17, 1760—मई 19, 1825) को फ्रांसिसी क्रांति की खोज कहा जा सकता है. एक संपन्न परिवार में जन्मे संत साइमन ने आगे चलकर फ्रांस के सामाजिक बदलाव का न केवल सपना देखा, बल्कि उसके लिए सक्रिय रूप से कार्य भी किया. अपना धन, पैत्रिक संपत्ति एवं अपना सारा उद्यम उसने अपने उद्देश्य के लिए समर्पित कर दिया. संत साइमन का पूरा नाम क्लाउड हेनरी दि रिवेरो, काम्टे दि संत-साइमन (Claude Henri de Rouvroy, Comte de Saint-Simon) था. वह मौलिक विचारक तो नहीं था, किंतु अपनी निष्ठा एवं समर्पण के कारण उसने फ्रांसिसी क्रांति को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था. एडम स्मिथ, बैंथम, जेम्स मिल, डेविड रिकार्डो की भांति वह भी उपयोगितावाद का समर्थक था तथा सुख की प्राप्ति को मानव जीवन लक्ष्य मानता था. परंतु वह था एक नियतिवादी विचारक, जिसका मानना था कि समाज और प्रकृति दोनों ही में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसको कानून के माध्यम से नियंत्रित और संचालित न किया जा सके. साइमन का मानना था कि जीवन में अनुशासन और नैतिकता आवश्यक हैं, उन्हीं से मनुष्यता की पहचान बनती है.
अपने समय के पूंजीवादी व्यवस्था के विरोधी एवं सक्रिय विचारकों में संत-साइमन सर्वाधिक मुखर था. उसने समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया. अपने विचारों पर वह आजीवन अडिग भी रहा. कार्ल मार्क्स तक ने अपने लेखों में फ्रांसिसी समाज की पुनर्रचना के लिए मुक्त भाव से संत साइमन के सहयोग की सराहना की है. अपना समस्त धन उसने अपने विचारों को मान्यता दिलाने तथा उन्हें कार्यरूप देने में खर्च कर दिया. संत साइमन के प्रयासों से ही आगे चलकर सहकारी आंदोलन की नींव रखी जा सकी.
संत साइमन का जन्म 17 अक्टूबर 1760 ई. को पेरिस के एक अभिजात्य परिवार में हुआ, जिसके पास संसाधनों की बहुलता थी. बचपन से ही वह बहुत महत्त्वाकांक्षी था. उसने यह दावा किया है कि उसने सुप्रसिद्ध फ्रांसिसी विद्वान, गणितज्ञ और वैज्ञानिक दि’ लेंबर्ट(D’-lembert) से शिक्षा प्राप्त की थी, हालांकि इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है. सुनने में यह कितना ही बचकाना क्यों न लगे, परंतु अपनी किशोरावस्था के दिनों में साइमन ने अपने निजी सेवक को आदेश दिया था कि वह प्रतिदिन, प्रातःकाल उसको यह कहते हुए जगाए कि—
‘जागिए महाशय काम्टे! स्मरण रखिए कि आपको संसार में महान कार्य संपन्न करने हैं.’
जाहिर है कि संत साइमन के परिवार का माहौल बहुत ही औपचारिक किस्म का था, जिसका उसके व्यक्तित्व पर अनपेक्षित प्रभाव पड़ा. संभवतः, बचपन के बनावटी परिवेश के ही उसके मन में संपन्नता के प्रति अरुचि उत्पन्न हुई और थोड़ा-सा सनकीपन भी उसके स्वभाव का हिस्सा बन गया. तो भी जीवन में कुछ बनने, कुछ नया करने की छटपटाहट उसके अंतर्मन में सदैव बनी रही. इसीलिए उसने नए-नए प्रयोग किए, जिसके लिए उसको अनेक बार खतरा भी उठाना पड़ा. कुछ नया करने, सबसे अलग दिखने की लालसा तथा स्वयं को वैचारिक रूप से समृद्ध करने के लिए उसने विविध विषयों से संबंधित अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया. खुद को खास सिद्ध करने, जिसकी लालसा उसके मन में शुरू से ही थी, के लिए उसने अजीबोगरीब प्रयोग करने आरंभ कर दिए थे, जिनमें से एक था, आर्ट गैलरी की स्थापना के लिए बिना-सोचे समझे विवाह का फैसला. चालीस वर्ष की आयु में एलेक्सजेंड्राइन दि केंपग्रांड (Alexandrine de Champgrand) के साथ किया गया विवाह मात्र एक वर्ष ही चल सका. बाद में पति-पत्नी पारस्परिक सहमति से एक-दूसरे से अलग हो गए. इन लगातार चलने वाले प्रयोगों का परिणाम यह हुआ कि कुछ ही वर्षों में उसकी पैत्रिक और अर्जित संपत्ति समाप्त हो गई तथा बाकी जीवन के लिए उन्हें भीषण दरिद्रता में बिताना पड़ा.
इसके बावजूद नएपन की खोज की उसकी सनक कम नहीं हुई थी. अजीबोगरीब प्रयोगों के कारण लोगों ने उसे सनकी बूढ़ा कहकर मजाक उड़ाया. मगर संत साइमन के लिए यह बेहद मामूली बात थी. संभवतः बचपन की प्रेरणाओं का ही असर था कि केवल उनीस साल की वय में वह अमेरिकी कालोनियों में वहां के लोगों की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने लगा था. यह प्रयास केवल बौद्धिक और विचारधारात्मक स्तर पर ही नहीं थे. बल्कि एक कुशल इंजीनियर और वैज्ञानिक की भांति उसने राष्ट्र को समृद्ध बनाने के लिए सरंचनात्मक स्तर पर भी योजनाबद्ध तरीके से प्रयास किया. साइमन की रुचि विज्ञान और इंजीनियरिंग में विशेषरूप से थी. उसकी आरंभिक योजनाओं में अटलांटिक और प्रशांत महासागर को परस्पर एक नहर के माध्यम से जोड़ना था. उसकी एक और महत्त्वाकांक्षी दूसरी योजना मैड्रिड तथा समुद्र के बीच एक नहर बनाने की थी.
अमेरिका में रहते हुए साइमन ने ब्रिटेन से स्वतंत्रता के लिए जूझ रहे नागरिकों का एक सैनिक की भांति साथ दिया. स्वयं सेना में भर्ती होकर उसने अमेरिका के लिए युद्ध किया तथा उन सैनिकों का भरसक साथ दिया जो अमेरिकी स्वतंत्रता के लिए युद्ध कर रहे थे. उस युद्ध में स्वाधीनता प्रेमियों को पराजय मिली. बाकी सैनिकों के साथ संत साइमन को भी बंदी बना लिया गया. युद्धबंदी के रूप में उसको जमैका द्वीप पर भेज दिया गया. वहां कारावास बिताने के बाद उसने एक और अभियान से स्वयं को जोड़ दिया, जिसके अंतर्गत उसने यूरोपीय मूल के अनेक देशों का दौरा किया. जहां वह अनेक लोगों के सपंर्क में आया. साइमन ने मैक्सिको के गवर्नर से से मिलकर उसको पनामा नहर बनाने का सुझाव भी दिया.
उन दिनों फ्रांस में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर जारी था. साइमन ने फ्रांसिसी क्रांति में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. परिणामतः उसको एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बार उसकी सारी संपत्ति जब्त कर ली गई, जो उसने इतने वर्षों में बड़े यत्नपूर्वक अर्जित की थी. जेल में साइमन को स्वाध्याय और चिंतन का अवसर मिला, जहां वह समाज के निचले वर्ग के लोगों के संपर्क में आया, उनकी स्थितियों और समस्याओं को समझने का उसको अवसर मिला. वहीं उसके कायाकल्प की मनोभूमि विकसित हुई. सजा समाप्त होते ही उसने स्वयं को दुबारा संघर्ष के हवाले कर दिया. मगर इस बार संघर्ष का स्वरूप बदला हुआ था. वह सशस्त्र न होकर वैचारिक था. जिसकी पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी. उस समय के अनेक क्रांतिकारी विचारकों के साथ-साथ साइमन भी व्यवस्था में बदलाव का पक्षधर था. ऐसे बदलाव के समर्थन में था, जो विकेद्रीकृत सत्ता का पक्षधर हो. इसके लिए लोगों में जागरूकता लाने के लिए साइमन ने कई प्रयोग किए; जिनमें उनका बहुत-सा धन समाप्त हो गया.
दरिद्रता के दौरान साइमन का जीवन के असली स्वरूप से साक्षात हुआ. वह आमलोगों की जिंदगी के करीब आया, उनके संघर्षों और अभावों को समझने का उसको अवसर मिला. संत साइमन का मानना था कि समाज के विकास के लिए वैज्ञानिक, इंजीनियर तथा उद्योगपति को मिलकर कार्य करना चाहिए. उन्होंने उद्योगों में श्रमिक कल्याण के कार्यक्रमों के विकास पर जोर दिया और विकास के लिए हरेक उद्यमी से अपील की कि वह मजदूरों के प्रति नैतिकता से भरपूर आचरण करें. कारावास से मुक्त होते ही उसने स्वयं को फिर संघर्ष में झोंक दिया. इस बार सरोकार पहले से अधिक व्यापक और समाज के अपेक्षाकृत बड़े वर्ग के कल्याण को समर्पित थे. अपने सिद्धांतों को उसने लेखों के माध्यम से अभिव्यक्त करना प्रारंभ कर दिया. साइमन का प्रारंभिक लेखन हालांकि राजनीति एवं विज्ञान से शुरू हुआ था, मगर उसको प्रतिष्ठा मिली उसकी दो पुस्तकों ‘ला॓ इंडस्ट्री’ तथा ‘ला॓ आर्गेनजर’ में प्रकाशित उसके समाजवादी विचारों के प्रसार के बाद. उसका मानना था कि राजनीति उत्पादन का विज्ञान है. उसकी पूर्ण सफलता इसी में है कि बगैर किसी भेदभाव के, व्यक्ति को उसकी कार्यक्षमता के अनुसार कार्य मिले तथा किए गए कार्य की गुणवत्ता के अनुसार उसका वेतन. उसके विचारों को विद्वानों का समर्थन मिलने लगा. जिससे उसकी प्रतिष्ठा तेजी से बढ़ने लगी थी. किंतु आर्थिक विपन्नता ने उसका साथ नहीं छोड़ा. भीषण अभावों से भरे दिनों में संत साइमन को मात्र चालीस पाउंड प्रतिवर्ष के वेतन और नौ-दस घंटे प्रतिदिन कार्य करने की शर्त पर नौकरी करनी पड़ी. उस समय उसकी आयु साठ वर्ष से ऊपर थी. तंगहाली के दिनों में वह एक किसान घर एक गंदे, छोटे-से कमरे में रहने लगा, जिसको उसने अपने नौकर के रहने के लिए बनवाया था.
मृत्यु पर्यंत वह लिखता ही रहा. उसके द्वारा लिखित साम्रगी बेशुमार है. जीवन के प्रारंभिक वर्षों में साइमन नास्तिक विचारधारा का समर्थक था. उसने एक पत्रिका का प्रकाशन भी शुरू किया; जिससे उनके आस्थावादी विचारों की पुष्टि होती है. अपने विचित्र जीवन के कारण वह अपने जीवनकाल में बहुत प्रसिद्धि प्राप्त नहीं कर सका. लोग उसका मजाक उड़ाते रहे, लेकिन सन 1828 में साइमन की मृत्यु के तीन वर्ष पश्चात संत एमंड बैजार्ड (Saint Amand Bazard) ने साइमन के योगदान एवं विचारों को लेकर पेरिस में एक लेक्चर दिया. एमंड ने साइमन के ही एक और प्रशंसक इनफेंटिन के साथ मिलकर साइमन के विचारों को संग्रहित करने का काम भी किया, जिससे आगे चलकर उसके अवदान का मूल्यांकन संभव हो सका. उसी के आधार पर आगे चलकर उसको फ्रांस में समाजवादी आंदोलन का जनक माना गया.
उपर्युक्त के अतिरिक्त कार्ल मार्क्स, आ॓स्टिन थिरे, आ॓गस्त काउंट आदि ने भी संत साइमन की विचारधारा एवं फ्रांसिसी क्रांति में उसके योगदान की समीक्षा करते हुए उसकी पुस्तकों पर टीकाएं लिखीं. संत साइमन मौलिक विचारक एवं कार्यकर्ता था. विज्ञान, दर्शन, अर्थशास्त्र, राजनीति और समाज विज्ञान के विद्वान संत साइमन ने अपनी युवावस्था से ही सामाजिक बदलाव के कार्यों में योगदान देना शुरू कर दिया था. इस कारण धीरे-धीरे उनके साथियों एवं सहयोगियों की संख्या बढ़ती चली गई. संत साइमन के जीवन की भांति उनके विचारों में भी एकरूपता का अभाव है. विद्वान उसके विचारों में अस्थिरता का आरोप भी लगाते रहे हैं. बावजूद इसके उसके विचारों में पर्याप्त नवीनता का प्राचुर्य है. अपने बारे में संत साइमन का कहना था कि—
‘मैं लिखता हूं, क्योंकि मेरे पास लिखने के लिए नवीन बाते हैं, मैं अपने विचार वैसे ही लिखता हूं जैसे कि मेरी आत्मा निर्देश देती हैं. उनको व्यवस्थित रूप देने का काम पेशेवर लेखकों का है.’
अपने मौलिक विचारों तथा चिंतन की जनपक्षधरता के कारण संत साइमन ने अपने अनेक समर्थक और अनुयायी पैदा किए, जिनमें से एक साइमन का सचिव और सहयोगी आगस्ट काम्टे (Auguste Comte: January 17, 1798 – September 5, 1857) भी था. हालांकि काम्टे कालांतर में अपने मतभेदों के कारण संत साइमन से अलग हो गया था. तथापि उसने संत साइमन के विचारों के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था.
वैचारिकी
संत साइमन का पूरा जीवन अस्थिरता एवं संघर्ष से भरा था. इसलिए उसके विचारों में एकरूपता का अभाव दिखता है. बावजूद इसके उनकी महत्ता से इंकार कर पाना संभव नहीं है. साइमन के विचारों की एक विशेषता उनका सरल और सर्वग्राह्य होना है. चूंकि विचारक होने के साथ-साथ वह एक सक्रिय कार्यकर्ता, वैज्ञानिक, अभियंता और दर्शनशास्त्री भी था, इसलिए उसने आसान शब्दों में अपनी बात रखी. उसकी कथनी और करनी में कोई भेद नहीं था. अमेरिका के मूल निवासियों के स्वाधीनता संघर्ष में उसने न केवल उनका समर्थन किया, बल्कि उनके हक के लिए संघर्ष में सशस्त्र हिस्सेदारी भी थी. बैंथम और जेम्स मिल की भांति साइमन भी सुखवाद विचारधारा का समर्थक था और मानता था कि सुख की लालसा ही मनुष्य के कार्य-व्यवहार को नियंत्रित करती है. उसका विश्वास था कि समाज में नैतिकता की स्थापना एवं उसकी पुनर्रचना के लिए समाज के प्रत्येक सदस्य का योगदान अनिवार्य है.
समाज के विकास के लिए साइमन ने मानवी ऐषणाओं को मूल प्रेरणाशक्ति माना है. मनुष्य के मूल स्वभाव की समीक्षा करते हुए उसने विकास के लिए मनुष्य की मूलभूत इच्छाओं, यहां तक कि लालच की भूमिका को भी स्वीकार किया है. उसका कहना था कि मनुष्य की कामनाओं का अंत नहीं है. संघर्ष उसकी प्रवृत्ति है. स्वाभाविक रूप से प्रत्येक मनुष्य की लालसा होती है कि वह शिखर तक पहुंचे. सामाजिक दृष्टि से वह शिखर अच्छा है या बुरा, यदि कोशिशों में दम है तो, सामान्यतः वह इसे जानने-समझने का प्रयास ही नहीं करता. बस उसका एक ही लक्ष्य होता है, शिखर पर पहुंचकर अपने लिए किसी न किसी बहाने समस्त सुविधाएं, जिन्हें वह अपने सुख के लिए अनिवार्य मानता है, जुटा लेना. इस प्रकार सुख मनुष्य की सबसे बड़ी नियंत्रक सत्ता है. उसके योगदान को नकार पाना संभव नहीं है. साइमन के इन विचारों को फ्रांस में क्रांति के लिए संघर्षरत शक्तियों, यहां तक कि कुलीनतावाद के समर्थकों का भी समर्थन मिला था.
साइमन ने समाज में बढ़ रही निषेधात्मकता एवं आत्मघाती स्वच्छंदता (Destructive Liberalism) से विरोध जताते हुए उसके स्थान पर समाज में सकारात्मक जीवन-मूल्यों की स्थापना पर जोर दिया था. उसका मानना था कि समाज की स्थापना का उद्देश्य गरीब और उत्पीड़ित वर्ग की सहायता करना है. यह तभी संभव है कि समाज की सारी शक्तियां एकजुट होकर सामाजिक कल्याण के लिए कार्य करें. हालांकि वह स्वयं एक अभिजात्य परिवार में जन्मा था, मगर वहां के क्रत्रिम परिवेश से वह पूरी तरह उकता चुका था. कुलीनतावाद (Feudalism) तथा सैनिक शासन का विरोध करते हुए उसने आश्चर्यजनक रूप से एक व्यवस्था दी थी कि एक मजबूत और संपन्न समाज की स्थापना के लिए वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों को आगे आकर व्यवस्था संभालनी चाहिए. कोई भी ऐसा व्यक्ति जो समाज को एक उत्पादक शक्ति के रूप में संगठित करने का सामथ्र्य रखता है, वह उसपर शासन करने के भी योग्य है. इस संदर्भ में उसका कहना था कि—
‘समाज के नेतृत्व की बागडोर, मध्ययुगीन चर्च के स्थान पर, किसी वैज्ञानिक को सौंप देनी चाहिए. ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो समाज को उत्पादक शक्ति के रूप में एकजुट करने की योग्यता रखता हो, उसको शेष समाज पर शासन करने का भी अधिकार है, जो उसको सहज ही मिल जाना चाहिए.’
ऐसा कहते समय साइमन राजशाही, सामंतवाद, कुलीनतावाद आदि के साथ तत्कालीन चर्च को भी चुनौती दे रहा था. ध्यातव्य है कि पूंजी और श्रम के अंत: द्वंद्व जो आगे चलकर समाजवाद की प्रमुख पहचान माने जाने लगे थे और जिनपर मार्क्स और लेनिन का पूरा संघर्ष आधारित रहा, संत साइमन के समय में उतने प्रभावकारी नहीं थे. लेकिन अपनी सीमाओं और समय को देखते हुए साइमन ने जो स्थापनाएं कीं, वही आगे चलकर एक बड़े आंदोलन की नींव बनी, जिन्होंने परंपरा से चले आ रहे समाज को बदलने का कार्य किया. उसने कुलीनतावाद एवं सैनिक शासन का भी विरोध किया. आमजन के प्रति अपनी सच्ची निष्ठा को दर्शाते हुए उसने कहा कि पूंजी का विकेंद्रीकृत स्वरूप हमारी अनेक समस्याओं का हल है. लोक के प्रति अपनी इसी निष्ठा के कारण उसने फ्रांसिसी क्रांति में सक्रिय हिस्सेदारी की थी. जीड एवं राइट के अनुसार—
‘उन्हें (साइमन को) न केवल समाजवाद का जनक होने का गौरव मिला, बल्कि दर्शन में विधेयात्मकवाद का प्रथम प्रयोक्ता होने का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है.’
संत साइमन ने श्रम को विकास का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण माना है. उसके अनुसार जीवन में श्रम विकास की अनिवार्यता है. उसका मानना था कि हरेक व्यक्ति कम से कम इतना कार्य करे, जिससे वह अपनी जीविका का निर्वाह कर सके. श्रम के प्रति साइमन की निष्ठा कोरी लफ्फाजी नहीं थी. बल्कि उसने स्वयं भी अपनी आजीविका के लिए श्रम को अपनाया था. साठ वर्ष ऊपर की अवस्था में नियमित लेखन और प्रतिदिन आठ-नौ घंटे परिश्रम करना, यह साइमन की अपने विचारों के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता को दर्शाता है. सामाजिक समानता के समर्थक के रूप में उसकी कामना थी कि समाज के सभी सदस्य ऊंच-नीच की भावना से परे, परस्पर समानतापूर्ण आचरण करें. सभी को अपने विकास के समुचित अवसर प्राप्त होने चाहिए. संत साइमन का मानना था कि समाज का मुख्य वर्ग, उत्पादक वर्ग है जो श्रम करता है, धन अर्जित करता है, मगर उसके पास कोई विशेष संपत्ति नहीं है, ना ही उसे समाज में कोई उच्च सम्मानजनक स्थान प्राप्त है. दूसरा वर्ग पहले के श्रम पर पलने वाला परजीवी संप्रदाय है. विडंबना यह कि समस्त उत्पादन के सभी संसाधनों पर इसी परजीवी वर्ग का अधिकार है.
अपने लेखन के प्रारंभिक दिनों में संत साइमन की धार्मिक मान्यताओं में पूरी आस्था थी. लेकिन विज्ञान में रुचि बढ़ने के साथ ही धर्म के प्रति उसका मन शंकालु होता चला गया. विज्ञान के प्रति अपनी आस्था के ही कारण वह किसी भी प्रकार की जड़ता के विरुद्ध था. उसका मानना था कि धर्म को किसी भी प्रकार से दुराग्रह और जड़ता से परे, व्यावहारिक होना चाहिए. ताकि उसके आधार पर लिए गए निर्णयों में स्वाभाविकता बनी रहे. परंतु यह विडंबना ही है कि सामाजिक मुद्दों पर अंतिम निर्णय का अधिकार शासकों, सामंतों एवं पूंजीपतियों के पास सुरक्षित रहता है, जो किसी न किसी प्रकार स्थितियों को अपने पक्ष में मोड़ने में सफल रहते हैं. इसके कारण गरीबों और अभावग्रस्त लोगों को न्याय नहीं मिल पाता और वे विकास के मामले में उत्तरोत्तर पिछड़ते जाते हैं. जबकि होना यह चाहिए कि—
‘समाज को चाहिए कि वह अपने सर्वाधिक गरीब एवं अभावग्रस्त लोगों के नैतिक एवं भौतिक उत्थान के लिए संगठित होकर, समर्पण भाव से कार्य करे. वह स्वयं को भी इस प्रकार से व्यवस्थित करे, ताकि जनकल्याण एवं विकास के निर्धरित लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके.’
साइमन वर्तमान व्यवस्था से बुरी तरह खिन्न था. यहां तक कि ईसाइयत की कमजोरियां भी उनसे छिपी न थीं. इसलिए वह धर्म और राजनीति समेत वर्तमान व्यवस्था में आमूल परिवर्तन की कामना करता था. उसका मानना था कि इंजीनियर, वैज्ञानिक, डा॓क्टर तथा अन्य वुद्धिजीवी लोग, संगठित होकर समाज के नवनिर्माण के लिए कार्य करें, ताकि नए सिरे से, वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुरूप समाज का पुनर्गठन संभव हो सके. इसका आशय यह नहीं है कि समाज के पुनर्निर्माण में आम आदमी की भूमिका नगण्य है. साइमन जोर देकर परिवर्तन में जनसामान्य की भूमिका को रेखांकित करता है. बल्कि आमजन की भागीदारिता के प्रति उसका विश्वास इसका सघन है, कि वे उसके समक्ष समाज के बाकी सभी वर्ग को उपेक्षित और नगण्य मानते चले जाते है. उसका यह भी मानना था कि दार्शनिकों, इंजीनियरों, वैज्ञानिकों आदि समाज के कथित संभ्रांत वर्ग के नेतृत्व में समाज शांतिपूर्वक औद्योगिकीकरण की ओर बढ़ सकता है. पारंपरिक धर्मो कें आधार पर एक अपेक्षाकृत अधिक उदारवादी एवं मानवीय व्यवस्था का विकास भी संभव है. परंतु समाज में स्थायित्व और परंपराओं के सातत्य के लिए आम आदमी ही जिम्मेदार है. अतः समाज में उसकी भूमिका समाज के किसी भी अन्य वर्ग जितनी ही है.
इस संबंध में साइमन की एक प्रसिद्ध बोधकथा है, जिसमें उसके सोच की तरलता की झलक मिलती है. इस बोधकथा ने राबर्ट ओवेन समेत तात्कालिक विचारकों को बहुत गहराई तक प्रभावित किया था—
‘कल्पना कीजिए कि फ्रांस में इस समय पचास प्रथम श्रेणी के चिकित्सक, पचास मूर्धन्य रसायनज्ञ, भौतिक विज्ञानी, उतने ही नौकर, दो सौ कुशल व्यापारी, छह सौ बड़े किसान, पांच सौ योग्य लुहार, बढ़ई, मोची इत्यादि समाप्त हो जाते हैं. ऐसा होते ही पूरा देश धराशायी हो जाएगा. उसका प्रभुत्व और समृद्धि तत्काल समाप्त हो जाएगी. किंतु इसके विपरीत यह मान लीजिए कि यह सब तो सुरक्षित रहता है— परंतु राजपरिवार के सभी सदस्य, दरबारी, समस्त अधिकारीगण, मंत्री, पुरोहित, न्यायाधीश, भूमि-स्वामी आदि नष्ट हो जाएं तब देश को दुःख तो होगा, शोक भी होगा, क्योंकि फ्रांस एक भावुक देश है, परंतु इससे देश का कोई वास्तविक अहित नहीं होगा.’
इस बोधकथा ने काल मार्क्स जैसे साम्यवादियों को भी प्रभावित किया था. यही प्रकारांतर में वर्ग-संघर्ष की प्रेरणा बन सकी. इस बोधकथा के माध्यम से साइमन यह समझाने में सफल रहे थे कि किसी भी राष्ट्र की वास्तविक शक्ति राजपरिवार अथवा उसके विभिन्न ओहदेदारों तक ही सीमित नहीं होती; बल्कि उसकी शक्ति के सच्चे स्रोत सामान्यजन, वैज्ञानिक, इंजीनियर, डा॓क्टर, अध्यापक और अन्य कर्मचारीगण होते हैं; जो उत्पादन या किसी ऐसे ही उत्पादक कर्म से किसी न किसी प्रकार संबद्ध हों. इस तरह साइमन ने समाज के उत्पादक एवं अनुत्पादक वर्ग की उपयोगिता के बीच एक स्पष्ट सीमांकन किया था. साइमन का मानना था कि सरकार का कर्तव्य अनुत्पादक वर्ग की वर्चस्वकारी नीतियों से उत्पादक वर्ग के हितों की रक्षा करना है.
साइमन के विचारों ने फ्रांस में समाजवादी विचारधारा को मजबूत करने का कार्य किया. उसकी प्रेरणा से ही उसके सचिव समाजविज्ञानी आ॓गस्ट काम्टे ने सोशियोला॓जी(Sociology) जैसा शब्द ईजाद किया, जिससे समाज के विधिवत अध्ययन की प्रेरणा मिली. हालांकि प्रारंभ में उसका अर्थ समाज भौतिकी (Social Physics) तक सीमित था. कार्ल मार्क्स के सहयोगी समाजविज्ञानी फ्रैड्रिक ऐंग्लस ने भी संत साइमन के लंबे योगदान की सराहना करते हुए एक आलेख में लिखा है कि—
‘संत साइमन महान फ्रांसिसी क्रांति की देन था, जबकि उस समय वह पूरे तीस साल का भी नहीं था. वह क्रांति वस्तुतः तीसरे राज्यों की, पारंपरिक सामंतवादी, निकम्मे प्रशासकों, अभिजात्यवर्ग तथा पुजारियों पर, ऐसे राष्ट्र की, उसकी जनता की जीत थी जिसका अधिकांश औद्योगिक उत्पादन में संलग्न था. किंतु बहुत जल्दी यह दिखने लगा कि तीसरे राज्य की विजय बहुत शीघ्र उस राज्य के एक छोटे से हिस्से की विजय में बदल गई….’
संत साइमन का मानना था कि विज्ञान और उद्योग, अपनी धार्मिक एवं नैतिक प्रतिबद्धताओं के आधार पर संगठित होकर नई धार्मिक-आर्थिक संरचनाओं को जन्म देंगे तथा उन धार्मिक नैतिकताओं की पुन:स्थापना करेंगे जो इस दौरान किसी कारणवश लुप्त हो चुकी है. उसका मानना था कि समाज की संचालक शक्तियों, जिनमें उत्पादनकर्ता, व्यवसायी, बैंकर आदि बुर्जुआ शामिल हैं, को लोकसेवक के रूप में कार्य करना होगा तथा स्वयं को सामाजिक संपत्ति का केवल ट्रस्टी समझना होगा. फ्रांसिसी क्रांति के बारे में साइमन का विचार था कि वह केवल अभिजात्य और बुर्जुआ वर्ग के बीच का संघर्ष नहीं था, बल्कि वह अभिजात्यवर्ग, बुर्जुआओं एवं सर्वहारा के बीच का संघर्ष था. सन 1816 में उसने घोषणा की थी कि राजनीति उत्पादन का विज्ञान है और अर्थशास्त्र राजनीति को सदैव आत्मसात करता रहा है. यह एकदम नई स्थापना थी, जिसका आधार व्यावहारिक था.
साइमन के विचारों में अनेक स्थान पर विरोधाभास दिखाई पड़ते हैं, किंतु उसकी नीयत पर संदेह नहीं किया जा सकता. बावजूद इसके यह साफ है कि उसकी प्रतिबद्धताएं समाज के जिस वर्ग के प्रति थीं, वह सदैव उपेक्षित एवं तिरस्कृत रहा है. परिवार और लैंगिक संबंधों को लेकर भी उसके विचार उदारता से भरपूर, आधुनिक और किसी भी प्रकार की जड़ता, पूर्वाग्रह आदि से मुक्त थे.
‘पारिवारिक और लैंगिक संबंधों के मामले में संत साइमन ने स्त्री के लिए संपूर्ण आधिकारिता तथा पुरुष के साथ उसकी पूर्ण समानता का पक्ष लिया है. उसने स्त्री-पुरुष में से प्रत्येक को ‘सामाजिक इकाई स्वीकार किया है, जो समाज, परिवार और राज्य द्वारा निर्देशित कर्तव्यों के संपादन के लिए परस्पर एकजुट होते हैं.’
संत साइमन का मानना था कि विज्ञान और उद्योग, परस्पर धार्मिक प्रतिबद्धताओं के आधार पर संगठित होकर नई धार्मिक-आर्थिक संरचनाओं को जन्म देंगे तथा उन घार्मिक नैतिकताओं की पुन:स्थापना करेंगे जो इस दौरान किसी कारणवश लुप्त हो चुकी हैं. उसका मानना था कि समाज की संचालक शक्तियों, जिनमें उत्पादनकर्ता, व्यवसायी, बैंकर आदि बुर्जुआ शामिल हैं, को लोकसेवक के रूप में कार्य करना होगा तथा स्वयं को सामाजिक संपत्ति का केवल ट्रस्टी समझना होगा. फ्रांसिसी क्रांति के बारे में साइमन का विचार था कि वह केवल अभिजात्य और बुर्जुआ वर्ग के बीच का संघर्ष नहीं था, बल्कि वह अभिजात्यवर्ग, बुर्जुआओं एवं सर्वहारा के बीच का संघर्ष था. सन 1816 में उसने घोषणा की थी कि राजनीति उत्पादन का विज्ञान है और अर्थशास्त्र राजनीति को सदैव आत्मसात करता रहा है. यह एकदम नई स्थापना थी, जिसका आधार व्यावहारिक था.
साइमन के विचारों में अनेक स्थान पर विरोधाभास दिखाई पड़ते हैं. बावजूद इसके यह साफ है कि उसकी प्रतिबद्धताएं समाज के जिस वर्ग के प्रति थीं, वह सदैव उपेक्षित एवे तिरस्कृत रहा है. साइमन ने उस वर्ग के पक्ष में न केवल अपनी आवाज बुलंद रखी, साथ ही वह उसके लिए आजीवन संघर्ष भी करता रहा. यहां तक कि अपनी समस्त पूंजी अपने प्रयोगों और विचारों को कार्यरूप देने के नाम पर खर्च कर दी. उसकी महानता का अनुमान मात्र इसी से लगाया जा सकता है कि जिन दिनों उसका अपना अभिजात्य वर्ग, जिसमें वह जन्मा था, लोगों का तरह-तरह से शोषण कर रहा था, साइमन ने बिना किसी वर्गीय पूर्वाग्रह के न्याय, समानता और विवेक के आधार पर नए समाज की रचना का सपना देखा था.
संत साइमन ने धर्म, राजनीति और अर्थव्यवस्था को समाज के वंचित और सर्वहारा वर्ग के कल्याण के लिए उत्तरदायी ठहराकर एक तरह से उस परंपरा को ठोस समर्थन दिया था, जो उससे लगभग साढे़ तीन सौ वर्ष पहले मार्टिन लूथर द्वारा प्रारंभ की गई थी. वह थी समाज को परंपराओं और रूढ़ियों से निकालकर युगीन चेतना से जोड़ना. समाज और सत्ता के साथ व्यक्तिमात्र को भी अहमियत देना. उसकी अस्मिता का सम्मान करना. औद्योगिक प्रगति तथा नवीनतम तकनीक का लाभ जन-जन तक पहुंचाते हुए विकास के अवसरों में जनसाधारण की साझीदारी सुनिश्चित करना. उल्लेखनीय है कि जनसामान्य के लिए समानता और न्याय की मांग करने वाला साइमन पहला और अकेला विचारक नहीं था. बल्कि उसका सपना तो हेनरी मूर अपनी पूस्तक ‘यूटोपिया’ में वर्षों पहले देख चुका था. वाल्तेयर और रूसो अपनी लोकवादी विचारधारा को साइमन से भी पहले और उससे कहीं अधिक सुसंगत ढंग से प्रस्तुत कर चुके थे. साइमन की विशेषता यह है कि उसने अभिजात्य वर्ग में जन्म लेकर भी जनसाधारण के आत्मसम्मान के संघर्ष को समर्थन दिया और उसके लिए सक्रिय संघर्ष में भी हिस्सेदारी भी की. उससे पहले ये प्रयास केवल सामाजिक एवं वैचारिक स्तर पर ही संपन्न हुए थे.
समाज के उपेक्षित एवं वंचित वर्ग के सम्मान एवं प्रतिष्ठा के लिए साइमन ने न केवल सीधे संघर्ष में हिस्सा लिया, बल्कि वैचारिक स्तर पर भी उसके लिए निरंतर आवाज उठाता रहा. इसी कारण आगे चलकर उसे संत की गरिमा से विभूषित किया गया. उसके विचारों से प्रेरणा लेकर आ॓गस्ट काम्टे (Auguste Comte)] आ॓लिंडे रोड्रिग्स (Olinde Rodrigues)] एमंड बेजार्ड (Amand Bazard)] पीयरे लेरा॓क्स (Pierre Leroux)] इन्फेंटिन (Barthélemy Prosper Enfantin), था॓मस कारॅले, माइकल केविलियर आदि ने फ्रांसिसी समाजवाद की धारा और अधिक समृद्ध बनाने का कार्य किया. उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जा॓न स्टुअर्ट मिल आदि व्यक्ति-स्वातंत्रय के पक्षधर विद्वानों ने जिस वैचारिक क्रांति का उद्घोष किया, उसके बीजतत्व मुख्यतः संत साइमन के लेखन में मौजूद हैं. यहां तक कि मार्क्स और फ्रैड्रिक एंग्लस की विचारधारा भी कहीं-कहीं संत साइमन से प्रेरणा लेती नजर आती है.
© ओमप्रकाश कश्यप
Bahut hi accha likha h ese hi aage bhi likhte rahiye