[अमेरिका के हालिया राष्ट्रपति चुनावों के दौरान मार्टिन लूथर किंग का नाम सुर्खियों में सामने आया. उनीसवीं शताब्दी के इस अश्वेत नेता ने एक अभूतपूर्व सपना देखा था. वह सपना था अमेरिका की रंगभेद की नीति को अंगूठा दिखाकर किसी अश्वेत के राष्ट्रपति बनने का. अश्वेत बराक ओबामा के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने और लूथर किंग का सपना पूरा होने में एक शताब्दी से अधिक समय लग गया. लेकिन मार्टिन लूथर किंग ने जिस सामाजिक–राजनीतिक सपने की कामना की थी, वह उस अकेले का सपना नहीं था. उनसे भी लगभग चार शताब्दी पहले मार्टिन लूथर ने धार्मिक–राजनीतिक वर्चस्ववाद से परे मानवमुक्ति का सपना देखा था. मार्टिन लूथर ने ही पहली बाद शब्दों की वास्तविक ताकत का अंदाजा कराया था, जैसी कि शायद उसको भी उम्मीद नहीं थी. तत्कालीन चर्च के धार्मिक पाखंड को सामने लाने के लिए मार्टिन लूथर ने बाईबिल के पिचानवें मूल संदेशों को छपवाकर जनता में वितरित कराया था. बस फिर क्या था, जनता के बीच एक ऐसा तूफान उठा, जिसने पुरानी जीर्ण–शीर्ण परंपराओं, पाखंडों और रूढ़ियों को जलाकर तार–तार कर दिया. ऐसा नहीं है कि मार्टिन लूथर का विरोध न हुआ हो. यथास्थितिवादियों ने उसका जमकर विरोध किया, जनता को बरगलाने के आरोप भी लगाए. लेकिन वह अड़ा रहा. अंततः आखिर पाखंडियों को ही हार माननी पड़ी. मार्टिन लूथर सुधारवादी आंदोलन का अगुआ बन गया.
हम कोशिश करेंगे कि ‘आखरमाला’ के अगले कुछ अंकों में हम ऐसे ही कुछ विचारकों, सुधारवादियों के जीवन–संघर्ष और उनके विचारों की एक झलक अपने पाठकों को दिखा सकें, ताकि वे जान सकें कि तमाम बुराइयों और कमजोरियों के बावजूद आज हम पहले की अपेक्षा कितने बेहतर समय में रह रहे हैं. और यह भी कि जनकल्याण के लिए काम करने वालों को आरंभ में भले ही कितना विरोध सहना पड़े. लेकिन यदि उनकी इच्छाशक्ति मजबूत हो तो वे इतिहास को अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप बदलने में कामयाब हो ही जाते हैं. – ओमप्रकाश कश्यप ]
व्यवस्थाओं की प्रासंगिकता समय के साथ–साथ घटती–बढ़ती रहती है। सृष्टि का संतुलन न बिगड़ पाए, इसके लिए नियति भी समय–समय पर नूतन व्यवस्थाएं अपनाती रहती है। यह व्यवस्था कभी तो अकस्मात हो जाती है, किसी चमत्कार के समान, तो कभी उसके लिए शताब्दियों तक प्रयास करने पड़ते हैं। मार्टिन लूथर का जन्म यूरोपीय समाज में ऐसी ही चामत्कारिक घटना थी। वह ऐसे समय में जन्मा जब पश्चिमी समाज में गरीबी, धार्मिक पाखंड एवं जोड़–तोड़ का बोलबाला था। धर्म के नाम पर आडंबरों का साम्राज्य पसरा हुआ था, लोग चमत्कारों को पूजते थे। राजसत्ता विलासिता–भरा जीवन जी रही थी, पादरी लोग जिनपर ईसाइयत को लागू करने की जिम्मेदारी थी, वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए धर्मिक रूढिवाद एवं पाखंड को विस्तार देने में लगे थे।
ऐसे विषम धार्मिक वातावरण में मार्टिन लूथर जन्मा, पला और बढ़ा। आगे चलकर उसने अपने समाज को सोये हुए समाज को जगाने का काम किया। उस समाज को जो धार्मिक पाखंडियों के जाल में बुरी तरह जकड़ा हुआ था, परिस्थितियां इतनी विषम थीं कि उसमें कोई भी सुधार असंभव दिखाई पड़ता था। लेकिन केवल दस वर्ष के अल्प समय में मार्टिन लूथर ने उस असंभव कार्य को संभव कर दिखाया। वह सचमुच की क्रांति थी, जिसने लोगों को ऐसे जोश से भर दिया था कि चारों ओर धार्मिक आडंबरवाद के विरुद्ध आवाज उठने लगी। धार्मिक–राजनीतिक जड़ व्यवस्था के प्रति लोगों के मन में आक्रोश उभरने लगा। उस आक्रोश की चरम परिणति तब देखी गई जब एक जर्मन पुजारी ने हजारों वर्षों से राज करते आ रहे सम्राट के सीने में छुरा भोंक दिया। केवल दस साल में जर्मन समाज का ऐसा कायापलट हुआ, जिसके बारे में पहले से कल्पना कर पाना असंभव था।
पंद्रहवी शताब्दी के उत्तरार्ध में जन्मे लूथर को यूरोपीय नवजागरण का आदि पुरोधा माना जाता है। सोहलवीं शताब्दी में एक ओर तो पूरा यूरोप वैज्ञानिक क्रांति के दौर से गुजर रहा था। नए–नए आविष्कारों ने उत्पादन व्यवस्था का पूरा चेहरा बदल दिया था। दूसरी ओर चर्च समेत सभी धर्म–संस्थानों का बुरा हाल था। जनता में बेहद गरीबी थी। लोग पोपलीलाओं के जाल में फंसकर अपना कर्तव्य भूले हुए थे। दूसरी ओर धर्म के नाम पर पादरी संपत्ति संचय मे जुटे रहते थे। चर्च तथा अन्य धर्मालय संपत्ति संचय के ठिकाने बन चुके थे। धर्म के नाम पर एक निकम्मा और परजीवी वर्ग समाज में पनप चुका था; जिसका काम लोगों को बरगलाकर अपना उल्लू सीधा करना था।
मार्टिन लूथर का जन्म 10 नबंवर 1483 को जर्मनी के आइसलेबेन नामक स्थान पर हुआ। उसके पिता का नाम था हैंस तथा मां थीं— मादाम माग्रेट लूथर। पिता खेती–बाड़ी से घर चलाते थे। उनकी आमदनी कम थी। लूथर के जन्म के एक वर्ष बाद ही उसके परिवार को विस्थापन का दौर उस समय देखना पड़ा जब उसे आइसलेबेन को छोड़कर मेंसफील्ड में बसना पड़ा। वहां उसके पिता ने तांबे की खान में नौकरी कर ली। दिन बीतने लगे। गरीब हैंस अपने बेटे को लेकर अत्यंत महत्त्वाकांक्षी थे। वे चाहते थे कि लूथर एक वकील के रूप में काम करे, नाम कमाए। संयोगवश लूथर भी पढ़ने–लिखने में तेज था। उसकी प्रारंभिक शिक्षा मेंसफील्ड में ही हुई। स्कूली शिक्षा के लिए वह मेडाबर्ग चला गया। उसके बाद उसने ऐरफुर्ट विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। वहीं से उसने 1502 में स्नातक की परीक्षा पास की। परास्नातक की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करने के पश्चात लूथर अपने पिता की इच्छानुसार वकालत की पढ़ाई करने लगा। मगर नियति तो कुछ और ही तय कर चुकी थी उसके लिए। वक्त जो कुछ लूथर के माध्यम से कराना चाहता था, उसकी भूमिका स्वयं गढ़ चुका था। एक अनुभव ने उसकी सारी जिंदगी ही बदल दी।
उस घटना के बारे में लूथर ने स्वयं एक स्थान पर लिखा है कि—
‘एक दिन जब वह का॓लेज से लौट रहा था तो अचानक बादल गड़गड़ाने लगे। वह कोई निर्णय ले पाए उससे पहले ही बादल जोर से गड़गड़ाए…जैसे आसमान फट गया हो। सहसा तीर की तरह बिजली कड़की और लूथर की ओर तेजी से बढ़ी। वह बुरी तरह डर गया। घबराहट में उसके मुंह से चीख निकल पड़ी–
‘बचाओ! संत अन्ना! मैं स्वयं को आपकी पूजा में रखूंगा।’1
अदृश्य को ही सर्वशक्तिमान मानकर लूथर ने तत्क्षण प्रतीज्ञा की। अंततः संकट टल गया। मन के सहज आवेग में लूथर ने जो वायदा किया था उसे वह भुला नहीं सका। मन में अध्यात्म के प्रति अनुराग उमड़ने लगा। वैराग्य के आगे किताबी ज्ञान छंूछा जान पड़ा। कुछ दिनों बाद ही उसने अपनी पुस्तकें बेच दीं। स्कूल छोड़ दिया, यहां तक कि परिवार और मित्र–संबंधियों का मोह भी त्याग दिया। सांसारिक जीवन से परे होकर लूथर ने स्वयं को चर्च की सेवा में पूर्णतः समर्पित कर दिया— पूरी ईमानदारी, अंतर्निष्ठा, पूजा–पाठ, व्रत–उपवास और श्रद्धा–सनातन के साथ! किंतु अध्यात्म के प्रति प्रगाढ़ अनुराग के बावजूद उसने अपनी तर्कशक्ति को कभी मंद नहीं पड़ने दिया। उसकी जिज्ञासा सदैव सच की पर्तों में झांकने का प्रयास करती रही। अध्यात्म के साथ–साथ वैज्ञानिकता के प्रति लूथर का आग्रह बना रहा।
चर्च में आने के बाद लूथर ने वहां की असलियत को जाना–समझा। इस बीच उसका पादरियों तथा अन्य धर्मगुरुओं से भी संपर्क हुआ। ईसाई धर्म में आस्था रखने वाले, प्रायश्चित की भावना के साथ चर्च में अनेक श्रद्धालु प्रतिदिन आते थे। लूथर का उनसे रोज ही संपर्क होता था। इससे उसे लोगों की मनोवृत्तियों को गहराई से समझने का अवसर मिला। वह लोगों की समस्याओं से गुजरता, फिर धर्मग्रंथों और धार्मिक परंपरा के आधार पर उनका हल निकालने का प्रयास करता। धीरे–धीरे असलियत उसकी समझ में आने लगी। उसे प्रायश्चित का कर्मकांड महज एक नाटक, दिखावा–भर लगने लगा। आखिर धर्मग्रंथ बाईबिल के गहन अध्ययन के पश्चात वह इस निष्कर्ष पर पहंुचा कि गिरजाघरों में प्रभु ईसा मसीह और पाप–शमन के नाम जो हो रहा है, वह महज दिखावा है। उस कर्मकांड का बाईबिल की मूल शिक्षाओं ईसाइयत के आदर्शों से कुछ भी लेना–देना नहीं है, ना ही उससे मुक्ति के मानवीय लक्ष्य को प्र्राप्त कर पाना संभव है। चर्च में पादरी और बाकी लोग अपने स्वार्थ के लिए लोगों को बरगलाते रहते हैं। समाज का एक वर्ग जो कतिपय दूसरों से अधिक शक्तिशाली है, अपने स्वार्थ और लालच के कारण पाखंडी और चालाक पादरियों को अपनाए, सिर चढ़ाए रहता है।
कुछ दिनों बाद लूथर रोम की यात्रा पर निकल गया, जो उस समय पूरे यूरोप का सांस्कृतिक केंद्र माना जाता था। जहां की गौरवशाली परंपराओं से पूरा यूरोप स्वयं को कहीं न कहीं जुड़ा हुआ महसूस करता था। किंतु रोम पहुंचकर मार्टिन लूथर को और भी घनी निराशा हुई। उसने पाया कि कैथोलिक की राजधानी कहा जाने वाला रोम भ्रष्टाचार का अड्डा बना हुआ है। इस घटना से बुरी तरह आहत लूथर को अपने ही धर्म के प्रति संदेह होने लगा। उसे लगने लगा कि इन परिस्थितियों में चर्च शायद ही किसी को मुक्ति प्रदान कर सके। घोर निराशा, मानसिक उद्वेलन, संघर्ष और चिंतन–मनन के इन्हीं दिनों में लूथर अंततः बाईबिल के वास्तविक संदेश तक पहुंच ही गया। उसको लगा कि चर्च नहीं, यह मनुष्य का अपना ही विश्वास है जो उसको मुक्ति के मार्ग तक ले जा सकता है। आस्था यदि कमजोर है तो मुक्ति का मार्ग भी बहुत लंबा होना तय है।
इस आत्मबोध के पश्चात वह वापस लौट आया और धर्म को समझने के लिए फिर से बाईबिल के अध्ययन में जुट गया। कुछ ही समय बाद उसने बाईबिल की पिचानवें सूक्तियों का चयन किया; जिनमें वर्णित संदेश पूर्णतः स्पष्ट थे। उनका स्वरूप मानवीय एवं लोकोपकारी था। वे मनुष्यता को किसी भी प्रकार के कर्मकांड से ऊपर एवं महत्त्वपूर्ण ठहराते थे। लूथर ने उन सूक्तियों को एक कागज पर लिखा और उसकी प्रतियां लोगों के बीच वितरित करनी प्रारंभ कर दीं। उन सूक्तियों के प्रचार के साथ ही लूथर का नाम लोगों की जुबान पर आने लगा।
लूथर गरीब परिवार से आया था, इस कारण उसकी स्वाभाविक सहानुभूति जनसमाज के प्रति थी। धर्म के साथ व्यवहार करते समय वह पोप तथा चर्च के उस विधान की आलोचना करता था, जो जनता को धर्मभीरू तथा चमत्कार प्रिय बनाता था। तत्कालीन पोप की धन संचय की प्रवृत्ति को लक्ष्य करते हुए लूथर ने अपने संदेश में कहा भी थाµ
‘वह (पोप), सम्राट क्रोसस’ से भी अधिक धनवान है। उसके लिए उचित होगा कि उपदेश देने के बजाय, गिरजाघर को बेचकर उसका धन गरीब लोगों में बांट दे।’2
यह तत्कालिक धर्मसत्ता, जिसे राजसत्ता का अंधसमर्थन भी प्राप्त था, पर सीधा हमला था। इससे लूथर के अनेक दुश्मन पैदा हो गए, जिनके कारण उसको आगे चलकर अनेक परेशानियांे का सामना करना पड़ा। बावजूद इसके वह अपने विचारों का अडिग बना रहा। धीरे–धीरे उसके समर्थकों की संख्या बढ़ती चली गई। धर्म के नाम पर हो रहे शोषण और अनाचारों से खिन्न लोग उसके समर्थक बनते चले गए। मार्टिन लूथर का कहना था कि मन की पवित्रता बेहतर चीज है, लेकिन तभी तक जब वह हमारी सामाजिकता को पुष्ट करती हो, हमें अधिक नैतिक एवं संस्कारवान बनाती हो। ऐसी विचारधारा से निरंतर संपर्क बनाए रखने पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। उससे मुक्ति स्वाभाविक रूप से और भी निकट चली आती है।
लूथर एक क्रांतिकारी चिंतक था। उसकी प्रतिभा केवल ईसाई मान्यताओं को अधिक विवेकवान और तर्कसंगत बनाने तक ही सीमित नहीं है। वह अपने समय का श्रेष्ठतर वैज्ञानिक भी था। इस तथ्य को शायद ही कोई समझता हो कि छपाई मशीन का आविष्कार उसी ने किया था। यही नहीं अपनी आविष्कृत युक्ति का पहला प्रयोग करते हुए लूथर ने ही बाईबिल के पिचानवें संदेशों को छापने के लिए किया गया। लूथर द्वारा चुने गए संदेशों के साथ एक पर्चा पूरे यूरोप में एक घर से दूसरे घर, एक शहर से दूसरे शहर तथा एक देश से दूसरे देश तक फैलने लगा। जहां वह पर्चा समाप्त हो जाता, वहीं पर नए सिरे से छपवाया जाता। केवल तीन महीने में अपने क्रांतिकारी संदेश के साथ वह पर्चा यूरोप पर छा चुका था। अपनी कामयाबी पर टिप्पणी करते हुए लूथर ने एक स्थान पर लिखा है—
‘मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि कागज का एक मामूली टुकड़ा रोम में इतने बड़े तूफान का कारण बन सकता है।’3
उन साधारण से लगने वाले संदेशों ने जर्मनी समेत पूरे यूरोपीय समाज में आग लगाने का कार्य किया। क्रांति की तीव्र लहर समाज में प्रवाहित होने लगी। लोग स्वार्थी पादरियों से नफरत करने लगे। लूथर को धर्म के नाम पर जनता को लूटनेवालों चालाक पादरियों, धार्मिक लोगों के कोप का सामना करना पड़ा, जो स्वाभाविक ही था। मगर स्थिति से समझौता कर, प्रतिरोधों के सामने झुक जाने के बजाय उसने संघर्ष का रास्ता अपनाया। धीरे–धीरे उसे कामयाबी दिखने लगी। उसके प्रयासों से लोगों में तात्कालिक धर्मव्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश पनपने लगा। नए समाज की स्थापना के लिए पारंपरिक मान्यताओं में संशोधन की मांग की जाने लगी। परिणामतः सामाजिक परिवर्तन के पक्ष में एक तूफान–सा उठ खड़ा हुआ। उस क्रांतिकारी दौर में लूथर ने बुद्धिमत्तापूर्वक अपने समाज का नेतृत्व किया। अंततः एक अपेक्षाकृत प्रगतिशील समाज की स्थापना में उसको सफलता भी मिली।
विचारधारा
मार्टिन लूथर एक क्रांतिकारी चिंतक, प्रखर बुद्धिमान और महान समाज सुधारक था। एक आकस्मिक घटना से प्रेरित होकर उसने स्वयं को चर्च की सेवा में समर्पित कर दिया था। वहां उसने पूरी श्रद्धा एवं विश्वास के साथ काम भी किया। किंतु चर्च के निकट संपर्क में रहने के पश्चात उसे वहां पर व्याप्त भ्रष्टाचार और अनाचार की जानकारियां मिली थीं। उसे लगा कि जिस भावना से प्रेरित होकर वह चर्च की शरण में पहुंचा था, वहां के अंदरूनी हालात उसके ठीक विपरीत हैं। पादरियों की कथनी और करनी में भारी भेद है। सचाई, ईमानदारी, त्याग, समर्पण और नैतिकता जैसे सद्गुण केवल दिखावा हैं। पुजारी वर्ग विलासिता और पाखंड का जीवन जी रहा है, जबकि जनता भीषण गरीबी से मरी जा रही है। श्रद्धालुओं को धर्म के नाम पर अंधविश्वास तथा चमत्कारों की शिक्षा दी जाती है, जिससे समाज का अहित हो रहा है।
लूथर ने चर्च के संपर्क में रहकर वहां की कुरीतियों को समझा था। इस कारण उसके अनुभवों में सचाई थी। उसने हालात से समझौता करने के बजाय सुधार कार्यक्रमों को महत्ता दी। इससे उसका विरोध होना स्वभाविक ही था। लेकिन विरोध के दौरान भी वह अपने विचारों पर अडिग रहा। यहां तक कि जर्मन की धर्मसंसद के सम्मुख भी उसने, धार्मिक स्थलों पर पनप रहे भ्रष्टाचार और अनाचार के विरोध में बयान दिया। धीरे–धीरे उसके विचार लोगों पर असर करने लगे। परिणामस्वरूप लूथर का प्रभाव भी बढ़ता चला गया।
ध्यातव्य है कि उन दिनों धार्मिक संस्थाएं अत्यंत अधिकार–संपन्न तथा शक्तिशाली थीं। निहित स्वार्थ के कारण राजसत्ता भी उनकी मूक समर्थक बनी रहती थी। धर्म की संकल्पना यद्यपि मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश का परिणाम थी, जिसे प्रासंगिक बनाए रखने के लिए नैतिकता से जोड़ दिया गया। कालांतर में धर्म और राजनीतिक करीब आते चले गए। राजसत्ता की देखादेखी धार्मिक शक्तियां भी संगठित होती चली गईं। मध्यकाल तक आते–आते उन्होंने अपनी स्थिति इतनी मजबूत कर ली थी कि बाकी अन्य सामाजिक संस्थाएं, यहां तक कि राजसत्ता भी, उनके आगे बौनी और असहाय नजर आने लगी थी। यह स्थिति अकेले यूरोप में ही नहीं थी।
एशिया प्रांतर में भी धर्म अपने वास्तविक उद्देश्यों को भुलाकर लगभग आतंककारी भूमिका में आ चुका था। अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए धर्म ने दर्शन से उसका रहस्यवाद तथा पारलौकिक जीवन से संबंधित कुछ मान्यताएं उधार लीं, तो औचित्य बनाए रखने के लिए उसने नैतिकता को अपना हथियार बनाया। प्रकारांतर में राजनीति एवं धर्म का गठबंधन मुक्त सामाजिकता के लिए एक चुनौती बनता चला गया। उत्पीड़क शक्तियों को धर्म के रूप में एक और हथियार मिल चुका था। स्वार्थी राजसत्ता के समर्थन के लिए धर्मगुरुओं ने पाप–पुण्य, स्वर्ग–नर्क जैसी भ्रामक संकल्पनाओं को जन्म दिया। इस गल्प के माध्यम से वे जनसाधारण का ध्यान असली मुद्दों से हटाकर उसे अंधविश्वासी और चमत्कार प्रिय बना सकें।
मार्टिन लूथर ने समाज को धार्मिक पोंगापंथ से उबारने के लिए सुधारवादी आंदोलन का नेतृत्व किया। स्वाभाविक रूप से इस कार्य में कुछ अड़चनें भी आईं, किंतु परिणाम सकारात्मक ही निकला। धार्मिक सुधार के लिए चलाया गया उसका आंदोलन प्रकारांतर में एक महान सामाजिक आंदोलन में ढल गया। लूथर के सर्मथकों की संख्या लगातार बढ़ती चली गई। लेकिन विरोधियों की आंखों में लूथर कांटे की तरह गढ़ा हुआ था। वे उसके पर कतरना चाह रहे थे। उन्होंने धर्मसंसद के समक्ष लूथर की शिकायत कर दी। उसपर जनता के बरगलाने के आरोप लगाए गए थे। जर्मन इंपीरियल संसद ने लूथर को बुलाकर तत्काल बाज आने का निर्देश दिया। अमल न करने पर दंडित करने की धमकी भी दी। मगर लूथर पर तो मानो सुधारवाद जुनून सवार था। चर्च को संतुष्ट करने के बजाय आत्मविश्वास से भरपूर शब्दों में उसने कहा कि—
‘मैं डरा हुआ नहीं हूं। भगवान की मर्जी तो होकर ही रहेगी, लेकिन एक नेक काम के लिए दुःख झेलकर मुझे बेहद प्रसन्नता होगी।’4
लूथर के उदारवादी विचारों का जादुई प्रभाव पड़ा, जिसने चर्च के हजारों वर्षों से चले आ रहे वर्चस्व को समाप्त कर दिया। धार्मिक सुधार केे लिए चलाया जाने वाला आंदोलन कुछ ही वर्षों में एक शक्तिशाली सामाजिक आंदोलन में ढल गया। मार्टिन लूथर का नाम परिवर्तन का पर्याय माध्यम बन गया। धार्मिक पाखंड के विरोध में चलाया गया उसका आंदोलन थोड़े ही वर्षों में जर्मनी की सीमाएं पार करता हुआ इंग्लैंड, स्विटजरलैंड, हालैंड, फ्रांस आदि अनेक देशों तक पहुंचा। इन देशों में का॓ल्विन तथा ना॓क्स ने लूथर के सिद्धांतों पर आधारित समितियों की स्थापना की तथा अपने–अपने देश में सुधारवादी आंदोलनों का नेतृत्व किया, जिससे आगे चलकर पूरे यूरोप में सामाजिक क्रांति का सूत्रपात हुआ, वहां पर तर्काधारित एवं बौद्धिक रूप से चैतन्य समाज की स्थापना संभव हो सकी।
उधर इंग्लैंड में धार्मिक जड़तावादियों ने लूथर के सुधारवादी आंदोलन के विरुद्ध लंबा संघर्ष छेड़ दिया। सन 1524-25 ई. जर्मनी में कृषक विद्रोह अपने चरम पर पहुंच गया। लूथर की अभी तक की स्थापनाएं धार्मिक पाखंडियों के विरोध में थीं। चूंकि राजसत्ता और धर्मसत्ता एक–दूसरे की पूरक और समर्थक बनी हुई थीं, इसलिए वर्षों से आंदोलनरत किसानों को लूथर द्वारा धर्मसत्ता का विरोध राजसत्ता का भी विरोध जान पड़ा। अतः उन्होंने अपना विद्रोह प्रदर्शन और तेज कर दिया। कुछ ही दिनों में विद्रोह की चिंगारी साबिया(Swabia) फ्रांसकोनिया(Franconia), तिरंजिया(Thuringia) आदि प्रांतों तक पहुंच गई। जर्मनी के असंतुष्ट राजनियकों का समर्थन भी मिलने लगा। परिणामस्वरूप वहां पर गृहयुद्ध जैसे हालात बन गए। उस समय लूथर ने राजसत्ता का पक्ष लेते हुए सरकार से जल्दी से जल्दी शांति स्थापित करने के लिए आवश्यक कदम उठाने को का अनुरोध किया। इससे उसकी चैतरफा आलोचना हुई। विद्रोही किसानों ने लूथर के इस कदम को विश्वासघात की संज्ञा दी।
1525 में जर्मन सरकार उस विद्रोह को दबाने में कामयाब हो गई। लेकिन लूथर ने सामाजिक पुनर्जागरण का जो आंदोलन शुरू किया था, वह कभी मंद न हो सका। कालांतर में आंदोलन की हवा अमेरिका तक जा पहुंची। वह उन दिनों नया–नया बसा था, बल्कि बसने की प्रक्रिया में था। इंग्लैंड की अपेक्षा अमेरिका का समाज चर्च के वर्चस्व से दूर, अधिक उदार एवं खुला था। आधुनिकता से प्रेरित लूथर के विचार नए राज्य को प्रगति के पथ पर आगे ले जाने में सहायक थे। इसलिए वहां की जनता ने उनका जोरदार स्वागत किया। लूथर के विचारों के आधार पर अमेरिका में धार्मिक रूप से उदार गणतांत्रिक राज्य की स्थापना हुई।
उस समय लूथर जर्मनी में ही रह रहा था। वहीं पर उसने 13 जून 1525 की एक शाम कैथरीन वा॓न बोरा नामक स्त्री से विधिवत विवाह भी किया था। कैथरीन विवाह से पहले नन थीं और लूथर की प्रशंसक भी। लूथर ने ही चर्च से भाग आने में उसकी मदद की थी। कैथरीन से उसके संतान भी हुई, जिनमें तीन बेटे थे और इतनी ही बेटियां। लिखने–पढ़ने के अतिरिक्त लूथर को संगीत और बागवानी का भी शौक था। सन 1546 ई. में दिल के दौरे से उसकी मृत्यु हो गई, लेकिन उसकी वैचारिक चुनौतियां मृत्यु के बाद भी वर्षों तक हवा में गूंजती रहीं। खासकर उसका वह कथन, जिसमें उसने धार्मिक आडंबरवादियों को ललकारते हुए कहा था—
‘मृत्यु के बाद मैं प्रेत बनना चाहूंगा, ताकि मैं वाचाल पादरियों, पुजारियों तथा पाखंडी साधुओं को सबक सिखा सकूं। उस समय तक और इतना तंग कर सकूं, जितना हजारों जीवित लूथर एक साथ मिलकर भी नहीं कर सकते।’5
लूथर ने पोप तथा उसके अनुयायियों से धर्म के नाम पर हो रहे अनाचार का विरोध करने का आवाहन किया। उसने कहा कि सहिष्णु होना अच्छा है। किंतु लोगों का शोषण एवं उत्पीड़न देखकर सहनशील बने रहना कायरता है। उसने कहा कि—
‘ऐसी सहिष्णुताएं अत्यंत हानिकर हैं, जो यथास्थिति को बढ़ावा देने का कार्य करती हैं। क्योंकि वे अंततः मानवमुक्ति के अभियान को खतरे में डालने का कार्य करती हैं।’6
मार्टिन लूथर ने बाईबिल का जर्मन में अनुवाद किया। उसका अनुवाद सहज और आमआदमी के लिए उपयोगी था। इससे बाईबिल के संदेश घर–घर तक पहुंचाने में काफी मदद मिली और उसको लेकर जो भ्रांत धारणाएं धर्मगुरुओं ने फैला रखीं थीं, उनमें कमी आई। अपने अध्यात्मिक विचारों को लेकर लूथर ने प्रश्नोत्तरी(Catechism) शैली में दो पुस्तकों की रचना की, जिनमें से लघु प्रश्नोत्तरी में उसने लिखा है कि—
‘मेरा मानना है कि प्रभु ईसामसीह में मेरी आस्था, उसकी शरण में मेरा आना, किसी व्यक्तिगत कारण, श्रद्धा अथवा आंतरिक शक्ति से प्रेरित नहीं है, बल्कि स्वयं पैगंबर ने अपने आशीर्वाद से मेरे अंतर्मन में यह पवित्र प्रेरणा जाग्रत की है, महान देवदूत की वाणी ने मुझे स्वयं पुकारा है, अपने आशीर्वाद से मेरे अंतर्मन को पवित्र किया है और उसी ने मुझे सच्ची आस्था और विश्वास के साथ जीवन जीने की प्रेरणा दी है।’7
मार्टिन लूथर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। आधुनिक युग की असली कहानी मार्टिन लूथर के बाद से ही प्रारंभ होती है। यह मानसिक गुलामी के अंत की शुरुआत की कहानी है। आधुनिक विकासवाद का वास्तविक नींव तभी रखी जा सकी, जब मार्टिन लूथर ने समाज को खोखले अध्यात्म से बाहर लाकर उसकी वस्तुनिष्ट विवेचना की। उसने आम आदमी के मन से उस भय को बाहर निकालने में भी सफलता प्राप्त की, जो उसको परलोक के काल्पनिक सुख के नाम पर उससे जीवन की सामान्य सुविधाएं भी छीन लेता था। अपने प्राणों की परवाह न करते हुए भी लूथर ने धार्मिक जड़ता के प्रतीक बन चुके तात्कालिक कैथोलिक चर्च के विरुद्ध लंबे संघर्ष का नेतृत्व किया। उसने आग्रहपूर्वक कहा भी कि—
‘मानवीय आस्था एवं नैतिकता के संदर्भ में केवल बाईबिल ही परमसत्ता का प्रतीक है। चर्च के पादरीगण को यह श्रेय हरगिज नहीं दिया सकता। उस परमसत्ता की अनुकंपा केवल ईश्वर के आशीर्वाद से प्राप्त हो सकती है, न कि व्यक्ति विशेष के अच्छे कर्मों से।8
इस कथन में भाग्य, ईश्वरीय अनुकंपा एवं उसके आशीर्वाद पर बहुत जोर दिया गया है। इसके कारण मार्टिन लूथर पर आरोप लगाया जा सकता है कि पादरियों की भांति वह भी कहीं न कहीं रूढ़िवादी और परंपरा का पोषक था। इस आरोप में किंचित सच छिपा है। किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज से पांच शताब्दी पहले लूथर ने जिस प्रकार धार्मिक यथास्थितिवाद के विरुद्ध लंबा आंदोलन चलाया, वह अपने आप में अद्वितीय था। उसी के कारण आगे चलकर अमेरिका और ब्रिटेन आदि देशों में वैज्ञानिक समाज की स्थापना हो सकी।
मार्टिन लूथर का संघर्ष उस फासीवाद के पतन की शुरुआत की कहानी है, जिसने पूरे मध्ययुग को गहरे जकड़ा हुआ था। यह सच्चे अध्यात्म, मानवीय अस्मिता तथा वैचारिक स्वतंत्रता के सम्मान की कहानी भी है; और इन सबके साथ–साथ लूथर की कहानी उस सपने की कहानी भी है, जो इकीसवीं शताब्दी का केंद्रीय विचार माना जाता है।
ओमप्रकाश कश्यप
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I believe that I can not by my own reason or strength, believe in Jesus Christ my Lord, or come to Him, but the Holy Ghost has called me by the Gospel, enlightened me with His gifts, sanctified and kept me in the true faith. – Martin Luther. |
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That the Bible alone (not the church leadership) is the final authority for matters of faith and morals and that salvation is attained purely through grace without any contribution from the good works of the person in question. – Martin Luther. |
This History Is Very Useful In Our Indian Christian Life
Because It Shows A Path Of Unturned Milestone Commitment.
THE INFORMATION GIVEN ABOUT LUTHER IS MUST BE ADMIRED . LANGUAGE OF EASY IS ALSO NICE. THANKS A LOT.
मार्टिन लूथर का लोक प्रशासनिक सिद्धान्त क्या हैै?
GEL church ke rules,
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