इस लेख का उद्देश्य बच्चों के लिए विज्ञान साहित्य की उपयोगिता पर सवाल खड़े करना नहीं है. यह मानते हुए कि विज्ञान साहित्य की जितनी उपयोगिता बड़ों के लिए है, उतनी बच्चों के लिए भी है—हमारा ध्येय लिखे जा रहे विज्ञान साहित्य पर समीक्षा–दृष्टि डालना है. यह देखना है कि जो विज्ञान साहित्य इन दिनों लिखा जा रहा है, उसमें साहित्य जैसा क्या है? और यदि उसमें ‘साहित्यत्व’ का अभाव है, अथवा कहीं विचलन है, तो उसके कारण क्या हैं? साहित्यिक आचारसंहिता के नाते आलोचकों और समीक्षकों का यह दायित्व है कि रचना का अन्वीक्षण, उसकी नीर–क्षीर विवेचना करते समय भाषा, शैली, व्याकरण, विषय–वस्तु आदि के अलावा, रचना की अंतनिर्हित शुभता; यानी साहित्यत्व को भी कसौटी बनाएं. देखें कि रचना में ‘साहित्य’ अथवा ‘सर्वहितकारी’ जैसा क्या है? ऐसा कौन–सा गुण है जो उस रचना को साहित्य की कोटि में ले आता है? दूसरे शब्दों में रचना का नैतिक पक्ष, जिसे उसका मूल्य भी कह सकते हैं, उसकी आलोचना–विवेचना की प्रथम कसौटी होना चाहिए. जबकि सामान्य आलोचना प्रायः बड़े नामों, भाषा–शैली, प्रस्तुतीकरण और मनोरंजकता तक सीमित रह जाती हैं. मूल तथ्य जिससे रचना को साहित्य का दर्जा मिलता है, जिसके लिए कोई संवेदनशील रचनाकार कलम उठाता है, अथवा जो मुद्दा उसको कलम उठाने के लिए उद्वेलित करता है—उपेक्षित रह जाता है.
यहां हमारा आशय आलोचना के नैतिकतावादी पक्ष से है, जो किसी रचना को साहित्य की श्रेणी में लाने के लिए उसका अपरिहार्य गुण है. पर्याप्त नैतिक प्रेरणा के अभाव में लेखक केवल लिखने के लिए लिखते हैं. आलोचक नैमत्तिक कर्म की तरह आलोचना करते हैं. ऐसी कलावादी आलोचना समाज पर वैसा असर नहीं डाल पाती, जैसा अपेक्षित होता है. इससे कभी–कभी रचनाकार के स्तर पर हताशा भी व्याप जाती है—‘कुछ नहीं बदलना’, ‘सब इसी तरह चलता रहेगा’—का नैराश्य–भाव उसे स्थायी पलायन की मुद्रा में ले आता है. जबकि लेखन की सार्थकता जीवन और समाज में जो भी अच्छा है, सकारात्मक है, उसे बाहर लाने; तथा मनुष्य का उसकी मूलभूत अच्छाइयों में विश्वास जगाने में है. अच्छी रचना नैतिक मूल्यों की उत्प्रेरक होती है. वह पाठक और समाज के बीच जीवनमूल्यों की अबाध आवाजाही हेतु संबंध–सेतुओं का निर्माण करती है. आधुनिक जीवन चूंकि विज्ञान और प्रौद्योगिकी से अत्यधिक प्रभावित है, अतएव आलोचना की नैतिकता–केंद्रित कसौटी को लेकर, विज्ञान लेखकों–समीक्षकों से हमारी अपेक्षाएं और भी बढ़ जाती हैं. ‘साहित्यत्व’ की खोज विज्ञान–लेखन के अलावा साहित्य की दूसरी धाराओं और विधाओं में भी की जा सकती है, की जानी चाहिए. मगर लेख की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए फिलहाल हम अपनी बात विज्ञान साहित्य तक सीमित रखेंगे.
उपर्युक्त कसौटी पर हिंदी विज्ञान साहित्य की समीक्षा करें तो कुछ चीजें स्पष्ट रूप से सामने आने लगती हैं. प्रायः सभी रचनाओं में वैज्ञानिकों तथा उनके आविष्कारों को मनुष्यता के प्रति समर्पित और कल्याणकारी दिखाया जाता है. जहां ऐसा नहीं है, जिन रचनाओं में वैज्ञानिक अथवा उससे जुडे़ व्यक्तियों की निजी महत्त्वाकांक्षाएं लोकहित पर भारी पड़ें, वहां वैज्ञानिक के हृदय–परिवर्तन द्वारा उसे सही रास्ते पर लाने की कोशिश की जाती है; अन्यथा मनुष्यता की समर्थक शक्तियों के आगे उसे पराजित होना पड़ता है. पशुता पर मनुष्यता की विजय साहित्यत्व की पहली कसौटी है. उसके अभाव में रचना साहित्य बन ही नहीं सकती. विज्ञान सबके लिए है, उसके लाभ सभी तक पहुंचने चाहिए, मनुष्य समाज का ऋणी होता है, अतः उसके ज्ञान–विज्ञान पर समाज का भी पूरा–पूरा अधिकार है—यह संदेश प्रत्येक विज्ञान–रचना का मूल–मंत्र होता है. इसके आधार पर विज्ञान लेखक साहित्यकर्म की कसौटी पर खरा उतरने का दावा कर सकते हैं.
आधुनिक विज्ञान का जन्म 15वीं शताब्दी की महत्त्वपूर्ण घटना है. पश्चिमी विज्ञान का पितामह कहा जाने वाला फ्रांसिस बेकन उसे लेकर बेहद आशान्वित था. ‘ज्ञान ही शक्ति है’—कहकर उसने ज्ञान–विज्ञान आधारित समाज के गठन पर जोर दिया था. बेकन का मानना था कि विज्ञान मनुष्य को जानलेवा श्रम और व्याधियों से बचाकर उसका मुक्तिदाता सिद्ध होगा. बेकन राजसत्ता से जुड़ा था. सत्ता और शक्ति दोनों उसके पास थे. जानता था कि सत्ता के फैलाव के लिए बड़ी शक्ति चाहिए. बड़ी शक्ति यानी बड़ी सत्ता. और सत्ताएं आमतौर पर महत्त्वाकांक्षी होती हैं. अपने विस्तारवादी मनसूबों को साधने के लिए वे अपनी ताकत लगातार बढ़ाती रहती हैं. इसका दूसरा पहलू यह है कि किसी भी राष्ट्र की शक्तियां उसकी जनता और संसाधनों पर निर्भर करती हैं, जिनका कालखंड विशेष में एक सीमा तक ही दोहन संभव होता है. वैज्ञानिक होने के बावजूद बेकन को संभवतः याद नहीं था कि ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत व्यापक संदर्भों में, देश और समाज पर भी लागू होता है. उसका व्यावहारिक संदेश यह भी है कि यदि एक स्थान पर संसाधनों का अनावश्यक और अतिरिक्त दोहन हो तो उनका अन्यत्र अभाव अवश्यंभावी होता है.
औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप सतरहवीं–अठारहवीं शताब्दी में यूरोप ने इतनी तेजी से तरक्की की थी कि विज्ञान नई पीढ़ी का जीवन–मंत्र जैसा बन गया. जो देश उससे वंचित थे, वे उसको पाने के लिए ललचाने लगे. पूरी दुनिया में उसके लिए होड़–सी मच गई. बेकन का यह सोच गलत नहीं था कि विज्ञान मनुष्यता की अनेक समस्याओं का निदान करने में सक्षम है. विज्ञान खुद को ऐसा दर्शा भी चुका था. लेकिन ताकत की विशेषता है कि वह उसी का हित साधती है, जिसका उसपर अधिकार होता है. दूसरे शारीरिक शक्ति को छोड़कर बाकी किसी भी शक्ति का प्रबंधन जटिल कार्य होता है. जो व्यक्ति शक्ति–प्रबंधन की कला से अनभिज्ञ है, अथवा उससे वंचित है, यह वंचना चाहे जिस कारण से भी हो—वह न केवल पिछड़ जाता है, बल्कि दूसरों के बराबर में आने के उसके अवसर भी तेजी से घटते चले जाते हैं. अपनी स्थिति का लाभ उठाकर शक्ति–धारक(अथवा शक्ति प्रबंधक) व्यक्ति, शक्ति–विपन्न व्यक्तियों के साथ मनमानी–भरा वर्ताब करता है. परिणामस्वरूप शोषण बढ़ता है और असमानता में वृद्धि होती है. ऐसे समाजों में जहां जनता शिखरस्थ शक्तियों की गतिविधियों की ओर से उदासीन; अथवा उनकी ओर से आंखें मूंदे रहती है, वहां शीर्षस्थ लोग बड़ी चतुराई से अपनी शक्तियों को राज्य की अथवा राज्य समर्थित शक्तियों के रूप में प्रचारित करते हैं. धीरे–धीरे वे राज्य के संसाधनों को अपने अथवा अपनी समर्थक शक्तियों के अधीन करते जाते हैं.
चूंकि किसी काल–विशेष में, जब तक नए संसाधनों का दोहन न हो या उन्हें पहचाना न जाए—राज्य की कुल शक्तियां सीमित होती हैं, इसलिए शीर्ष वर्ग की शक्ति और समृद्धि शेष समाज की दुर्बलता और विपन्नता की कीमत पर आती है. अपनी उपलब्धियों को राज्य की उपलब्धि की भांति पेश करते हुए शिखरस्थ लोग, कभी–कभी जनता की सहानुभूति भी बटोर लेते हैं. इस प्रकार वे स्वयं को उत्तरोत्तर शक्तिशाली बनाते जाते हैं, हालांकि वे दावा राष्ट्र के शक्तिशाली होने का ही करते हैं. उनके अनुसार राष्ट्र–सशक्तीकरण का अभिप्राय है, जनता के हाथों से ताकत खिसककर शीर्ष पर मौजूद चंद लोगों के हाथों में सिमट जाना. विज्ञान की चलायमान प्रवृत्ति और उसकी शक्ति के दुरुपयोग की संभावना को सबसे पहले रूसो ने समझा था. उसका मानना था कि विज्ञान ने मनुष्य और प्रकृति के बीच दूरी पैदा की है. परिणामस्वरूप व्यक्ति प्रकृति को भोग्य वस्तु की भांति देखता है. इससे समाज में भौतिक सुखों के प्रति होड़ पैदा होती है. प्लेटो की भांति रूसो भी सामाजिक समस्याओं का निदान नैतिकता के अनुपालन में ढूंढता था. ‘एमाइल’ में उसने लिखा था—‘बालक को विज्ञान पढ़ाने की अपेक्षा अपने परिवेश से प्यार करने की शिक्षा देना, उसके बारे में जागरूक बनाना ज्यादा जरूरी है.’ इसी को कुछ भिन्न शब्दों में आइंस्टाइन ने भी स्वीकार किया है—‘अधिकांश लोग मानते हैं कि प्रतिभा महान वैज्ञानिक बनाती है. वे गलत हैं: असली चीज तो व्यक्तित्व है.’ रूसो और आइंस्टाइन दोनों ने ही विज्ञान का अंधानुकरण करने, उसको धर्म मान लेने की प्रवृत्ति का विरोध किया था. इसके लिए उसकी खूब आलोचना हुई. लेकिन वह अपने विचारों पर अडिग रहा. कालांतर में उसके समर्थक बढ़ते गए. उसके साथ–साथ पूरी दुनिया में यथार्थवादी लेखकों की संख्या भी बढ़ती गई. साहित्य की अवधारणा भी संघर्ष के इसी दौर में पनपी.
यह निर्विवाद है कि विज्ञान ने आर्थिक समृद्धि की दर को गति प्रदान की है. मगर उससे समाजार्थिक विषमता भी तेजी से बढ़ी है. गरीबी पहले भी थी. सामाजिक असमानता पहले भी थी, लेकिन विज्ञान और प्रौद्योगिकी के वर्चस्व से पहले मानवीय कला–कौशल का महत्त्व था. न केवल मनुष्य बल्कि पूरा समाज अपने शिल्प–कौशल पर गर्व करता था. विज्ञान और प्रौद्योगिकी का सबसे पहला हमला मानवीय अस्मिता के संरक्षक और प्रतीक मानेवाले इन्हीं मूल्यों पर हुआ. श्रम से मुक्ति तथा सघन उत्पादन के नाम पर मशीनें, मानव–शिल्प और उससे आगे बढ़कर मानवीय अस्मिता पर कब्जा करती गईं. उससे उपभोक्ताकरण की राह आसान होनी ही थी. वही हुआ. नतीजा हमारे सामने है. आज मनुष्य के प्रत्येक निर्णय यहां तक कि संबंधों पर भी बाजार की छाया देखी जा सकती है.
चूंकि संसाधनों के दोहन तथा उन्हें लोकोपयोगी बनाने में विज्ञान का बड़ा योगदान होता है, अतएव वैज्ञानिकों एवं विज्ञान लेखकों से हमारी अपेक्षाएं बहुत बढ़ जाती हैं. उनसे उम्मीद की जाती है कि वे विज्ञान के ऐसे उपयोग की ओर सबका ध्यान आकृष्ट कराएं जिससे आर्थिक, सामाजिक सहित सभी प्रकार के लाभों की सिद्धि हो सके. वैज्ञानिक शोध अपने आप में खर्चीला उद्यम है. उसके लिए भारी निवेश की आवश्यकता पड़ती है. ऐसे में विज्ञान लेखक को दुहरी भूमिका निभानी पड़ती है. स्वचेता रचनाकार के रूप में पाठकों के प्रबोधन की, ताकि वे अपने आसपास की घटनाओं के बारे में बैज्ञानिक सूझ–बूझ के साथ निर्णय ले सकें. दूसरी भूमिका ज्ञान–विज्ञान के सामाजिक लाभों के पक्ष में माहौल बनाने की होती है, ताकि नवीनतम आविष्कार और प्रौद्योगिकी केवल पूंजीपतियों के लाभ कमाने का जरिया बनकर न रह जाएं. वे अधिकतम लोगों के कल्याण का माध्यम बन सकें. प्रतिबद्धता की कमी के चलते अधिकांश विज्ञान लेखक दूसरी भूमिका में कमजोर, बल्कि कई बार तो पूंजीपतियों के हित–रक्षक सिद्ध होते रहे हैं.
हिंदी में विज्ञान लेखन की परंपरा करीब सवा सौ वर्ष पुरानी है. बच्चों के लिए स्वतंत्र साहित्य सृजन की शुरुआत उससे लगभग एक दशक पहले हो चुकी थी. अंतर केवल इतना था कि आरंभिक बालसाहित्य जहां लोकसाहित्य, पुराण, उपनिषद्, जातक, कथासरित्सागर, पंचतंत्र आदि से प्रभावित था, वहीं परंपरा के अभाव में आरंभिक हिंदी विज्ञान कथाएं तथा उपन्यास पश्चिमी रचनाओं का अनुवाद अथवा उनकी पुनः प्रस्तुति मात्र थे. हिंदी में विज्ञान लेखन की शुरुआत, 1884 से 1888 के बीच ‘पीयूष प्रवाह’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित, अंबिकादत्त व्यास की रचना ‘आश्चर्यजनक वृतांत’ से मानी जाती है. यह कृति जूल बर्न के उपन्यास ‘जर्नी टू सेंटर आफ दि अर्थ’ का देसी संस्करण थी. केशव प्रसाद सिंह की चर्चित विज्ञान कथा ‘चंद्र लोक की यात्रा’(जून 1900) भी जूल बर्न की प्रसिद्ध रचना ‘फ्राम दि अर्थ टू दि मून’ पर आधारित थी। इन रचनाओं को मिली लोकप्रियता ने भारतीय लेखकों को भी उद्वेलित किया. इसके बावजूद हिंदी की प्रथम मौलिक विज्ञान कथा की रचना के लिए पाठकों को दो दशक लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ी. 1908 में प्रकाशित सत्यदेव परिव्राजक की कहानी ‘आश्चर्यजनक घंटी’ को हिंदी की प्रथम विज्ञान कथा होने का श्रेय प्राप्त है. उसके बाद तो प्रेमवल्लभ जोशी(छाया पुरुष 1915), अनादिधन बंधोपाध्याय(मंगल यात्रा, 1915-16), आचार्य चतुरसेन(खग्रास), नवल बिहारी मिश्र(अधूरा आविष्कार), ब्रजमोेहन गुप्त(दीवार कब गिरेगी) आदि लेखकों ने विज्ञान साहित्य को समृद्ध करने में योगदान दिया. अनादिधन वंधोपाध्याय ने अपनी विज्ञानकथा में पटरियों के ऊपर हवा में चलनेवाली रेलगाड़ी का वर्णन किया था. आज विकसित देशों में उच्च गति रेलगाड़ियों के संचालन हेतु विद्युत–चुंबकीय ऊर्जा का भी उपयोग किया जाता है. जिसमें गाड़ी यात्रा के दौरान चुंबकीय प्रतिकर्षण बल के कारण पटरियों से मामूली–सी ऊपर उठकर यात्रा करती है.
हिंदी में विज्ञान लेखन की शुरुआत पुनर्जागरण के दौर में हुई थी. उस समय तक गल्प लेखन में तिलिस्म, जासूसी और ऐय्यारी से जुड़ी कहानियों का दबदबा था. देवकीनंदन खत्री, गोपाल राम गहमरी, किशोरी लाल गोस्वामी, विश्वेश्वर प्रसाद शर्मा आदि लेखकों ने तिलिस्म और जासूसी पर आधारित अनेक उपन्यास लिखे थे. उन उपन्यासों को खूब लोकप्रियता मिली. मगर जैसे–जैसे साहित्य से अपेक्षाएं बढ़ीं, खासकर प्रेमचंद द्वारा यथार्थवादी साहित्य लेखन के बाद, वैसे–वैसे तिलिस्म और जासूसी पर आधारित रचनाओं को दोयम दर्जे का समझा जाने लगा. उसकी जगह यथार्थवादी लेखन को बल मिला. चूंकि रहस्य, रोमांच, जासूसी और ऐयारी पर आधारित कथानकों की लोकप्रियता अक्षुण्ण थी, इसलिए वे विज्ञान गल्प का विषय बनने लगे. अथवा यूं कहो कि विज्ञान मंे रुचि रखने वाले लेखक उनमें नए प्रयोगों के साथ हाथ आजमाने लगे. यह स्वाभाविक भी था. अपनी मौलिकता के कारण अनेक वैज्ञानिक आविष्कार लोगों को चैंकाते थे. विशुद्ध वैज्ञानिक घटनाओं को जादू और चमत्कार बताकर जादूगर, तांत्रिक और तमाशेबाज शताब्दियों से जनता का मनोरंजन करते आए थे. लेकिन कोरा गल्प, चाहे उसमें वैज्ञानिक युक्तियों का प्रयोग हो अथवा तिलिस्म का, केवल गल्प माना जाएगा. इस कसौटी के मद्देनजर आरंभिक आलोचकों ने तथाकथित विज्ञान–साहित्य को भी नकारना आरंभ कर दिया. वे उसे दोयम दर्जे का लेखन कहने लगे. जूल बर्न जिसे उसके विज्ञान–गल्प पर आधारित उपन्यासों और कहानियों के कारण पाठकों की भरपूर सराहना मिली थी—आलोचकों ने उसे साहित्यकार मानने से ही इन्कार कर दिया था. धीरे–धीरे लोगों में विज्ञान के प्रति समझ पनपी. वैज्ञानिक प्रबोधन को आधुनिकता की अनिवार्यता माना जाने लगा. तब जाकर विज्ञान लेखन को साहित्य की मुख्यधारा के रूप में मान्यता मिलनी आरंभ हुई. यह कदाचित परंपरा का ही प्रभाव था कि हिंदी के आरंभिक विज्ञान गल्पकार यमुनादत्त वैष्णव ने अपनी औपन्यासिक कृतियों के जो शीर्षक(हिम सुंदरी, नियोगिता नारी, अपराधी वैज्ञानिक आदि) रखे, वे प्राचीन तिलिस्मी कृतियों के शीर्षकों से काफी मिलते–जुलते थे. यही कारण है कि भारतीय विज्ञान कथा लेखक, आलोचक भारतीय विज्ञान लेखन की नींव की खोज में तिलिस्मी और ऐय्यारी लेखन तक चले जाते हैं. इसके पीछे उनकी विवशता को समझा जा सकता है. जिस समाज में वैज्ञानिक प्रबोधन का अभाव हो, जो अज्ञान, अशिक्षा और रूढ़ियों के शताब्दियों लंबे दौर गुजरा हो, वहां नींव की तलाश के लिए ऐसे कच्चे–भुरभुरे मैदानों से गुजरने की कोशिश स्वाभाविक कही जाएगी. हालात आज भी बहुत आश्वस्तकारी नहीं हैं. इसलिए आधुनिक विज्ञान लेखकों, आलोचकों द्वारा भारतीय विज्ञानकथा के मूल की खोज करते हुए तिलिस्मी साहित्य तक चले जाना स्वाभाविक माना जाएगा.
विज्ञान–साहित्य का एक उद्देश्य बच्चों का मानसिक प्रबोधन, उनमें तर्कसम्मत निर्णय लेने की क्षमता का विकास करना है. यह तभी संभव है जब विज्ञान लेखक का तार्किकता में भरोसा हो. वह उपलब्ध ज्ञान–विज्ञान का वस्तुनिष्ठ विवेचन करने की योग्यता रखता हो. इन सबसे अधिक आवश्यक है कि वह जाति, वर्ग, धर्म और क्षेत्रीयता के प्रभावों और पूर्वाग्रहों से सर्वथा मुक्त हो. भारतीय परिवेश में पूर्वाग्रह मुक्त होना आसान नहीं है. सामान्य भारतीय विज्ञान लेखक बात तेइसवीं–चौबीसवीं शताब्दी की करेगा, किंतु उसकी मनोरचना अठारहवीं शताब्दी में ही चक्कर काटती नजर आएगी. शायद यही कारण है कि हिंदी विज्ञान साहित्य के लगभग सवा सौ साल पुराने इतिहास में पचास विज्ञान–कथाएं भी ऐसी नहीं हैं, जिन्हें विश्व विज्ञान–कथाओं की श्रेणी में रखा जा सके. कुछ और भी कारण हो सकते हैं. जैसे कि आरंभिक विज्ञान लेखकों में से अधिकांश समाज के अभिजात वर्ग से आए थे. उनके विचारों पर सांस्कृतिक जड़ता, वर्णभेद, जातिवाद आदि का प्रभाव था. यह वर्ग भारत के अतीत के गौरव की, जब देश में पुरोहितवाद का बोलवाला था, वापसी चाहता था. पूर्वाग्रह–ग्रसित होने के कारण इस वर्ग का लेखन विज्ञान की मूल भावना से काफी परे था. इस तरह का सोच रखने वाले विज्ञान लेखक आज भी बड़ी संख्या में हैं. दूसरे विज्ञान–शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी रहा है. अंग्रेजी माध्यम में पढ़ा–लिखा वर्ग हिंदी में अभिव्यक्त करने में अपनी हेठी मानता है. दूसरी ओर हिंदी का सामान्य लेखक पर्याप्त विज्ञानबोध के अभाव में कोरी फंतासी गढ़ता है. परिणामस्वरूप उसकी रचना वैज्ञानिक उपकरणों, सूचनाओं अथवा बेजान कल्पना तक सिमट जाती है.
साहित्यकार के रूप में विज्ञान लेखक सामान्यतः दो लक्ष्यों को साधता है. पहला विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों को सरल और पठनीय सामग्री के रूप में पाठक तक पहुंचाना. दूसरे उन कुरीतियों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों और पाखंडों का पर्दाफाश करना जो अशिक्षा, अज्ञानता, धार्मिक आडंबरवाद और पोंगापंथी के कारण शताब्दियों से समाज में जगह बनाए हुए हैं. साथ ही पाठकों को तर्कसम्मत ढंग से सोचने की दृष्टि और विवेक देना, ताकि उनका आत्मविश्वास विकसित हो और वे जीवन की चुनौतियों का सामना विवेकपूर्ण ढंग से कर सकें. लेकिन किसी घटना के पीछे निहित वैज्ञानिक तथ्य को अकादमिक स्तर पर समझना एक बात है, व्यवहार में उसके अनुरूप ढलना, अपने आचरण को तर्क–संगत बनाना दूसरी बात. वैज्ञानिक प्रबोधन का काम तो विज्ञान की अकादमिक शिक्षा भी करती है. किंतु जब तक उसी अनुपात में सामाजिक–सांस्कृतिक प्रबोधन न हो, तब तक समाज रूढ़ियों और जड़ परंपराओं को ढोते हुए अज्ञानता के अंधियार में जीने को विवश होता है. पुस्तकों में अर्से से पढ़ाया जा रहा है कि राहू–केतु किंवदंति हैं. ग्रहण सामान्य सौर–मंडलीय घटना है. चेचक दैवी प्रकोप होने के बजाए महामारी है. भूत–प्रेत केवल मन का बहम और कुछ ठग तांत्रिकों, ज्योतिषियों एवं पोंगापंथियों की चाल है….वगैरह–वगैरह. इसके बावजूद यदि वे बड़े होकर मूर्तिपूजा में अपना श्रम और समय खपाते हैं, तांत्रिकों, ओझाओं और कलंदरों की शरण में जाते हैं, अंतरिक्ष अभियानों की सफलता के लिए कर्मकांड करते हैं, अथवा सांस्कृतिक दुराग्रहों के चलते उस तरह का नाटक करते हैं तो उसका कारण यह भी है कि जिस गंभीरता के साथ रूढ़िवादी लोग जनमानस में डर पैदा करने का काम करते हैं, उतनी ही गंभीरता के साथ विज्ञान लेखक और दूसरे समाज–चेता लोग उस डर के निदान पर काम नहीं करते. इसे अतीतमोह कहिए या पूर्वाग्रह, विज्ञान लेखकों का एक वर्ग आज भी विज्ञान कथाओं के मूल की खोज को वैदिक युग तक खींच ले जाने को उद्यत है. इसके लिए दिए जानेवाले तर्क एकदम बचकाने हैं. किसी भी जाति या देश का अतीत प्रेरणादायी हो सकता है, वर्तमान पीढ़ियां उससे सीख भी ले सकती हैं, लेकिन व्यवहार में उसका महत्त्व एक गुजरे हुए सपने से बढ़कर नहीं होता. जीवन और समाज में सुधार के लिए अतीत के दबावों से मुक्त होना आवश्यक है.
बच्चों के लिए कैसा विज्ञान साहित्य रचा जाए इस बारे में हमारा मानना है कि ऐसा साहित्य जो बच्चों को न केवल वैज्ञानिक यंत्रों, सिद्धांतों से परचाए बल्कि उनमें पर्याप्त विज्ञानबोध भी विकसित करे. इस तरह पाठक का प्रबोधीकरण विज्ञान–साहित्य की पहली शर्त है. अच्छी विज्ञानकथा बिना वैज्ञानिक उपकरण, यंत्र, वैज्ञानिक सिद्धांत की उपस्थिति के भी लिखी जा सकती है, लेकिन बिना विज्ञान बोध के श्रेष्ठ विज्ञान–साहित्य रचना असंभव है. इसलिए अच्छी विज्ञानकथा वह है जो पाठक को ज्ञान–विज्ञान की बारीकियों से परचाने के साथ साथ–साथ उनमें पर्याप्त विज्ञानबोध का संचार; और यदि उसमें ये सब पहले से हैं तो उसमें इजाफा करती हो. आधुनिक जीवन शैली को बदलने या मनुष्य को आधुनिक बनाने में इस प्रौद्योगिकी का बड़ा योगदान रहा है. खासकर पिछले कुछ दशकों में बावजूद इसके इस क्षेत्र में नवीनतम शोध को लेकर जो खबरें आ रही हैं, उनसे लगता है कि भविष्य हमारे लिए विपुल संभावनाएं बचाए है. यह बात अलग है कि प्रौद्योगिकीय उपलब्धियों का जितना उपयोग सकारात्मक है, उतना नकारात्मक भी है. अपने मुनाफे के लिए पूंजीवादी उत्पादक प्रौद्योगिकी को प्रलोभनकारी उत्पादों के साथ पेश करते हैं. उसमें से अधिकांश का व्यक्ति के वास्तविक विकास से कोई लेना–देना नहीं होता. इसे देखते हुए बच्चों के लिए ऐसा विज्ञान साहित्य अपेक्षित है जो उनमें बाजार में मौजूद उत्पादों के प्रति आलोचकीय दृष्टि विकसित करे.
विडंबना है कि विज्ञान साहित्य के लेखन, अनुशीलन के समय लेखक और आलोचक प्रायः विज्ञान को श्रद्धा–भाव से लेते हैं. वे मान लेते हैं कि साहित्य में विज्ञान के नाम पर जो हो रहा है, वह सही है. दूसरे शब्दों में वे मानते हैं कि विज्ञान साहित्य के नाम पर कुछ भी चल सकता है, जबकि विज्ञान के प्रति यह श्रद्धाभाव धार्मिक रूढ़िवाद से कम खतरनाक नहीं है. इसके चलते लेखक मिथक और यथार्थ में भेद नहीं कर पाते. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दबाव में इस दिशा में तो आज मानो होड़–सी मची है. अपनी पुस्तक ‘विज्ञान पत्रकारिता’ में डॉ. मनोज पटैरिया ने जयंत विष्णु नार्लीकर के एक व्याख्यान का हवाला दिया है. नार्लीकर द्वारा पत्रकारिता पर दिए गए व्याख्यान के बहाने से वे लिखते हैं—‘मैं देवर्षि नारद को पहला पत्रकार मानता हूं.’ नारद को आदि पत्रकार मानने वाले जयंत नार्लीकर अकेले नहीं हैं. पिछले कुछ वर्षों से नारद जयंती को इसी संदर्भ में मनाने का चलन बढ़ा है. यह मिथकों को सत्य मान लेने की गंभीर भूल है. इस तरह के मिथ्याख्यान, सांस्कृतिक श्रेष्ठता के दंभ के चलते, समाज को भ्रमित करने के लिए जानबूझकर गढ़े जाते हैं. उल्लेखनीय है कि ऐसे मिथक प्रत्येक समाज और संस्कृति में पाए जाते हैं. रोमन संस्कृति में ‘ओसा’(Ossa) अथवा ‘फेम’(Pheme) को पत्रकारिता तथा झूठ और अफवाह फैलाने वाली शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है. होमर ने ‘ओडिसी’ एवं ‘इलियाड’ में कई स्थानों पर उसका उल्लेख किया है. भारतीय शास्त्रों में नारद की भूमिका भी उनसे मिलती–जुलती है.
भारतीय परंपरा में दूसरा उदाहरण महाभारत में संजय का है. धृतराष्ट्र की युद्ध का आंखों देखा हाल सुनने की इच्छा को देखते हुए व्यास ने संजय को दिव्य–दृष्टि प्रदान की थी. उसके बारे में धृतराष्ट्र को बताते हुए वे कहते हैं—‘चक्षुषा संजयो राजन्दिव्यैनेष समन्वित कथष्यति ते युद्धं सर्वज्ञश्च भविष्यति. प्रकाशं वा रहस्यं वा रात्रौ वा यदि वा दिवा मनसा चिंततमपि सर्वं वेत्स्यति संजय. (भीष्मपर्व-6.2.10-11) ‘प्रकट हो अथवा गुप्त, दिन हो या रात, यहां तक कि मन में उठनेवाले विचारों को जानने की क्षमता भी संजय को प्राप्त है.’ संजय की कल्पना महाभारतकार की लेखकीय दक्षता को दर्शाती है. उल्लेखनीय है कि युद्ध में लंबे–लंबे वर्णन वाल्मीकि रामायण में भी हैं. लेकिन वे वर्णनात्मक शैली में हैं. ऐसे वर्णन एक सीमा के पश्चात नीरस बन जाते हैं. उनमें दोहराव–सा लगने लगता है. व्यास द्वारा दिव्य–दृष्टा संजय की कल्पना युद्ध के दृश्यों को किस्सागोई के माध्यम से जीवंत बनाने के साथ–साथ, धृतराष्ट्र के मानसिक उद्वेलन से पाठकों को परचाते रहने के लिए की गई थी. इस मौलिक कल्पना के लिए वे सराहना के पात्र हैं. ऐसे प्रसंग वैज्ञानिक परिकल्पना की पृष्ठभूमि तो बन सकते हैं, स्वयं विज्ञान या विज्ञान–लेखन की कोटि में नहीं आते. संजय की दिव्य–दृष्टि का प्रयोग सिवाय युद्ध के कहीं और देखने को नहीं मिलता. बावजूद इसके संस्कृतिवादी लोग मिथकीय पात्रों को वास्तविक मानने पर जोर देते रहते हैं. पटैरिया जी की पुस्तक से भी यही प्रकट होता है. वे इसे विश्वास में बदल देते हैं—‘यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि खाड़ी युद्ध में सीएनएन टेलीविजन ने जो करामातें दिखाईं, वे संजय ने महाभारत युद्ध में महाभारत युद्ध में प्रस्तुत की थीं.’ (विज्ञान पत्रकारिता, पृष्ठ-121). यह सच है कि खाड़ी युद्ध में कुछ टेलीविजन चैनलों ने युद्ध के जीवंत दृश्य पेश किए थे. मगर यह कोई नई बात नहीं. उससे पहले भी टेलीविजन ऐसा करता रहा है. क्रिकेट और दूसरे खेलों की कमेंटरी भी जीवंत होती है. ऐसे में सीएनएन के खाड़ी युद्ध वर्णन से महाभारत के संजय को जोड़ने के पीछे कहीं न कहीं यह दुराग्रह भी काम करता है कि आज दुनिया में विज्ञान के नाम पर जो भी हो रहा है, वह तो भारत में बहुत पहले से ही था. यह भ्रम हमारे प्रबोधीकरण की बहुत बड़ी बाधा है. चूंकि यह काम हिंदी के वरिष्ठ विज्ञान लेखकों द्वारा किया जा रहा है, इसलिए हालात और विचारणीय हो जाते हैं.
विज्ञान लेखन की एक कमजोरी यह भी है कि लेखकगण तकनीक के साथ जुड़ी कल्पना या फंतासी को ही विज्ञान लेखन समझ लेते हैं. वैज्ञानिक तथ्यों पर वे जरा–भी ध्यान नहीं देते. हिंदी के एक वरिष्ठ लेखक की कहानी है, जिसमें पेड़ आकाश में यात्रा करने लगता है. वह पेड़ बस दिखने में ही पेड़ है, क्योंकि उसमें पत्तियां और शाखाएं सब हैं. असल में वह एक यान है, जिसमें यात्रियों के बैठने के लिए सीट हैं, सीढ़ियां हैं, कार्बन डाईआक्साइड से कार्बन और आक्सीजन को अलग करने के लिए सयंत्र भी हैं. यह देखने–सुनने में अच्छी कल्पना लगती है. मगर वैज्ञानिक दृष्टि से इसमें कई लोच हैं. जब भी कोई चीज उड़ती है तो उसको वायुमंडल में मौजूद गैसों से टकराकर आगे बढ़ना होता है. इससे उसका सामना हवा की प्रतिकर्षण शक्ति से होता है. उड़नेवाली चीज की गति जितनी तेज तथा अग्रपृष्ठ का क्षेत्रफल जितना अधिक होगा, उसे उतने ही ज्यादा प्रतिरोधक बल का सामना करना पड़ेगा. लेकिन उक्त कहानी में पेड़ रूपी यान मात्र बैटरी की ऊर्जा से उड़ जाता है. बैटरी भी पूरे सप्ताह चलती है. विज्ञान को लेकर ऐसी कल्पना विचित्र भले दिखाईं, दें मगर असल में वे वैज्ञानिक विषयों के बारे में बालक को केवल भरमाती है. विज्ञान लेखकों से अपेक्षा की जाती है कि वे परीकथाओं और विज्ञानकथाओं की फंतासी के अंतर को समझें. समझें कि जो फंतासी परीकथाओं में चल सकती है, वह जरूरी नहीं कि विज्ञानकथाओं के लिए भी उपयुक्त हो. परीकथा का राजकुमार जादुई कंबल, जूतियां, पेड़, पहाड़, झोला या खटोला किसी के भी सहारे आसमान से उड़ सकता है. वहां कल्पना की मौलिकता देखी जाती है, उसकी प्रामाणिकता नहीं. लेकिन विज्ञान कथा के लेखक को ध्यान रखना होगा कि नायक को यदि आसमान की सैर करानी है तो वह उड़ान के सामान्य नियमों का पालन करे. पृथ्वी पर चलने की अपेक्षा हवा में उड़ने के लिए कम से कम दस गुना ज्यादा ऊर्जा की जरूरत पड़ती है. ऐसे में यदि कोई विज्ञान लेखक सिर्फ बैटरी के सहारे पेड़ के हवा में उड़ने की कल्पना करता है, बैटरी भी जिसे सप्ताह में केवल एक दिन चार्ज करना पड़े, और दावा करता है कि वह एक विज्ञान कथा है, तो वह विज्ञानकथा की मूलभूत अपेक्षाओं के विरुद्ध माना जाएगा.
‘विज्ञान’ का नैतिकतावादी पक्ष यह है कि वह पूरी मनुष्यता के लिए होता है. लुइस पाश्चर के शब्दों में—‘विज्ञान का कोई देश नहीं होता. क्योंकि ज्ञान का संबंध पूरी मनुष्यता से है. वही अपनी रोशनी से दुनिया को जगमगाता है. विज्ञान किसी राष्ट्र के सपनों को मूर्तिमान बनाने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है, ज्ञान–विज्ञान में आगे रहनेवाला राष्ट्र ही दूसरों को राह दिखा सकता है.’ विज्ञान का कोई देश भले न हो मगर पिछले कुछ दशकों से, जबसे पूंजीवाद ने पांव पसारे हैं, उसके घराने अवश्य होने लगे हैं. बौद्धिक संपदा का हवाला देकर पूंजीपति शोध के लाभ पर अपना एकाधिकार बनाए रखना चाहते हैं. इसके अच्छे और बुरे दोनों तरह के परिणाम हमारे सामने हैं. यह मानते हुए कि नए शोध का लाभ सीधे उन्हीं को मिलेगा, कारपोरेट घराने वैज्ञानिक शोध को निवेश का महत्त्वपूर्ण क्षेत्र मानते हैं. फलस्वरूप अत्याधुनिक प्रयोगशालाएं स्थापित करने के लिए धन की कमी नहीं होती. नुकसान यह कि अपनी प्रयोगशालाओं में पूंजीपति उन्हीं क्षेत्रों में शोध को प्रमुखता देते हैं, जिनमें उन्हें लाभ की भरपूर संभावना हो. पिछले कुछ दशकों में संचारक्षेत्र में जितने शोध हुए हैं, उनका एक हिस्सा भी कृषि क्षेत्र में नहीं हो पाया है. बावजूद इसके ‘विज्ञान’ की मूल सैद्धांतिकी कि वह पूरी दुनिया के लिए है तथा उसके माध्यम से पूरी दुनिया या अधिकतम लोगों के अधिकतम कल्याण के कार्य किए जाने चाहिए—पर कोई फर्क नहीं पड़ा है. पंूजीपति संस्थान भी जो नए आविष्कारों के लिए पूंजी लगाते हैं, यह दावा नहीं कर सकते कि वे उस आविष्कार का केवल स्वार्थ हित उपयोग करेंगे. दूसरे शब्दों में वैज्ञानिक आविष्कारों के संपूर्ण लाभों को किसी व्यक्ति अथवा समूह तक सीमित रखना आज भी अनैतिक माना जाता है. बौद्धिक संपदा के रूप में आष्विकारक वैज्ञानिक या पूंजीपति घराना केवल लाभ पर दावेदारी कर सकता है. शोध का वास्तविक लाभ पूरे समाज को मिले, इस तरह की प्रतिबद्धता प्रत्येक वैज्ञानिक आविष्कार से जुड़ी होती है. उदाहरण के लिए मान लें कि कारपोरेट संस्थान द्वारा चलाई जा रही प्रयोगशाला में ऐसी तकनीक का आविष्कार होता है, जिससे मनुष्य के जीन में रोगों से लड़ने के लिए कुदरती प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाई जा सके. तो वह कारपोरेट संस्थान बौद्धिक संपदा कानून के तहत उस प्रौद्योगिकी द्वारा दूसरे औद्योगिक संस्थानों की कमाई के एक हिस्से पर दावा कर सकता है. लेकिन किसी भी कारण से—शेष समाज को उसके लाभों से वंचित नहीं कर सकता.
साहित्य तो वैसे भी कल्याणकारी उद्यम है. साहित्यकार उसे बिना किसी स्वार्थ भावना के अंजाम देता है. अतएव विज्ञान साहित्यकार से अपेक्षा की जाती है वह अपनी रचना को पूंजीवादी दबावों और प्रलोभनों से मुक्त रखे और विज्ञान के कल्याणकारी उपयोगों पर विचार करे. विज्ञान साहित्य का अभीष्ट लोगों के विज्ञानबोध को बढ़ाना है. केवल वैज्ञानिक उपकरणों, सिद्धांतों और संभावनाओं का विवरण दे देने अथवा उस सामग्री को सुंदर रचना में ढाल देने से रचना का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता. बल्कि यह भी देखना होता है कि उसका पाठकों पर अनुकूल प्रभाव पड़े. इसके बावजूद विज्ञान को अपना धर्म मान चुके, उसके प्रति श्रद्धावनत लेखक विज्ञान के नाम पर कुछ भी परोसने की जिद किए रहते हैं. इवान येफ्रेमोव रूस के ख्यातिनाम विज्ञान कथा लेखक रहे हैं. अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने अनेक वैज्ञानिक आविष्कारों की पूर्वकल्पना की थी. अपनी ‘अतीत की परछाइयां’ शीर्षक कहानी में उन्होंने कल्पना की थी कि भविष्य के डॉक्टरी उपकरण गोली जितने सूक्ष्म आकर के बनेंगे. रोगी के शरीर में जाकर वह गोली अपने चारों को दिखने वाले अंगों का चित्र भेजेगी. जिससे डॉक्टर रोग के वास्तविक कारण का आसानी से पता लगा सकेंगे. आज यह तकनीक होलोग्राफी के नाम से प्रचलन में है. होलोग्राफी के आविष्कारक रूसी भौतिकविज्ञानी यूरी देनिस्युक ने अपने आविष्कार के पीछे येफ्रेमोव की उपर्युक्त कहानी के प्रभाव को स्वीकारा है. येफ्रेमोव का मानना था कि जीवन दृष्टि से रहित विज्ञान वैचारिक शून्यता को बढ़ावा देगा. विज्ञान के नाम पर कुछ भी चला देने पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था—‘सारे संसार में वाद–विवाद की महामारी फैल गई है….बातें–बाते–बातें. वर्तमान के डर की बातें….भविष्य की चिंता की बातें. डर और चिंता के बीच फंसा मनुष्य आगामी पीढ़ियों की खुशहाली के बहाने रेडिएशन बढ़ा रहा है, पानी गंदा कर रहा है, जंगल और उपजाऊ मिट्टी को नष्ट कर रहा है….आज की सभ्यता के तीन आधार–स्तंभ हैं—ईर्ष्या, निरर्थक बातें और अनावश्यक वस्तुएं खरीदने की होड़….’ येफ्रेमोव की चिंता आज के प्रत्येक विज्ञान–लेखक की चिंता होनी चाहिए.
स्पष्ट है कि विज्ञान ने जहां मानवजीवन को सुख–सुविधामय बनाया है, वहीं अनेक चुनौतियां भी पैदा की हैं. उनसे निपटने का दायित्व वैज्ञानिकों, समाजविज्ञानियों के साथ–साथ विज्ञान लेखकों का भी है. विज्ञान लेखक को कल्पनाशील होना चाहिए. तभी वह जान सकता है कि भविष्य में विज्ञान क्या रूप लेगा और उसका सामाजिक प्रभाव कैसा रहेगा. इसी तथ्य को वह वैज्ञानिक कथानक के माध्यम से समाज के सामने लाता है. यही दायित्व उसको विज्ञान के साधारण अध्येता और उसके विशेषज्ञों से अलग करता है. इसके लिए आवश्यक नहीं है कि लेखक विज्ञान के क्षेत्र में पारंगत हो; और वह उसकी जटिल गुत्थियों के बारे में सबकुछ जानता हो. अच्छी विश्लेषण क्षमता और तार्किकता से संपन्न कोई भी लेखक जिसे दसवीं तक के विज्ञान की जानकारी है, विज्ञान लेखन कर सकता है. बशर्ते उसको मनुष्यता पर भरोसा हो. विज्ञान के क्षेत्र में निरंतर हो रहे आविष्कारों के बारे में जानने की उत्कंठा हो. साथ में बेहतर भविष्य का सपना भी उसकी आंखों में हो, तभी वह विज्ञान को भविष्य के वरदान के रूप में देख सकता है.
विज्ञान लेखकों की सर्जनात्मक योग्यता और सदेच्छा पर संदेह करने का हमारा कोई इरादा नहीं है. फिर भी कुछ बातें हैं, जिनकी चर्चा हम यहां अत्यावश्यक मानते हैं. ये दिखाती हैं कि विज्ञान साहित्य की जो दिशा–दशा होनी चाहिए थी, विशेषकर भारतीय समाज और यहां की परिस्थितियों में, उस ओर पर्याप्त कार्य नहीं हो पाया है. इसके लिए दोषी केवल सरकार, वैज्ञानिक अथवा शोध का प्रबंधन करने वाली संस्थाएं नहीं हैं. साहित्यकार, बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी आदि वे सभी लोग हैं जो स्वयं को किसी न किसी रूप में समाज के नेतृत्व के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं. बचाव के लिए कह सकते हैं कि पश्चिम में भी यही हो रहा है. वहां भी विज्ञान कथा और विज्ञान फिल्मों के नाम पर बेसिर–पैर की फंतासी परोसी जा रही है. लेकिन वहां परिस्थितियां भिन्न हैं. वे विकास की उस शिखर को छू चुके हैं, जहां से और ऊपर जाना शायद संभव न हो. वहां फूला–फैला वाणिज्य–तंत्र है. ऐसे तंत्रों के लिए पुस्तक महज एक उत्पाद है. इसलिए उसे पाठक तक पहुंचाने हेतु बाजार के सभी छल–छंद अपनाए जाते हैं. लेकिन विकासशील भारत की अपनी समस्याएं हैं. उनमें से अधिकांश बेलगाम पूंजीवाद में ढल चुके सामंती अवशेषों की देन हैं. इसलिए जब तक ये असंगतियां हैं, तब तक लिखे हुए शब्द और उसके रचनाकारों से अपेक्षाएं रहेंगी ही. अतएव हमें ध्यान रखना होगा कि पुस्तक उत्पाद तक सीमित न रह जाए. वह सामाजिक परिवर्तन की वाहक, उसकी वास्तविक उत्प्रेरक बने. ज्ञान–विज्ञान का लाभ देश के सभी नागरिकों तक पहुंचे. इस कार्य में विज्ञान लेखकों की भूमिका जितनी चुनौतीपूर्ण पहले थी, उससे कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण आज है. जैसी स्थिति आज है, उससे तो लगता है कि भविष्य में चुनौती लगातार बढ़ती ही जाएगी.
© ओमप्रकाश कश्यप